HAVE YOU EVER THOUGHT ? Who Are You ? A Doctor ? An Engineer ? A Businessman ? A Leader ? A Teacher ? A Husband ? A Wife ? A Son ? A Daughter are you one, or so many ? these are temporary roles of life who are you playing all these roles ? think again ...... who are you in reality ? A body ? A intellect ? A mind ? A breath ? you are interpreting the world through these mediums then who are you seeing through these mediums. THINK AGAIN & AGAIN.
Tuesday, 18 November 2014
ध्यान -आप सब के साथ अपना तजुर्बा शेयर करना चाहूँगा-
आप सब के साथ अपना तजुर्बा शेयर करना चाहूँगा-
ध्यान
एक विषय में चित्त वृत्ति को रोकना ध्यान है,जो की उत्तम संहनन वाले जीव को अंतर्मूर्हत तक हो सकता है!आर्त और रौद्र ध्यान संसार के कारण तथा धर्म और शुक्ल ध्यान मोक्ष के हेतु है,इस प्रकार ध्यान के चार भेद है! पीड़ा से उत्पन्न हुआ आर्त और क्रूरता से उत्पन्न हुआ रौद्र ध्यान है!संसार और भोगो से विरक्त होने के लिए या विरक्त होने पर उस भाव की स्थिरता के लिए जो ध्यान किया जाता है वह धर्म ध्यान है!शुक्ल ध्यान किसी भी जीव को उत्तम सहनं के अभाव मे पंचम काल में होना असंभव है! आर्त और रौद्र ध्यान दोनों ही त्याज्य है क्योकि ये नरक और तिर्यंच गति के बांध के कारण है!
अत:पंचम काल में धर्मध्यान ही ध्येय है उसके आज्ञा,अपाय,विपाक और संस्थान चार भेद है!इनकी विचारणा के निमित्त, मन को एकाग्र करना धर्म ध्यान है! धर्मध्यान के दस भेद -
अपाय विचय,उपाय विचय,विपाक विचय,विराग विचय,लोक विचय,भाव विचय,जीव विचय,आज्ञा विचय,संस्थान विचय और संसार विचय है!
संस्थान विचय ध्यान के स्वामी मुख्यत मुनि है कितु गौण रूप से असंयत सम्यग्दृष्टि और देशविरत भी है!अर्थात यथा शक्ति श्रावकों को भी धर्मध्यान का अभ्यास करना अति उत्तम है!
संस्थान विचय ध्यान के भेद- पिंडस्थ,पदस्थ,रूपस्थ और रूपातित चार है !
पिंडस्थ ध्यान में पांच धारणाएं -पार्थिवी,आग्नेयी,श्वसना,वारूणी और तत्वरूपवती हैं जिनसे संयमीमुनि और ज्ञानी कर्मों रूपी सागर को काटते हैं।
पार्थिवी धारणा-
इसके लिए आप,मध्यलोक में स्वयंभूरमण सागर पर्यन्त तिर्यग्लोक मे,कोलाहल रहित शांत क्षीरसागर का ध्यान करे! इस सागर के मध्य में सुन्दर स्वर्ण जैसी कांति वाले और जम्बूद्वीप के विस्तार के सामान,एक लाख योजन विस्तार वाले,मेरु सदृश्य,पीली कणिका के एक हज़ार पंखुड़ियों वाले कमल का ध्यान करे! इस के ऊपर,श्वेतवर्ण के सिंहासन पर आप स्वयं विराजमन हो,अपनी आत्मा के शांत स्वरुप का चिंतवन करे पुन:चितवन करे की आप आपकी आत्मा,अष्ट कर्मों के नाश करने में उद्यम शील है !
आग्नेयी धारणा-आप अपनी नाभि मे,एक सोलह ऊँचे ऊँचे पत्तों वाले कमल का चिंतवन करे। इन पत्तों पर क्रम से अ आ,इ ,ई,,उ,ऊ,ऋ,ऋृ,ऌ,ॡ, ए,ऐ,ओ,औ,अं,अः अक्षर बुद्धि की कलम से लिखे! कमल की कर्णिका पर 'ह्रीं' महामंत्र विराजमान है! पुन: ह्रदय में आठ पंखुड़ीयों का अधोमुख कमल का ध्यान करे,जिसकी पंखुड़ियों पर ज्ञानावर्णीय,दर्शनावर्णीय,वेदनीय,मोहनीय ,आयु,नाम,गोत्र और अन्तराय कर्म स्थित है!अब नाभि पर स्थित कमल की कणिका पर"ह्रीं" से अग्नि की लौ निकलती हुई ऊपर की और अग्रसर करती है और बढ़ते बढ़ते आठ पंखुड़ी वाले कमल को जला रही है! कमल को जलाते हुए अग्नि बाहर फैलते हुए,बाद में त्रिकोण अग्नि बन जाती है,जो की ज्वाला समूह जलते हुए जंगल की अग्नि के सामान है !इस बाह्य अग्नि त्रिकोण पर "रं" बीजाक्षर से व्याप्त और अंत में साथिया के चिन्ह से चिन्हित है!और ऊपर मंडल में,निर्धूम सोने की कांति वाली है!यह अग्नि मंडल नाभिस्थ,उस कमल और शरीर को भस्म करके जलने के बाद,समस्त ज्वलनशील पदार्थों के अभाव में धीरे धीरे स्वयं शांत हो जाता है!
श्वस्ना धारणा -पुन:आप सोचे की आकाश में,पर्वतों को कम्पित करने वाली महावेगशाली वायु चल रही है,जिससे शरीर आदि की भस्म इधर उधर उड़ जाती है और उसके बाद,वह वायु शांत हो जाती है!
वारूणी धारणा-पुन:आप ध्यान कीजिये की बिजली,इंद्र धनुष आदि सहित बादल चारों ऒर घनघोर वर्षा कर रहे है जिस के जल से शरीर आदि की भस्म प्रक्षालित हो रही है!
तत्त्व रुपी धारणा -
तत्पश्चात,आप चिंतवन करे,की आप सप्तधातु रहित,पूर्ण चंद्रवत निर्मल सर्वज्ञ सदृश्य हो गए है,देव,सुर,असुर आपकी पूजा कर रहे है!इस प्रकार ध्यानी मोक्ष सुख को प्राप्त करता है!अंतत:आप सिद्ध शिला पर पहुँच कर अन्य सिद्धों के बीच पहुँच कर,निराकुल हो कर आप अनंत मोक्ष सुखों का अनुभव कर रहे है!
नोट- इस ध्यान का अभ्यास ,मैं स्वयम काफी समय से कर रहा हूँ,आप यदि समस्त विकल्पों से निश्चंत होकर इस प्रकार ध्यान लगायेगें तो आपका शरीर और आत्मा के पृथक-पृथक होने का भी अनुभव कुछ समय तक अभ्यास करने के बाद होगा !
कर्म बंध की विशेषताए -
कर्म बंध की विशेषताए -
.. सारांशत:कर्मों का फल किसी की कृपा से नहीं मिलता! कर्मों को करने वाले,भोगने वाले और उन्हें संचित करने वालो को इनका फल मिलता है ! जो कर्म सिद्धांत में श्रद्धां रखते है उनके इनका फल अनुभव में आता है
१- जीव अपने परिणामों से ही कर्मो को बांधता है,भोगता है और कुछ को संचित कर अपने साथ अगले भवों की यात्रा में मोक्ष प्राप्ति तक ले जाता है
२- कर्म द्रव्य ,क्षेत्र ,काल,भाव और भाव के अनुसार अपने फल देते है जिसको बदलकर उनकी फलदान शक्ति को हीनाधिक किया जा सकता है !
३- भावों की तीव्रता और मंदता के अनुसार उनके फलदान में विशेषता आती है !
४- कर्म उदय के पश्चात फल देकर मरण को प्राप्त हो जाते है,वे आत्मा से स्वयं पृथक हो जाते है !
५- किसी समय विशेष पर बंधा कर्म अगले समय में भी फल दे सकता है और बहुत समय (कोड़ा कोडी सागर ) के बाद भी फल दे सकता है !|
६- यह आवश्यक नहीं है की कर्म अपनी स्थिति की पूर्णता के बाद ही फल दे ,स्थिति की पूर्ती से पूर्व भी हम तपश्चरण द्वारा उनकीउदीरणा उनकी स्थिति की पूर्ती से पूर्व करी जा सकती है !
७- यह आवश्यक नहीं है की कर्म अपना फल यथावत दे (जैसे बंधे वैसा ही दे) क्योकि वे आंतरिक और बाह्य शक्तियों के कारण बिना फल दिए भी निर्जरा कर सकते है !उद्धरण यदि आप प्रवैग=हाँ सुन रहे है मंदिर , उनकी निर्जरा क्षेत्र बदलने से स्वयं हो जाएगी !
८- आयु कर्म को छोड़कर ,जो जीव के आठ अपकर्ष कालों में ही बंधता है,शेष सातों कर्म जीव के प्रति समय बंधते है !
९- चारो आयु कर्म ,दर्शन मोहनीय ,चरित्र मोहनीय अपना फल स्वमुख देते है !
मोक्ष कल्याणक
सभी भाई,बहिनों,पुत्रों,पुत्रियों,पौत्रो,पौत्रियोएवं पिताजी और पत्नी मम्मीजी को सस्नेह जैजिनेंद्र देव,शुभ प्रभात।
मोक्ष कल्याणक
केवली भगवान् का समुघात् --
समुघात्- मूल शरीर को बिना छोड़े,आत्मप्रदेशों का शरीर से बहार निकलना समुद्घात है!जब केवली भगवान् की आयु अंतर्मूर्हत काल प्रमाण रह जाती है तब उनके अन्य तीन अघातिया नाम, वेदनीय,और गोत्र कर्मों की अधिक स्थिति को,आयुकर्म कीअंतर्मूर्हत प्रमाण स्थिती के बराबर करने के लिए केवली समुद्घात् होता है! इसमे केवली भगवान् के आत्मप्रदेश,शरीर को छोड़े बिना उससे बहार निकलते है!
कुछ आचार्यो के मतानुसार,जिन मुनिमाहराजो की आयु केवलज्ञान होने के समय ,६ माह से अधिक शेष रहती है,उनके समुद्घात हो भी सकता है और नही भी हो सकता है,किंतु जिनकी आयु ६ माह से कम शेष रहने पर केवलज्ञान होता है उनके नियम से समुदघात् होता है। आचार्य वीर सैन स्वामी ,धवलाकार के मतानुसार सभी केवली भगवान् अन्त मे समुद्घात करते ही है क्योकि चारो अघातिया कर्मो की स्थिति समान नही रहती है।
केवली समुदघात् की विधि-
इसमे कुछ करना नहीं पड़ता,बल्कि स्वयं अंतर्मूर्हत आयु शेष रहने पर,केवली के आत्मप्रदेश शरीर से बहार निकलते है! केवली समुदघात मे चार क्रियाये होती है।
सर्वप्रथम प्रथम समय मे आत्मा के प्रदेश,१ समय मे, डंडे की तरह सीधे निकलते हैं,यह दंड समुदघात् कहलाता है।
दूसरे समय मे,उनके आत्म प्रदेश,किवाड़ के समान १ समय मे चौड़े फैलकर निकलते है,यह कपाट समुद्घात् कहलाता है।
तीसरे समय मे,उनके आत्मप्रदेश १ समय मे वातवलय को छोड़कर, पूरे लोक मे फैल जाते है,यह प्रकर समुद्घात् कहलाता है।
चौथे समय मे,उनके आत्म प्रदेश १ समय मे ही वातवलय सहित संपूर्ण लोक मे फैल जाते है,यह लोकपूर्ण समुद्घात् कहलाता है।
लोकाकाश प्रदेश प्रमाण ही आत्मा के प्रदेश है!एक-एक लोक के प्रदेश पर आत्मा का एक एक प्रदेश स्थित हो जाता है!
पांचवे समय में,आत्मप्रदेश लोक्पूर्ण से प्रकर मे आते है,
छटे समय मे प्रकर से कपाट में ,
सातवे समय में कपट से दंड में,
और आठवे समय मे दंड से शरीर में प्रवेश करते है!
इस प्रकार समुद्घात की क्रिया ८ समय में पूर्ण होती है!
केवली समुद्घात् के द्वारा केवली तीनों अघतिया कर्मों की स्थिति अंतर्मूर्हत प्रमाण करते है
केवली समुद्घात के बाद केवली भगवान् कुछ समय विश्राम करते है,बादर काययोग के द्वारा,बादर मनोयोग फिर बादर वचनयोग,फिर बादर श्वसोच्छावास ,फिर बादर कायायोग भी समाप्त हो गया!
जब सूक्षम काययोग रह जाता है,तब तीसरा शुक्ल ध्यान,सूक्षमक्रियाप्रतिपाती १३वे गुणस्थान के अंतिम अंतर्मूर्हत में ध्याते है! उस सूक्ष्म काययोग के द्वारा,सूक्ष्ममनोयोग, सूक्ष्मवचनयोग, सूक्ष्म श्वसोच्छावास, सूक्ष्म कायोयोग समाप्त कर तीन कर्मों की स्थिति आयुकर्म के बराबर हो जाती है! सब योग समाप्त हो गए! अब वे १४ वे अयोगकेवली गुणस्थान में आ जाते है।
अब व्युपरतक्रियानिवृत्ति,चौथा शुक्ल ध्यान ध्याते है,जिसके द्वारा शेष ८५ कर्म प्रकृतियों में से ७२ का आयु के एक समय रहने पर तथा १३ का अंतिम समय में क्षय होता है!इस प्रकार १४वे गुणस्थान के अंतिम दो समय मे ८५ प्रकृतियों का सर्वथा क्षय हो जाने से केवली मोक्ष प्राप्त कर लेते है!
अब वह आत्मा सिद्धावस्था को प्राप्त कर,सीधे उर्ध्व गमन कर 1 समय मे सिद्धशिला के ऊपर लोक के अंत में तनुवातवलय मे विराजमान हो जाते है!
सिद्ध भगवान् के आठ गुण -
१-मोहनीय कर्म के क्षय से क्षायिक सम्यक्त्व,
२-ज्ञानावरण के क्षय से अनंत ज्ञान,
३-दर्शनावरण के क्षय से अनंतदर्शन,
४-अन्तराय कर्म के क्षय से अनंतवीर्य,
५-वेदनीय कर्म के क्षय से अव्यवबाधत्व,
६-आयुकर्म के क्षय से अव्गाहनात्व,
७-नामकर्म के क्षय से सूक्षम्त्व,
८-गॊत्रकर्म के क्षय से अगुरुलघुत्व गुण प्राप्त होते है !
आत्मा के शरीर से निकलने के बाद पुद्गल शरीर शेष रह जाता है,जिसके विषय में शास्त्रों में दो प्रमाण मिलते है !कुछ आचार्य के मतानुसार शरीर कपूर के सामान उड़ जाता है!अन्य आचार्य के मतानुसार, आत्मा के निकल जाने के बाद देवतागण वहां कर,उनमे से अग्नि कुमार देव अपने मुकुट मे से अग्नि प्रकट करते है,जिससे शरीर ज्वलित कर अंतिम शरीर का संस्कार किया जाता है!
सिद्धात्माओ का निवास-
कुछ लोग अपनी पूजन की थाली में अर्द्ध चंद्राकार चिन्ह बनाकर उसके मध्य,एक बिंदु लगाकर, सिद्ध भगवान की कल्पना कर लेते है किंतु वास्तव मे ऐसा नही है।ऊर्ध्व लोक मे ऊपर ५ अनुत्तर विमान है जिसके बीचोबीच सर्वार्थसिद्धि का विमान है,इसके ऊपर १२योजन तक खाली स्थान है।इस खाली स्थान के ऊपर ८ योजन मोटी,४५ लाख योजन वृताकार सिद्धशिला है।यह सिद्ध शिला अष्टम, ईष्टप्रभागार पृथ्वी के, जो कि एक राजू चौडी और ७राजू चौड़ी के बीचोबीच स्वर्णप्रभा वाली कांतियुक्त है।इस पर भगवान् विराजमान नही होते।सिद्धशिला के ऊपर दो कोस मोटा घनोदधिवातवलय है,उसके ऊपर एक कोस मोटा घनवातवलय है,उसके ऊपर लोक के अन्त तक १५७५ धनुष मोटा तनुवातवलय है।इस तनुवातवलय के अन्त को सिद्ध भगवान के सिर छूते हुए होते है।
सिद्ध आत्माए,अनंत शक्ति,होते हुए भी तनुवातवलय से ऊपर,अनंत अलोकाकाश में धर्म और अधर्म द्रव्य के अभाव के कारण नहीं जा पाती है!
सिद्धालय का आकार
सिद्धालय,५२५ धनुष मोटे ४५लाख योजन वृताकार मे अनंतानंत सिद्ध आत्माए विराजमान है!
आचार्यों ने लिखा है की,रंच मात्र स्थान भी इस सिद्धालय मे खाली नहीं है!४५ लाख योजन मनुष्यलोक से ही सिद्ध होकर आत्माए ४५ लाख योजन के सिद्ध क्षेत्र मे आत्माए विराजमान होती है जो की मनुष्य लोक से सीधे मुक्त होकर ऊपर सीधी जाती है! अब प्रश्न ऊठता है की लवण समुद्र ,कालोदधि समुद्र ,समेऱू पर्वत, भोग भूमियो के ऊपर तो सिद्ध क्षेत्र मे स्थान खाली होगा क्योकि वहां से तो आत्माए सिद्ध नहीं होती, किंतु ऐसा नहीं है! क्योकि पूर्व भव के कुछ बैरी देव होते है वे कर्म भूमि से ध्यानस्थ मुनि को बैरवश ऊठाकरसमूद्र मे फेंक देते है,ऐसे मुनिराज को समुद्र मे गिरते गिरते ही केवल ज्ञान औौर मोक्ष हो जाता है।ऐसे मुनिराज की आत्माये सिद्धलोक मे समुदर् के ऊपर विराजमान होती है।समेरू पर्वत की गुफाओ मे मुनिराज ध्यानस्थ है,कर्मो को नष्टकर ,शुक्लध्यानलगाकर सीधे ऊपर सिद्धालय मे मुक्त होकर विराजमानहो गये।
जैन दर्शन के अनुसार,सिद्ध आत्माओं ने अष्ट कर्मों का क्षय कर लिया है इसलिए उन्हें संसार मे कोई पर्याय नहीं मिलेगी अत: वे सिद्धत्व को प्राप्त करने के बाद संसार मे दुबारा नहीं आती है!सिद्धालय मे ही बिना हिले डुले अनंत सुख का अननन्त काल तक रसस्वादन करती रहेंगी!
अन्य कुछ धर्मों के अनुसार, बैकुंठ मे जी आत्माए चली गयी है, वे एक निश्चित समय के बाद पुन:संसार में आती है!
सिद्ध आत्माओं का आकार-
पद्मासनं अथवा खडगासन से मुक्त होने वाले सभी केवली की आत्मा ,उनके शरीर के अंतिम आसन के आकर, पद्मासनं अथवा खडगासन से, कुछ कम प्रमाण,(उसी पद्मासन/खडगासन के आकर )में आत्मा के प्रदेश ऊपर सिद्धालय में विराजमान रहते है!भगवान् ऋषभ देव की आत्मा के प्रदेशों की लम्बाई ५०० धनुष ,भगवान् महावीर की ७. ५ हाथ है!
अनंतानंत आत्माओं के मोक्ष जाने के बाद भी संसार आत्माओं से रिक्त नहीं होता क्योकि संसार मे अनंतानंत जीव है,आलू के एक सुई के बराबर तिनके में ,अनंतानंत जीव अनंतकाल से भरे हुए है!आचार्यों ने लिखा है की अननन्त काल में जितनी आत्माए अभी तक सिद्ध हुई है,वे आलू की नोंक मे जितने जीव है उसके अनंतवे भाग है!जब अनंतानंत काल में संसार जीवों से रिक्त नहीं हुआ तो अब क्या होगा!अनंतानंत संख्याये कभी समाप्त नहीं होती!
सिद्ध आत्माओं के सिद्धालाय में सुख-
संसारी जीवों को खाने,पीने,मौज मस्ती मे सुख की अनुभूति होती है किन्तु वास्तव में वह सुख नहीं है!
जीव में कर्मों के बंध के कारण ही आकुलता होती है जो की दुःख है और उसका समाप्त हो जाना अर्थात निराकुलता,जो की सिद्धावस्था में कर्मों के क्षय के कारण होती है,वास्तविक सुख है!
हमें यह मोक्ष कल्याण सुनने से मोक्ष की प्राप्ति के लिए भावना भानी चाहिए और उसके लिए उस दिशा में पुरुषार्थ करने का प्रयास करना चाहिए !
समवशरण
समवशरण
जिस स्थान पर तिर्यन्चों,मनुष्यों,देवों,देवांगनाओं को भगवान् के उपदेश सुनने का समान अवसर मिले,उसे समवशरण कहते है!अर्थात भगवान तीर्थंकर, के दिक्षित होने के बाद,चार घातिया कर्मों के क्षय होने से केवल ज्ञान होने पर, की धर्म सभा को समवशरण कहते है!केवल ज्ञान होते ही भगवान का शरीर पृथ्वी से ५००० धनुष =३०००० फिट ऊपर उठ जाता है! केवल ज्ञान होने की सूचना का ज्ञान ,देवों/इन्द्रों को घंटों की आवाज़ शंखनाद,सिंह नाद आदि से मिल जाती है तथा अपने अवधिज्ञान से इंद्र,पता लगा लेते है की किस स्थान पर भगवान् को केवल ज्ञान हुआ है !इंद्र अपने स्थान पर खड़े होकर सात कदम आगे बढ़ कर भगवान् को नमोस्तु कर,कुबेर को समवशरण की रचना का आदेश देते है,जिसके अनुपालनार्थ कुबेर केवलज्ञान स्थल पर पहुंचकर समवशरण की रचना करते है!
समवशरण रचना -जिस स्थान पर भगवान् पृथ्वी से ऊपर उठते है ,उसी स्थान पर नीचे की ऒर एक टीले के आकर की रचना और उसके समतल पर सात भूमियों के बाद अष्टम भूमि श्रीमंड़प की रचना करते है जिसमे वृताकार आकृति १२ कोठो मे विभक्त होती है पहले कोठे में मुनि गन,११ वे कोठे मे मनुष्य ,१२ वे कोठे में सैनी पशु बैठते है!इन १२ कोठों के बीच मे ,तीन पीठ एक के ऊपर दूसरी ,दूसरी के ऊपर तीसरी और उसके ऊपर गंधकुटी होती है! उसके ऊपर एक रत्नों से मंडित सिंहासन होता है,उसके ऊपर एक कमल होता है,जिस से चार अंगुल ऊपर अन्तरिक्ष में पद्मासन में तीर्थंकर भगवान् विराजमान होते है!जहाँ भगवान् विराजमान होते है वहां अष्ट प्रातिहार्य होते है,१० केवल ज्ञान के अतिशय होते है,तथा देवकृत १४ विशेषताए और होती है!
नीचे से ऊपर ३०००० फिट पर पहुचने के लिए २०००० सीडियां चारों दिशाओं मे होती है,इन्हें आधुनिक एस्केलेटर के सामान कल्पना कर सकते है,जिसकी प्रथम सीडी पर पैर रखते ही बच्चे,बूढ़े,जवान सभी पल झपकते ही ऊपर समवशरण में पहुँच जाते है! वहां पहुंचते ही चारों दिशाओं मे चार मानस स्तम्भ दिखते है जिन्हें देखकर आगुन्तक का मान गलित हो जाता है,उसका श्रद्धानं भी ठीक हो जाता है! इसका तात्पर्य यह कदापि नहीं है की समवशरण मे सिर्फ सम्यग्दृष्टि ही प्रवेश करते है,या सभी सम्यग्दृष्टि हो जाते है, वरन अधिकांशत:सम्यग्दृष्टि प्रवेश करते है!समवशरण तीनों लोकों मे दर्शनीय स्थान होते है !इन्द्रों के महल और सभाये भी इनके समक्ष फीकी होती है !
समवशरण तीर्थंकर केवलियों के ही बनते है,सामान्य केवलियों के नहीं बनते!सामान्य केवलियों के भी शरीर ५००० धनुष ऊपर उठ जाते है किन्तु उनकी धर्म सभा के बीच में गंधकुटी की रचना होती है! भगवान् अन्तरिक्ष मे सिंहासन पर चार अंगुल ऊपर,विराजमान होते है! यह अंतर तीर्थंकर,अर्थात तीर्थ का प्रवर्तन करने वाले भगवान् होने के कारण यह विशेषता होती है !सामान्य केवली जैसे भगवान् बाहुबली जी,भगवान् भरत , भगवन रामचंद्र जी,इनके समवशरण नहीं होते मात्र गंध कुटी होती है! (पदम् पुराण में राम चन्द्र जी के समवशरण की रचना का वर्णन आया है सही तो केवली ही बता पायेंगे)! इसमे से निरंतर सुगंध निकलने के कारण इसे गंधकुटी कहते है!
भगवान के उपदेश सुनने का अधिकार सैनी पशुओं को,मनुष्यों को,और देवों को है क्योकि नारकी यहाँ आ नहीं सकते!कुछ लोगों की धारणा है ,और त्रियोपण्णत्ति में भी लिखा है की अभव्य और मिथ्यादृष्टि जीवों का समवशरण मे प्रवेश नहीं होता!किन्तु अन्य आचार्यों और हरिवंश पुराण के राचियेता ने लिखा है की मिथ्या दृष्टि जीवों का समवशरण मे प्रवेश होता है!महापुराण और उत्तरपुराण में लिखा है कि अभव्य,मिथ्यादृष्टि भी समवशरण मे जा कर भगवान् का उपदेश सुनते है! इस पर हमें टिपण्णी करना उचित नहीं है !किन्तु यदि भगवान् की दिव्यध्वनि सुनने का अधिकार मिथ्यादृष्टि को नहीं होगा तो यह बात कैसे घटित होगी की उनकी दिव्यध्वनि सुनकर असंख्यात जीवों को सम्यगदर्शन हो जाता है! अत:उत्तरपुराण /महापुराण का वक्तव्य अधिक सही प्रतीत होता है !तदानुसार,हर प्रकार के जीव को ध्वनि सुनने का अधिकार है चाहे वे उसे स्वीकार करे या नहीं करे!
