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Wednesday, 2 April 2014
‘अढाई द्वीप और दो समुद्रों के अन्तर्गत १५ कर्मभूमियां हैं।’ दससु भरहेरावएसु पंचसु महाविदेहेसु४। ५ भरत, ५ ऐरावत और ५ महाविदेह की १५ कर्मभूमि हैं। जम्बूद्वीप एक लाख योजन व्यास वाला गोलाकार है। इसमें भरत, हैमवत, हरि, विदेह, रम्यव्â, हैरण्यवत और ऐरावत ये ७ क्षेत्र हैं। ये हिमवान् आदि ६ पर्वतों से विभाजित हैं। इनमें से भरतक्षेत्र ५२६,६/१९ योजन विस्तृत है। आगे के पर्वत और क्षेत्र विदेह तक दूने-दूने विस्तार वाले हैं, आगे आधे-आधे होते गए हैं। भरतक्षेत्र के मनुष्य-इस भरतक्षेत्र में गंगा-सिन्धु नदी और विजयार्ध पर्वत के निमित्त से छह खण्ड हो गये हैं। इनमें से दक्षिण के मध्य का आर्यखंड है, शेष पांच म्लेच्छखंड हैं। इस आर्यखण्ड में अवसर्पिणी और उत्सर्पिणी ये दो काल वर्तते हैं। १० कोड़ाकोड़ी सागर की एक अवसर्पिणी और इतने ही प्रमाण की उत्सर्पिणी होती है। इन दोनों के ६-६ भेद हैं। सुषमा-सुषमा, सुषमा, सुषमा-दुषमा, दुषमा-सुषमा, दुषमा और अतिदुषमा। इनमें से प्रथम काल ४ कोड़ाकोड़ी सागर का, द्वितीय काल ३ कोड़ाकोड़ी सागर का, तृतीय काल २ कोड़ाकोड़ी सागर का, चतुर्थ काल ४२ हजार वर्ष कम एक कोड़ाकोड़ी सागर का, पंचम काल २१ हजार वर्ष का और छठा काल भी २१ हजार वर्ष का होता है।
ऐसे ही उत्सर्पिणी में छठे अतिदुषमा से आदि लेकर सुषमासुषमा तक काल वर्तता है। इस तरह अवसर्पिणी-उत्सर्पिणी दोनों मिलकर २० कोड़ाकोड़ी सागर का एक कल्पकाल माना गया है। अवसर्पिणी के प्रथम सुषमासुषमाकाल में यहां पर भोगभूमि की व्यवस्था रहती है। स्त्री-पुरुष युगल ही उत्पन्न होते हैं और साथ ही मरण प्राप्त करते हैं। ये दस प्रकार के कल्पवृक्षों से भोग सामग्री प्राप्त करते हैं। पानांग, तूर्यांग, भूषणांग, वस्त्रांग, भोजनांग, आलयांग, दीपांग, भाजनांग, मालांग और तेजांग जाति के कल्पवृक्ष अपने नाम के अनुसार ही वस्तुएं प्रदान करते हैं। यहां पर मनुष्यों के शरीर की ऊँचाई तीन कोश और आयु तीन पल्य की होती है पुन: घटते-घटते द्वितीय काल के प्रारम्भ में मनुष्यों की ऊँचाई दो कोश और आयु दो पल्य की होती है। पुन: घटती हुई तृतीय काल के आदि में शरीर की ऊंचाई एक कोश और आयु एक पल्य की रहती है। इस काल के अंत में कल्पवृक्ष नष्ट हो जाते हैं। चतुर्थकाल में कर्मभूमि प्रारम्भ हो जाती है। यहाँ पर उत्कृष्ट आयु एक कोटि पूर्व वर्ष और शरीर की ऊँचाई ५०० धनुष की होती है। पंचम काल में उत्कृष्ट आयु १२० वर्ष और शरीर की उत्कृष्ट ऊंचाई ७ हाथ प्रमाण रहती है।१ छठे काल के प्रारम्भ में शरीर की ऊंचाई साढ़े तीन हाथ अथवा ३ हाथ और उत्कृष्ट आयु २० वर्ष की होती है।२ इस युग में तृतीय काल के अंत में जब कुछ कम एक पल्य का आठवां भाग काल शेष रह गया३ तब प्रतिश्रुति, सन्मति आदि से लेकर क्रम से १४ कुलकर उत्पन्न हुए हैं। चौदहवें कुलकर नाभिराय थे, इनकी रानी का नाम मरुदेवी था। इन्हीं से जन्मे प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव ने प्रजा को असि, मषि आदि षट् क्रियाओं का उपदेश देकर क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र इन तीन वर्णों की व्यवस्था की थी।४ भगवान ऋषभदेव की आयु ८४ लाख पूर्व वर्ष की थी और शरीर की ऊंचाई ५०० धनुष प्रमाण थी। अजितनाथ से लेकर आयु और ऊंचाई घटते-घटते महावीर स्वामी की आयु ७२ वर्ष की और ऊंचाई ७ हाथ की रह गई।
