ईश्वर-कृपा
स्वास्थ्य अच्छा रहे, बुद्धि अच्छी रहे, विचार-व्यवहार अच्छे रहे, सुख-शान्ति बनी रहे तो यह सब ईश्वर की कृपा से है ऐसा लोगों में बोला जाता है। जैन भी बोलते हैं। और यह कुछ अनुचित भी नहीं है। इस प्रकार के सुष्ठु वाणी-व्यवहार में अत्यन्त मृदुता रही हुई है। स्मृतिपूर्वक बोले जानेवाले ऐसे वचनों से हम अहङ्काररहित हो सकते हैं। इससे ईश्वर की तरफ हमारी नम्रता तथा भक्तिभाव पुष्ट होते हैं और उसके चरणों में बैठ जाने जितना प्रेम उमड़ने लगता है।
दूसरी ओर तार्किक बुद्धिवाद से देखने पर प्रतीत होता है कि कल्याणमय ईश्वर ऐसा वीतराग और समत्वधारक है, ऐसा निरंजन और निर्लेप है कि किसी का बुरा-भला करने के प्रपंच में वह पड़ता ही नहीं है। प्रत्येक प्राणी का बुरा-भला उसके अपने कर्मों से होता है। और प्रत्येक व्यक्ति को अपना भला अपने ही प्रयत्नों से करने का है। ईश्वर की ‘कृपा’ तो, सब जीव अच्छे और सुखी रहें, सद्बुद्धि, सद्विचारवान् और सद्व्यवहारवाले बनें और रहें ऐसी निरन्तर होती है। सब पर उसकी कृपा ही कृपा होती है यह सिद्ध बात है। अतः यदि केवल उसकी कृपा के ही कारण सुखशान्ति मिलती हो और सदाचारी बना जाता हो तो उसकी कृपा सब पर एक समान होने से सब के सब एक ही साथ सदाचारी और सुखी बन जाने चाहिए। परन्तु वस्तुस्थिति ऐसी नहीं है। अतः हमें समझना चाहिए कि इसकी सर्वव्यापी, सर्वसाधारण स्वभावभूत कृपा अथवा प्रसन्नता सब पर समान होने पर भी प्राणियों के सुख-दुःख, उन्नति-अवनति अथवा कल्याण-अकल्याण का आधार अपने कर्म-आचरण पर ही है। हमारा पतन करानेवाला हमारा दुराचरण ही है और हमारा सदाचरण ही हमारा तारक है। अतः सदाचारी बनने के लिये ईश्वर-कृपा की प्रतीक्षा करने की आवश्यकता नहीं है। उसकी कृपा तो है ही-नित्यनिरन्तर ही उसके कृपारूपी अमृत की वृष्टि हो रही है। यदि हम सदाचारी बनें तो सुखी हुए ही हैं। सदाचरण की साधना के समय पूर्वकृत दुष्कृत के कारण, संभव है, दुःख, तकलीफ सहने पड़ें; परन्तु इस सनातन सन्मार्ग में यदि हम निश्चल रहें तो उत्तरोत्तर विकसित होते होते अनन्तः पूर्ण उज्ज्वल बनकर सब दुःखों से विमुक्त हो सकते हैं और पूर्ण शान्ति प्राप्त कर सकते हैं।
दुनिया में दुष्ट, अधम मनुष्य दुष्ट, अधम कार्य करते हैं इसका क्या कारण है? क्या यह कारण है कि उन पर ईश्वर की कृपा नहीं है? नहीं, उसकी तो सब पर, ऊपर कहा उस तरह, सब अच्छे और सुखी बनें ऐसी कृपा है ही। ऐसा होने पर भी जगत् कितना कलुषित प्रतीत होता है? अच्छों की अपेक्षा बुरे, सुखी की अपेक्षा दुःखी और बुद्धिशाली की अपेक्षा ज्ञानहीन प्राणियों की संख्या विश्व में बहुत अधिक हैं। सच तो यह है कि दुनिया की बातों में उसकी (उस अलख निरंजन ईश्वर की) कृपा अथवा अकृपा जैसा कुछ भी नहीं है। वह तो स्वमग्न है, निर्लेप और तटस्थ है। उसकी ओर का अपना भक्तिभाव और उस भक्तिभाव द्वारा सच्चरितता की साधना-इसी को यदि हम उसकी कृपा समझ लें तो तार्किक बुद्धि भी विरोध न कर सके ऐसा जीवनहितका सम्पूर्ण मुद्दा इसमें आ जाता है।
जो कुछ अच्छा होता है वह पुण्य से और जो बुरा होता है वह पाप से-ऐसा आर्य संस्कृति के तत्त्वज्ञान का प्रचलित सिद्धान्त है, अतः यह बात सही है कि सुख-सुविधा मिले, अथवा कुछ अच्छा हो अथवा अनिष्ट अकस्मात् की झड़प में से अपना इष्ट जन अथवा स्वयं हम बच जाएँ तो यह पुण्योदय से और असुविधा अथवा संकट उपस्थित हो अथवा खराब दुःखजनक परिस्थिति में फँस जाना पड़े तो वह पाप के उदय से होता है, परन्तु प्रश्न होगा कि यह पुण्य और पाप आए कहाँ से? इसके उत्तर में यही कहना पड़ेगा कि सत्कृत्य करने से अथवा अमुक अंश में शुभ मार्ग पर चलने से पुण्य आया और अशुभ कार्य अथवा पापाचार से पाप आया। ठीक, तब यह प्रश्न होता है कि शुभाशुभ मार्ग की सनातन समझ मूल में जगत् पर कहाँ से उतरती रही? इसका उत्तर यही है कि यह समझ मूल में महान् ज्ञानी पुरुषों से उतरती आई है। तब इस पर से ऐसा माना जा सकता है कि ज्ञानी प्रभु की शिक्षा के अनुसार चलने से पुण्य उपार्जित होता है और उस पुण्य द्वारा जो सुख प्राप्त होता है उस सुख के देनेवाले मूल कारणरूप ज्ञानी भगवान् समझे जा सकते हैं। इसी प्रकार ज्ञानी भगवान् की कल्याणमयी हितशिक्षा को न मान कर दुष्कर्म के मार्ग पर चलने से पाप का बन्ध होता है और इसके परिणामस्वरूप जो दुःखी होना पड़ता है यह भी ज्ञानी भगवान् की शिक्षा न मानने का परिणाम कहा जा सकता है। दुनिया के व्यवहार में हम देखते ही हैं कि जिसे जिसके परामर्श से लाभ अथवा सुख मिलता है वह उसे अपना उपकारी मानता है-मुझे वह लाभ अथवा सुख देनेवाला वह है ऐसा वह मनुष्य मानता है। इसी प्रकार ज्ञानी भगवान् के उपदेश के अनुसार चलनेवाला मनुष्य सुख प्राप्त रकता है इस लिये उस सुख के कारणभूत ज्ञानी भगवान् उपकारी माने जा सकते हैं, क्योंकि उनके सदुपदेश के अनुसार चलने से ही उसे सुख मिला है। इसी दृष्टि से परमात्मा ईश्वर सुखदायक अथवा मुक्तिदायक समझा जाता है। इतना ही नहीं, ईश्वर के कर्त्तृत्व का वाद भी इस दृष्टि के अनुसार और इतने अंश में घटाया जा सकता है।
इस पर से, किसी आपत्ति में से बच जाने पर अथवा इष्ट-लाभ प्राप्त होने पर भगवान् का जो उपकार माना जाता है अथवा उसकी कृपा को जो अंजलि दी जाती है वह युक्त है।
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