भगवन की दिव्य ध्वनि के विषय मे भिन्न-भिन्न शास्त्रों मे तीन प्रकार के प्रमाण मिलते है कुछ शास्त्रों मे लिखा है दिव्य ध्वनि दिन में ६-६ घड़ी चार बार खिरती ,कुछ मे लिखा है ६-६ घड़ी दिन मे तीन बार खिरती है,कुछ मे लिखा है ९-९ घड़ी तीन बार होती है!घड़ी=२४ मिनट !सुबह ६ बजे,दोपहर १२ बजे सांय ६ बजे और रात्रि १२ बजे! समवशरण में रात्रि होती नहीं क्योकि भगवान् के शरीर से सैकडों सूर्यों से अधिक प्रकाश निकलता है!इसलिए समवशरण मे दिन -रात्रि का भेद ही नहीं होता!सदा प्रकाश ही प्रकाश रहता है!यहाँ रात्रि का प्रयोग भारत क्षेत्र के आर्य खंड की अपेक्षा से कहा है !
समवशरण मे जीवों मे राग द्वेष बुद्धि नहीं होती जैसे गाय और शेर एक साथ बैठते है! वहां बैठने वालों को भूख,प्यास,नींद,थकान आदि किसी की कोई बाधा नहीं होती है ! वे एक दूसरे से टकराते नहीं !सर्दी गर्मीकी बाधा नहीं होती! समवशरण मे कोई विकेलेंद्रिय जीव बाधा नहीं डालता क्योकि वहां वे होते ही नहीं !यहां प्रवेश करते ही समस्त क्रोध,मान,माया,लोभ आदि से मुक्ति हो जाती है! भगवान् को औषधऋद्धि प्राप्त है इसलिए कोई रोगी नहीं रहता!समवशरण मे विराजमान सभी जीवों को अपने सात भव ,३ भूत ३ भविष्यत् और वर्तमान स्पष्ट दिखते है!
भगवान् का विहार -जब एक स्थान का समय पूर्ण हो जाता है इंद्र, अवधि ज्ञान द्वारा जान लेता है की अगले स्थान के लिए विहार का समय आ गया !तब वह समवशरण मे घोषणा करते है कि अब दिव्यध्वनि नहीं होगी भगवान् का विहार होगा!समवशरण मे उपस्थित जीव या तो विहार में शामिल हो जाते है या अपने २ घर चले जाते है! भगवान् जो पद्मासन मे विराजमान थे ,वही खड़े हो जाते है !इंद्र अवधि ज्ञान से जानकार कि भगवान् को किस ऒर (जिस ऒर के जीवों के पुन्य होता है को जानकार) जायेंगे,आकाश मे मार्ग की रचना करते है! भगवान् का विहार इस मार्ग पर होता है! विहार जलूस के रूप मे होता है ,जिसमे सबसे आगे धर्म चक्र ,१००० आड़े वाला,दिव्यप्रकाश सहित चलता है!उसके पीछे करोड़ों देवताओं के बाजे होते है,उनके पीछे भगवान् होते है, उनके पीछे मुनिगन और श्रावक गन चलते है!भगवान के विहार के समय देव भगवान् के चरणों के नीचे १५-१५ स्वर्ण कमलों की पंक्तिया बनाते जाते है कुल २२५ कमल होते है भगवान् मध्यस्थ कमल के चार अंगुल ऊपर कदम/डग रखते हुए चलते है!कदम आगे रखते ही एक पंक्ति कमलों की पीछे से हटकर आगे बन जाती है !भगवान् के इच्छा के अभाव के कारण जहाँ के लोगों के पुन्य/भाग्य का उदय होता है उस ऒर विहार होता है क्योकि भगवान् को किसी से भी किसी प्रकार का राग द्वेष नहीं होता!
सारे समवशरण फोल्डिंग होते है !ये पहले और दूसरे स्वर्ग मे जैसे के तैसे एक विमान और दूसरे विमान के बीच असंख्यात योजन भूमि में विराजमान रहते है! इनकी रचना भगवान के शरीर की अवगाहना के अनुसार होती है!यह समवशरण मायामयी नहीं है !यदि मायामयी माने जाये तो मानस्तंभ पर विराजमान प्रतिमाये वन्दनीय नहीं हो पायेगी!देव बहुत शक्ति शाली होते है वे एक स्थान से उठाकर समवशरण को जिस स्थान पर सभा होनी होती है वहां स्थानातरित कर देते है!
समव शरण मे विराजमान गणधर-जो भगवान की निरअक्षरी दिव्यध्वनि का एक एक शब्द समझ सकते है,उसे झेलने में समर्थशील होते है ,वे गंधर देव, मुनिवरों में विशेष होते है! ये अनेक होते है!आदिनाथ भगवान् के ८४ ,महावीर भगवान् के मात्र ११ थे! इनके ६३ ऋद्धियाँ,ज्ञान ऋद्धि के अतिरिक्त,होती है! ये गंधर बनने से केवलज्ञान होने तक,कभी भी जीवन में आहार नहीं लेते,क्योकि निरंतर भगवान् के समवशरण मे विराजमान रहते है जहाँ भूख,प्यास आदि लगते ही नहीं है !धवलाकार ने इन्हें सर्वकाल उपवासी कहा है! ये दिप्तिऋद्धि धारी होते है,जिसके फलस्वरूप ये वर्षों तक भी निआहार रहते हुए भी, इनके शरीर की काँति कम नहीं होती है!
हमें समाधी पूर्वक ही मरण करना चाहिए !जब अपनी समाधी हो या किसी की समाधी हो ,उस समय सभी ऐसी भावना भाना की हमारा अगला जन्म विदेह क्षेत्र में हो ,वह हमेशा ही समवशरण में तीर्थंकर विराजमान होते है !सीमंधर स्वामी के समवशरण मे जाए,मुनि बने,कर्मों कोकात कर मोक्ष प्राप्त करे!
Tuesday, 11 November 2014
jain sms
1.Ichhaka matlab aafat-
Duniyak kante dur karvanek badle chappal=
Prabhuk naamk pehenlo
Ye ichha dur karneka shrestha upay he
2.Dursaro ke Malik bananewala bada nahi kahalata.
Bada to vah hota hai jo khud Atma ka malik ban jata hai,
Khud Apne Aap par kabij ho jata hai
3.Light se andhkar darta he,
Fight se klesh badhta he,
Jo everyday PRABHU ka naam rat ta he,
Uske dilse durbhav hat ta he.
4.Hamesha Prem Ki Bhasha Boliye Ise
Behre Bhi Sun Sakte Hai,
Aur Gunge Bhi Samaj Sakte Hai.
5.Agar Aap Ek Pencil Ban Ke
Kisi Ka Sukh Nahi Likh Sakte Ho,
To Koshish Karo ki Ek Achcha Rubber Ban Ke
Dusaro Ke Dukh Mita Sako.
6.AnyaKa Sabkuch Dekhte Ho
Aur Buraiya Dil Kholk Karte Ho,
Ye Hanikark Pravruti He
Qki Isse Tum BuraiyoKa Bhandar Bharte Ho.
Buraiyose Savdhan
7.Sahaj Bhav Se Diya Gaya Ek Mutthi CHAVAL,
Maan Prapta Karne Ke Liye Diye Gaye
Ek Mutthi SUVARNA Se Jyada Shrestha He.
8.Jaha Tark He Waha Narak He,
Jaha Samarpan He Waha Swarg He,
Qki Samarpanse Samvad Hota He &
Tarkse Hamesha Vivad Hota He.
9.Har Manzil Ke Raste Hote He,
Aur Har Raste Par Mushkile.
Mann Me Agar Umang He,
To Vishwas Rakhiye Jeet Apki He.
10.NAMO Ka Mahima,Manav Ko Vivek Mila He,
Vo B Punyaka Pruthukaran Karne,
Paapki Upeksha & Punyaki Anumodna,
Ye Prathmik Vairag Ki Sadhna He...
11.Manav Jivan Dhanwaan Banne Kliye Nahi,
Lekin Sacha Insaan Banke Mahaan Banne Kliye
Aur Mahaan Banke Antme BHAGWAN Banne Kliye Mila He..
12.JAIN?
J=JaiJinendra Jiski Zubanka Pehla Shabd Ho
A=Arihantoko JoRoz Pranam Kre
I=Is Jivanme JoHinsa N Kre
N=Navkar Jiska Jivan Mantra Ho
13.SAFALTA kliye ichashakti chaiye
Aur ichashakti kliye utsah,
Utsahse kiya hua har karya
SAFALTA ke shikhar pe le jata he
14.Jinko SADHAN ke bina nahi chalta vo SANSARI,
Jinko SADHANA ke bina nahi chalta vo SANYAMI.
15.PRABHU VEER KI VANI
Na hinsa kar
Na war kar
Na bure kam ko Swikar kar
Na ache kam se inkar kar..
16.MAN KO PRATHNA ME LAGAIYE...........
PRATHNA KA FAL HE PREM.........AUR
PREM KA FAL HE PARMATMA...............
17.RAAG Se Insan Shetan Ban Jata He,
TYAG Se Insan Maham Ban Jata He,
VIRAG Se Insan BHAGWAN Ban Jata He,
Sambhav Se Har Insan Sukh Pata He...
18.AajKal
PranamKo BhulaK By-By Chala He
SantoshKo BhulaK Hi-Hi Chala He
BhojanKo BhulaK Chay-Chay Chala He
Bolna Yaad Raha Nahi Ti-Ti Chala He
19.He Manav!
Tere Gharme Sofaset,
Doordarshan K Liye T.V Set,
DikhaveK Liye Fridge Aur Dinner Set He
Gharme Sabkuch Set He
Firb Man To Upset He
20.Aap BE-SAHARO Ka Sahara Baniye..........
Aapko SAHARA Apne Aap Mil Jayenga.....
21.Sharir Chahe "VIKALANG" Hi Kyu N Ho,,,
Par Apne Man Ko Kabhi Bhi "VIKALANG"Mat Hone Dijiye..........!
22.Ugta Suraj Hame Kehta He
Utho,Jago,Aage Badho Kabtak Soye Rahoge,
Badi Mushkilse Manav Jivan Mila He
Ise Satmanan-Chintan-Sadkaranme Lagado.
23.ManavNe GharMe Fridge,Fan,Fiyat,
FlatKa Nice Furniture Sabkuch Basaya
Aur Firb Sabse Fight Karta He
Par Yaad Rakhna Tu Yahase Getout Hone Aya
24.Keval Dharma Kriyao Karnese Koi
Dharmatma Nahi Ban Sakta,Lekin
Agar KriyaKe Sath Bhav B Ho
To Jarur Dharmatma Ban Sakta He
25.AhankarKo Tyage Bina
KshamaK Marg Pe Jana&Chalna
Prayah Ashakya He
Qki Ahankar KshamaKe MargPe
Sabse Bada Avrodhak Tatva He
26.He MANAV !
Tu Anami Aaya Hai Aur Nanami Yahase Janewala Hai,
Isliye Apne Naam Ka Moh Kahi Bhi Mat Rakhana.
27.BHAGWAN Kehte He Ki
Duniya Ka Jitna Kam Dekhoge
Utna Bachoge Aur
Duniya Ka Jitna Jyada Dekhoge
Utna Rooage
28.Jivanme UpsargoKo Sehen Kark
BHAGWAN Ne Ek Siddhant Samjaya He Ki
He Manav!
Tumhare Kiye Hue Karma Tumhe Hi Bhugatna Hoga
29.Aajkal Janwaro Ke Sath Dosti Karnewala Manav
Apne Ghar Ke Logo Ke Sath Dushman Banke Jivan Bita Raha He
Hai Na Kalyug?
30.Bhagwan MAHAVIR Ne Chandkoshiye Ko Jungleme
Jake Kshama Dekar Taardiya
Jab Hum Gharme JakarB Kshama Nahi Rakhte
Kya Hum Mahavirk Aradhak He?
31.Is Duniyame Se Koi Haske Viday Leta He
To Koi Rokar Viday Leta He
Lekin Kimmat To Usike Jivanki He
Jo Sayami(Sushravak) Banke Viday Leta He.
32.Agar Aap Chahte Ho Ki Log Apki Baat Sune To
Bhasha Nahi Aacharan,
Dikhava Nahi Daan,
Prastav Nahi Palan Karo
To Asar Hoga & Apki Baat Manege
33.Bhagya Pe Bharosa
Aur Bhagwan Pe Purna Shradha Rakhe
Uski Safalta Nischit Hoti He
Qki NaseebK Bina Kisiko Kuch Milta Nahi
Aur MiljayeTo Tikta Nahi
34.Antar Chahta Ho Sabki Khushali
Ankh BanJaye Premki Pyali
Dusrok Dukh Dekhkar Dil Roye
Uske Ghar Roz Diwali
35.Manushya Ki Baatome Ha Me Ha Milana
To Bahut LogoKo Aata He,
Lekin PRABHU Ki Baatome Ha Me Ha Milana
KisiKo Hi Aata Hoga.
36.Seva me bus
Par se hat
Payega Anand ka ras
Yahi he Adhyatma ka kas
Etna karo bas.....
37.Motor Cycle se 5 hath DUR
Ghode se 10 hath DUR
Sarp se 100 hath DUR
lekin
DURJAN se Hajaro hath DUR rahe
38.Karni hai hamko
GIRIRAJ KI YATRA
todni hai
JANAMO JANAM KI YATRA
Kharch dikhta hai,kamai nahi !
Fees dikhti hai, padhai nahi !
Dag dikhta hai,dhulai nahi !
BURAI DIKHTI HAI,BHALAI NAHI
42.
Klesh ho vaisa NA bole
Pap ho vais NA kamaye
Dena ho vaisa kharcha NA kare
Man bigde vaisa NA soche
Jivan bigde vaisa aacharan NA kare.
43.
Sadabahar Khushik Malik Banna Ho To
Kisik Prati Nafrat N Kare Aur
Kisik Upar Bahut Jaldi Naraz Mat Hona
Sabk Prati Hamesha Prem & Sneh Rakhe
44.
Paise ki race me paap dhone mile N mile.
fir is jiwan me punya kamane mile N mile.
karlo DHARMA dil se Kya pata kal jain dharm mile N mile
45.
Jivan ko sukhi banane ka upay.
1.Hazar bar suno,
2.So bar vichar karo,
3.Sirf ek bar bolo.
Is tarah karne se kabhi bhi zagda nahi hoga
46.
Karni He"DADA"Se 1Gujarish,
"DADA"Aapki Bhakti K Siva
Koi Bandagi Na Mile,
Har Janam Me Mile To,
JAIN DEV-GURU-DHARM,
Ya Fir Zindagi Na Mile..
47.
Furniturek Bina Gharki
Shobha Nahi
Vaise Dharm K
Bina Jivanki Shobha Nahi
48.
Prabhu Ki Upasna K Bina
Hamari Vasna Ka Ant Hona
Mushkil He...........
49.
"MAA" Ki Agar Kimat Samaj Me Aajaye
To Hamara Ye Bhav Sudhar Jaye Aur
Agar "PARAMATMA"Ki Kimat Samaj Me
Aajaye To Hamare Bhavo-Bhav
Sudhar Jaye..//
50.
Jaise Malai Binaka Dudh
Bekar He Vaise Bhalai Binaka Jivan Bekar He
Qki Khudki Bhalai Karna Prakruti He,
ParDusroki Bhalai Karna Sanskruti He.
51.
Samyam k bina Tap nahi hota,
Ekagrata k bina Jaap Nahi hota,
AntarAtma ki Aawaz suno Bhavyo,
Moah ko Jite bina Koi Mahavir Nahi Hota.
52.
Karank Bina KrodhN Kare Uska Nam Pashu
Lekin Bina Karanb Apna Power Dikhata Rahe
Uska Nam Manav Qki Krodhse Jivanka
Karun Ant He
Krodh N Kare...
53.
Words start with
a
b
c
Numbers start with
1
2
3
Music start with.
sa
re
ga
But let ur day start with.
My,DEV GURU AUR DHARMA
S
M
S
54.
Vishayo Ka aaveg vartmankal Par adhin He
Jab
Kashaya ka aaveg Bhutkal Smruti Par aadharit Hai.
55.Jivan me SAFAL hone k liye 3 factory zarur lagao
dimaag me ice zubaan me sugar aur dil me prem factory.
Phir LIFE hogi satisfactory......
56.
Sansar Ki Baaton Se Man Asthir Banta He,
Lekin Santo Ki Baaton Se Man Sthir Banta He,
Isiliye Roz Thoda Samay Santsamagam KLiye Jarur Nikalo
57.
Kya Hoga?
Ye Nasibpe Nirbar He
Lekin Kya Karna?
Ye Manavpe Nirbar He
Qki Kismatk Kaunse
Panepe KyaLikha He
Kise Pata?
Harpalka Sadupyog Karo.
58.
JIVANME SAFALTA PRAPT
KARNE K 3 SUTRA:
1.Kisika B Kabhi Tiraskar Mat Karo
2.Apni Jimmedadiyo Ko Samjo
3.Bhutkal ka Kabhi Paschatap Mat Karna.
59.
Atma Mobile
Dharm ka Contact
Jinvani ka Msg
Punya ko Inbox
Pap ka outbox
Kashay ka Delete
Xama ka Sent
Daya ko Save
Dan ko Grup
Atma ko Vibrate
60.
Jivanme Punyaki Kamai
Kam Hogi To Chalega
Lekin PAAP Ki Kamai
Jyada Mat Karna
Qki Zeher K Result Se
B Jyada Khatarnak
PAAP Ka Result Hota He.
mang ke
SANYAM YATRA
leni hai
SHIVSHUKH KI YATRA
hamari
6GAU YATRA
39.Jaise mehandi dusare k Haathme Rakhane wale k Haath
Automatic Lal ho jate hai
Vaise Dusre ka Bhala karne wale ka
Bhi Automatic bhala hota he
40.jis pap ke piche paschatyap ho
vo paap bada hone per bhi chota he
but jis paap ke piche paschyatap na ho
vo chota hone per bhi bahot bada he.
Test Me Zindgi ho jaye WEST...
to fir kahaa karoge REST...
Is Char Gati me manushya bhav hai...
all the BEST...!
62.
Phulka Ayush5-7Ghantoka
Lekin,Sugand-Sondarya-Komaltak
Karan Jivan Safal
Jabk Manavka Ayush60-70Salka
Par Durgun-Dosh-Kathortak
Karan Jivan?
63.Sab Jivok Prati Mamta,Sneh & Manavtak
Bina Jivan Kabhib Mahan Nahi Banta.
64.
Tensionse Mukt Rehnek
Liye Sada ATTENTION Me Raho
65.
Sukh chahate ho to Ratme khana nahi;
Shanti chahte ho to Dinme sona nahi,
Sanman chahte ho to VYarth bolna nahi;
Mukti chahate Ho to DHARM..?
66.
GautamswamiKi Labdhi
Jivanko Sukhi Banati He
Lekin GautamswamiKa Vinay
Jivko Sidh Banata He
Choice Aapke
Hathme He
Kya Chahiye
Labdhi/Vinay?
67.
Jivanme Jitni Sadgi Hogi
Vicharome Utni Gehrai Hogi
68.
Kisi Manav Ko Chahiye Note
Kisi Manav Ko Chahiye Vote
Na Milne Par Nirash-Hatash
Ho Jata He
Ye Nahi Sochta Ki?
Mere Hi Punya Ki He Khot.
69.
Hask Tum Dusrko Hasana
Lekin Aapk Jivanpe
Koi Hase Aisa Na Karna
70.
Puri Tarahse Jane Aur Soche Bina Kisib Baatka
Kabhib Faisla Mat Karo Kyunki
Kaun Sacha Isk Badleme Kya Sacha
Usko Hamesha Jyada Mahatva Do..
71.
Sneh,Seva Aur Samtame
Khudka Samarpan Matlab
Zindagime Sache Anandki
Shruwat,Aur Isse Agar Aap
Chahoto Puri Duniyako
Apna Bana Sakte Ho....
72.
Punya k udayme jo Punya ka uparjan kar leta hai,
vahi Buddhiman hai,
Punya ka bij surakshit Rakhana samyak vivek hai.
Jivanme Paap nahi Jaap
73.
Sugandh Hi N Ho Phulme To
Pathar Aur Phulme Jaise Koi Farak Nahi
Vaise Hi
Prem,Karuna Aur Sneh Hi N HoTo
Jivanme Aur Mrutyume Koi Farak Nahi.
74.
MAN Jeevan ka kendra bindu hai.
Jis prakaar shareer ki niyamit safai karna avashyak hai,
MAN ki bhi niyamit safai(PRABHU BHAKTI) avashyak hai.
75.
Kisik Ghar Par Patre DaloTo Thik He
Lekin Pathar Mat Dalna..
76.
Man K Malik Banoge To Duniyaki
Gulami Nahi Karni Padegi
Isliye Jo B Kam Karo
Pura Man Lagakar Karo....
Safalta Aur Anand Apke
Hathome Hi He.
77.
Prabhu Duniya K Collector
To He
Sath Hi
CORRECTOR bhi he...
78.
Paani niche ki taraf kitni tezi se girta hai
kintu unche le jane me kitna sangharsh karna parta hai!
PAAP to sahaj ho jata hai kintu PUNYA???
79.
Is Duniya Me Jyadatar Log
AHAM Ke Karan Marte He
Aur JabTak
AHAM Ko Jitoge Nahi
Tab Tak
ARHAM (PARMATAMA)
Tak Pahuchana Mumkin Nahi......
80.
Dosho Ka Collection Nahi
Correction K Liye
MANAVBHAV Mila He
81.
Jis Krodh Ka Janam
Dushmani Me Se Hota He
Wah Hamesha Katil Hota He
Isliye Khane k Dieting Se
Jyada KRODH Aadi Kashayo ka
Dieting Zaruri He.
82.
Jivan Ko Bananewale Kam He
Lekin Bigadnewale Bahut He
Isiliye Sangat Hamesha
Achhe Ki Karna,
Kharab Sangat Hamesha
Khatarnak Sabit Hoti He..
83.
Aatma Ko Janne Ke Liye Savyam Ko Jano
Jisne savyam ko jan liya usne Parmatma ko jan liya....!
84.
Pani Jab Tivra ForceK Sath
Patharse Takrata HeTo
PatharK Tukde Kar Deta He
Vaise Ahankar Jab Ahankarse
Takrata HeTo
ManavK Tukde Kar Deta He
85.
Perome Kaata Lekar
Anandpurvak Chalna
POSSIBLE He.Lekin
Dilme Kisike Prati
Dwesh Jivant Rakhkar
Aradhaname Safalta Prapt
Karna IMPOSSIBLE He
86.
ATMIK SHAANTI ki khoj me insaan ne
rupaye,vastra,haweli,gaadi,nau kar,sab jama kar liya,
poora jeevan beet gaya,ant samay aa gaya par SHANTI?
87.
GURU Ki Agna Aur Ankush K Bina
Jivan Khatreme He
Isiliye,Jivanme
GURUKi Agna Aur Ashirwad
Bahut Hi Zaruri He
88.
Mangne Ke Bina Na Mile DAAN
Kismat Ke Bina Na Mile MAAN
Kheti Ke Bina Na Mile DHAAN
Mahenat Ke Bina Na Mile KHAAN
GURU Ke Bina Na Mile GYAAN
89.
NadiMe Nirmalta N Ho To
Nadi Ki Kimat Kya?
FalMe Madhurta N Ho To
FalKi Kimat Kya?
JivanMe DHARMA N Ho To
Jivan Ki Kimat Kya?
90.
Yaad rakhiye! Kathinaiya aur museebate apki hitchintak hai.
Vo apko jeevan me prakharta se shakti ka sadupyog karna sikhati hai.
91.
Acchi Zindagi Jine k Do Tarike ..
1) Jo 'PASAND' Hai Use 'HASSIL' Karna Sikh Lo.
Ya Phir
2) Jo 'HASSIL' Hai Use 'PASAND' Karna Sikh Lo..!
92.
Dusaro Ka Sukh Dekh Na Shake Vo Sansari
Dusaro Ka Dukh Dekh Na Shake Vo Sanyami.
Sansari DUKH Ka Anta Aur Sanyami Dukh Ka Karan Dhundhate He..
93.
Duniya me sab jivo ko abhaydan karnewale sadhu hote hai
aur duniya me sab jivo ko abhaydan karne ki bhavnabhane wale shravak hote hai..
94.
Khel khel mai jivan bit jayega,
nahi malum padega kab sans band ho jayega,
dhyan dharlo prabhuka
to jivan savar jayega.
95.
Pani Pani Hi Rahega,Kisi Bhi Patra Me Ho..
Jahar Jahar Hi Rahega, Kisi Bhi Matra Me Ho..
MAA MAA Hi Rahegi, Kisi Bhi Desh ya Halat Me Ho..
96.
"VYAVASTHA"(SAGVAD)Nahi Hai vo Vedna Garib ki Hai,
"SHANTI" Nahi Hai vo Vedna Shrimant Ki Hai,
"SADGUN" Nahi Hai vo Vedna Dharmi Ki Hai..
97.
Sarpa(snake)Me Maut(Mrityu) ka Darshan Hota Hai
Agni Me Dah Ka Darshan Hota Hai
vaise PAP Me Dukh Ka Darshan Karo.
98.
so-so suraj uge
chanda uge hajar...
chanda suraj ho bhale
Guru bin ghor Andhar...
99.
Jamin Nahi Hoti To Aakash Kaha Hota
Shradhdha Nahi Hoti To Vishvas Kaha Hota
Dil N Hota to Shvas Kaha Hota
GURU Na Hote To Gyan Kaha Hota.
100.
Dhan Ke upar Rag Vah MURCHA
Vastu ke upar Rag Vah MAMTA
Bhojan Ka Rag Vah LALSA
Par-stri Ke upar Rag Vah VASNA
Prabhu ke upar Rag Vah UPASNA
101.
Bhukh Ke Bad Bhojan Achcha Lagta He
Thakan Ke Bad Nind Achchi Lagti He
Thand Ke Bad Garmi Achchi Lagti He
PapBhiru Ko Dharma Achcha Lagta He
102.
4 Prakar ke dhyan
1-Aartya Dhyan se Tiryanch gati
2-Rodra Dhyan se Narak
3-Dharm Dhyan se Manushya gati
4-Shukla Dhyan se Moksha Milta he
103.
Bhulne Jaisa:
Kisi Par Kiya Hua Upakar
Kabhi nahi Bhulne Jaisa:
Kisi Ne Apne Par Kiya Upakar.
104.
Rog Se Raag Jyada Bhayanak He
Dard Se Dosh Adhik Katil He
Dard 1 Bhav Tak Pida Deta He
Lekin DOSHO to Bhav-Bhav Tak Pida Ka Sarjan Karta Hai.
105.
Jarurat to Bhikhari ki bhi puri ho jati hai
Magar echhaye to crorepati ki bhi adhuri Rahti hai
Jain Aagam Me "ECHHA NIRODH" Ko TAP Kaha hai
106.