इस काल में २४ तीर्थंकर, १२ चक्रवर्ती, ९ बलदेव, ९ वासुदेव और ९ प्रतिवासुदेव ये ६३ शलाका पुरुष होते हैं। चतुर्थकाल में कोई भी भव्यजीव तपश्चर्या के बल से कर्मों को नाशकर मोक्ष प्राप्त कर सकता है। पंचमकाल में हीन संहनन होने से कोई भी मनुष्य मोक्ष नहीं प्राप्त कर सकता है। फिर भी पंचमकाल के अंत तक धर्म रहता है, क्योंकि आचार्यों ने कहा है कि- ‘इतने मात्र समय में चातुर्वण्र्य संघ जन्म लेता रहेगा।’ इस दुषमकाल में धर्म, आयु और ऊंचाई आदि कम होती जाएगी फिर अन्त में इक्कीसवां कल्की उत्पन्न होगा। उसके समय में वीरांगज मुनि, सर्वश्री आर्यिका, अग्निदत्त श्रावक और पंगुश्री श्राविका ये चतुर्विध संघ होगा। वह कल्की मंत्री द्वारा मुनि के हाथ से प्रथम ग्रास को कर के रूप में मांगेगा तब मुनिराज अंतराय करके वापस आकर आर्यिका आदि को बुलाकर सल्लेखना देकर आप स्वयं सल्लेखना ग्रहण कर लेंगे। कार्तिक कृ. अमावस्या के प्रात: ये मुनि आदि शरीर छोड़कर स्वर्ग प्राप्त करेंगे तब धर्म का नाश हो जायेगा। मध्यान्ह में असुरदेव कल्की राजा को मार डालेगा और सायंकाल में अग्नि नष्ट हो जाएगी।
इसके बाद तीन वर्ष, साढ़े आठ मास बीत जाने पर छठा काल आयेगा। उस समय के मनुष्य घर, वस्त्र आदि से रहित, अतीव दु:खी, मांसाहारी होंगे। इस काल के अंत में महाप्रलय होगा, भीषण वायु चलेगी। बर्प, क्षार जल, विष जल, धुंआ, धूलि, वज्र और अग्नि की वर्षा सात-सात दिनों तक होगी। उस समय कुछ मनुष्य और तिर्यंच युगलों को देव, विद्याधर रक्षा करके विजयार्ध पर्वत की गुफा आदि में रख देंगे। यहां आर्यखंड की चित्रा पृथ्वी के ऊपर स्थित वृद्धिंगत एक योजन की भूमि जलकर नष्ट हो जायेगी।१ अनंतर पुन: उत्सर्पिणी काल का पहला अतिदुषमा नाम का काल आएगा जिसमें इस छठे काल जैसी व्यवस्था होगी। ये ही सुरक्षित रखे गए मनुष्य, तिर्यंच गुफा आदि से निकलकर पृथ्वी पर पैâल जायेंगे। ऐसे ही क्रम से दुषमा आदि से लेकर सुषमा-सुषमा तक छहों काल वर्तन करेंगे।
ऐरावत क्षेत्र के मनुष्य - इस भरतक्षेत्र के समान ही जंबूद्वीप के ऐरावत क्षेत्र के आर्यखंड में छहकाल परिवर्तन होता है तथा धातकी खंड के २ भरत, २ ऐरावत और पुष्करार्धद्वीप के भी २ भरत, २ ऐरावत क्षेत्रों में यही काल परिवर्तन होता रहता है। इस प्रकार से ५ भरत और ५ ऐरावत के आर्यखंडों में षट्काल परिवर्तन में तीन-तीन कालों में भोगभूमि की व्यवस्था रहती है और तीन-तीन कालों में कर्मभूमि की व्यवस्था होती है। बीस कोड़ाकोड़ीr सागर के कल्पकाल में १८ कोड़ाकोड़ी सागर तक भोगभूमि और २ कोड़ाकोड़ी सागर तक ही कर्मभूमि की व्यवस्था है। महाविदेहक्षेत्र का विस्तार ३३६८४,४/१९ योजन है२। इसके ठीक बीच में सुमेरु पर्वत है। सुमेरु के दक्षिण में देवकुरु और उत्तर में उत्तरकुरु क्षेत्र हैं तथा पूर्व-पश्चिम में सीता-सीतोदा नदी बहती है। सुमेरु के पूर्व में पूर्व विदेह और पश्चिम में पश्चिम विदेह है। महाविदेह के ३२ क्षेत्र-सीता नदी के दोनों पाश्र्व भागों में ४-४ वक्षार पर्वत और ३-३ विभंगा नदियों से सीमित ८-८ क्षेत्र हैं। ऐसे ही सीतोदा के दोनों पाश्र्व भागों में ४-४ वक्षार