Monday, 11 July 2011

क्या हम भी तीर्थंकर बन सकते है ?

क्या हम भी तीर्थंकर बन सकते है ?
न घर्म में सर्वथा कर्म मुक्त आत्म-शक्ति-सम्पन्न विभूति सिद्ध है- तीर्थंकर ! तीर्थंकर शरीर, जन्म, मरण, भोतिक सुख-दुःख से मुक्त है ! जैन साधना पद्धति का चरम लक्ष्य सिद्धत्व प्राप्ति ही है ! अर्हत जैनधर्म के मुख्य धुरी होते है ! वे चार कर्म का क्षय कर सर्वज्ञ की भूमिका पा लेते है ! अर्हत जन-कल्याण के महनीय उपक्रम के मुख्य संवाहक होते है ! उनके द्वारा बोले गए हर बोल छदमस्त मुनियों व धर्म शासन के लिए पंथ-दर्शक बन जाते है ! इसी वजह से नमस्कार महामंत्र में अर्हतो को सिद्धो की अपेक्षा (सम्पूर्ण आत्म-उज्जवलता होने पर भी ) पहले नमस्कार किया जाता है ! अर्हत, जिन, तीर्थंकर आदि पर्यावाची शब्द है!

सर्वज्ञ व् तीर्थंकर में आत्म-उपलब्धि की दृष्टी से कोई अंतर नही है ! दोनों केवल ज्ञान व् केवल दर्शन को सम्प्राप्त है! फिर भी दोनों में मोलिक अंतर है !
१ जैसे तीर्थंकर पहले पद में होते है व सर्वज्ञ पाचो पद में होते है!
२ तीर्थकरो के गणधर होते है किन्तु सर्वज्ञ के नही होते है !
३ तीर्थंकर स्वयबुद्ध होते है और सर्वज्ञ स्वयबुद्ध के साथ साथ बुद्ध-बोधित भी होते है !
४ तिर्थंकरो की आयुमान -जघन्य ७२ वर्ष उत्कृष्ट ८४ लाख पूर्व वही सर्वज्ञ की आयुमान जघन्य ९ वर्ष . उत्कृष्ट १ करोड़ पूर्व तक!
५ तिर्थंकरो के उपसर्ग नही आते है किन्तु सर्वज्ञ के आ सकते है !
६ तीर्थंकर चतुर्विधसंध की स्थापना करते , सर्वज्ञ नही करते है
७ दीक्षा लेते ही मन, पर्यव ज्ञान की प्राप्ति होती है किन्तु सर्वज्ञ के लिए ऐसा कोई नियम नही है
८ तीर्थंकर १४ महास्वप्न से जन्म लेते है .. सर्वज्ञ के लिए ऐसा कोई नियम नही है
९ तिर्थंकरो को गर्भ में भी अवधि ज्ञान होता है सर्वज्ञ के लिए ऐसा कोई नियम नही है !

तीर्थंकर शब्द जैन साहित्य का पारिभाषिक शब्द है ! आगमो एवं आगमेतर ग्रंथो में इसका प्रचुर मात्रा में उल्लेख हुआ है! जो तीर्थ का करता होता है उसे तीर्थंकर कहते है! जो संसार-समुन्द्र में तिरने में योगभूत बनता है वह तीर्थ अर्थात प्रवचन होता है! उस प्रवचन को साधू-साध्वी , श्रावक -श्राविका धारण करते है! उपचार से इस चतुर्विध संघ को तीर्थ कहा गया है ! इसके निर्माता को तीर्थंकर कहा जाते है ! जिनके तीर्थंकर नामकर्म का उदय होता है वे तीर्थंकर बनते है!
तीर्थंकर वे ही बनते है जिन्होंने पूर्व भव में तीर्थंकर नाम कर्म की प्रकृति का उपार्जन किया हो ! यह कर्म-प्रकृति बंध कारक है तदपि यह विशिष्टि साधना, तपस्या, आदि से कर्म क्षय के साथ स्वयमेव बंधने वाली कर्म प्रकृति है ! यह पुण्य की उत्कृष्ट प्रकृति है ! जैन आगम ज्ञाता धर्म कथा में तीर्थंकर नाम गोत्र कर्म बंध के बीस कारण बताए गए है !
जैसे-:
१ अर्हत के प्रति भक्ति
२ सिद्ध के प्रति भक्ति
३ प्रवचन के प्रति भक्ति
४ गुरु की उपासना - सेवा करना
५ स्थविर की उपासना- सेवा करना
६ बहुश्रुत की उपसाना- सेवा करना
७ तपस्वी I मुनि की उपासना सेवा करना
८ ज्ञान में अभीक्ष्ण उपयोग रखना
९ दोष रहित सम्यक्त्व की अनुपालना करना
१० गुनीजनो का विनय करना
११ विधिपूर्वक आवश्यक प्रतिकर्मण आदि करना
१२ शील और व्रत का निर्तिचार पालन करना
१३ क्षण- लव मात्र का प्रमाद नही करना
१४ तप में सलग्न होना
१५ त्याग में सलग्न होना
१६ अग्लान भाव से वैयावृत्य करना
१७ समाधि उत्पन्न करना
१८ अपूर्व ज्ञान का अभ्यास करना
१९ वीतराग-वचनों पर घन आस्था रखना
२० जिन शासन की प्रभावना करना

यह आवश्यक नही है की उपरोक्त २० कारणों के सेवन से तीर्थंकर नाम कर्म गोत्र कर्म का बंध होता है , कोई एक दो कारण के साथ उत्कृष्ट साधना व् भावो की उच्चता से भी तीर्थंकर नाम कर्म की प्रकृति का उपार्जन क्र सकता है

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