Pratham Mithyatvaka Vaman
Kashayoka Shaman
Indriyoka Daman
Prabhuka Bhajan
Swame Magan
Atmame Raman Tab hoga Mokshame Gaman
107.
Na Gumane K liye car Chahiye,
Na Gale K liye Haar Chahiye
Mahavir ne Bahut Badi Baat Kahi hai:
Jivan vikas K liye Pavitra Vichar Chahiye.
108.
Sansari jab sansar se jate he to Vasiyat dekar jate he,
Sant jab sansar se jate he to Nasihat dekar jate he.
Bhogi aur Yogi me yahi Antar hai!
109.
Sansar Sahaj lagta hai
Moksha Ashahaj lagta hai
Ye hi to Agyan hai
Sansar aur Agyan ke bich me JIV Barbad ho raha hai..
110
Bachpan me MA achchhi lagti hai
javani me Bibi achchi lagti hai
Budhape me Pota achchha lagta hai
Mrutyu samaya me Bhagvan achchhe lagte hai.
111.
Kayar ek baar jeeta aur bar-bar marta hai, par
ATMAVISHVAASI ek bar janma leta aur ek hi baar marta hai !
112.
Manushya ka Bhavishya uske VICHAARO par nirbhar hai
Jaise vichar honge.vaise hi karm aur vaisi hi paristhitita!
Isliye SADVICHAR grahan Kare
113.
Khoyi huyi daulat
bhuli huyi vidya
aur khoya hua swasthya., phir laut sakte hain,
par khoya hua samay kabhi nahi laut sakta.
114.
Log kahte hai ki Aaj Chamtkar nahi hote
lekin Aajbhi chamtkar hote hai;
bas hamara Namskar sahi nahi hota;
Namskar sahi hoga to Chamtkar hoga.
115.
Pet bigde aesa bhojan nai,
man bigde aesa socho nai,
jivan bigde aesa aachran nai karo,
klesh ho aesa bolo mat,
maran bigde aesa paap nai karo.
116.
Ghamandi ke liye kahi koi Ishwar nahi,
irshalu ka koi padosi nahi aur krodhi ka koi mitra nahi!
117.
Jyot Jalkar buz Jayegi,
Khili Hue Kali Murza Jayegi,
Hai JIV! Tu Dharma ka marma Samazle Nahi to estarah
Ek din Aankhe band ho jayegi......
118.
Ek din sagar ne nadi se pucha-
"kab tak milti rahogi mere khare jal se"
nadi ne kaha-"tab tak. jab tak, tuz me mithas na aa jaye
".GUNANURAG"
119.
Sukh chahate ho to Ratme khana nahi;
Shanti chahte ho to Dinme sona nahi,
Sanman chahte ho to VYarth bolna nahi;
Mukti chahate Ho to DHARM..?
120.
Rag shayad kisi ek ko chahta hai,
Prem shayad anek ko chahta hai,
Parantu karuna to anant ko chahti hai to karunamay bano jivdaya karo.....
121.
MAA ki jyoti se noor milta He
sabke dilo ko shurur milta hai,jo bh karat hai MAA-
MOTHER ki seva SE kuch na kuch jarur milta hai
122.
Aap Jivanme Itni Unchaiya Avashya Chule Ki
Log Apke Mata-Pitase Puche Ki Apne Ase Kya Punya Kiye
Jo Itni Achi Santan Hui
123.
Duniyadari me jo Lin wo
Prabhubhakti Din.
Prabhu ka jo Honga Das
Vo Kabhi Na Banenga UDAS.
"PARMATMABHAKTI MOX ME JANE KA SHORTCUT HAI"
124.
Maa Ki ek dua Zindagi Bana Degi
Khud Royegi Magar Tum ko Hasa Degi
Kabhi BhoolKar Bhi Maa Ko N RULANA
Ek Choti Si Baddua pura ARSH hila Degi
125.
Chahe aap kitne bhi chalak ban jao lekin aapko 2 chije kabhi nahi chodti..
1-MRUTYU
2-AAP KE KHUD KE PAAP KARM
126.
Jab tu chota tha to maa-bap tere pas the....
ab tera farz hai ki jab maa-bap antim sans le tab tu unke pas rahena!
"MATRU DEVO BHAV"
127.
Har pal me kushi deti he "MAA"
Lakh bure ho hume apni zindgi
me jivan deti he MAA
BHAGWAN KYA H?
BHAGWAN Ko bhi to janm deti he MAA
128.
Sabhi hanste hue milte hai
Jab taK char paise hai
N puchhenge koi garibi me
ki AAP kaise hai?
is liye garibo ko DAN dena n bhule
"MANAVSEVA"
129.
Har nami me kuch kami to rahengi
Ankhe thodi juki to rahengi
Zindgi ko aap kitna b saawariye
Bin GURUDEV Ke koi na koi kami to rahengi..!
130.
Sapne tute jate he.rut jate he
Zindgi m kaise-kaise mod ate he
magar sath ho jb BHAGVAN Ka to
Rah k kante b FUL ban jate he
131.
SITA Ki bat par RAM Ki yad aayengi
RADHA Ki bat par SHYAM Ki yad aayengi
Jab ATMASADHANA Ki bat chalegi Tab
BHAGVAN MAHAVIR KI yad Ayengi
132.
GANIT Ka vistar 0 pe aadharit he
SAMBANDH Ka vistar vani pe aadharit he
JIVAN Ka vistar prem pe aadharit he
MOKSHA DHARM Pe aadharit he!
133.
VANI esi Bolo Jo Har Ek Ko KHUSH Kar De.
Esa Na Bolo Jis Se Kisi Ka DIL Dukhe...
JITE HUE MA-BAP CHUP KARE
our BAD ME PHOTE KO DHUP KARE?
134.
PHOOL Banke kya jina..
Ek din murja Jaoge To Dafnaa Diye Jaoge
Jina He To PATTHAR Ban Ke Jeo..
Kabhi Murti Bhi Ban Gye To BHAGVAN Keh Laoge
135.
HINSA MOUT DETI HE
AHINSA MOKSHA DETI HE
HINSA LAAT DETI HE
AHINSA MAHELAT DETI HE
HINSA MATAM PEDA KARTI HE
AHINSA MAHATMA PEDA KARTI HE
136.
MAHAVIR.SAYS
TU karta woh he jo TU chahta he
Par hota he woh jo ME chahta hoon
TU woh kar jo ME chahta hoon
PHIR woh honga jo TU CHAHTA...
137.
"PAROPKAR PUNYAY,PAPAY PARIPIDANAM"
Paropakar Punya Ke Liye Hota hai!
Dusaro Ko Dukh(Pida)Dena.. PAAP Ke liye Hota hai!
138.
Le lo Jinnvani ka Injection
Nahi Honga Karmo Ka Reaction
Le lo GURUDEV Ka Suggestion
Mil Jayenga MOKSHA Ka Reservation.
139.
JIVAN SAFALTA KA MARG:
1)Aankh me vikar nahi
2)Man me dhikkar nahi
3)Antar me anaadar nahi
4)Jibh me tiraskar nahi.
140.
JAINS means
J-joshilay
A-attractive
I-intelligent
N-naughty
S-smart people
hum jains ki to baat hi alag hai. JAI JINENDRA
41.
SUNDAY means-
S=Samayik karo,
U=Upvas karo,
N=Ninda mat karo,
D=Daya karo,
A=Ahinsa apnao,
Y=Yad karo sirf bhagvan ko.
142.
TakdirK khelse nirash Na hote,
Jindgime kabhi udas na hote,
Hathoki lakiro pe yakin N karna,
Kyoki takdirTO unki b hoti H,jinke hath nahi hote.
143.
DHANVANKE PAS KYA KYA HAI YAH DUNIYA SOCHATI HAI&
DHANVAN USKE PAS KYA KYA NAHI HAI YAH SOCHATA HAI?
Lobh pap ka bap hai.
144.
jo dusro ko jane vo vigyan
jo khud ko jane vo gyani
jo dusro ko jite vo balvan
jo khud ko jite vo MAHAVIR hai
145.
Ladne se koi VEER nai hota
Tyag kare jo wo PEER nai hota
sadiyo ki tapsya ka FAL hai ye,warna aise hi koi"JAIN"nai hota
146.
Jo mere bhagya me nahi he
wo duniya ki koi bhi shakti muje de nahi sakti
aur mere bhagya me he
use duniya ki koi bhi shakti chin nahi sakti.
147.
KRODH kitni bar aaya ye mat socho kintu
KRODH kyu aaya ye socho!
KRODH ko dur karo.BHAVPAR taro.
KRODH se priti,sneh,prem ka nash hota he
148.
Jaha nahi pahunch sake RAVI
vaha pahunche KAVI
jaha nahi pahunch sake KAVI
vaha pahunche ANUBHAVI
our MOKSHA me pahunche SANYAMI
149.
Jo PAISA De vo sheth
Jo VIDYA De vo shikshak
JO SANSKAR De vo mata-pita KINTU
Jo GUN De vo GURU!
150.
"SAGAVAD" Nahi vo vedna GARIB Ki hai
"SHANTI" Nahi vo vedna SHREEMANT ki hai
"SADGUN" Nahi vo vedna DHARMI ki hai..
151.
DusareKa SUKH dekh N shake vo SANSARI
DusaroKa DUKH dekh N shake vo SANYAMI
SADHANKe bina N chale vo SANSARI
SADHANAKe binaN Chale vo SANYMI
152.
"Dukh me sumiran sab kare Sukh me na kare koy
jo sukh me sumiran kare to dukh kahe ko hoy"
153.
*Manavta Ki Seva Karnewale Ke Hath
Utne Hi Dhanya Hote He,
Jitne Parmatama Ki Prathna
Karnewale Ke Hoth......!
154.
1=SUKHI hone ka marg
AAVAK(INCAM) Ka vadhara nahi lekin
jarurato ko kam karna!
2=NITI SE DHARM KARNA HO TO KABHI "RAJNITI" MAT KARO!
155.
Neend apni bhulakar sulaya humko
Aasu apne girakar hasaya humko
Dard kabhi na dena us khuda ki tasveer ko
Zamana kehta he MAA-BAAP jinko.
156.
PRACHIN VIGYAN VIKAS KI SHODH ME THA,
JAB AAJKA VIGYAN VINASH KI SHODH ME HAI!
157.
NA RAKO AASH KISIKE PAS TO
KAUN KAR SAKTA HAI NIRASH
158.
PATHTHARME PRATIMA CHHUPI HAI,
ATMA ME PARMATMATMA
159.
KAM KIYA HUA DHARM HAMKO JYADA LAGTA HAI
OUR JYADA KAMAYE HUE PAISE HAME KAM LAGTE HAI
160.
BHUL Kare vo "NADAN" Hai
BHUL Karke roye vo "MAHAN" Hai
BHUL Hi na kare vo "BHAGVAN" Lekin Hai
BHUL Karke jo hanse vo "SHETAN"Hai
161.
BECHEN BANAYE VO "VASNA"
BECHEN KO BHI CHEN ME LAYE VO "UPASNA"
162.
PAP KARNA VO PAP HAI!
MAGAR PAP KI "PRASHANSA" KARNA VO MAHAPAP HAI!
163.
DHARM SUNO BHALE HI DO PAL
LEKIN USKO SAMBHALO HARPAL!
164.
KEHNE SE HALKA HOTA HAI
LEKIN SAHNE SE PIGAL JATA HAI
USKA NAAM DUKH!
165.
BHUTKAL Se Prerna Lekar
VARTAMAN Ka CHINTAN Karna Chahiye!
166.
Apke PAS Kisi Ki NINDA Karne wala,
Kisi Ke PAS aapki NINDA Karne wala Hoga
167.
DIL KO HANMESHA SAAF KARO
DUNIYA KO HANMESA MAAF KARO
JIVAN SAFAL BAN JAYENGA!
168.
Jis tarah kida kapdo ko kutar dalta hai,
Usi tarah IRSHYA manav ko...
169.
Jibh se Sada Shubh aur Madhur Bolo,
Vaani se Ghar ko Swarg Banao "
170.
Jo chhodta jayega vah uncha uthata jayega,
Jo Jodta jayega vah dubta jayega.
171.
DHARM Ke Bina sukh nahi hota.Agar
jo hota to Sab SUKHI kyu nahi Hote !
172.
Aaradhana ka Aavas, Karmo ka Sarvanash,
Mukti Puri par karna hai Nivas
Kyunki aaya hai Chaturmas
173.
Yaha ka yahi rahega,
Ayega na kucch sathme,
Sharir pada rahega bistar me,
Jab atma jayega chhodke.
174.
A KHUDA TERI ADALAT ME MERI JAMANAT RAKHNA
ITNA HI CHAHTA HU KE SARE JAMANEKO KHUSH RAKHNA.
175.
PAP KAP PRAVESH PAHELE
MAN.VACHAN KE BAD KAYAME.
AUR DHARM PAHLE KAYA.VACHAN KE
BAD MAN ME AATA HE.
176.
BURAI KITNI BHI KARO
MAGAR.............
JIT HAMESHA SACHAI KI HOTI HAI
177.
Bura Dekhane Mai Chala,
Bura Na Mila Koi,
Jo Dil Khoja Aapna,
To Mujh Se Bura Na Koi.
178.
TAK MILE FIR BHI DHARM N KARE=INKAR
TAK MILE OUR DHARM KARLE=SVIKAR
TAK N MILE TO KHADI KARE=SATKAR
179.
BHUKH SE KHANA PRAKRUTHI
CHHIN KE KHANA VIKRUTI
DEKE KHANA SANSKRUTI..
180.
KOI AAPKA DIL DUKHAYE TO BURA MAT MANNA
JIS PED PAR JYADA MITHTHE FAL HOTE H
USKO HI PATHAR LAGTE HE
181.
Dudha bigde to Din bigde
Aachar bigde to Sal bigde
Shrimati bigde to Jindgi bigde.
182.
Har jalte DIPAK ke piche andhera hota hai,
har MUSIBAT ke piche sukh ka dera hota hai.
183.
JAB TAK JINDGI RAHENGI..... FURSAT NA HONGI KAM SE
KUCH SAMAY AISA NIKALO PYAR KARO BHAGVAN SE.
184.
JIVAN ME SUKHI RAHNE KE 3 NUSKE
1- KAM KHAO
2- NAM JAO
3- GAM JAO
185.
APNE BHAVISHYA KO LIGHT.
BRIGHT&WHITE BANANE KE LIYE
DHARM HI RIGHT HAI
186.
VO BADAL BEKAR HAI JISME BARSAT NAHI,
VO DIL BEKAR HAI JISME PRABHU KI YAD NAHI.
187.
Jindagime Keval Paisa Mat Kamate Rahana;
Sathame PUNYA bhi Kamao;
Taki Jindagi k baad bhi JINDA Raho
188.
Jiske Pas maraneka samay nahi vobhi samay aanepar marata hai,
Isliye DHARM kal kare so abhi kar.
189.
Swadhyay Atmakalyanka sadhan hai,
Swadhyay param tap hai
Swadhyay se shradha se gyan se charitra.
190.
KYA SATH LAYE KYA SATH LE JAYENGE
KARM KO HI SATH LAYE KARM KO HI SATH LE JAYENGE.
191.
SUNDAR AC FLAT HAI
SONE KA TV SET HAI
KAPDE BHI APTUDET HAI
FIR BHI MANAV UPSET HAI
192.
PURUSH Ka gussa aur MAHILA Ki jidd
JINDGI(LIFE) KO NARAK Bana Deti hai
193.
TAN=SHARIR KO SAMBHAL SAKE VO SANSARI
MAN KO SAMBHAL SAKE VO SANYAMI.
194.
Sansar na sarv samandh ma dekhay badhe Swarth,
Mmatra ek "MAA" na samandhe hoy paramarth
195.
100 DAWA KO NAKAM KARDE 1 DUWA
AUR
100 DUWA KO NAKAM KARDE KARDE SIRF 1 BADDUVA.
196.
KRODH SE GHATE CHATURAI
PAP SE GHATE LAXMI
CHINTA SE GHATE SHARIR
KAH BAYE DAS KABIR.
197.
DHANVANKE PAS KYA KYA HAI YAH DUNIYA SOCHATI HAI&
DHANVAN USKE PAS KYA KYA NAHI HAI YAH SOCHATA HAI?
198.
LAKSHMI CHANCHAL HAI MAAN NA KAR,
JINDGI CHAR DINKI HAI GUMAN NA KAR
INSAN SE NAHI BHAGVAN SE TO DAR
199.
KARM JAISE KAROGE FAL BHI VAISE MILEGE,
NIM BONE VALO KO AAM KAISE MILEGE.
200.
HE PRABHU , SADGUNO KA BHOJAN TU MUZE BAD ME DENA,
PAHALE MUZME USKI BHUKH TO JAGRAT KAR DE
201.
TUNE JAB DHARTI PAR PAHLA SWAS LIYA MATA=PITA TERE PAS THE
UNKE ANTIM SWAS TAK TU BI SATH RAHNA
202.
PARWAT Se bhi jyada khatarnak hota hai
kisi ke NAZAR me se girna.
203.
DHIRAJ MAT KHOVO
HATASHA TUME SHOBHA NAHI DETI
APNE AATMA-VISHWASH KO BATHAVO TUME SAFLATA MILEGI.
204.
Pehla VICHAR Pachi UCHCHAR
To thase sukhi SANSAR
205.
JUB TUM AAYE IS DUNIYAME JAG HASE TUM ROY
AISI KARNI KAR CHALO TUM HASE JAG ROY
206.
"Ratantrayee-Sandesh"
Liya Hya Upkar Kabhi Bhulo Nahi,
Aur Kiya Hua Upkar Kabhi Yaad Mat Karo
207.
NAMRATA- wah fuge jesi H use koi duba nahi sakta
AHANKAR -EGO paththar jesa H use koi tira nahi sakta
208.
Ashawadi HAAR pahnakar aata hai
Nirashawadi HAAR milakar aata hai.
209.
SAFALTA VO MAHAL H OUR NAMRATA VO DVAR H YEDI
SAFALTA KA MAHAL PANA H TO NAMRATA KE DVAR SE JANA H
210.
Hasna kathin rona aasan hota hai
yu nathukarao kisi ko tum
aadmi khud BHAGVAN hota hai.
211.
Jiske pas Ummid hai,
wah lakh bar harkar bhi nahi Harta .
212.
DUSRE KE DOSHO ME VYAST RAHENA
VO HAMARA SABSE BADA DOSHA HAI!
213.
UPAR JISKA ANT NAHI USE ASMA KAHTE HAI.
JAHAME JISKA ANT NAHI USE MA KAHTE HAI.
214.
Aashawadi prattek aapatti me mouka dekhata hai,
Nirashawadi har ek mouke me aapati dekhta hai.
215.
parmatma KO manna bahut aasan hai magar
parmatma KA manna bahut mushkil hai.
216.
par ki prasansha aur swayam ki ninda karna
mahanta ka pratik hai
217.
MANAV Apne dukh se dukhi nahi hota jitna..
Dusro ke SUKH Se dukhi hota hai
218.
Zindagi mein khoob kamaye hire - khoob kamaye moti!
Par kya kare yaro KAFAN ko jeb nahi hoti !
219.
Sant ek mahant hai,
unki sangat se sabhi avguno ka ant hai.
220.
Ashubh mein Jamna nahi,
Shubh mein atakna nahi,
& Swabhaav se Bhatakna nahi
221.
Sabse mahan wo hai jo apne dushaman ko bhi dost bana leta hai
."SHAVI JIV KARU SHASAN RASI"
222.
SHANTI KE liye 3 factory lagao
1Brain me ice factory
2zuban me sugar factory
3Heart me love factory
223.
Jivan me do hi vyakti ASAFAL Hote Hai
1-Jo sochate hai par karte nahi
2-Jo Kahte hai par karte nahi
224.
BHAVNA ME BHAV NA HO TO BHAVNA BEKAR HAI
OR BHAVNA ME BHAV HO TO BEDA TERA PAR HAI!
225.
pankh me agar udan hai to aasman tum se dur nahi
shardhdha agar jan hai to bhagavan tumsee dur nahi
226.
GULAB aur KANTE hardam sath me hi hote hai
yadi GULAB pana hai to KANTE ko NIBHANA hoga
227.
Ahinsa K naro se Saja MHAVIR ka Darbar
Pulakit Hua Sansar
JAI MAHAVIR Kehane se khusia Aye apke dwar
228.
JAIN
J-Jeo&jine do
A-Arihant ko namskar
I-Is jivan me hinsa n karna
N-Navakar ka jaap karna
229.
Sap me mot ka darshan hota hai
Agni me Dah ka darshan hota hai ese
PAP me DUKH ka darshan karo
230.
Mrutyu ko sudhaarne k liye jivan ko badal do
aur jivan ko badalne k liye swabhaav ko sudhaar dO
231.
Dudh[milk] me Chaval Milaye Use KHIR Kahte Hai
GURU Jo Thapka[dante] De Use TAKDIR Kahte Hai
232.
Na Gati Hai Na Gungunati Hai..
Mot Jab Aati Hai Chupake Se Chali Aati Hai
233.
taraju ke bina mal tulega nahi.
chavi ke bina tala khulenga nahi dil ki dival par likh do.
GURU KE BIN ATMA PE LAGA PAP DHULENGA NAHI
234.
Is duniya me jaanane yogya anek vastue hain,
par unme sabse mahatvapurn hai-"APNE AAP KO JAANANA".
235.
Mushkilo me b muskurana mat bhule
kisi b karya ko karne se pehle muskurana
us karya ke shri ganesh karne ka acha tarika he.
236.
Apni kamai me se do roti garibo ke liye nikaliye,
Unki duaae apko apki kamai se jyada barkat karegi.
237.
Pav me kanta rakhkar hask chalna shayad mumkin he,
Lekin kisik prati dilme dwesh rakhkar
Aradhna me safalta prapt karna shayad namumkin he..
238.
Hame jomila he bhagyase jyada mila He
Yadi apke pavme jute nai He to afsos mat kijiye
Duniyame kai logo ke pas to pavhi nai He..
239.SANTO KI ICHCHA-SHAKTI AUR SHASHAKO KI KRIYA-SHAKTI
YADI EK HO JAYE TO DESH KI SAKAL BADAL JAYE.
240.
Prathna ke liye jude hue dono hatho se...
Kisi dukhiyare ki madad ke liye badha hua... ek hath
Jyada Dhanyawad ke patra he.
241.
Kisib ghadime MIND CONTROL hona chahiye,
Usme samajdarika petrol dalna chahiye
Aag vicharome n lage isliye
PRABHU AANAka firebrigade chahiye.
242.
Aajka manvi duniyako samajnek badle apne manko samajle
to jivanki sabhi samasyaoka hal hojaye.
243.
Aap Jivanme Itni Uchaiya Avashy ChuleKi Log Apk Mata-Pitase
PucheKi Apne Ase Kya Punya Kiye JoItni Achi Santan Hui
244.
*Manavta Ki Seva Karnewale Ke Hath
Utne Hi Dhanya Hote He,
Jitne Parmatama Ki Prathna
Karnewale Ke Hoth......!
245.
bhavo ki nirmalta ka nam jaindharam.
jaise jaise vayakti k bhavo me nirmalta ati hai vah jain ban jata hai.
246.
Itihas kehta he bhutkalme sukh tha,
Vigyan kehta he bhavishyame sukh milega,
Dharma kehta he sukh vartmanme hi he
247.
Ninda Aur Nidra In Dono Pe Jo
Vijay Prapt Kar Sake
Wahi Mahan Ban Sakta He
248.
MannKo Jalaye Vese Nimit Jab B Mile
Tab Prabhu & DharmK SharanMe Chale Jaiye
Wo Apke MannKo TharneKa Kam Karega
249.
*Dukhipe Daya Karna Mahanta He
Lekin Doshipe Daya Karna Badi Mahanta He
250.
Sadhnak Bina Sidhi Bekar He &
Sidhik Bina Prasidhi Bekar He
251.
Hum Tanpe Aur Sharirpe TanikB Mel Pasand Nai Karte,
Lekin Sharir HoYa Vastr Mel RahaTo Chal Jayega,
Par MAN Mela Hua To Jivan Barbad Ho Jayega
252.
Hath Ki RekhaYe Tedi He,
To Nirash Mat Hoiye,
Apna Najriya Behtar Banaiye,
HastRekha Svath Behtar Hone Lagegi.
253.
DUA ki Daulat Sabse Badakar Hai,
Phir Chahe,vo Kisi Ki Bhi Seva Karke Kamai Gai Ho...!
254.
Har Insan Sare Sansarko Madad Nai De Sakta
Par Hum Agar 10Logoko B Sukun De Sake To
Anewale Kal Kliye Itna Kafi He
255.
Is duniya me jaanane yogya anek vastue hain,
par unme sabse mahatvapurn hai-"APNE AAP KO JAANANA".
256.
Mushkilo me b muskurana mat bhule
kisi b karya ko karne se pehle muskurana
us karya ke shri ganesh karne ka tarika he
257.
Apni kamai me se do roti garibo ke liye nikaliye,
Unki duaae apko apki kamai se jyada barkat karegi.
258.
Pav me kanta rakhkar hask chalna shayad mumkin he,
Lekin kisik prati dilme dwesh rakhkar
Aradhna me safalta prapt karna shayad namumkin he..
Tuesday, 2 September 2014
ज्योतिष्क देव के भेद -
ज्योतिष्का:सूर्या चद्रमसौ ग्रह नक्षत्र प्रकीर्णक तारकाश्च: !!१२!!
संधिविच्छेद :-ज्योतिष्का:+सूर्या +चद्रमसौ ग्रह +नक्षत्र +प्रकीर्णक +तारका:+च
शब्दार्थ -ज्योतिष्का:-ज्योतिष्क देव सूर्या ,चद्रमा, ग्रह,नक्षत्र,प्रकीर्णक -फैले हुए,तारका:-तारे +च -और
अर्थ -पांच ज्योतिष्क देव सूर्य,चन्द्रमा,गृह,नक्षत्र और फैले हुए तारे है !
विशेषार्थ-
१-पांचों ज्योतिष्क देव ज्योति स्वभाव अर्थात प्रकाशमान होते है इसीलिए इन्हे ज्योतिष्क कहा है !
२-सूत्र में,सूर्य-प्रतीन्द्र और चद्रमा-इन्द्र का ,गृह नक्षत्र और तारों से अधिक प्रभावशाली दर्शाने के उद्देश्य से साथ रखा है!ये पांचो चमकते सूर्य,चन्द्र,गृह ,नक्षत्र ,तारे आदि ज्योतिष्क देवों के असंख्यात विमान है !
३-सभी ज्योतिष्क देव मध्य लोक में चित्रा पृथिवी से ७९० महायोजन ऊपर तारे ,८००महा योजन पर सूर्य,८८० महायोजन पर चन्द्रमा,८८४ योजन पर नक्षत्र ,८८८ महायोजन बुध,८९१ महायोजन पर शुक्र,८९४ महा योजन पर गुरु ,८९७ महायोजन पर मंगल और ९०० महायोजन पर शनि के विमान है !अर्थात ११० महा योजन आकाश में ज्योतिष्क देवों के विमान सुदर्शन समेरू पर्वत की ११२१ योजन दूर रहते हुए परिक्रमा करते है!ज्योतिष्क देव लोकांत तक असंख्यात द्वीप समुद्र तक है !
४- प्रत्येक विमान में संख्यात ज्योतिष्क देव रहते है ,प्रत्येक विमान में एक एक अकृत्रिम जिनालय है इस अपेक्षा से असंख्यात जिंलाय मध्यलोक में है !
५- गृह /नक्षत्र चमकते हुए ज्योतिष्क देवों के विमान के नाम है इसलिए यह हमारे को सुखी दुखी नहीं कर सकते !सुख दुःख हमें अपने क्रमानुसार साता वेदनीय अथवा असाता वेदनीय कर्म के उदय से मिलते है !ज्योतिष्क विद्या में प्रवीण ज्योतिष इन ज्योतिष्क विमान के गमन के आधार पर हमारा भविष्य तो अवश्य बता सकते है किन्तु उनका यह कहना की गृह /नक्षत्र हमारे सुख /दुःख के कारण है सर्वथा गलत है !
६-आजकल मंदिरों में अनेक स्थानो पर शनिवार को मुनिसुव्रत भगवान की पूजा -शनिग्रह के प्रकोप को समाप्त करने के लिए ,अथवा पार्श्वनाथ पूजा संकटों को दूर करने के लिए,अथवा शांतिनाथ भगवान की पूजा शांति प्रदान करने के लिए करी जाने लगी है ;जो की सर्वथा मिथ्यात्व के बंध का कारण है क्योकि आगमानुसार सिद्धालय में विराजमान सभी सिद्ध,शक्ति की अपेक्षा बिलकुल बराबर है जो कार्य एक भगवान कर सकते है वह सभी कर सकते है ,दूसरी बात सिद्ध भगवान वीतरागी,सिद्धालय में अनंत काल के लिए अनंत चतुष्क के साथ स्व आत्मा में मग्न है वे किसी के सुख /दुःख में कुछ नही कर सकते है और नहीं करते है!किसी भी भगवान की पूजादि करने से अशुभ कर्मों का आस्रव कम और शुभ आस्रव अधिक होता है,असातावेदनीय कर्म का संक्रमण भी साता वेदनीय कर्म में भी होता है ,इस कारण सांसारिक सुखो की अनुभूति अवश्य होती है!
६-भवनत्रिक देवों में सबसे कम भवनवासी देव है ,उनसे अधिक व्यन्तर और सर्वाधिक ज्योतिष्क देव है !
७-जम्बूद्वीप में २ सूर्य २ चन्द्रमा,लवण समुद्र में ४ सूर्य ४ चन्द्रमा,धातकी खंड में १२ सूर्य १२ चन्द्रमा ,कालोदधि समुद्र में ४२ सूर्य ४२ चन्द्र,पुष्करार्ध द्वीप में ७२ सूर्य और ७२ चन्द्रमा है इस प्रकार ढाई द्वीप में १३२सॊर्य और १३२चन्द्रमा है ! बाह्य पुष्करार्ध द्वीप में इतने ही ज्योतिष्क देव है !पुष्करवर समुद्र में इससे चौगनी संख्या है ! उसे आगे प्रत्येक द्वीप समुद्र में लोकांत तक दुगने दुगने सूर्य और चन्द्रमा है !
८-चन्द्रमा का परिवार में १ प्रतीन्द्र सूर्य ८८ गृह २८ नक्षत्र ,६६९७५ कोडकोडी तारे है!
९-तारे के टूटने का वर्णन -पद्मपुराण के रचियता महान आचार्य रविसैन जी के अनुसार पदमपुराण में कहते है की तारे अकृत्रिम अनादिकालीन है वे टूट नहीं सकते,उनकी संख्या हीनाधिक नहीं हो सकती !वे कहते है जब हनुमान जी यात्रा कर लौट रहे थे तो पर्वत पर हुए लेटे हुए वे आकाश से टूटता हुआ एक तारा देखते है !उन्होंने इस घटना का स्पष्टीकरण देते हुए कहा है कि"सम्भवत: कोई देव विचरण कर रहे हो जिनका चमकता हुआ वैक्रयिक शरीर,आयु पूर्ण होने के कारण,बिखर गया हो"जो की चमकीला होने के कारण तारे के टूटना जैसा लगता हो !
Sunday, 17 August 2014
1) भरत ऐरावत क्षेत्र की तरह महाविदेह क्षेत्र में एक के बाद एक ऐसे चौबीस तीर्थंकरों की व्यवस्था नहीं है। महाविदेह क्षेत्र की पुण्यवानी अनंतानंत और अद्भुत है. वहां सदाकाल बीस तीर्थंकर विचरते रहते हैं, उनके नाम भी हमेशा एक सरीखे ही रहते हैं; इसलिए उन्हें जिनका कभी भी वियोग न हो, ऐसे विहरमान बीस तीर्थंकर भी कहते हैं।
2) महाविदेह क्षेत्र में बीस से कभी भी कम तीर्थंकर नहीं होते हैं। अतः उन्हें जयवंता जगदीश भी कहते हैं क्योकि वे सभी साक्षात् परमात्म स्वरुप में विद्यमान रहते हैं।
3) इस तरह महाविदेह क्षेत्र में तीर्थंकरों का कभी भी अभाव नहीं होता है।
4) महाविदेह क्षेत्र का समय सदाकाल एक सा ही रहता है और वहां सदैव चतुर्थ काल के प्रारम्भ काल के समान समय रहता है। 5) महाविदेह क्षेत्र के पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण इस तरह चार विभाग करने से पाँचों महाविदेहों में 5×4=20 विभाग हुए। एक विभाग में एक; ऐसे बीस तीर्थंकर सदा विचरते हैं.
6) ये बीस विहरमान तीर्थंकर सदाकाल से धर्म-दीप को प्रदीप्त कर रहे हैं और करते रहेंगे।
7) महाविदेह क्षेत्र के इन बीसों का जन्म एक साथ सत्रहवें तीर्थंकर श्री कुंथुनाथ जी के निर्वाण के बाद महाविदेह क्षेत्र में हुआ था।
8) बीसवें तीर्थंकर श्री मुनिसुव्रत स्वामी के निर्वाण के पश्चात महाविदेह क्षेत्र के इन सभी तीर्थंकरों ने एक साथ दीक्षा ली। 9) बीसों विहरमान एक हज़ार वर्ष तक छद्मस्थ अवस्था में रहते हैं और इन्हें एक ही समय में केवलज्ञान, केवल दर्शन की प्राप्ति होती है।
10) भविष्यकाल की चौबीसी के सातवें तीर्थंकर श्री उदयप्रभस्वामी के निर्वाण के पश्चात बीसों विहरमान एक ही समय में मोक्ष पधारेंगे।
11) इसी समय महाविदेह क्षेत्र में दूसरे बीस विहरमान तीर्थंकर पद को प्राप्त होंगे।
12) यह अटल नियम है कि बीस विहरमान तीर्थंकर एक साथ जन्म लेते हैं, एक साथ दीक्षित होते हैं, एक साथ केवलज्ञान को प्राप्त होते हैं.
13) यह भी नियम है कि जब वर्तमान के बीस विहरमान तीर्थंकर दीक्षित होते हैं तब भावी बीस विहरमान तीर्थंकर जन्म लेते हैं। 14) जब वर्तमान के बीस विहरमान तीर्थंकर केवल्य प्राप्त होते हैं तब भावी बीस विहरमान तीर्थंकर दीक्षित होते हैं।
15) वर्तमान के जब बीस विहरमान तीर्थंकर निर्वाण प्राप्त करते हैं तब भावी बीस विहरमान तीर्थंकर केवलज्ञान को प्राप्त कर तीर्थंकर पद पर आसीन हो जाते हैं और उसी समय अन्य स्थानों में बीस विहरमान तीर्थंकरों का जन्म होता है।
16) प्रत्येक विहरमान तीर्थंकर के 84-84 गणधर होते हैं।
17) प्रत्येक विहरमान तीर्थंकर के साथ दस-दस लाख केवलज्ञानी परमात्मा रहते हैं
18) प्रत्येक विहरमान तीर्थंकर के साथ एक-एक अरब मुनिराज और इतनी ही साध्वियाँ होती हैं। 19) बीसों विहरमान तीर्थंकरों के संघ में कुल मिलाकर दो करोड़ केवलज्ञानी, दो हज़ार करोड़ मुनिराज और दो हज़ार करोड़ साध्वियाँ होती हैं।
20) महाविदेह क्षेत्र में सदाकाल रहने वाले विहरमान बीस तीर्थंकरों के एक सरीखे नाम इस तरह हैं -
1. श्री सीमंधर स्वामी
2. श्री युगमंदर स्वामी
3. श्री बाहु स्वामी
4. श्री सुबाहु स्वामी
5. श्री संजातक स्वामी 6. श्री स्वयंप्रभ स्वामी
7. श्री ऋषभानन स्वामी
8. श्री अनन्तवीर्य स्वामी
9. श्री सूरप्रभ स्वामी
10. श्री विशालकीर्ति स्वामी
11. श्री व्रजधर स्वामी
12. श्री चन्द्रानन स्वामी
13. श्री भद्रबाहु स्वामी
14. श्री भुजंगम स्वामी
15. श्री ईश्वर स्वामी
16. श्री नेमिप्रभ स्वामी
17. श्री वीरसेन स्वामी
18. श्री महाभद्र स्वामी
19. श्री देवयश स्वामी
20. श्री अजितवीर्य स्वामी
आर्यखण्ड
मध्यलोक में असंख्यात द्वीप और असंख्यात समुद्र हैं। उन सब के मध्य सर्वप्रथम द्वीप का नाम जम्बूद्वीप है। यह एक लाख योजन (४० करोड़ मील) विस्तार वाला, थाली के समान गोल है। इस द्वीप के बीचों-बीच एक लाख योजन ऊँचा सुमेरू पर्वत है जिसका भूमि पर विस्तार दस हजार योजन है। इस जम्बूद्वीप में पूर्व-पश्चिम लम्बे, दक्षिण दिशा से लेकर हिमवान्, महाहिमवान्, निषध, नील, रुक्मी और शिखरी ऐसे छह कुलपर्वत हैं। इनसे विभाजित भरत, हैमवत, हरि, विदेह, रम्यक, हैरण्यवत और ऐरावत ये सात क्षेत्र हैं।
भरत क्षेत्र का विस्तार जम्बूद्वीप के १९०वाँ भाग अर्थात् (१०००००´१९० ५२६ ६/१९) पाँच सौ छब्बीस सही छह बटे उन्नीस योजन प्रमाण है। इससे आगे हिमवान् पर्वत का विस्तार भरत क्षेत्र से दूना है। आगे-आगे के क्षेत्र और पर्वत विदेह क्षेत्र तक दूने-दूने होते हुए पुन: आगे आधे-आधे होते गये हैं। अंतिम ऐरावत क्षेत्र, भरत क्षेत्र के समान प्रमाण वाला है। भरत क्षेत्र के मध्य में विजयार्ध पर्वत है। यह ५० योजन (२००००० मील) चौड़ा और २५ योजन (१००००० मील) ऊँचा है। यह दोनों कोणों से लवण समुद्र को स्पर्श कर रहा है, रजतमयी है, इसमें तीन कटनी हैं, अन्तिम कटनी पर कूट और जिनमंदिर हैं। हिमवान् आदि छहों पर्वतों पर क्रम से पद्म, महापद्म, तििंगच्छ, केसरी, महापुण्डरीक और पुण्डरीक ये छह सरोवर हैं। इन सरोवरों से गंगा-सिन्धु, रोहित-रोहितास्या, हरित-हरिकांता, सीता-सीतोदा, नारी-नरकांता, सुवर्णकूला-रुप्यकूला और रक्ता-रक्तोदा ये चौदह नदियाँ निकलती हैं। प्रथम और अन्तिम सरोवर से तीन-तीन एवं अन्य सरोवरों से दो-दो नदियाँ निकलती हैं। प्रत्येक क्षेत्र में दो-दो नदियाँ बहती हैं।
प्रत्येक सरोवर में एक-एक पृथ्वीकायिक कमल हैं। जिन पर क्रम से श्री, ह्री, धृति, कीर्ति, बुद्धि और लक्ष्मी देवियाँ निवास करती हैं। इनमें देवियों के परिवार कमल भी हैं जो कि मुख्य कमल से आधे प्रमाण वाले हैं। भरत क्षेत्र में गंगा-सिन्धु नदी और विजयार्ध पर्वत के निमित्त से छह खण्ड हो जाते हैं। ऐसे ही ऐरावत क्षेत्र में विजयार्ध पर्वत तथा रक्ता-रक्तोदा नदियों के निमित्त से छह खण्ड हो जाते हैं।
इस जम्बूद्वीप में भरत और ऐरावत क्षेत्र में षट्काल परिवर्तन होता रहता है। हैमवत, हरि, विदेह के अन्तर्गत देवकुरु, उत्तरकुरु, रम्यक और हैरण्यवत इन छह स्थानों पर भोगभूमि की व्यवस्था है जो कि सदा काल एक सदृश होने से शाश्वत है। विदेह क्षेत्र में पूर्व विदेह और पश्चिम विदेह ऐसे दो भेद हो गये हैं। उनमें भी वक्षार पर्वत तथा विभंगा नदियों के निमित्त से बत्तीस विदेह हो गये हैं। इन सभी में विजयार्ध पर्वत हैं तथा गंगा-सिन्धु और रक्ता-रक्तोदा नदियाँ बहती हैं। इस कारण प्रत्येक विदेह में भी छह-छह खण्ड हो जाते हैं। सभी में मध्य का एक आर्यखण्ड है, शेष पाँच म्लेच्छ खण्ड हैं। सभी विदेह क्षेत्रों में चतुर्थ काल के प्रारम्भ के समान कर्मभूमि की व्यवस्था सदा काल रहती है अत: इन विदेहों में शाश्वत कर्मभूमिरचना है। मात्र भरत ऐरावत क्षेत्र में ही वृद्धि-ह्रास होता है। जैसा कि श्री उमास्वामी आचार्य ने तत्त्वार्थसूत्र महाशास्त्र में कहा है— ‘‘भरतैरावतयोर्वृद्धि-ह्रासौ षट्समयाभ्यामुत्सर्पिणीभ्याम्।’’
भरत और ऐरावत क्षेत्र में उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी के छह काल परिवर्तनरूप वृद्धि-ह्रास होता रहता है। इस सूत्र के भाष्य में श्री विद्यानन्द आचार्य कहते हैं कि— ‘‘तात्स्थ्यात्तच्छब्द्यसिद्धेर्भरतैरावतयोर्वृद्धिह्रासयोग: अधिकरणनिर्देशो वा, तत्रस्थानां हि मनुष्यादीनामनुभवायु:प्रमाणादिकृतौ वृद्धिह्रासौ षट्कालाभ्या-मुत्सर्पिण्यवसर्पिणीभ्याम्।’’२ उसमें स्थित हो जाने के कारण उसके वाचक शब्द द्वारा कहे जाने की सिद्धि है, इस कारण भरत और ऐरावत क्षेत्रों के वृद्धि और ह्रास का योग बतला दिया है। अथवा अधिकरण निर्देश मान करके उनमें स्थित हो रहे मनुष्य, तिर्यञ्च आदि जीवों के अनुभव, आयु, शरीर की ऊँचाई, बल, सुख, आदि का वृद्धि-ह्रास समझना चाहिये। आगे के सूत्र में स्वयं ही श्री उमास्वामी आचार्य ने कह दिया है। ‘‘ताभ्यामपरा भूमयोऽवस्थिता:’’३।।२९।। इन दोनों क्षेत्रों से अतिरिक्त जो भूमियाँ हैं वे ज्यों की त्यों अवस्थित हैं। अर्थात् अन्य हैमवत आदि क्षेत्रों में जो व्यवस्था है सो अनादिनिधन है, वहाँ षट्काल परिवर्तन नहीं है। इस बात को इसी ग्रन्थ में चतुर्थ अध्याय के ‘‘मेरुप्रदक्षिणा नित्यगतयोनृलोके ?१।।१३।। इस सूत्र के भाष्य में श्री विद्यानन्द आचार्य ने अपने शब्दों में ही स्पष्ट किया है। जिसकी हिन्दी पं. माणिकचंद जी न्यायाचार्य ने की है वह इस प्रकार है—
‘‘वह भूमि का नीचा-ऊँचापन भरत-ऐरावत क्षेत्रों में कालवश हो रहा देखा जा चुका है। स्वयं पूज्यचरण सूत्रकार का इस प्रकार वचन है कि भरत-ऐरावत क्षेत्रों के वृद्धि और ह्रास छह समयवाली उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी कालों करके हो जाते हैं। अर्थात् भरत और ऐरावत में आकाश की चौड़ाई न्यारी-न्यारी एक लाख के एक सौ नब्बे वें भाग यानी पाँच सौ छब्बीस सही छह बटे उन्नीस योजन की ही रहती है। किन्तु अवगाहन शक्ति के अनुसार इतने ही आकाश में भूमि बहुत घट-बढ़ जाती है। न्यून से न्यून पाँच सौ छब्बीस, छह बटे उन्नीस योजन भूमि अवश्य रहेगी। बढ़ने पर इससे कई गुनी अधिक हो सकती है। इसी प्रकार अनेक स्थल कहीं बीसों कोस ऊँचे, नीचे, टेढ़े, तिरछे, कोनियाये हो रहे हो जाते हैं। अत: भ्रमण करता हुआ सूर्य जब दोपहर के समय ऊपर आ जाता है, तब सूर्य से सीधी रेखा पर समतल भूमि में खड़े हुए मनुष्यों की छाया िंकचित् भी इधर-उधर नहीं पड़ेगी। किन्तु नीचे-ऊँचे-तिरछे प्रदेशों पर खड़े हुए मनुष्यों की छाया इधर-उधर पड़ जायेगी क्योंकि सीधी रेखा का मध्यम ठीक नहीं पड़ा हुआ है। भले ही लकड़ी को टेढ़ी या सीधी खड़ी कर उसकी छाया को देख लो।’’
‘‘तन्मनुष्याणामुत्सेधानुभवायुरादिभिर्वृद्धिह्रासौ प्रतिपादितौ न भूमेरपरपुद्गलैरिति न मन्तव्यं, गौणशब्दाप्रयोगान्मुख्यस्य घटनादन्यथा मुख्यशब्दार्थातिक्रमे प्रयोजनाभावात्। तेन भरतैरावतयो: क्षेत्रयोर्वृद्धिह्रासौ मुख्यत: प्रतिपत्तव्यौ, गुणभावतस्तु तत्स्थमनुष्याणामिति तथावचनं सफलतामस्तु ते प्रतीतिश्चानुल्लंघिता स्यात्।’’ थोड़े आकाश में बड़ी अवगाहना वाली वस्तु के समा जाने में आश्चर्य प्रगट करते हुए कोई विद्वान् यों मान बैठे हैं कि भरत-ऐरावत क्षेत्रों की वृद्धि-हानि नहीं होती है किन्तु उनमें रहने वाले मनुष्यों के शरीर की उच्चता, अनुभव, आयु, सुख आदि करके वृद्धि और ह्रास हो रहे सूत्रकार द्वारा समझाये गये हैं। अन्य पुद्गलों करके भूमि के वृद्धि और ह्रास सूत्र में नहीं कहे गये हैं। ग्रन्थकार कहते हैं कि यह तो नहीं मानना चाहिये क्योंकि गौण हो रहे शब्दों का सूत्रकार ने प्रयोग नहीं किया है। अत: मुख्य अर्थ घटित हो जाता है। ...... इसलिये भरत-ऐरावत शब्द का मुख्य अर्थ पकड़ना चाहिए। तिस कारण भरत और ऐरावत दोनों क्षेत्रों की वृद्धि और हानि हो रही मुख्यरूप से समझ लेनी चाहिये। हाँ, गौणरूप से तो उन दोनों क्षेत्रों में ठहर रहे मनुष्यों के अनुभव आदि करके वृद्धि और ह्रास हो रहे समझ लो, यों तुम्हारे यहाँ सूत्रकार का तिस प्रकार का वचन सफलता को प्राप्त हो जावो और क्षेत्र की वृद्धि या हानि मान लेने पर प्रत्यक्ष सिद्ध या अनुमान सिद्ध प्रतीतियों का उल्लंघन नहीं किया जा चुका है।
भावार्थ
समय के अनुसार अन्य क्षेत्रों में नहीं केवल भरत-ऐरावत में ही भूमि ऊँची-नीची, घटती-बढ़ती हो जाती है। तदनुसार दोपहर के समय छाया का घटना-बढ़ना या कथंfिचत् सूर्य का देर या शीघ्रता से उदय-अस्त होना घटित हो जाता है। तभी तो अगले ‘‘ताभ्यामपरा भूमयोऽवस्थिता:’’ इस सूत्र में पड़ा हुआ ‘भूमय:’ शब्द व्यर्थ संभव न होकर ज्ञापन करता है कि भरत-ऐरावत क्षेत्र की भूमियाँ अवस्थित नहीं हैं। ऊँची-नीची घटती-बढ़ती हो जाती हैं। इसी ग्रन्थ में अन्यत्र लिखा है कि कोई गहरे कुएँ में खड़ा है उसे मध्याह्न में दो घंटे ही दिन प्रतीत होगा बाकी समय रात्रि ही दिखेगी। इन पंक्तियों से यह स्पष्ट है कि आज जो भारत और अमेरिका आदि में दिन- रात का बहुत बड़ा अन्तर दिख रहा है वह भी इस क्षेत्र की वृद्धि-हानि के कारण ही दिख रहा है तथा जो पृथ्वी को गोल नारंगी के आकार की मानते हैं उनकी बात भी कुछ अंश में घटित की जा सकती है। श्री यतिवृषभ आचार्य कहते हैं—
छठे काल के अंत में उनंचास दिन शेष रहने पर घोर प्रलय काल प्रवृत्त होता है। उस समय सात दिन तक महागम्भीर और भीषण संवर्तक वायु चलती है जो वृक्ष, पर्वत और शिला आदि को चूर्ण कर देती है पुन: तुहिन—बर्प, अग्नि आदि की वर्षा होती है। अर्थात् तुहिनजल, विषजल, धूम, धूलि, वङ्का और महाअग्नि इनकी क्रम से सात-सात दिन तक वर्षा होती है। अर्थात् भीषण वायु से लेकर उनंचास दिन तक विष, अग्नि आदि की वर्षा होती है। ‘‘तब भरत क्षेत्र के भीतर आर्यखण्ड में चित्रा पृथ्वी के ऊपर वृद्धिंगत एक योजन की भूमि जलकर नष्ट हो जाती है। वङ्का और महाअग्नि के बल से आर्यखण्ड की बढ़ी हुई भूमि अपने पूर्ववर्ती स्वंध स्वरूप को छोड़कर लोकान्त तक पहुँच जाती है।’’ यह एक योजन २००० कोश अर्थात् ४००० मील का है। इस आर्यखण्ड की भूमि जब इतनी बढ़ी हुई है तब इस बात से जो पृथ्वी को नारंगी के समान गोल मानते हैं उनकी बात कुछ अंशों में सही मानी जा सकती है। हाँ, यह नारंगी के समान गोल न होकर कहीं-कहीं आधी नारंगी के समान ऊपर में उठी हुई हो सकती है।
षट्काल परिवर्तन
त्रिलोकसार में कहते हैं— पाँच भरत और पाँच ऐरावत क्षेत्रों में अवसर्पिणी और उत्सर्पिणी नाम के दो काल वर्तते हैं। अवसर्पिणी काल के सुषमा-सुषमा, सुषमा, सुषमा-दु:षमा, दु:षमा-सुषमा, दु:षमा और अतिदु:षमा नाम से छह काल होते हैं। उत्सर्पिणी के इससे उल्टे अतिदु:षमा, दु:षमा, दु:षमा-सुषमा, सुषमा-दु:षमा, सुषमा और सुषमा-सुषमा नाम से छह काल होते हैं। उन सुषमा-सुषमा आदि की स्थिति क्रम से चार कोड़ाकोड़ी सागर, तीन कोड़ाकोड़ी सागर, दो कोड़ाकोड़ी सागर, ४२ हजार वर्ष कम एक कोड़ाकोड़ी सागर, इक्कीस हजार वर्ष और इक्कीस हजार वर्ष प्रमाण है। उत्सर्पिणी में इससे विपरीत है। इनमें से सुषमा-सुषमा आदि तीन कालों में उत्तम, मध्यम और जघन्य भोगभूमि की व्यवस्था है। प्रथम काल की आदि में मनुष्यों की आयु का प्रमाण तीन पल्य है, आगे ह्रास होते-होते अन्त में दो पल्य प्रमाण है। द्वितीय काल के प्रारम्भ में दो पल्य और अन्त में एक पल्य प्रमाण है। तृतीय काल के प्रारम्भ में एक पल्य और अन्त में पूर्वकोटि प्रमाण है। चतुर्थ काल के प्रारम्भ में पूर्व कोटिवर्ष और अन्त में १२० वर्ष है। पंचम काल की आदि में १२० वर्ष एवं अन्त में २० वर्ष है। छठे काल के प्रारम्भ में २० वर्ष एवं अन्त में २५ वर्ष प्रमाण है। उत्सर्पिणी में इससे उल्टा समझना। प्रथम काल के मनुष्य तीन दिन बाद भोजन करते हैं, द्वितीय काल के दो दिन बाद, तृतीय काल के एक दिन बाद, चतुर्थ काल के दो दिन में एक बार, पंचम काल के बहुत बार और छठे काल के बार-बार भोजन करते हैं। तीन काल तक के भोगभूमिज मनुष्य दश प्रकार के कल्पवृक्षों से अपना भोजन आदि ग्रहण करते हैं।
वर्तमान अवसर्पिणी की व्यवस्था
इस अवसर्पिणी काल के तृतीय काल में पल्य का आठवाँ भाग अवशिष्ट रहने पर प्रतिश्रुति से लेकर ऋषभदेव पर्यन्त १५ कुलकर हुए हैं। तृतीय काल में ही तीन वर्ष साढ़े आठ मास अवशिष्ट रहने पर ऋषभदेव मुक्ति को प्राप्त हुए हैं। ऐसे ही अंतिम तीर्थंकर भगवान महावीर भी चतुर्थ काल में तीन वर्ष साढ़े आठ मास शेष रहने पर निर्वाण को प्राप्त हुए हैं। वर्तमान में पंचम काल चल रहा है इसके तीन वर्ष साढ़े आठ माह शेष रहने पर अंतिम वीरांगद मुनि के हाथ से कल्कि राजा द्वारा ग्रास को कर रूप में माँगे जाने पर मुनि का चतुर्विध संघ सहित सल्लेखना ग्रहण कर लेने से धर्म का अन्त, राजा का अन्त और अग्नि का अन्त एक ही दिन में हो जावेगा।
प्रलयकाल
छठे काल के अन्त में संवर्तक नाम की वायु पर्वत, वृक्ष और भूमि आदि को चूर्ण कर देती है। तब वहाँ पर स्थित सभी जीव मूर्छित हो जाते हैं। विजयार्ध पर्वत, गंगा-सिन्धु नदी और क्षुद्र बिल आदि के निकट रहने वाले जीव इनमें स्वयं प्रवेश कर जाते हैं तथा दयावान देव और विद्याधर कुछ मनुष्य आदि युगलों को वहाँ से ले जाते हैं। इस छठे काल के अन्त में पवन, अतिशीत पवन, क्षार रस, विष, कठोर अग्नि, धूलि और धुँआ इन सात वस्तुओं की क्रम से सात-सात दिन तक वर्षा होती है। अर्थात् ४९ दिनों तक इस अग्नि आदि की वर्षा होती है। उस समय अवशेष रहे मनुष्य भी नष्ट हो जाते हैं, काल के वश से विष और अग्नि से दग्ध हुई पृथ्वी एक योजन नीचे तक चूर-चूर हो जाती है।
इस अवसर्पिणी के बाद उत्सर्पिणी काल आता है। उस समय मेघ क्रम से जल, दूध, घी, अमृत और रस की वर्षा सात-सात दिन तक करते हैं। तब विजयार्ध की गुफा आदि में स्थित जीव पृथ्वी के शीतल हो जाने पर वहाँ से निकल कर पृथ्वी पर फैल जाते हैं। आगे पुन: अतिदु:षमा के बाद दु:षमा आदि काल वर्तते हैं। इस प्रकार भरत और ऐरावत के आर्य खण्डों में यह षट्काल परिवर्तन होता है अन्यत्र नहीं है।
अन्यत्र क्या व्यवस्था है
देवकुरू और उत्तरकुरू में सुषमा-सुषमा काल अर्थात् उत्तम भोगभूमि है। हरि क्षेत्र और रम्यक क्षेत्र में सुषमा काल अर्थात् मध्यम भोगभूमि की व्यवस्था है। हैमवत और हैरण्यवत में सुषमा-दु:षमा काल अर्थात् जघन्य भोगभूमि की व्यवस्था है तथा विदेह क्षेत्र में सदा ही चतुर्थ काल वर्तता है।१ भरत और ऐरावत के पाँच-पाँच म्लेच्छ खण्डों में तथा विजयार्ध की विद्याधर की श्रेणियों में चतुर्थकाल के आदि से लेकर उसी काल के अन्त पर्यन्त हानि-वृद्धि होती रहती है।२ इस प्रकरण से यह स्पष्ट हो जाता है कि क्षेत्र में व क्षेत्रस्थ मनुष्य, तिर्यंचों में जो आयु, अवगाहन आदि का ह्रास देखा जा रहा है वह अवसर्पिणी काल के निमित्त से है तथा जो भी जल के स्थान पर स्थल, पर्वत के स्थान पर क्षेत्र आदि परिवर्तन दिख रहे हैं वे भी इसी आर्यखण्ड में ही हैं। आर्यखण्ड के बाहर में न कहीं कोई ऐसा परिवर्तन हो सकता है और न कहीं ऐसा नाश ही सम्भव है क्योंकि प्रलय काल इस आर्यखण्ड में ही आता है। यही कारण है कि यहाँ आर्यखण्ड में कोई भी नदी, पर्वत, सरोवर, जिन-मंदिर आदि अकृत्रिम रचनायें नहीं हैं। ये गंगा आदि नदियाँ जो दृष्टिगोचर हो रही हैं वे अकृत्रिम न होकर कृत्रिम हैं। तथा अकृत्रिम नदियाँ व उनकी परिवार नदियाँ भी यहाँ आर्यखण्ड में नहीं हैं जैसा कि कहा है— ‘गंगा महानदी की ये कुण्डों से उत्पन्न हुई १४००० परिवार नदियाँ ढाई म्लेच्छ खण्डों में ही हैं आर्यखण्ड में नहीं हैं।’
आर्यखण्ड कितना बड़ा है
यह भरत क्षेत्र जम्बूद्वीप के १९०वें भाग (५२६-६/१९) योजन प्रमाण है। इसके बीच में ५० योजन विस्तृत विजयार्ध है। उसे घटाकर आधा करने से दक्षिण भाग का प्रमाण आता है। तथा (५२६-६/१९ - ५०) / २ · २३८-३/१९ योजन है। हिमवान पर्वत पर पद्म सरोवर की लम्बाई १००० योजन है, गंगा सिन्धु नदियाँ पर्वत पर पूर्व-पश्चिम में ५-५ सौ योजन बहकर दक्षिण में मुड़ती हैं। अत: यह आर्यखण्ड पूर्व-पश्चिम में १००० ± ५०० ± ५०० · २००० योजन लम्बा और दक्षिण-उत्तर में २३८ योजन चौड़ा है। इनको आपस में गुणा करने पर २३८ योजन ² २००० · ४७६००० योजन प्रमाण आर्यखण्ड का क्षेत्रफल हुआ। इसके मील बनाने से ४७६००० ² ४००० · १९०४००००० (एक सौ नब्बे करोड़ चालीस लाख) मील प्रमाण क्षेत्रफल होता है।
इस आर्यखण्ड के मध्य में अयोध्या नगरी है। अयोध्या के दक्षिण में ११९ योजन की दूरी पर लवण समुद्र की वेदी है और उत्तर की तरफ इतनी ही दूरी पर विजयार्ध पर्वत की वेदिका है। अयोध्या से पूर्व में १००० योजन की दूरी पर गंगा नदी की तट वेदी है और पश्चिम में इतनी ही दूरी पर सिन्धु नदी की तट वेदी है। अर्थात् आर्यखण्ड की दक्षिण दिशा में लवण समुद्र, उत्तर में विजयार्ध, पूर्व में गंगा नदी एवं पश्चिम में सिन्धु नदी है। ये चारों आर्यखण्ड की सीमारूप है। अयोध्या से दक्षिण में (११९ ² ४००० · ४७६०००) चार लाख छियत्तर हजार मील जाने पर लवण समुद्र है। इतना ही उत्तर में जाने पर विजयार्ध पर्वत है। ऐसे ही अयोध्या से पूर्व में (१००० ² ४००० · ४००००००) चालीस लाख मील जाने पर गंगा नदी एवं पश्चिम में इतना ही जाने पर सिन्धु नदी है। आज का उपलब्ध सारा विश्व इस आर्यखण्ड में है। जम्बूद्वीप, उसके अंतर्गत पर्वत, नदी, सरोवर, क्षेत्र आदि के माप का योजन २००० कोश का माना गया है। जम्बूद्वीप पण्णत्ति की प्रस्तावना में भी इसके बारे में अच्छा विस्तार है। जिसके कुछ अंश देखिये—
‘इस योजन की दूरी आजकल के रैखिक माप में क्या होगी ? यदि हम २ हाथ · १ गज मानते हैं तो स्थूल रूप से एक योजन ८०००००० गज के बराबर अथवा ४५४५.४५ मील के बराबर प्राप्त होता है। यदि हम एक कोस को आजकल के २ मील के बराबर मान लें तो एक योजन ४००० मील के बराबर प्राप्त होता है।’ निष्कर्ष यह निकलता है कि जम्बूद्वीप में जो भी सुमेरू, हिमवान् आदि पर्वत, हैमवत, हरि, विदेह, आदि क्षेत्र, गंगा आदि नदियाँ, पद्म आदि सरोवर हैं ये सब आर्यखण्ड के बाहर हैं।
आर्यखण्ड में क्या-क्या है ?
इस युग की आदि में प्रभु श्री ऋषभदेव की आज्ञा से इन्द्र ने देश, नगर, ग्राम आदि की रचना की थी, तथा स्वयं प्रभुजी ऋषभदेव ने क्षत्रिय, वैश्य, शुद्र इन तीन वर्णों की व्यवस्था बनाई थी, जिनका विस्तार आदिपुराण में है। उस समय के बनाये गये बहुत कुछ ग्राम, नगर, देश आज भी उपलब्ध हैं। यथा— ‘अथानन्तर प्रभु के स्मरण करने मात्र से देवों के साथ इन्द्र आया और उसने नीचे लिखे अनुसार विभाग कर प्रजा की जीविका के उपाय किये। इन्द्र ने शुभ मुहूर्त में अयोध्यापुरी के बीच में जिनमंदिर की रचना की। पुन: पूर्व आदि चारों दिशाओं में भी जिनमंदिर बनाये। तदनन्तर कौशल आदि महादेश, अयोध्या आदि नगर, वन और सीमा सहित गाँव तथा खेड़ों आदि की रचना की।
सुकोशल, अवन्ती, पुण्ड्र, उण्ड्र, अश्मक, रम्यक, कुरु, काशी, किंलग, अंग, बंग, सुह्य, समुद्रक, काश्मीर, उशीनर, आनर्त, वत्स, पंचाल, मालव, दशार्ण, कच्छ, मगध, विदर्भ, कुरुजांगल, कराहट, महाराष्ट्र, सौराष्ट्र, आभिर, कोंकण, वनवास, आन्ध्र, कर्नाटक, कौशल, चौण, केरल, दारू, अभीसार, सौवीर, शूरसेन, अप्रांतक, विदेह, सिन्धु, गान्धार, यवन, चेदी, पल्लव, काम्बोज, आरट्ट, बालहिक, तुरुष्क, शक और केकय, इन देशों की रचना की तथा इनके सिवाय उस समय और भी अनेक देशों का विभाग किया।
तथ्य क्या है ?
१. एक राजू चौड़े निन्यानवे हजार चालीस योजन ऊँचे इस मध्यलोक में असंख्यात द्वीप-समुद्र हैं। उनमें सर्वप्रथम द्वीप जम्बूद्वीप है। यह एक लाख योजन (४० करोड़ मील) विस्तृत है।
२. इस जम्बूद्वीप के मध्य में सुमेरू पर्वत है। इसी में भरत, हैमवत आदि सात क्षेत्र हैं। हिमवान आदि छ: कुल पर्वत हैं। नदी, सरोवर आदि अनेक रचनायें हैं।
३. इसके एक सौ नब्बे वें भाग प्रमाण भरत क्षेत्र व इतने ही प्रमाण ऐरावत क्षेत्र में जो आर्यखण्ड हैं उन आर्यखण्ड में ही षट्काल परिवर्तन से वृद्धि-ह्रास होता है। अन्यत्र कहीं भी परिवर्तन नहीं है।
४. अवसर्पिणी के कर्मभूमि की आदि में तीर्थंकर ऋषभदेव की आज्ञानुसार इन्द्र ने बावन देश और अनेक नगरियाँ बसायी थीं। जिनमें से अयोध्या, हस्तिनापुर आदि नगरियाँ आज भी विद्यमान हैं।
५. इस भरत क्षेत्र के आर्यखण्ड में ही आज का उपलब्ध सारा विश्व है। इस आर्यखण्ड के भीतर में गंगा-सिन्धु नदी, सुमेरू पर्वत और विदेह क्षेत्र आदि को मानना त्रिलोकसार आदि ग्रन्थों के अनुकूल नहीं है क्योंकि अकृत्रिम गंगा-सिन्धु नदी तो आर्यखण्ड के पूर्व-पश्चिम सीमा में हैं।
Tuesday, 29 April 2014
१ त्रिलोक भास्कर
२ जैन भूगोल मे दूरी नापने के सबसे छोटे से लेकर सबसे बड़े परिमाण कौनसे हैं ?
३ जैन भूगोल के परिमाणों के साथ, आज के भूगोल के परिमाणों का सम्बन्ध कैसे लगाये ?
४ अंगुल परिमाण के भेद कौनसे है और उनसे किन किन का माप होता है?
५ व्यवहार पल्य किसे कहते है?
६ उद्धार पल्य किसे कहते है और उससे किसका माप होता है?
७ अद्धा पल्य किसे कहते है और उससे किसका माप होता है?
८ १ कोडाकोडी संख्या कितनी होती है?
९ सागर का प्रमाण क्या है?
१० लोकाकाश कहाँ स्थित है ?
११ लोकाकाश किससे व्याप्त है ?
१२ लोकाकाश का आकार कैसा है ?
१३ लोकाकाश किसके आधार से स्थित है ?
१४ वातवलय किसे कहते है? और वे कैसे स्थित है?
१५ वातवलयों के वर्ण कौनसे है?
१६ लोकाकाश मे तीनो वातवलयों की मोटाई कितनी है?
१७ लोकाकाश में कितने लोक हैं ?
१८ इन तीनों लोकों के आकार कैसे हैं ?
१९ सारे लोक की ऊँचाई और मोटाई कितनी है ?
२० इस १४ राजु की ऊँचाई का लोकाकाश के निचले भाग से उपर तक का विवरण दिजिये ।
२१ लोकाकाश कि चौडाइ का विवरण दिजिये ।
२२ लोकाकाश का घनफल कितना है?
२३ ७ राजू ऊंचे अधोलोक मे निगोद और नरकों की अलग अलग ऊंचाइया कितनी है ?
२४ अधोलोक से मध्यलोक तक कि चौडाई घटने का क्रम कैसा है ?
२५ अधोलोक का घनफल कितना है?
२६ ऊर्ध्वलोक मे स्वर्गो की अलग अलग ऊंचाइया कितनी है ?
२७ मध्यलोक से सिद्धशिला तक लोक की चौडाई बढने - घटने का क्रम कैसा है ?
२८ ऊर्ध्वलोक का घनफल कितना है?
२९ त्रसनाली क्या है और कहाँ होती है?
३० उपपाद की अपेक्षा त्रस जीव; त्रसनाली के बाहर कैसे पाए जाते है?
३१ मारणांतिक समुदघात की अपेक्षा त्रस जीव; त्रसनाली के बाहर कैसे पाए जाते है?
३२ केवलिसमुदघात की अपेक्षा त्रस जीव; त्रसनाली के बाहर कैसे पाए जाते है?
३३ अधोलोक मे कितनी पृथ्वीयाँ है? और उनके नाम क्या है?
३४ अधोलोक कि पृथ्वीयों की अलग अलग मोटई कितनी है?
३५ रत्नप्रभा पृथ्वी के कितने भाग है? और उनकी मोटाईया कितनी है?
३६ रत्नप्रभा पृथ्वी मे किस किस के निवास है?
३७ खरभाग के कितने भेद है और उनकी मोटाईया कितनी है?
३८ खरभाग की प्रथम पृथ्वी का नाम "चित्रा" कैसे सार्थक है?
३९ नारकी जीव कहाँ रहते है?
४० नरको मे बिल कहाँ होते है?
४१ प्रत्येक नरक मे कितने बिल है?
४२ कौनसे नारकी बिल उष्ण और कौनसे शीत है?
४३ नारकीयों के बिल की दुर्गन्धता और भयानकता कितनी है?
४४ नारकीयों के बिल के कितने और कौन कौनसे प्रकार है?
४५ प्रथम नरक मे इन्द्रक बिलो की रचना किस प्रकार है, और उनके नाम क्या है?
४६ श्रेणीबद्ध बिलों का प्रमाण कैसे निकालते है?
४७ प्रकीर्णक बिलों का प्रमाण कैसे निकालते है?
४८ नारकी बिलों का विस्तार कितना होता है?
४९ पृथक पृथक नरको मे संख्यात और असंख्यात बिलों का विस्तार कितना होता है?
५० नारकी बिलों मे तिरछा अंतराल कितना होता है?
५१ नारकी बिलों मे कितने नारकी जीव रहते है?
५२ इन्द्रक बिलों का विस्तार कितना होता है?
५३ इन्द्रक बिलों के मोटाई का प्रमाण कितना होता है?
५४ इन्द्रक बिलों के अंतराल का प्रमाण कितना है और उसे कैसे प्राप्त करे(कॅलक्युलेट करे)?
५५ एक नरक के अंतिम इन्द्रक से अगले नरक के प्रथम इन्द्रक का अंतर कितना होता है?
५६ नारकी जीव नरको मे उत्पन्न होते ही, उसे कैसा दुःख भोगना पडता है?
५७ नारकी जीव के जन्म लेने के उपपाद स्थान कैसे होते है?
५८ परस्त्री सेवन का पाप करने वाले जीव को नरको मे कैसा दुःख उठाना पडता है?
५९ माँस भक्षण का पाप करने वाले जीव को नरको मे कैसा दुःख उठाना पडता है?
६० मधु और मद्य सेवन का पाप करने वाले जीव को नरको मे कैसा दुःख उठाना पडता है?
६१ नरक की भुमी कितनी दुःखदायी है?
६२ नारकियों के साथ कितने रोगो का उदय रहता है?
६३ नारकियों का आहार कैसा होता है?
६४ क्या तीर्थंकर प्रकृती का बंध करने वाला जीव नरक मे जा सकता है?
६५ नारकियों के दुःख के कितने भेद है?
६६ नारकियों को परस्पर दुःख उत्पन्न करानेवाले असुरकुमार देव कौन होते है?
६७ क्या नरको मे अवधिज्ञान होता है ?
६८ अलग अलग नरको मे अवधिज्ञान का क्षेत्र कितना होता है ?
६९ नरको मे अवधिज्ञान प्रकट होने पर मिथ्यादृष्टि और सम्यगदृष्टि जीव की सोच मे क्या अंतर होता है ?
७० नरको मे सम्यक्त्व मिलने के क्या कारण है ?
७१ जीव नरको मे किन किन कारणों से जाता है ?
७२ प्रत्येक नरक के प्रथम पटल (बिल) और अन्तिम पटल मे नारकीयों के शरिर की अवगाहना कितनी होती है ?
७३ लेश्या किसे कहते है ?
७४ नरक मे कौनसी लेश्यायें होती है ?
७५ क्या नारकीयोंकी अपमृत्यु होती है ?
७६ नारकीयोंकी जघन्य, मध्यम, और उत्कृष्ठ आयु कितनी होती है ?
७७ प्रत्येक नरक के पटलों की अपेक्षा जघन्य, और उत्कृष्ठ आयु का क्या प्रमाण है?
७८ प्रत्येक नरक मे नारकियों के जन्म लेने के अन्तर का क्या प्रमाण है?
७९ कौन कौन से जीव किन-किन नरको मे जाने की योग्यता रखते है?
८० नरक से निकलकर नारकी किन-किन पर्याय को प्राप्त कर सकते है?
८१ भवनवासी देव
८२ भवनवासी देवों का स्थान अधोलोक मे कहाँ है?
८३ भवनवासी देवों के कितने और कौनसे भेद है?
८४ भवनवासी देवों के मुकुटों मे कौनसे चिन्ह होते है?
८५ भवनवासी देवों के भवनों का कुल प्रमाण कितना है?
८६ भवनवासी देवों के इन्द्रों का और उनके भवनों का पृथक पृथक (अलग अलग) प्रमाण कितना है?
८७ भवनवासी देवों के निवास के कौनसे भेद है?
८८ भवनवासी देवों के भवनों का प्रमाण क्या है?
८९ भवनवासी देवों के भवनों का स्वरुप कैसा है?
९० भवनवासी देवों के भवनों मे किस प्रकार के जिन मंदिर है?
९१ भवनवासी देवों के चैत्यवृक्षों का प्रमाण क्या है?
९२ भवनवासी देवों के चैत्यवृक्षों का स्वरूप कैसा है?
९३ भवनवासी देवों के चैत्यवृक्षों के मूल मे विराजमान जिन प्रतिमाओं का स्वरूप कैसा है?
९४ भवनवासी देवों के जिन मंदिरों का स्वरूप कैसा है?
९५ भवनवासी देवों के जिन मंदिरों के ध्वजभुमियों का स्वरूप कैसा है?
९६ भवनवासी देवों के जिन मंदिरों के मंडपों का स्वरूप कैसा है?
९७ भवनवासी देवों के जिन मंदिरों के भीतर की रचना कैसी होती है?
९८ भवनवासी देवों के जिन मंदिरों की प्रतिमायें कैसी होती है?
९९ भवनवासी देवों के जिन मंदिरों मे कौन कौन से देव पूजा करते है?
१०० भवनवासी देवों के परिवारों मे कौन कौन होते है?
१०१ भवनवासी देवों के परिवारों मे कौन कौन होते है?
१०२ भवनवासी देवों के कितने प्रतिंद्र होते है?
१०३ भवनवासी देवों के कितने त्रायस्त्रिंश होते है?
१०४ भवनवासी सामानिक देवों का प्रमाण क्या है?
१०५ भवनवासी आत्मरक्षक देवों का प्रमाण क्या है?
१०६ भवनवासी पारिषद देवों का प्रमाण क्या है?
१०७ भवनवासी मध्यम पारिषद देवों का प्रमाण क्या है?
१०८ भवनवासी बाह्य पारिषद देवों का प्रमाण क्या है?
१०९ भवनवासी अनीक देवों का प्रमाण क्या है?
११० भवनवासी प्रकीर्णक आदि शेष देवों का प्रमाण क्या है?
१११ भवनवासी इंद्रों की देवियों की संख्या कितनी होती है?
११२ भवनवासी देवों का आहार कैसा और कब होता है?
११३ भवनवासी देव उच्छवास कब लेते है?
११४ भवनवासी देवो के शरीर का वर्ण कैसा होता है?
११५ भवनवासी देवो का गमन (विहार) कहाँ तक होता है?
११६ भवनवासी देव - देवियों का शरीर कैसा होता है?
११७ भवनवासी देव – देवियाँ काम सुख का अनुभव कैसे करते है?
११८ भवनवासी प्रतिन्द्र, इंद्र आदि के विभूतियों में क्या अंतर होता है ?
११९ भवनवासी देवो की आयु का प्रमाण कितना है ?
१२० भवनवासी देवियों की आयु का प्रमाण कितना है ?
१२१ भवनवासी देवो के शरीर की अवगाहना का प्रमाण कितना है ?
१२२ भवनवासी देवो के अवधिज्ञान एवं विक्रिया का प्रमाण कितना है ?
१२३ भवनवासी देव योनी में किन कारणों से जन्म होता है ?
१२४ भवनवासी देव योनी में किन कारणों से सम्यक्त्व होता है ?
१२५ भवनवासी देव योनी से निकलकर जीव कहाँ उत्पन्न होता है ?
१२६ भवनवासी देव किस प्रकार और कौनसी शय्या पर जन्म लेते है और क्या विचार करते है ?
१२७ भवनवासी देव किस प्रकार क्रीडा करते है ?
जैन भूगोल मे दूरी नापने के सबसे छोटे से लेकर सबसे बड़े परिमाण कौनसे हैं ?
जैन भूगोल में सबसे छोटे अणु को परमाणु कहते हैं ।
ऐसे अनन्तानन्त परमाणु = १ अवसन्नासन्न
८ अवसन्नासन्न = १ सन्नासन्न
८ सन्नासन्न = १ त्रुटिरेणु
८ त्रुटिरेणु का = त्रसरेणु
८ त्रसरेणु का = रथरेणु
८ रथरेणु = उत्तम भोग भूमिज के बाल का १ अग्रभाग
उत्तम भोग भूमिज के बाल के ८ अग्रभाग = मध्यम भोग भूमिज के बाल का १ अग्रभाग
मध्यम भोग भूमिज के बाल के ८ अग्रभाग = जघन्य भोग भूमिज के बाल का १ अग्रभाग
जघन्य भोग भूमिज के बाल के ८ अग्रभाग = कर्म भूमिज के बाल का १ अग्रभाग
कर्म भूमिज के बाल के ८ अग्रभाग = १ लिक्शा
८ लिक्शा = १ जू
८ जू = १ जौ
८ जौ = १ अंगुल या उत्सेधांगुल (५०० उत्सेधांगुल = १ प्रमाणांगुल)
६ उत्सेधांगुल = १ पाद
२ पाद = १ बालिस्त
२ बालिस्त = १ हाथ
२ हाथ = १ रिक्कु
२ रिक्कु = १ धनुष्य
२००० धनुष्य = १ कोस
४ कोस = १ लघुयोजन
५०० लघुयोजन = १ महायोजन
असंख्यात योजन = १ राजु
जैन भूगोल के परिमाणों के साथ, आज के भूगोल के परिमाणों का सम्बन्ध कैसे लगाये ?
१ गज = २ हाथ
१७६० गज या ३५२० हाथ = १ मील
२ मील = १ कोस
४००० मील या २००० कोस = १ महायोजन
अंगुल परिमाण के भेद कौनसे है और उनसे किन किन का माप होता है?
अंगुल परिमाण के ३ भेद होते है।
उत्सेधांगुल : यह बालग्र, लिक्षा, जूँ और जौ से निर्मित होता है। देव, मनुष्य, तिर्यंच, और नारकियों के शरीर की ऊंचाई का प्रमाण, चारों प्रकार के देवों के निवास स्थान व नगर आदि का माप उत्सेधांगुल से होता है।
प्रमाणांगुल : ५०० उत्सेधांगुल का १ प्रमाणांगुल होता है। भरत चक्रवर्ती का एक अंगुल प्रमाणांगुल के प्रमाण वाला है। इससे द्वीप, समुद्र, कुलाचल, वेदी, नदी, कुंड, सरोवर, जगती, भरत आदि क्षेत्रों का माप होता है।
आत्मांगुल : जिस जिस काल मे भरत और ऐरावत क्षेत्र मे जो मनुष्य होते है, उस उस काल मे उन्ही उन्ही मनुष्यों के अंगुल का नाम आत्मांगुल है। इससे झारी, कलश, दर्पण, भेरी, युग, शय्या, शकट, हल, मूसल, शक्ति, तोमर, बाण, नालि, अक्ष, चामर, दुंदुभि, पीठ, छत्र, मनुष्यो के निवास स्थान, नगर, उद्यान आदि का माप होत है।
व्यवहार पल्य किसे कहते है?
१ योजन (१२ से १३ कि॰मी॰)विस्तार के गोल गढ्ढे का घनफल १९/२४ योजन प्रमाण होता है।
ऐसे गढ्ढे मे मेंढो के रोम के छोटे छोटे टुकडे करके (जिसके पुनः दो टुकडे न हो सके)खचाखच भर दे।
इन रोमों का प्रमाण ४१३४५२६३०३०८२०३१७७७४९५१२१९२०००००००००००००००००० होता है।
अब इन रोमो मे से, सौ सौ वर्ष मे एक एक रोम खंड के निकालने पर जितने समय मे वह गड्डा खाली हो जाये, उतने काल को १ व्यवहार पल्य कहते है।
उद्धार पल्य किसे कहते है और उससे किसका माप होता है?
१ उद्धार पल्य की रोम राशि मे से प्रत्येक रोम खंड के असन्ख्यात वर्ष के जितने समय है, उतने खंड करके, तिसरे गढ्ढे को भरकर पुनः एक एक समय मे एक एक रोम खंड के निकालने पर जितने समय मे वह दुसरा पल्य खाली हो जाये, उतने काल को १ उद्धार पल्य कहते है।
इस उद्धार पल्य से द्वीप और समुद्र का प्रमाण / माप होता है।
अद्धा पल्य किसे कहते है और उससे किसका माप होता है?
१ व्यवहार पल्य की रोम राशि को, असन्ख्यात करोड वर्ष के जितने समय है, उतने खंड करके, उनसे दुसरे पल्य को भरकर पुनः एक एक समय मे एक एक रोम खंड के निकालने पर जितने समय मे वह गड्डा खाली हो जाये, उतने काल को १ अद्धा पल्य कहते है।
इस अद्धा पल्य से नारकि, मनुष्य, देव और तिर्यंचो कि आयु का तथा कर्मो की स्थिती का प्रमाण / माप होता है।
१ कोडाकोडी संख्या कितनी होती है?
१ करोड × १ करोड = १ कोडाकोडी
सागर का प्रमाण क्या है?
१० कोडाकोडी पल्य = १ सागर
१० कोडाकोडी व्यवहार पल्य = १ व्यवहार सागर
१० कोडाकोडी उद्धार पल्य = १ उद्धार सागर
१० कोडाकोडी अद्धा पल्य = १ अद्धा सागर
लोकाकाश कहाँ स्थित है ?
केवली भगवान कथित अनन्तानन्त आलोकाकाश के बहुमध्य भाग में ३४३ घन राजु प्रमाण लोकाकाश स्थित है ।
लोकाकाश किससे व्याप्त है ?
लोकाकाश जीव, पुदगल, धर्म, अधर्म और काल इन ५ द्रव्यों से व्याप्त है और स्वभाव से उत्पन्न है । इसकी सब दिशाओं मे आलोकाकाश स्थित है ।
लोकाकाश का आकार कैसा है ?
कोई पुरुष अपने दोनो पैरो मे थोडासा अन्तर रखकर, और अपने दोनो हाथ अपने कमर पर रखकर खडा होने पर उसके शरीर का जो बाह्य आकार बनता है, उस प्रकार लोकाकाश का आकार है ।
लोकाकाश किसके आधार से स्थित है ?
लोकाकाश निम्नलिखित ३ स्तरों के आधार से स्थित है।
घनोदधिवातवलय
घनवातवलय
तनुवातवलय
वातवलय किसे कहते है? और वे कैसे स्थित है?
वातवलय वायुकयिक जीवों के शरीर स्वरूप है।
वायु अस्थिर स्वभावी होते हुए भी, ये वातवलय स्थिर स्वभाव वाले वायुमंडल है।
ये वातवलय लोकाकाश को चारो ओर से वेष्टीत है।
प्रथम वलय को घनोदधिवातवलय कहते है।
घनोदधिवातवलय के बाहर घनवातवलय है।
घनवातवलय के बाहर तनुवातवलय है।
तनुवातवलय के बाहर चारो तरफ अनंत अलोकाकाश है।
वातवलयों के वर्ण कौनसे है?
घनोदधिवातवलय गोमुत्र के वर्ण वाला है।
घनवातवलय मूंग के वर्ण वाला है।
तनुवातवलय अनेक वर्ण वाला है।
लोकाकाश मे तीनो वातवलयों की मोटाई कितनी है?
लोक के तल भाग मे १ राजू कि ऊंचाई तक प्रत्येक वातवलय बीस हजार योजन मोटा है। (कुल ६०,००० योजन)
सातवी नरक पृथ्वी के पार्श्व भाग मे क्रम से इन तीनो कि मोटाई सात, पाँच और चार योजन है। (कुल १६ योजन)
इसके उपर मध्यलोक के पार्श्व भाग मे क्रम से पाँच, चार और तीन योजन है। (कुल १२ योजन)
इसके आगे ब्रह्म स्वर्ग के पार्श्व भाग मे क्रम से सात, पाँच और चार योजन है। (कुल १६ योजन)
आगे ऊर्ध्व लोक के अंत मे - पार्श्व भाग मे क्रम से पाँच, चार और तीन योजन है। (कुल १२ योजन)
लोक शिखर के उपर क्रमश्ः २ कोस, १ कोस और ४२५ धनुष्य कम १ कोस प्रमाण है। (कुल ३ कोस १५७५ धनुष्य)
लोकाकाश में कितने लोक हैं ?
लोकाकाश में ३ लोक हैं ।
अधोलोक
मध्यलोक
ऊर्ध्वलोक
इन तीनों लोकों के आकार कैसे हैं ?
अधोलोक का आकार वेत्रासन के समान, मध्यलोक का खड़े किये हुए मृदंग के ऊपरी भाग के समान्, और ऊर्ध्वलोक का खड़े किये हुए मृदंग के समान है ।
सारे लोक की ऊँचाई और मोटाई कितनी है ?
ऊँचाई १४ राजु प्रमाण और मोटाइ ७ राजु है ।
इस १४ राजु की ऊँचाई का लोकाकाश के निचले भाग से उपर तक का विवरण दिजिये ।
सबसे निचे के ७ राजू मे अधोलोक है, जिसमे ७ नरक है ।
बचे हुए ७ राजू मे १ लाख ४० योजन का मध्यलोक है, जिसमे असन्ख्यात द्वीप-समुद्र और् मध्य मे सबसे ऊँचा सुमेरू पर्वत है ।
सुमेरू पर्वत के उपर १ लाख ४० योजन कम ७ राजू का उर्ध्वलोक है, जिसमे १६ स्वर्ग, ९ ग्रैवेयक, ९ अनुदिश, ५ अनुत्तर और सिद्धशिला है ।
इसतरह १४ राजू कि ऊँचाई मे मध्यलोक कि ऊँचाई नगन्य होने से ७ राजू मे अधोलोक और ७ राजू मे उर्ध्वलोक कहा गया है ।
लोकाकाश कि चौडाइ का विवरण दिजिये ।
अधोलोक के तलभाग मे जहा निगोद है, वहा चौडाई ७ राजू है ।
यह चौडाइ घटते घटते मध्यलोक मे १ राजू रह जाती है ।
पुनः बढते बढते उर्ध्वलोक के पांचवे स्वर्ग (ब्रम्ह स्वर्ग) तक ५ राजू हो जाती है ।
पुनः ब्रम्ह स्वर्ग से घटते घटते सिद्धशिला तक १ राजू होती है ।
लोकाकाश का घनफल कितना है?
लोक की कुल चौडाई १४ राजू है। (तलभाग मे ७ राजू + मध्यलोक मे १ राजू + ब्रह्म स्वर्ग मे ५ राजू + सिद्धशिला मे १ राजू)
यह कुल चौडाई ४ विभागो मे मिलकर है इसलिये अॅवरेज चौडाई निकालने के लिये, इस मे ४ का भाग देने से साढे तीन राजू हुए।(१४/४ = ३ १/२)
लोक की ऊंचाई १४ राजू और मोटाई ७ राजू है
इस प्रकार लोक का घनफल = लोक की ऊँचाई × चौडाई × मोटाई = १४ राजू × ३ १/२ राजू × ७ राजू = ३४३ घनराजू है।
७ राजू ऊंचे अधोलोक मे निगोद और नरकों की अलग अलग ऊंचाइया कितनी है ?
सबसे नीचे के १ राजू मे निगोद है ।
उसके उपर के १ राजू मे, महातमःप्रभा नाम का सातवां नरक है ।
उसके उपर के १ राजू मे, तमःप्रभा नाम का छटवां नरक है ।
उसके उपर के १ राजू मे, धूमप्रभा नाम का पांचवां नरक है ।
उसके उपर के १ राजू मे, पंकप्रभा नाम का चौथा नरक है ।
उसके उपर के १ राजू मे, बालुकाप्रभा नाम का तिसरा नरक है ।
उसके उपर के १ राजू मे, शर्कराप्रभा नाम का दुसरा और रत्नप्रभा नाम का प्रथम नरक है ।
इसप्रकार से ७ राजू ऊंचे अधोलोक मे, १ राजू मे २ नरक, ५ राजू मे ५ नरक और १ राजू मे निगोद है ।
अधोलोक से मध्यलोक तक कि चौडाई घटने का क्रम कैसा है ?
अधोलोक के तल भाग मे : ७ राजू
सातवी पृथ्वी-नरक के निकट : ६ १/७ राजू
छटवी पृथ्वी-नरक के निकट : ५ २/७ राजू
पांचवी पृथ्वी-नरक के निकट : ४ ३/७ राजू
चौथी पृथ्वी-नरक के निकट : ३ ४/७ राजू
तिसरी पृथ्वी-नरक के निकट : २ ५/७ राजू
दूसरी पृथ्वी-नरक के निकट : १ ६/७ राजू
प्रथम पृथ्वी-नरक के निकट : १ राजू
संपूर्ण मध्य लोक की चौडाई १ राजू मात्र ही है।
अधोलोक का घनफल कितना है?
अधोलोक मे निचे की पूर्व-पश्चिम् चौडाई ७ राजू है। तथा मध्यलोक के यहाँ १ राजू है। (कुल ८ राजू)
यह कुल चौडाई २ विभागो मे मिलकर है इसलिये अॅवरेज चौडाई निकालने के लिये, इस मे २ का भाग देने से चार राजू हुए।(८/२ = ४)
अधोलोक की ऊंचाई ७ राजू और मोटाई ७ राजू है
इस प्रकार अधोलोक का घनफल = ऊँचाई × चौडाई × मोटाई = ७ राजू × ४ राजू × ७ राजू = १९६ घनराजू है।
ऊर्ध्वलोक मे स्वर्गो की अलग अलग ऊंचाइया कितनी है ?
मध्यलोक के उपरी भाग मे सौधर्म विमान के ध्वजदंड तक १ लाख ४० योजन कम १ १/२ राजू
उसके उपर के १ १/२ राजू मे, पहला और दूसरा स्वर्ग(सौधर्म और ईशान)है।
उसके उपर के १/२ राजू मे, तिसरा और चौथा स्वर्ग (सानत्कुमार् और माहेन्द्र) है।
उसके उपर के १/२ राजू मे, पाँचवा और छठा स्वर्ग (ब्रह्म और ब्रह्मोत्तर)है।
उसके उपर के १/२ राजू मे, साँतवा और आँठवा स्वर्ग (लांतव और कापिष्ठ)है।
उसके उपर के १/२ राजू मे, नौवा और दसवाँ स्वर्ग (शुक्र और महाशुक्र)है।
उसके उपर के १/२ राजू मे, ग्यारहवा और बारहवा स्वर्ग (सतार और सहस्त्रार्)है।
उसके उपर के १/२ राजू मे, तेरहवा और चौदहवा स्वर्ग (आनत और प्राणत)है।
उसके उपर के १/२ राजू मे, पन्द्रहवा और सोलहवा स्वर्ग (आरण और अच्युत) है।
उसके उपर के १ राजू मे, ९ ग्रैवेयक, ९ अनुदिश, ५ अनुत्तर और सिद्धशिला पृथ्वी है।
मध्यलोक से सिद्धशिला तक लोक की चौडाई बढने - घटने का क्रम कैसा है ?
मध्यलोक् मे : १ राजू
पहले और दूसरे स्वर्ग(सौधर्म और ईशान)के अंत मे : २ ५/७ राजू
तिसरे और चौथे स्वर्ग (सानत्कुमार् और माहेन्द्र)के अंत मे : ४ ३/७ राजू
पाँचवे और छठे स्वर्ग (ब्रह्म और ब्रह्मोत्तर)के अंत मे : ५ राजू
साँतवे और आँठवे स्वर्ग (लांतव और कापिष्ठ)के अंत मे : ४ ३/७ राजू
नौवे और दसवे स्वर्ग (शुक्र और महाशुक्र)के अंत मे : ३ ६/७ राजू
ग्यारहवे और बारहवे स्वर्ग (सतार और सहस्त्रार्)के अंत मे : ३ २/७ राजू
तेरहवे और चौदहवे स्वर्ग (आनत और प्राणत)के अंत मे : २ ५/७ राजू
पन्द्रहवे और सोलहवे स्वर्ग (आरण और अच्युत)के अंत मे : २ १/७ राजू
९ ग्रैवेयक, ९ अनुदिश, ५ अनुत्तर और सिद्धशिला पृथ्वी तक : १ राजू
नोट : अपने अपने अंतिम इन्द्रक विमान संबंधी ध्वजदंड के अग्रभाग तक उन उन स्वर्गो का अंत समझना चहिए।
ऊर्ध्वलोक का घनफल कितना है?
ऊर्ध्वलोक मे मध्यलोक के उपर की पूर्व-पश्चिम् चौडाई १ राजू है। तथा आगे ब्रह्म स्वर्ग के यहाँ ५ राजू है। (कुल ६ राजू)
यह कुल चौडाई २ विभागो मे मिलकर है इसलिये ब्रह्म स्वर्ग तक की अॅवरेज चौडाई निकालने के लिये, इस मे २ का भाग देने से ३ राजू हुए।(६/२ = ३)
ब्रह्म स्वर्ग तक की ऊंचाई ३ १/२ राजू और मोटाई ७ राजू है
इस प्रकार ब्रह्म स्वर्ग तक का घनफल = ऊँचाई × चौडाई × मोटाई = ३ १/२ राजू × ३ राजू × ७ राजू = ७३ १/२ घनराजू है।
इतना ही घनफल ब्रह्म स्वर्ग से आगे लोक के अंत तक है, इसलिए उर्ध्वलोक का कुल घनफल ७३ १/२ × २ = १७४ घनराजू है।
त्रसनाली क्या है और कहाँ होती है?
तीनो लोको के बीचो बीच मे १ राजू चौडे एवं १ राजू मोटे तथा कुछ कम १३ राजू ऊंचे, त्रस जीवों के निवास क्षेत्र को त्रसनाली कहते है।
ऊंचाई मे कुछ कम का प्रमाण ३२१६२२४१ २/३ धनुष है।
इसके बाहर त्रस जीव नही होते। मगर उपपाद, मारणांतिकसमुदघात और केवलिसमुदघात की अपेक्षा से त्रस नाली के बाहर त्रस जीव पाये जाते है।
उपपाद की अपेक्षा त्रस जीव; त्रसनाली के बाहर कैसे पाए जाते है?
किसी भी विवक्षित भव के प्रथम पर्याय को उपपाद कहते है।
लोक के अंतिम वातवलय मे स्थित कोइ स्थावर जीव जब विग्रहगती द्वारा त्रस पर्याय मे उत्पन्न होने वाला है और वह जब मरण करके प्रथम मोडा लेता है,उस समय त्रस नाम कर्म का उदय आ जाने से त्रस पर्याय को धारण करके भी त्रसनाली के बाहर होता है।
मारणांतिक समुदघात की अपेक्षा त्रस जीव; त्रसनाली के बाहर कैसे पाए जाते है?
त्रसनाली का कोइ जीव, जिसे मरण करके त्रसनाली के बाहर स्थावर मे जन्म लेना है, वह जब मरण के अंतर्मुहूर्त पहले, मारणांतिक समुदघात के द्वारा त्रसनाली के बाहर के प्रदेशों को स्पर्श करता है, तब उस त्रस जीव का अस्तित्व त्रसनाली के बाहर पाया जाता है।
केवलिसमुदघात की अपेक्षा त्रस जीव; त्रसनाली के बाहर कैसे पाए जाते है?
जब किसी सयोग केवली भगवान के आयु कर्म की स्थिति अंतर्मुहूर्त मात्र ही हो परन्तु नाम, गोत्र, और वेदनीय कर्म की स्थिती आधिक हो, तब उनके दंड, कपाट, प्रतर और लोकपूरण समुदघात होता है। ऐसा होने से सब कर्मो की स्थिती एक बराबर हो जाती है। इन समुदघात अवस्था मे त्रस जीव त्रसनाली के बाहर भी पाये जाते है।
अधोलोक मे कितनी पृथ्वीयाँ है? और उनके नाम क्या है?
अधोलोक मे ७ पृथ्वीयाँ है। इन्हे नरक भी कहते है। इन के नाम इस प्रकार है॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰
अधोलोक में सबसे पहली, मध्यलोक से लगी हुई, ‘रत्नप्रभा’ पृथ्वी है।
इसके कुछ कम एक राजु नीचे 'शर्कराप्रभा’ है।
इसी प्रकार से एक-एक के नीचे बालुका प्रभा, पंकप्रभा, धूमप्रभा, तम:प्रभा और महातम:प्रभा भूमियाँ हैं।
घम्मा, वंशा, मेघा, अंजना, अरिष्टा, मघवी और माघवी ये भी इन पृथ्वियों के अनादिनिधन नाम हैं।
अधोलोक कि पृथ्वीयों की अलग अलग मोटई कितनी है?
धम्मा (रत्नप्रभा) : १ लाख ८०,००० योजन
वंशा (शर्कराप्रभा) : ३२,००० योजन
मेघा (बालुकाप्रभा) : २८,००० योजन
अंजना (पंकप्रभा) : २४,००० योजन
अरिष्टा (धूमप्रभा) : २०,००० योजन
मघवी (तमःप्रभा) : १६,००० योजन
माघवी (महातमःप्रभा) : ८,००० योजन
नोट : ये सातो पृथ्वीयाँ, उर्ध्व दिशा को छोड शेष ९ दिशाओ मे घनोदधि वातवलय से लगी हुई है।
रत्नप्रभा पृथ्वी के कितने भाग है? और उनकी मोटाईया कितनी है?
रत्नप्रभा पृथ्वी के ३ भाग हैं-
खरभाग (१६००० योजन)
पंकभाग (८४००० योजन)
अब्बहुलभाग (८०००० योजन)
रत्नप्रभा पृथ्वी मे किस किस के निवास है?
खरभाग और पंकभाग में भवनवासी तथा व्यंतरवासी देवों के निवास हैं।
अब्बहुलभाग में प्रथम नरक के बिल हैं, जिनमें नारकियों के आवास हैं।
खरभाग के कितने भेद है और उनकी मोटाईया कितनी है?
खरभाग के १६ भेद है।
चित्रा, वज्रा, वैडूर्या, लोहिता, कामसारकल्पा, गोमेदा, प्रवाला, ज्योतिरसा, अंजना, अंजनमुलिका, अंका, स्फटिका, चंदना, सर्वाथका, वकुला और शैला
खरभाग की कुल मोटाई १६,००० योजन है। उपर्युक्त हर एक पृथ्वी १००० योजन मोटी है।
खरभाग की प्रथम पृथ्वी का नाम "चित्रा" कैसे सार्थक है?
खरभाग की प्रथम पृथ्वी मे अनेक वर्णो से युक्त महितल, शीलातल, उपपाद, बालु, शक्कर, शीसा, चाँदी, सुवर्ण, आदि की उत्पत्तिस्थान वज्र, लोहा, तांबा, रांगा, मणिशीला, सिंगरफ, हरिताल, अंजन, प्रवाल, गोमेद, रुचक, कदंब, स्फटिक मणि, जलकांत मणि, सुर्यकांत मणि, चंद्रकांत मणि, वैडूर्य, गेरू, चन्द्राश्म आदि विवीध वर्ण वाली अनेक धातुए है। इसीलिये इस पृथ्वी का "चित्रा" नाम सार्थक है
नारकी जीव कहाँ रहते है?
नारकी जीव अधोलोक के नरको मे जो बिल है, उनमे रहते है।
नरको मे बिल कहाँ होते है?
रत्नप्रभा पृथ्वी के अब्बहुल भाग से लेकर छठे नरक तक की पृथ्वीयों मे, उनके उपर व निचे के एक एक हजार योजन प्रमाण मोटी पृथ्वी को छोडकर पटलों के क्रम से और सातवी पृथ्वी के ठिक मध्य भाग मे नारकियों के बिल है।
प्रत्येक नरक मे कितने बिल है?
सातों नरको मे मिलकर कुल ८४ लाख बिल इस्प्रकार् है।
प्रथम पृथ्वी : ३० लाख बिल
द्वितीय पृथ्वी : २५ लाख बिल
तृतीय पृथ्वी : १५ लाख बिल
चौथी पृथ्वी : १० लाख बिल
पाँचवी पृथ्वी : ३ लाख बिल
छठी पृथ्वी : ९९,९९५ बिल
साँतवी पृथ्वी : ५ बिल
कौनसे नारकी बिल उष्ण और कौनसे शीत है?
पहली, दुसरी, तीसरी और चौथी नरको के सभी बिल और पाँचवी पृथ्वी के ३/४ बिल अत्यंन्त उष्ण है।
इनकी उष्णता इतनी तीव्र होती है कि अगर उनमे मेरु पर्वत इतना लोहे का शीतल पिंड डाला जाय तो वह तल प्रदेश तक पहुँचने से पहले ही मोम के समान पिघल जायेगा।
पाँचवी पृथ्वी के बाकी १/४ बिल तथा छठी और साँतवी पृथ्वी के सभी बिल अत्यन्त शीतल है।
इनकी शीतलता इतनी तीव्र होती है कि अगर उनमे मेरु पर्वत इतना लोहे का उष्ण पिंड डाला जाय तो वह तल प्रदेश तक पहुँचने से पहले ही बर्फ जैसा जम जायेगा।
इसप्रकार नारकियोंके कुल ८४ लाख बिलों मे से ८२,२५,००० अति उष्ण होते है और १,७५,००० अति शीत होते है।
नारकीयों के बिल की दुर्गन्धता और भयानकता कितनी है?
बकरी, हाथी, घोडा, भैंस, गधा, उंट, बिल्ली, सर्प, मनुष्यादिक के सडे हुए माँस कि गंध की अपेक्षा, नारकीयों के बिल की दुर्गन्धता अनन्तगुणी होती है।
स्वभावतः गाढ अंधकार से परिपूर्ण नारकीयों के बिल क्रकच, कृपाण, छुरिका, खैर की आग, अति तीक्ष्ण सुई और हाथीयों की चिंघाड से भी भयानक है।
नारकीयों के बिल के कितने और कौन कौनसे प्रकार है?
नारकीयों के बिल के निम्नलिखित ३ प्रकार है :
इन्द्रक : जो अपने पटल के सब बिलो के बीच मे हो, उसे इन्द्रक कहते है। इन्हे प्रस्तर या पटल भी कहते है।
श्रेणीबद्ध : जो बिल ४ दिशाओं और ४ विदिशाओं मे पंक्ति से स्थित रहते हे, उन्हे श्रेणीबद्ध कहते है।
प्रकीर्णक : श्रेणीबद्ध बिलों के बीच मे इधर उधर रहने वाले बिलों को प्रकीर्णक कहते है।
नरक इन्द्रक बिल श्रेणीबद्ध बिल प्रकीर्णक बिल
प्रथम १३ ४४२० २९,९५,५६७
दुसरा ११ २६८४ २४,९७,३०५
तीसरा ९ १४७६ १४,९८,५१५
चौथा ७ ७०० ९,९९,२९३
पाँचवा ५ २६० २,९९,७३५
छठा ३ ६० ९९,९३२
साँतवा १ ४ ०
कुल संख्या ४९ ९६०४ ८३,९०,३४७
प्रथम नरक मे इन्द्रक बिलो की रचना किस प्रकार है, और उनके नाम क्या है?
प्रथम नरक मे १३ इन्द्रक पटल है।
ये एक पर एक ऐसे खन पर खन बने हुए है।
ये तलघर के समान भुमी मे है एवं चूहे आदि के बिल के समान है।
ये पटल औंधे मुँख और बिना खिडकी आदि के बने हुए है।
इसप्रकार इनका बिल नाम सार्थ है।
इन १३ इन्द्रक बिलों के नाम क्रम से सीमन्तक, निरय, रौरव, भ्रांत, उद्भ्रांत, संभ्रांत, असंभ्रांत, विभ्रांत, त्रस्त, त्रसित, वक्रान्त, अवक्रान्त, और विक्रान्त है।
श्रेणीबद्ध बिलों का प्रमाण कैसे निकालते है?
प्रथम नरक के सीमन्तक नामक इन्द्रक बिल की चारो दिशाओँमे ४९ - ४९ और चारो विदिशाओ मे ४८ - ४८ श्रेणीबद्ध बिल है।
चार दिशा सम्बन्धी ४ × ४९ = कुल १९६ और चार विदिशा सम्बन्धी ४ × ४८ = कुल १९२ हुए।
इसप्रकार सीमन्तक नामक एक इन्द्रक बिल सम्बन्धी कुल ३८८ श्रेणीबद्ध बिल हुए।
इससे आगे, दुसरे निरय आदि इन्द्रक बिलो के आश्रित रहने वाले श्रेणीबद्ध बिलो मे से एक एक बिल कम हो जाता है और प्रथम नरक के कुल ४४२० श्रेणीबद्ध बिल होते है।
प्रकीर्णक बिलों का प्रमाण कैसे निकालते है?
हर एक नरक के संपूर्ण बिलो की संख्या से उनके इन्द्रक और श्रेणीबद्ध बिलो की संख्या घटाने से उस उस नरक की प्रकीर्णक बिलों की संख्या मिलती है। जैसे प्रथम नरक के कुल ३० लाख बिलो मे से १३ इन्द्रक और ४४२० श्रेणीबद्ध बिलो कि संख्या घटाने से प्रकीर्णक बिलो कि संख्या (२९,९५,५६७) मिलती है।
नारकी बिलों का विस्तार कितना होता है?
इन्द्रक बिलों का विस्तार संख्यात योजन प्रमाण है।
श्रेणीबद्ध बिलों का विस्तार असंख्यात योजन प्रमाण है।
कुछ प्रकीर्णक बिलों का विस्तार संख्यात योजन तो कुछ का असंख्यात योजन प्रमाण है।
कुल ८४ लाख बिलों मे से १/५ बिल का विस्तार संख्यात योजन तो ४/५ बिलों का असंख्यात योजन प्रमाण है।
पृथक पृथक नरको मे संख्यात और असंख्यात बिलों का विस्तार कितना होता है?
नरक संख्यात योजन वाले बिल असंख्यात योजन वाले बिल्
प्रथम ६ लाख २४ लाख
दुसरा ५ लाख २० लाख
तिसरा ३ लाख १२ लाख
चौथा २ लाख ८ लाख
पाँचवा ६० हजार २४ लाख
छठा १९ हजार ९९९ ७९ हजार ९९६
साँतवा १ ४
कुल् १६ लाख ८० हजार ६७ लाख २० हजार
नारकी बिलों मे तिरछा अंतराल कितना होता है?
संख्यात योजन विस्तार वाले बिलों मे तिरछे रुप मे जघन्य अंतराल ६ कोस और उत्कृष्ठ अंतराल १२ कोस प्रमाण है।
असंख्यात योजन विस्तार वाले बिलों मे तिरछे रुप मे जघन्य अंतराल ७००० योजन और उत्कृष्ठ अंतराल असंख्यात योजन प्रमाण है।
नारकी बिलों मे कितने नारकी जीव रहते है?
संख्यात योजन विस्तार वाले बिलों मे नियम से संख्यात तथा असंख्यात योजन विस्तार वाले बिलों मे असंख्यात नारकी जीव रहते है।
इन्द्रक बिलों का विस्तार कितना होता है?
प्रथम इन्द्रक का विस्तार ३५ लाख योजन और अन्तिम इन्द्रक का १ लाख योजन प्रमाण है।
दुसरे से ४८ वे इन्द्रक का प्रमाण तिलोयपण्णत्ती से समझ लेना चहिये।
इन्द्रक बिलों के मोटाई का प्रमाण कितना होता है?
नरक इन्द्रक की मोटाई
प्रथम १ कोस
दुसरा १ १/२ कोस
तिसरा २ कोस
चौथा २ १/२ कोस
पाँचवा ३ कोस
छठा ३ १/२ कोस
साँतवा ४ कोस
इन्द्रक बिलों के अंतराल का प्रमाण कितना है और उसे कैसे प्राप्त करे(कॅलक्युलेट करे)?
इन्द्रक बिलों के अंतराल का प्रमाण :
नरक आपस मे अंतर
प्रथम ६४९९-३५/४८ योजन
दुसरा २९९९-४७/८० योजन
तिसरा ३२४९-७/१६ योजन
चौथा ३६६५-४५/४८ योजन
पाँचवा ४४९९-१/१६ योजन
छठा ६९९८-११/१६ योजन
साँतवा एक ही बिल होने से, अंतर नही होता
अंतराल निकालने की विधी (उदाहरण) :
रत्नप्रभा पृथ्वी के अब्बहुल भाग मे जहाँ प्रथम नरक है - उसकी मोटाई ८०,००० योजन है।
इसके उपरी १ हजार और निचे की १ हजार योजन मे कोइ पटल नही होने से उसे घटा दे तो ७८,००० योजन शेष रहते है।
फिर एक एक पटल की मोटाई १ कोस होने से १३ पटलों की कुल मोटाई १३ कोस (३-१/४ योजन)भी उपरोक्त ७८००० योजन से घटा दे।
अब एक कम १३ पटलों से उपरोक्त शेष को भाग देने से पटलों के मध्य का अंतर मिल जायेगा।
(८०००० - २०००) - (१/४ × १३) ÷ (१३ - १) = ६४९९-३५/४८ योजन
एक नरक के अंतिम इन्द्रक से अगले नरक के प्रथम इन्द्रक का अंतर कितना होता है?
आपस मे अंतर
प्रथम नरक के अंतिम इन्द्रक से दुसरे नरके के प्रथम इन्द्रक तक् २,०९,००० योजन कम १ राजू
दुसरे नरक के अंतिम इन्द्रक से तिसरे नरके के प्रथम इन्द्रक तक् २६,००० योजन कम १ राजू
तिसरे नरक के अंतिम इन्द्रक से चौथे नरके के प्रथम इन्द्रक तक् २२,००० योजन कम १ राजू
चौथे नरक के अंतिम इन्द्रक से पाँचवे नरके के प्रथम इन्द्रक तक् १८,००० योजन कम १ राजू
पाँचवे नरक के अंतिम इन्द्रक से छठे नरके के प्रथम इन्द्रक तक् १४,००० योजन कम १ राजू
छठे नरक के अंतिम इन्द्रक से साँतवे नरके के प्रथम इन्द्रक तक् ३,००० योजन कम १ राजू
नारकी जीव नरको मे उत्पन्न होते ही, उसे कैसा दुःख भोगना पडता है?
पाप कर्म से नरको मे जीव पैदा होकर, एक मुहुर्त काल मे छहों पर्याप्तियों को पूर्ण कर अकस्मिक दुःख को प्राप्त करता है।
पश्चात, वह भय से काँपता हुआ बडे कष्ट से चलने को प्रस्तुत होता है और छत्तीस आयुधो के मध्य गिरकर गेंद के समान उछलता है।
प्रथम नरक मे जीव ७ योजन ६५०० धनुष प्रमाण उपर उछलता है। आगे शेष नरको मे उछलने का प्रमाण क्रम से उत्तरोत्तर दूना दूना है।
नारकी जीव के जन्म लेने के उपपाद स्थान कैसे होते है?
सभी प्रकार के बिलों मे उपर के भाग मे (छत मे)अनेक प्रकार के तलवारो से युक्त अर्धवृत्त और अधोमुख वाले जन्मस्थान है।
ये जन्म स्थान पहले से तिसरे पृथ्वी तक उष्ट्रिका, कोथली, कुंभी, मुदगलिका, मुदगर और नाली के समान है।
चौथे और पाँचवी पृथ्वी मे जन्मभुमियो के आकार गाय, हाथी, घोडा, भस्त्रा, अब्जपुट, अम्बरीष, और द्रोणी (नाव) जैसे है।
छठी और साँतवी पृथ्वी मे जन्मभुमियो के आकार झालर, द्वीपी, चक्रवाक, श्रृगाल, गधा, बकरा, ऊंट, और रींछ जैसे है।
ये सभी जन्मभुमिया अंत मे करोंत के सदृश चारो तरफ से गोल और भयंकर है।
परस्त्री सेवन का पाप करने वाले जीव को नरको मे कैसा दुःख उठाना पडता है?
एैसे जीव के शरिर मे बाकी नारकी तप्त लोहे का पुतला चिपका देते है, जिससे उसे घोर वेदना होती है।
माँस भक्षण का पाप करने वाले जीव को नरको मे कैसा दुःख उठाना पडता है?
एैसे जीव के शरिर के बाकी नारकी छोटे छोटे तुकडे करके उसी के मुँह मे डालते है।
मधु और मद्य सेवन का पाप करने वाले जीव को नरको मे कैसा दुःख उठाना पडता है?
एैसे जीव को बाकी नारकी अत्यन्त तपे हुए द्रवित लोहे को जबरदस्ती पीला देते है, जिससे उसके सारे अवयव पिघल जाते है।
नरक की भुमी कितनी दुःखदायी है?
नारकी भुमी दुःखद स्पर्शवाली, सुई के समान तीखी दुब से व्याप्त है। उससे इतना दुःख होता हे कि जैसे एक साथ हजारों बिच्छुओ ने डंक मारा हो।
नारकियों के साथ कितने रोगो का उदय रहता है?
नारकियों के साथ ५ करोड ६८ लाख, ९९ हजार, ५८४ रोगो का उदय रहता है
नारकियों का आहार कैसा होता है?
कुत्ते, गधे आदि जानवरों के अत्यन्त सडे हुए माँस और विष्ठा की दुर्गन्ध की अपेक्षा, अनन्तगुनी दुर्गन्धित मिट्टी नारकियों का आहार होती है।
प्रथम नरक के प्रथम पटल (इन्द्रक बिल) की ऐसी दुर्गन्धित मिट्टी को यदि हमारे यहाँ मध्यलोक मे डाला जाये तो उसकी दुर्गध से १ कोस पर्यन्त के जीव मर जायेंगे।
इससे आगे दुसरे, तिसरे आदि पटलों मे यह मारण शक्ती आधे आधे कोस प्रमाण बढते हुए साँतवे नरक के अन्तिम बिल तक २५ कोस प्रमाण हो जाती है।
क्या तीर्थंकर प्रकृती का बंध करने वाला जीव नरक मे जा सकता है?
जी हाँ। अगर उस जीव ने तीर्थंकर प्रकृती का बंध करने से पहले नरकायु का बंध कर लिया है तो वह पहले से तिसरे नरक तक उत्पन्न हो सकता है।
एैसे जीव को भी असाधारण दुःख का अनुभव करना पडता है। पर सम्यक्त्व के प्रभाव से वो वहाँ पूर्वकृत कर्मों क चिंतवन करता है।
जब उसकी आयु ६ महिने शेष रह जाती है, तब स्वर्ग से देव आकर उस नारकी के चारो तरफ परकोटा बनाकर उसका उपसर्ग दुर करते है।
इसी समय मध्यलोक मे रत्नवर्षा आदि गर्भ कल्याणक सम्बन्धी उत्सव होने लगते है।
नारकियों के दुःख के कितने भेद है?
नरकों मे नारकियों को ४ प्रकार के दुःख होते है।
क्षेत्र जनित : नरक मे उत्पन्न हुए शीत, उष्ण, वैतरणी नदी, शाल्मलि वृक्ष आदि के निमीत्त से होने वाले दुःख को क्षेत्र जनित दुःख कहते है।
शारीरिक : शरीर मे उत्पन्न हुए रोगों के दुःख और मार-काट, कुंभीपाक आदि के दुःख शारीरिक कहलाते है।
मानसिक : संक्लेश, शोक, आकुलता, पश्चाताप आदि के निमीत्त से होने वाले दुःख को मानसिक दुःख कहते है।
असुरकृत : तिसरे नरक तक संक्लेश परिणाम वाले असुरकुमार जाति के भवनवासी देवों द्वरा उत्पन्न कराये गये दुःख को असुरकृत दुःख कहते है।
नारकियों को परस्पर दुःख उत्पन्न करानेवाले असुरकुमार देव कौन होते है?
पुर्व मे देवायु का बन्ध करने वाले मनुष्य या तिर्यंच अनन्तानुबन्धी मे से किसी एक का उदय आने से रत्नत्रय को नष्ट करके असुरकुमार जाती के देव होते है।
सिकनानन, असिपत्र, महाबल, रुद्र, अम्बरीष, आदि असुर जाती के देव तीसरी बालुकाप्रभा पृथ्वी (नरक) तक जाकर नारकियों को परस्पर क्रोध उत्पन्न करा-करा कर उनमे युद्ध कराते
है और प्रसन्न होते है।
क्या नरको मे अवधिज्ञान होता है ?
हाँ । नरको मे भी अवधिज्ञान होता है।
नरके मे उत्पन्न होते ही छहों पर्याप्तियाँ पुर्ण हो जाती है और भवप्रत्यय अवधिज्ञान प्रकट हो जाता है।
मिथ्यादृष्टि नारकियों का अवधिज्ञान विभंगावधि - कुअवधि कहलाता है। एवं सम्यगदृष्टि नारकियोंका ज्ञान अवधिज्ञान कहलाता है।
अलग अलग नरको मे अवधिज्ञान का क्षेत्र कितना होता है ?
प्रथम नरक मे अवधिज्ञान का क्षेत्र १ योजन (४ कोस) है। दुसरे नरक से आगे इसमे आधे आधे कोस की कमी होती जाती है।
जैसे दुसरे नरके मे ३ १/२ कोस, तिसरे मे ३ कोस आदि।
साँतवे नरक मे यह प्रमाण १ कोस रह जाता है।
नरको मे अवधिज्ञान प्रकट होने पर मिथ्यादृष्टि और सम्यगदृष्टि जीव की सोच मे क्या अंतर होता है ?
अवधिज्ञान प्रकट होते ही नारकी जीव पूर्व भव के पापोंको, बैर विरोध को, एवं शत्रुओं को जान लेते है।
जो सम्यगदृष्टि है, वे अपने पापों का पश्चाताप करते रहते है और मिथ्यादृष्टि पुर्व उपकारों को भी अपकार मानते हुए झगडा-मार काट करते है।
कोइ भद्र मिथ्यादृष्टि जीव पाप के फल को भोगते हुए, अत्यन्त दुःख से घबडाकर 'वेदना अनुभव' नामक निमित्त से सम्यगदर्शन को प्राप्त करते है।
नरको मे सम्यक्त्व मिलने के क्या कारण है ?
धम्मा आदि तीन पृथ्वीयों मे मिथ्यात्वभाव से युक्त नारकियोँ मे से कोइ जातिस्मरण से, कोई दुर्वार वेदना से व्यथित होकर, कोई देवों का संबोधन पाकर सम्यक्त्व को प्राप्त करता है।
पंकप्रभा आदि शेष चार पृथ्वीयों मे देवकृत संबोधन नही होता, इसलिये जातिस्मरण और वेदना अनुभव मात्र से सम्यक्त्व को प्राप्त करता है।
इस तरह सभी नरकों मे सम्यप्त्व के लिये, कारणभूत सामग्री मिल जाने से नारकी जीव सम्यक्त्व को प्राप्त करता है।
जीव नरको मे किन किन कारणों से जाता है ?
मुलतः पाँच पापों का और सप्त व्यसनों का सेवन करने से जीव नरक मे जाता है।
हिंसा, झुठ, चोरी, अब्रम्ह, और परिग्रह ये पाँच पाप है।
चोरी करना, जुँआ खेलना, शराब पीना, माँस खाना, परस्त्री सेवन, वेश्यागमन, शिकार खेलना ये सप्त व्यसन है।
प्रत्येक नरक के प्रथम पटल (बिल) और अन्तिम पटल मे नारकीयों के शरिर की अवगाहना कितनी होती है ?
प्रथम पटल मे अन्तिम पटल मे
प्रथम नरके मे ३ हाथ ७ धनुष ३ हाथ ६ अंगुल
द्वितीय नरके मे ८ धनुष २ हाथ २४/११ अंगुल १५ धनुष २ हाथ १२ अंगुल
तृतीय नरके मे १७ धनुष ३४ २/३ अंगुल ३१ धनुष १ हाथ
चतुर्थ नरके मे ३५ धनुष २ हाथ २० ४/७ अंगुल ६२ धनुष २ हाथ
पंचम नरके मे ७५ धनुष १२५ धनुष
षष्ठम नरके मे १६६ धनुष २ हाथ १६ अंगुल २५० धनुष
साँतवे नरक के अवधिस्थान इन्द्रक बिल मे : ५०० धनुष
प्रत्येक नरक के अन्तिम पटल के शरिर की अवगाहना उस नरक की उत्कृष्ठ अवगाहना होती है।
लेश्या किसे कहते है ?
कषायों के उदय से अनुरंजित, मन वचन और काय की प्रवृत्ती को लेश्या कहते है।
उसके कृष्ण, नील, कापोत, पीत, पद्म, और शुक्ल ऐसे ६ भेद होते है।
प्रारंभ की तीन लेश्यायें अशुभ है और संसार की कारण है एवं शेष तीन लेश्यायें शुभ है और मोक्ष की कारण है।
नरक मे कौनसी लेश्यायें होती है ?
प्रथम और द्वितीय नरक मे : कापोत लेश्या
तृतीय नरक मे : ऊपर कापोत और निचे नील लेश्या
चतुर्थ नरक मे : नील लेश्या
पंचम नरक मे :ऊपरी भाग मे नील और निचले भाग मे कृष्ण लेश्या
षष्ठम नरक मे :कृष्ण लेश्या
सप्तम नरक मे :परमकृष्ण लेश्या
क्या नारकीयोंकी अपमृत्यु होती है ?
नहीं। नारकीयोंकी अपमृत्यु नहीं होती है।
दुःखो से घबडाकर नारकी जीव मरना चाहते है, किन्तु आयु पूरी हुए बिना मर नही सकते है।
दुःख भोगते हुए उनके शरिर के तिल के समान खन्ड खन्ड होकर भी पारे के समान पुनः मिल जाते है।
नारकीयोंकी जघन्य, मध्यम, और उत्कृष्ठ आयु कितनी होती है ?
नारकीयोंकी जघन्य आयु १०,००० वर्ष और उत्कृष्ठ ३३ सागर की होती है। १०,००० वर्ष से एक समय अधिक और ३३ सागर से एक समय कम के मध्य की सभी आयु मध्यम कहलाती है।
प्रत्येक नरक के पटलों की अपेक्षा जघन्य, और उत्कृष्ठ आयु का क्या प्रमाण है?
प्रत्येक नरक के पहले पटल की उत्कृष्ठ आयु, दुसरे पटल की जघन्य आयु होती है। उदा॰ प्रथम नरक मे १३ पटल है। इसमे प्रथम पटल मे उत्कृष्ठ आयु, ९०,००० वर्ष है। यही आयु दुसरे पटल की जघन्य आयु हो जाती है। इसीप्रकार प्रथम नरक की उत्कृष्ठ आयु, दुसरे नरक की जघन्य आयु होती है।
नरक जघन्य आयु उत्कृष्ठ आयु
पहला १० हजार वर्ष १ सागर
दुसरा १ सागर ३ सागर
तिसरा ३ सागर ७ सागर
चौथा ७ सागर १० सागर
पाँचवा १० सागर १७ सागर
छठा १७ सागर २२ सागर
साँतवा २२ सागर ३३ सागर
आयु के अन्त मे नारकियों के शरिर वायु से ताडित मेघों के समान निःशेष विलिन हो जाते है।
प्रत्येक नरक मे नारकियों के जन्म लेने के अन्तर का क्या प्रमाण है?
नरक मे उत्पन्न होने वाले दो जीव के जन्म के बीच के अधिक से अधिक समय (अन्तर) का प्रमाण निम्नप्रकार है।
प्रथम नरक मे : २४ मुहूर्त
द्वितीय नरक मे : ७ दिन
तृतीय नरक मे : १५ दिन
चतुर्थ नरक मे : १ माह
पंचम नरक मे : २ माह
षष्ठम नरक मे : ४ माह
सप्तम नरक मे : ६ माह
कौन कौन से जीव किन-किन नरको मे जाने की योग्यता रखते है?
कर्म भुमी के मनुष्य और संज्ञी पंचेंद्रिय तिर्यंच जीव ही मरण करके अगले भव मे नरको मे जा सकते है।
असंज्ञी पंचेंद्रिय तिर्यंच जीव प्रथम नरक तक, सरीसृप द्वितीय नरक तक जा सकता है।
पक्षी तिसरे नरक तक, भुजंग आदि चौथे तक, सिंह पाँचवे तक, स्त्रियाँ छठे तक जा सकते है।
मत्स्य और मनुष्य साँतवे नरक जाने की योग्यता रखते है।
नारकी, देव, भोग भुमीयाँ, विकलत्रय और स्थावर जीव मरण के बाद अगले भव मे नरको मे नही जाते।
नरक से निकलकर नारकी किन-किन पर्याय को प्राप्त कर सकते है?
नरक से निकलकर कोइ भी जीव अगले भव मे चक्रवर्ती, बलभद्र, नारायण और प्रतिनारायण नही हो सकता है।
प्रथम तीन नरको से निकले जीव तिर्थंकर हो सकते है।
चौथे नरक तक के जीव वहाँ से निकलकर, मनुष्य पर्याय मे चरम शरिरी हो कर मोक्ष भी जा सकते है।
पाँचवे नरक तक के जीव संयमी मुनी हो सकते है।
छठे नरक तक के जीव देशव्रती हो सकते है।
साँतवे नरक से निकले जीव कदाचित सम्यक्त्व को ग्रहण कर सकते है। मगर ये नियम से पंचेंद्रिय, पर्याप्तक, संज्ञी तिर्यंच ही होते है। मनुष्य नही हो सकते है।
भवनवासी देव
भवनवासी देवों का स्थान अधोलोक मे कहाँ है?
पहली रत्नप्रभा भुमी के ३ भागो मे से पहले २ भाग (खरभाग और पंकभाग) मे उत्कृष्ठ रत्नों से शोभायमान भवनवासी और व्यंतरवासी देवों के भवन है।
भवनवासी देवों के कितने और कौनसे भेद है?
भवनवासी देवों के १० भेद है :
१)असुरकुमार २) नागकुमार, ३) सुपर्णकुमार ४) द्विपकुमार ५) उदधिकुमार ६) स्तनितकुमार ७) विद्युत्कुमार ८) दिक्कुमार ९) अग्निकुमार १०) वायुकुमार
भवनवासी देवों के मुकुटों मे कौनसे चिन्ह होते है?
भवनवासी देवों के मुकुटों मे १० प्रकार के चिन्ह होते है :
असुरकुमार - चूडामणि
नागकुमार - सर्प
सुपर्णकुमार - गरुड
द्विपकुमार - हाथी
उदधिकुमार - मगर
स्तनितकुमार - वर्धमान
विद्युत्कुमार - वज्र
दिक्कुमार - सिंह
अग्निकुमार - कलश
वायुकुमार - घोडा
भवनवासी देवों के भवनों का कुल प्रमाण कितना है?
भवनवासी देवों के कुल ७ करोड, ७२ लाख भवन है। इन भवनों मे एक एक अकृत्रिम जिनालय है।
यही अधोलोक संबंधी ७ करोड, ७२ लाख अकृत्रिम चैत्यालय है जिसमे अकृत्रिम जिनबिंब है। इन्हे हम मन वचन काय से नमस्कार करते है।
भवनवासी देवों के इन्द्रों का और उनके भवनों का पृथक पृथक (अलग अलग) प्रमाण कितना है?
भवनवासी देवों के १० प्रकारोँ मे पृथक पृथक दो दो इन्द्र होते है। इसप्रकार कुल २० इन्द्र होते है।
इनमे से प्रत्येकोंके प्रथम १० इन्द्रोंको दक्षिण इन्द्र और आगे के १० इन्द्रोंको उत्तर इन्द्र कहते है।
ये सब अणिमा-महिमा आदि ऋद्धियों से और मणिमय भुषणों से युक्त होते है।
देव दक्षिण इन्द्र दक्षिणेंद्र के भवन उत्तर इन्द्र उत्तरणेंद्र के भवन कुल भवन
असुरकुमार चमर ३४ लाख वैरोचन ३० लाख ६४ लाख
नागकुमार भूतानंद ३४ लाख धरणानंद ४० लाख ७४ लाख
सुपर्णकुमार वेणू ३८ लाख वेणूधारी ३४ लाख ७२ लाख
द्विपकुमार पूर्ण ४० लाख वशिष्ठ ३६ लाख ७६ लाख
उदधिकुमार जलप्रभ ४० लाख जलकांत ३६ लाख ७६ लाख
स्तनितकुमार घोष ४० लाख महाघोष ३६ लाख ७६ लाख
विद्युत्कुमार हरिषेण ४० लाख हरिकांत ३६ लाख ७६ लाख
दिक्कुमार अमितगती ४० लाख अमितवाहन ३६ लाख ७६ लाख
अग्निकुमार अग्निशिखी ४० लाख अग्निवाहन ३६ लाख ७६ लाख
वायुकुमार वेलंब ५० लाख प्रभंजन ४६ लाख ९६ लाख
इसप्रकार दक्षिणेंद्र के ४ करोड ६ लाख भवन और उत्तरेंद्र के ३ करोड ६६ लाख भवन मिलाकर कुल ७ करोड ७२ लाख भवन होते है।
भवनवासी देवों के निवास के कौनसे भेद है?
इनके ३ भेद है :
भवन : रत्नप्रभा पृथ्वी मे स्थित निवास
भवनपुर : द्विप समुद्र के उपर स्थित निवास
आवास : रमणीय तालाब, पर्वत तथा वृक्षादिक के उपर स्थित निवास
नागकुमार आदि देवो मे से किन्ही के तीनों प्रकार के निवास होते है, मगर असुरकुमार देवो के सिर्फ भवनरुप ही निवास स्थान होते है।
इनमे से अल्पऋद्धि, महाऋद्धि और मध्यमऋद्धि के धारक भवनवासियों के भवन क्रमशः चित्रा पृथ्वी के निचे दो हजार, ४२ हजार और १ लाख योजन पर्यन्त जाक्र है।
भवनवासी देवों के भवनों का प्रमाण क्या है?
ये सब भवन समचतुष्कोण तथा वज्रमय द्वारों से शोभायमान है।
इनकी ऊंचाइ ३०० योजन और विस्तार संख्यात और असंख्यात होता है।
संख्यात विस्तार वाले भवनों मे संख्यात देव और असंख्यात विस्तार वाले भवनों मे असंख्यात देव रहते है।
भवनवासी देवों के भवनों का स्वरुप कैसा है?
भवनवासी देवो के भवनो के मध्य मे १०० योजन ऊंचे एक एक कूट स्थित है।
इन कूटों के चारो तरफ नाना प्रकार के रचनाओं से युक्त, उत्तम सुवर्ण और रत्नों से निर्मित भवनावासी देवो के महल है.
ये महल सात, आठ, नौ, दस इत्यादि अनेक तलों वाले है.
यह भवन रत्नामालाओं से भूषीत, चमकते हुए मणिमय दीपकों से सुशोभित, जन्मशाला, अभिषेकशाला, भूषणशाला, मैथुनशाला, परिचर्यागृह और मंत्रशाला आदि से रमणीय है.
इनमे मणिमय तोरणों से सुंदर द्वारों वाले सामान्यगृह, कदलिगृह, गर्भगृह, चित्रगृह, आसनगृह, नादगृह, और लतागृह इत्यादि गृह विशेष भी है.
यह भवन सुवर्णमय प्राकार से संयुक्त, विशाल छज्जों से शोभित, फहराती हुइ ध्वजाओं, पुष्करिणी, वापी, कूप, क्रीडन युक्त मत्तावारणो, मनोहर गवाक्ष और कपाटों सहित अनादिनिधन है.
इन भवनों के चारो पार्श्वभागों में चित्र विचित्र आसन एवं उत्तम रत्नों से निर्मित दिव्या शय्याये स्थित है.
भवनवासी देवों के भवनों मे किस प्रकार के जिन मंदिर है?
भवनवासी देवो के भवनो के मध्य मे १०० योजन ऊंचे एक एक कूट स्थित है।
इन कूटों के उपर पद्मराग मणिमय कलशों से सुशोभित जिनमंदिर है।
यह मंदिर ४ गोपुर, ३ मणिमय प्राकार, वन ध्वजाये, एवं मालाओं से संयुक्त है।
भवनवासी देवों के चैत्यवृक्षों का प्रमाण क्या है?
भवनवासी देवो के जिनमंदिरों के चारो ओर नाना चैत्यवृक्षो सहित पवित्र अशोक वन, सप्तच्छद वन, चंपक वन, आम्र वन स्थित है।
प्रत्येक चैत्यवृक्ष का अवगाढ-जड़ १ कोस, स्कंध की ऊँचाइ १ योजन, और शाखाओं की लंबाइ ४ योजन प्रमाण है।
भवनवासी देवों के चैत्यवृक्षों का स्वरूप कैसा है?
असुरकुमार आदि १० प्रकार के भवनवासी देवों के भवनों में ओलग शालाओं के आगे विविध प्रकार के रत्नों से निर्मित चैत्यावृक्ष होते है।
पीपल, सप्तपर्ण, शाल्मली, जामुन, वेतस, कदंब, प्रियंगु, शिरीष, पलाश, और राजदृम ये १० चैत्यवृक्ष क्रम से उन असुरादिक कुलो के चिन्ह रूप है।
ये दिव्य वृक्ष विविध प्रकार के उत्तम रत्नो की शाखाओं से युक्त, विचित्र पुष्पों से अलंकृत, और उत्कृष्ठ मरकत मणिमय उत्तम पत्रों से व्याप्त है।
यह अतिशय शोभा को प्राप्त, विविध प्रकार के अंकुरों से मंडित, अनेक प्रकार के फलों से युक्त, है।
ये वृक्ष नाना प्रकार के रत्नों से निर्मित, छत्र के उपर से संयुक्त, घंटा ध्वजा से रमणीय, आदि अंत से रहित पृथ्वीकायिक स्वरुप है।
भवनवासी देवों के चैत्यवृक्षों के मूल मे विराजमान जिन प्रतिमाओं का स्वरूप कैसा है?
भवनवासी देवों के चैत्यवृक्षों के मूल मे चारो दिशाओं मे से प्रत्येक दिशा मे पद्मासन से स्थित पाँच-पाँच जिन प्रतिमाये विराजमान होती है।
उन सभी प्रतिमाओं के आगे रत्नमय २० मानस्तंभ है।
एक एक मानस्तंभ के ऊपर चारो दिशाओ में सिंहासन की शोभा से युक्त जिन प्रतिमाये है।
ये प्रतिमाये देवो से पूजनीय, चार तोरणो से रमणीय, आठ महामंगल द्रव्यों से सुशोभित और उत्तमोत्तम रत्नो से निर्मित होती है।
भवनवासी देवों के जिन मंदिरों का स्वरूप कैसा है?
इन जिनालयों मे चार-चार गोपुरों से संयुक्त तीन कोट है।
प्रत्येक वीथी मे एक एक मानस्थंभ व वन है।
स्तूप तथा कोटो के अंतराल मे क्रम से वनभूमि, ध्वजभुमि,और चैत्यभुमि ऐसे तीन भुमियाँ है।
इन जिनालयो मे चारों वनों के मध्य मे स्थित तीन मेखलाओ से युक्त नंदादिक वापिकायें, तीन पीठों से युक्त धर्म विभव तथा चैत्यवृक्ष शोभायमान होते है।
भवनवासी देवों के जिन मंदिरों के ध्वजभुमियों का स्वरूप कैसा है?
इन ध्वजभुमियों मे सिंह, गज, वृषभ, गरुड, मयुर, चंद्र, सूर्य, हंस, पद्म, चक्र इन चिन्होंसे अंकित ध्वजायें होती है।
उपरोक्त प्रत्येक चिन्हों वाली १०८ महाध्वजायें होती है और इन एक-एक महाध्वजा के आश्रित १०८ लघु (क्षुद्र) ध्वजायें भी होती है।
भवनवासी देवों के जिन मंदिरों के मंडपों का स्वरूप कैसा है?
इस जिन मंदिरों मे वंदन मंडप, अभिषेक मंडप, नर्तन मंडप, संगीत मंडप और प्रेक्षणमंडप होते है।
इसके अलावा क्रीड़गृह, गुणनगृह (स्वाध्याय शाला) एवं विशाल चित्रशालायें भी होती है।
भवनवासी देवों के जिन मंदिरों के भीतर की रचना कैसी होती है?
इन मंदिरोँ मे देवच्छंद के भीतर श्रीदेवी, श्रुतदेवी, तथा सर्वाण्ह और सानत्कुमार यक्षों की मूर्तियाँ एवं आठ मंगल द्रव्य होते है।
झारी, कलश, दर्पण, ध्वजा, चामर, छत्र, व्यजन और सुप्रतिष्ठ इन आठ मंगल द्रव्यों मे से वहाँ प्रत्येक १०८ - १०८ होते है।
इनमे चमकते हुए रत्नदीपक और ५ वर्ण के रत्नों से निर्मित चौक होते है।
यहाँ गोशीर्ष, मलयचंदन, कालागरू और धूप कि गंध तथा भंभा, मृदंग, मर्दल, जयघंटा, कांस्यताल, तिवली, दुंदुभि एवं पतह के शब्द नित्य गुंजायमान होते है।
भवनवासी देवों के जिन मंदिरों की प्रतिमायें कैसी होती है?
हांथ मे चंवर लिए हुए नागकुमार देवों से युक्त, उत्तम उत्तम रत्नों से निर्मित, देवों द्वारा वंद्य, ऐसी उत्तम प्रतिमायें सिंहासन पर विराजमान है।
प्रत्येक जिनभवन मे १०८ - १०८ प्रतिमायें विराजमान है।
ऐसे अनादिनिधन जिनभवन ७ करोड ७२ लाख है, जो की भवनवासी देवों के भवनों की संख्या प्रमाण है।
भवनवासी देवों के जिन मंदिरों मे कौन कौन से देव पूजा करते है?
जो देव सम्यगदर्शन से युक्त है, वे कर्म क्षय के निमित्त नित्य ही जिनेंद्र भगवान कि पूजा करते है। इसके अतिरिक्त सम्यगदृष्टि देवों से सम्बोधित किये गये मिथ्यादृष्टि देव भी कुल देवता मानकर जिनेंद्र प्रतिमाओं की बहुत प्रकार से पूजा करते रहते है।
भवनवासी देवों के परिवारों मे कौन कौन होते है?
भवनवासी देव १० प्रकार (जाती) के होते है और प्रत्येक प्रकार में दो - दो इंद्र होते है.
प्रत्येक इंद्र के दस-दस प्रकार के परिवार देव होते है. जैसे चमरेंद्र के १० परिवार देव, वैरोचणेंद्र के १० परिवार देव इत्यादि.
ये परिवार देव इस प्रकार होते है : प्रतिन्द्र, त्रायस्त्रिंश, सामानिक, लोकपाल, तनुरक्षक (आत्मरक्षक), पारिषद, अनीक, प्रकीर्णक, आभियोग्य और किल्विषक.
इस परिवार में इंद्र - राजा के समान, प्रतिन्द्र – युवराज के समान, त्रायस्त्रिंश – पुत्र के समान, और सामानिक देव – पत्नी के समान होते हे.
प्रत्येक इंद्र के सोम, यम, वरुण और कुबेर नामक, चार – चार रक्षक लोकपाल होते है जो क्रम से पूर्व, पश्चिम आदि दिशाओं में होते है. ये परिवार में तंत्रपालो के समान होते है.
तनुरक्षक देव अंगरक्षक के समान होते है.
राजा की बाह्य, मध्य और आभ्यंतर समिती के समान देवो में भी ३ प्रकार की परिषद होती है. इन तीन परिषदों में बैठनेवाले देव, क्रमशः बाह्य पारिषद, मध्य * पारिषद, और आभ्यंतर पारिषद कहलाते है.
अनीक देव सेना के तुल्य, प्रकीर्णक – प्रजा के तुल्य, आभियोग्य – दास के समान और किल्विषक - चांडालके समान होते है.
भवनवासी देवों के परिवारों मे कौन कौन होते है?
भवनवासी देव १० प्रकार (जाती) के होते है और प्रत्येक प्रकार में दो - दो इंद्र होते है.
प्रत्येक इंद्र के दस-दस प्रकार के परिवार देव होते है. जैसे चमरेंद्र के १० परिवार देव, वैरोचणेंद्र के १० परिवार देव इत्यादि.
ये परिवार देव इस प्रकार होते है : प्रतिंद्र, त्रायस्त्रिंश, सामानिक, लोकपाल, तनुरक्षक (आत्मरक्षक), पारिषद, अनीक, प्रकीर्णक, आभियोग्य और किल्विषक.
इस परिवार में इंद्र - राजा के समान, प्रतिन्द्र – युवराज के समान, त्रायस्त्रिंश – पुत्र के समान, और सामानिक देव – पत्नी के समान होते हे.
प्रत्येक इंद्र के सोम, यम, वरुण और कुबेर नामक, चार – चार रक्षक लोकपाल होते है जो क्रम से पूर्व, पश्चिम आदि दिशाओं में होते है. ये परिवार में तंत्रपालो के समान होते है.
तनुरक्षक देव अंगरक्षक के समान होते है.
राजा की बाह्य, मध्य और आभ्यंतर समिती के समान देवो में भी ३ प्रकार की परिषद होती है. इन तीन परिषदों में बैठनेवाले देव, क्रमशः बाह्य पारिषद, मध्य * पारिषद, और आभ्यंतर पारिषद कहलाते है.
अनीक देव सेना के तुल्य, प्रकीर्णक – प्रजा के तुल्य, आभियोग्य – दास के समान और किल्विषक - चांडालके समान होते है.
भवनवासी देवों के कितने प्रतिंद्र होते है?
भवनवासी प्रतिंद्रो की संख्या उनके इंद्रो के समान - बीस होती है. (हर जाती के २ इंद्र और २ प्रतिंद्र होते है)
भवनवासी देवों के कितने त्रायस्त्रिंश होते है?
प्रत्येक भवनवासी इंद्रो के ३३ ही त्रायस्त्रिंश होते है.
भवनवासी सामानिक देवों का प्रमाण क्या है?
चमरेन्द्र के ६४,०००, वैरोचन के ६०,००० और भूतानंद के ५६,००० सामानिक देव है.
शेष १७ इंद्रो के पचास - पचास हजार सामानिक देव है.
इसप्रकार भवनवासी सामानिक देवों का कुल प्रमाण १० लाख ३० हजार है.
६४००० + ६०००० + ५६००० + (१७ × ५०,०००) = १०,३०,०००
भवनवासी आत्मरक्षक देवों का प्रमाण क्या है?
चमरेन्द्र के २ लाख ५६ हजार , वैरोचन के २ लाख ४० हजार और भूतानंद के २ लाख २४ हजार आत्मरक्षक देव है.
शेष १७ इंद्रो के दो – दो लाख आत्मरक्षक देव है.
इसप्रकार भवनवासी आत्मरक्षक देवों का कुल प्रमाण ४१ लाख २० हजार है.
२,५६,००० + २,४०,००० + २,२४,००० + (१७ × २,००,०००) = ४१,२०,०००
भवनवासी पारिषद देवों का प्रमाण क्या है?
चमरेन्द्र के २८ हजार , वैरोचन के २६ हजार और भूतानंद के ६ हजार आभ्यंतर पारिषद देव है.
शेष १७ इंद्रो के चार – चार हजार आभ्यंतर पारिषद देव है.
इसप्रकार भवनवासी आभ्यंतर पारिषद देवों का कुल प्रमाण १ लाख २८ हजार है.
२८,००० + २६,००० + ६,००० + (१७ × ४,०००) = १,२८,०००
भवनवासी मध्यम पारिषद देवों का प्रमाण क्या है?
चमरेन्द्र के ३० हजार , वैरोचन के २८ हजार और भूतानंद के ८ हजार मध्यम पारिषद देव है.
शेष १७ इंद्रो के छ – छ हजार मध्यम पारिषद देव है.
इसप्रकार भवनवासी मध्यम परिषद, जिसका नाम “चंद्रा“ है, उसके देवों का कुल प्रमाण १ लाख ६८ हजार है.
३०,००० + २८,००० + ८,००० + (१७ × ६,०००) = १,६८,०००
भवनवासी बाह्य पारिषद देवों का प्रमाण क्या है?
चमरेन्द्र के ३२ हजार , वैरोचन के ३० हजार और भूतानंद के १० हजार बाह्य पारिषद देव है.
शेष १७ इंद्रो के आठ – आठ हजार बाह्य पारिषद देव है.
इसप्रकार भवनवासी बाह्य परिषद, जिसका नाम “समिता“ है, उसके देवों का कुल प्रमाण २ लाख ८ हजार है.
३२,००० + ३०,००० + १०,००० + (१७ × ८,०००) = २,०८,०००
भवनवासी अनीक देवों का प्रमाण क्या है?
प्रत्येक भवनवासी इंद्रो के सात – सात अनीक होती है.
इन सातो में से प्रत्येक अनीक सात सात कक्षाओं से युक्त होती है
उनमे से प्रथम कक्षा का प्रमाण अपने अपने सामानिक देवो के बराबर होता है, इसके आगे उत्तरोत्तर प्रथम कक्षा से दूना दूना होता जाता है
असुरकुमार जाती में महिष, घोडा, हाथी, रथ, पादचारी, गंधर्व और नर्तकी ये सात अनीक होती है, इनमे से प्रथम ६ अनीको में देव प्रधान होते है तथा आखिरी अनीक में देवी प्रधान होती है
शेष नागकुमार आदि जातियों में सिर्फ प्रथम अनीक अलग है और आगे की ६ अनीक असुरकुमारो जैसी ही है
नागाकुमारो में प्रथम अनीक - नाग, सुपर्णकुमारो में गरुड़, द्वीपकुमारो में गजेन्द्र, उदधिकुमारो में मगर, स्तनितकुमारो में ऊँट, विद्युतकुमारो में गेंडा, दिक्कुमारो में सिंह, अग्निकुमारो में शिविका और वायुकुमारो में अश्व ये प्रथम अनीक है.
चमरेन्द्र के ८१ लाख, २८ हजार इतनी प्रथम अनीक की महिषसेना है. तथा उतनी ही सेना बाकी अनीको की होती है. (७ × ८१,२८,०००) = ५,६८,९६,०००
वैरोचन के ७६ लाख, २० हजार इतनी महिषसेना है तथा शेष इतनी ही है. (७ × ७६,२०,०००) = ५,३३,४०,०००
भूतानंद के ७१ लाख, १२ हजार इतनी प्रथम नागसेना है तथा शेष घोडा आदि भी इतनी ही है. (७ × ७१,१२,०००) = ४,९७,८४,०००
शेष १७ भवनवासी इंद्रो की प्रथम अनीक का प्रमाण ६३ लाख, ५० हजार और कुल ७ अनीको का प्रमाण ४,४४,५०,००० है
भवनवासी प्रकीर्णक आदि शेष देवों का प्रमाण क्या है?
भवनवासियों के सभी २० इन्द्रोके, प्रकीर्णक, अभियोग्य और किल्विषक इन शेष देवों का प्रमाण का उपदेश काल के वश से उपलब्ध नहीं है.
भवनवासी इंद्रों की देवियों की संख्या कितनी होती है?
चमरेंद्र के कृष्णा, रत्ना, सुमेघा, सुका और सुकांता ये पाँच अग्रमहिषी महादेवीयाँ है. इन महादेवीयों में प्रत्येक के ८००० परिवार देवीयाँ है. इस प्रकार “परिवार देवियाँ” ४०,००० प्रमाण है. ये महादेवीयाँ विक्रिया से अपने आठ – आठ हजार रूप बना सकती है. चमरेंद्र के १६,००० वल्लभा देवियाँ भी है. इन्हें मिलाने से चमरेंद्र की कुल ५६ हजार देवियाँ होती है
द्वितीय - वैरोचन इंद्र के पदमा, पद्मश्री, कनकश्री, कनकमाला, और महापद्मा ये पाँच अग्रमहिषी महादेवीयाँ है. इनकी विक्रिया, परिवार देवी, वल्लभा देवी आदि का प्रमाण चमरेन्द्र के समान होने से इस इंद्र की भी कुल ५६ हजार देवियाँ होती है.
इसीप्रकार भूतानंद और धरणानंद के पचास – पचास हजार देवियाँ है.
वेणुदेव, वेणुधारी इंद्रों के ४४ हजार देवियाँ है और शेष इंद्रों के ३२ – ३२ हजार प्रमाण है.
इन इंद्रों की पारिषद आदि देवों की देवांगनाओ का प्रमाण तिलोयपन्नत्ति से जान लेना चाहिए.
सबसे निकृष्ठ देवों की भी ३२ देवियाँ अवश्य होती है
भवनवासी देवों का आहार कैसा और कब होता है?
भवनवासी देव तथा देवियों का अति स्निग्ध, अनुपम और अमृतमय आहार होता है.
चमर, और वैरोचन इन दो इंद्रो का १००० वर्ष के बाद आहार होता है.
इसके आगे भूतानंद आदि ६ इंद्रो का साढ़े बारा दिनों में, जलप्रभ आदि ६ इंद्रो का १२ दिनो में, और अमितगती आदि ६ इंद्रो का साढ़े सात दिनों में आहार ग्रहण होता है.
दस हजार वर्ष वाली जघन्य आयु वाले देवो का आहार दो दिन में तो पल्योपम की आयु वालो का पाँच दिन में भोजन का अवसर आता है.
इन देवो के मन में भोजन की इच्छा होते ही उनके कंठ से अमृत झरता है और तृप्ति हो जाती है. इसे ही मानसिक आहार कहते है.
भवनवासी देव उच्छवास कब लेते है?
चमर, और वैरोचन इंद्र १५ दिन में, भूतानंद आदि ६ इंद्र साढ़े बार मुहुर्त में, जलप्रभ आदि ६ इंद्र साढ़े छ मुहुर्त में, उच्छवास लेते है.
दस हजार वर्ष वाली आयु वाले देव ७ श्वासोच्छ्वास प्रमाण काल के बाद, और पल्योपम की आयु वाले पाँच मुहुर्त के बाद उच्छवास लेते है
भवनवासी देवो के शरीर का वर्ण कैसा होता है?
असुरकुमार, सुपर्णकुमार, द्वीपकुमार और दिक्कुमार का वर्ण काला होता है
नागकुमार, उधदिकुमार, स्तानितकुमार का वर्ण अधिक काला होता है
विद्युतकुमार का वर्ण बिजली के सदृश्य, अग्निकुमार का अग्नि की कांती के समान, एवं वायुकुमार का नीलकमल के सदृश्य होता है
भवनवासी देवो का गमन (विहार) कहाँ तक होता है?
भवनवासी इंद्र भक्ति से पंचकल्याणको के निमित्त ढाई द्वीप में, जिनेन्द्र भगवान के पूजन के निमित्त से नन्दीश्वर द्वीप आदि पवित्र स्थानो में, शील आदी से संयुक्त किन्ही मुनिवर की पूजन या परीक्षा के निमित्तसे तथा क्रीडा के लिए यथेच्छ स्थान पर आते जाते रहते है.
ये देव स्वयं अन्य किसी की सहायता से रहित ईशान स्वर्ग तक जा सकते है तथा अन्य देवो की सहायता से अच्युत स्वर्ग तक भी जाते है.
भवनवासी देव - देवियों का शरीर कैसा होता है?
इनके शरीर निर्मल कांतीयुक्त, सुगंधीत उच्छवास से सहित, अनुपम रूप वाले, तथा समचतुरस्त्र सस्न्थान से युक्त होते है.
इन देव-देवियों को रोग, वृद्धत्व नहीं होते बल्कि इनका अनुपम बल और वीर्य होता है.
इनके शरीर में मल, मूत्र, हड्डी, माँस, मेदा, खून, मज्जा, वसा, शुक्र आदि धातु नहीं है.
भवनवासी देव – देवियाँ काम सुख का अनुभव कैसे करते है?
ये देवगण काय प्रवीचार से युक्त है. अर्थात् वेद की उदीरणा होने पर मनुष्यों के समान काम सुख का अनुभव करते है.
ये इंद्र और प्रतिन्द्र विविध प्रकार के छत्र आदि विभूतियों को धारण करते है.
चमर इंद्र सौधर्म इंद्र से ईर्ष्या करता है. वैरोचन ईशान से, वेणु भूतानंद से, वेणुधारी धरणानंद से, ईर्ष्या करते है.
नाना प्रकार की विभूतियों को देखकर मात्सर्य से या स्वभाव से ही जलाते रहते है
भवनवासी प्रतिन्द्र, इंद्र आदि के विभूतियों में क्या अंतर होता है ?
प्रतिन्द्र आदि देवो के सिंहासन, छत्र, चमर अपने अपने इंद्रो की अपेक्षा छोटे रहते है.
सामानिक और त्रायस्त्रिंश देवो में विक्रिया, परिवार, ऋद्धि और आयु अपने अपने इंद्रो की समान है.
इंद्र उन सामानिक देवो की अपेक्षा केवल आज्ञा, छत्र, सिंहासन और चामरो से अधिक वैभव युक्त होते है.
भवनवासी देवो की आयु का प्रमाण कितना है ?
चमर, वैरोचन : १ सागरोपम
भूतानंद, धरणानंद : ३ पल्योपम
वेणु, वेणुधारी : २ १/२ पल्योपम
पूर्ण, वसिष्ठ : २ पल्योपम
जलप्रभ आदि शेष १२ इंद्र : १ पल्योपम
भवनवासी देवियों की आयु का प्रमाण कितना है ?
चमरेंद्र की देवियाँ : २ १/२ पल्योपम
वैरोचन की देवियाँ : ३ पल्योपम
भूतानंद की देवियाँ : १/८ पल्योपम
धरणानंद की देवियाँ:कूछ आधिक १/८ पल्योपम
वेणु की देवियाँ:३ पूर्व कोटि
वेणुधारी की देवियाँ:कूछ आधिक ३ पूर्व कोटि
अवशिष्ठ दक्षिण इंद्रो में से प्रत्येक इंद्र की देवियों की आयु ३ करोड़ वर्ष और उत्तर इंद्रो में से प्रत्येक इंद्र की देवियों की आयु कुछ आधिक ३ करोड़ वर्ष है.
असुर आदि १० प्रकार के देवो में निकृष्ट देवो की जघन्य आयु का प्रमाण १० हजार वर्ष मात्र है.
भवनवासी देवो के शरीर की अवगाहना का प्रमाण कितना है ?
असुरकुमारों के शरीर की ऊंचाई : २५ धनुष्य
शेष देवों के शरीर की ऊंचाई : १० धनुष्य
यह ऊंचाई का प्रमाण मूल शरीर का है.
विक्रिया से निर्मित शरीरो की ऊंचाई अनेक प्रकार की है.
भवनवासी देवो के अवधिज्ञान एवं विक्रिया का प्रमाण कितना है ?
अपने अपने भवन में स्थित देवो का अवधिज्ञान उर्ध्व दिशा में उत्र्कुष्ठ रूप से मेरु पर्वत को स्पर्श करता है, तथा अपने भवनों के निचे, थोड़े थोड़े क्षेत्र में प्रवृत्ति करता है.
वही अवधिज्ञान तिरछे क्षेत्र की अपेक्षा अधिक क्षेत्र को जानता है.
असुरादी देव अनेक रूपों की विक्रिया करते हुए अपने अपने अवधिज्ञान के क्षेत्र को पूरित करते है
भवनवासी देव योनी में किन कारणों से जन्म होता है ?
निम्नलिखित आचरण से भवनवासी योनी में जन्म होता है.
शंकादी दोषों से युक्त होना
क्लेशभाव और मिथ्यात्व भाव से युक्त चारित्र धारण करना
कलहप्रिय, अविनयी, जिनसुत्र से बहिर्भुत होना.
तीर्थंकर और संघ की आसादना (निंदा) करना
कुमार्ग एवं कुतप करने वाले तापसी भवनवासी योनी में जन्म लेते है.
भवनवासी देव योनी में किन कारणों से सम्यक्त्व होता है ?
सम्यक्त्व सहित मरण कर के कोई जीव भवनवासी देवो में उत्पन्न नहीं होता.
कदाचित् जातिस्मरण, देव ऋद्धि दर्शन, जिनबिम्ब दर्शन और धर्म श्रवण के निमित्तो से ये देव सम्यक्त्व को प्राप्त करा लेते है.
भवनवासी देव योनी से निकलकर जीव कहाँ उत्पन्न होता है ?
ये जीव कर्म भूमि में मनुष्य गती अथवा तिर्यंच गति को प्राप्त कर सकते है, किन्तु शलाका पुरुष नहीं हो सकते है.
यदि मिथ्यात्व से सहित संक्लेश परिणाम से मरण किया तो एकेंद्रिय पर्याय में जन्म लेते है
भवनवासी देव किस प्रकार और कौनसी शय्या पर जन्म लेते है और क्या विचार करते है ?
भवनवासी भवनों में उत्तम, कोमल उपपाद शाला में उपपाद शय्या पर देवगति नाम कर्म के कारण जीव जन्म लेता है
उत्पन्न होते ही अंतर्मुहूर्त में छहों पर्याप्तियो को पूर्ण कर १६ वर्ष के युवक के समान शरीर को प्राप्त कर लेते है
इन देवो के वैक्रियिक शरीर होने से इनको कोई रोग आदि नहीं होते है
देव भवनों में जन्म लेते ही, बंद किवाड़ खुल जाते है और आनंद भेरी का शब्द (नाद) होने लगता है
इस भेरी को सुनकर, परिवार के देव देवियाँ हर्ष से जय जयकार करते हुए आते है
जय, घंटा, पटह, आदि वाद्य, संगीत नाट्य आदि से चतुर मागध देव मंगल गीत गाते है
इस दृश्य को देखकर नवजात देव आश्चर्यचकित हो कर सोचता है की तत्क्षण उसे अवधिज्ञान नेत्र प्रकट होता है
यहाँ अवधि विभंगावधि होती है और सम्यक्त्व प्रकट होने पर सुअवधि कहलाती है
ये देवगण पूर्व पुण्य का चिंतवन करते हुए यह सोचते है की मैंने सम्यक्त्व शुन्य धर्म धारण करके यह निम्न देव योनी पायी है.
इसके पश्चात अभिषेक योग्य द्रव्य लेकर जिन भवनों में स्थित जिन प्रतिमाओं की पूजा करते है (सम्यग्दृष्टि देव कर्म क्षय का कारण मानकर देव पूजा करते है तो मिथ्यादृष्टि देव अन्य देवो की प्रेरणा से कुल देवता मानकर पूजा करते है.)
पूजा के पश्चात अपने अपने भवनों में आकर सिंहासन पर विराजमान हो जाते है.
भवनवासी देव किस प्रकार क्रीडा करते है ?
ये देवगण दिव्य रूप लावण्य से युक्त अनेक प्रकार की विक्रिया से सहित, स्वभाव से प्रसन्न मुख वाली देवियों के साथ क्रीडा करते है
ये देव स्पर्श, रस, रूप और शब्द से प्राप्त हुए सुखों का अनुभव करते हुए क्षणमात्र भी तृप्ति को प्राप्त नहीं करते है
द्वीप, कुलाचल, भोग भूमि नंदनवन आदि उतम स्थानों में ये देव क्रीडा करते है