और ३-३ विभंगा से सीमित ८-८ क्षेत्र हैं। इस तरह ये ३२ क्षेत्र हैं। कच्छा, सुकच्छा, महाकच्छा, कच्छकावती, आवर्ता, लांगलावर्ता, पुष्कला, पुष्कलावती, वत्सा, सुवत्सा, महावत्सा, वत्सकावती, रम्या, सुरम्यका, रमणीया, मंगलावती, पद्मा, सुपद्मा, महापद्मा, पद्मकावती, शंखा, नलिना, कुमदा, सरिता, वप्रा, सुवप्रा, महावप्रा, वप्रकावती, गंधा, सुगंधा, गंधिला और गंधमालिनी, क्रम से उन ३२ विदेहक्षेत्रों के ये नाम हैं। प्रत्येक क्षेत्र का पूर्व-पश्चिम विस्तार २२१२,७/८ योजन है तथा लम्बाई १६५९२, २/१९ योजन है।
कच्छा आदि प्रत्येक विदेहक्षेत्र में ठीक बीच में एक-एक विजयार्ध पर्वत है जो ५० योजन विस्तृत, २२१२,७/८ योजन लंबे तथा २५ योजन ऊंचे, तीन कटनी वाले हैं। सीता-सीतोदा के दक्षिण तट के क्षेत्रों में गंगा - सिंधु नाम की दो-दो नदियाँ निषध पर्वत की तलहटी के कुण्ड से निकलकर विजयार्ध की गुफा में प्रवेश कर जाती हैं। ऐसे सीता-सीतोदा के उत्तर तट के क्षेत्रों में नील पर्वत की तलहटी के कुण्डों से निकलकर रक्ता-रक्तोदा नदियां बहती हैं। इस तरह प्रत्येक कच्छा आदि क्षेत्रों में विजयार्ध पर्वत और दो-दो नदियों के निमित्त से ६-६ खण्ड हो जाते हैं।
आर्यखण्ड - इस प्रकार से इन छह खण्डों में नदी की तरफ के मध्य का एक आर्यखण्ड है, शेष ५ म्लेच्छखंड हैं। प्रत्येक ३२ क्षेत्रों के ३२ आर्यखंडों के बीच-बीच में जो प्रमुख नगरी हैं उनके क्रम से क्षेमा, क्षेमपुरी, अरिष्टा, अरिष्टपुरी, खड्गा, मंजूषा, औषधि, पुण्डरीकिणी, सुसीमा, कुण्डला, अपराजिता, प्रभंकरा, अंका, पद्मवती, शुभा, रत्नसंचया, अश्वपुरी, सिंहपुरी, महापुरी, विजयपुरी, अरजा, विरजा, अशोका, वीतशोका, विजया, वैजयंता, जयंता, अपराजिता, चक्रपुरी, खड्गपुरी, अयोध्या और अवध्या ये नाम हैं। ये महायोजन से ९ योजन चौड़ी और १२ योजन लम्बी हैं। यहां भरतक्षेत्र के आर्यखंड में जैसे अयोध्या है ऐसे ही ये नगरियां हैं। ये ही वहां की राजधानी हैं। वहां विदेहक्षेत्र में सदा ही तीर्थंकर देव, गणधर देव, अनगार मुनि, केवली, ऋद्धिधारी मुनि आदि रहते हैं। चक्रवर्ती, बलदेव, वासुदेव, प्रतिवासुदेव भी हुआ करते हैं। वहां के मनुष्यों की उत्कृष्ट आयु एक कोटि पूर्व वर्ष और शरीर की ऊंचाई ५०० धनुष की रहती है। असि, मषि आदि षट्कर्मों से आजीविका चलती है। क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र ये तीन ही वर्ण होते हैं। वहां पर सतत मोक्षगमन चालू रहता है। तीर्थंकर ऋषभदेव ने अपने अवधिज्ञान से इस विदेहक्षेत्र की वर्ण व्यवस्था आदि को जानकर ही यहां भरतक्षेत्र में वैसी व्यवस्था बनाई थी।
विद्याधर मनुष्य -
यह भरतक्षेत्र ५२६,३/१९ योजन है। हिमवान् पर्वत इससे दूने प्रमाण १०५२,१२/१९ योजन विस्तार वाला है। इस भरतक्षेत्र के ठीक बीच में एक विजयार्ध पर्वत है, वह रजतमय है। यह २५ योजन ऊँचा और मूल में ५० योजन विस्तृत है तथा पूर्व-पश्चिम में दोनों तरफ लवण समुद्र को स्पर्श कर रहा है। १० योजन ऊपर जाकर इसके दोनों पाश्र्व भागों-दक्षिण, उत्तर में १० योजन ही विस्तृत विद्याधरों की १-१ श्रेणियां हैं। दक्षिण श्रेणी में ५० एवं उत्तर श्रेणी में ६० नगर हैं।१ किन्नामित, किंकरगीत आदि इनके नाम हैं। इन नगरों में विद्याधर मनुष्य रहते हैं। ये लोग असि, मषि, कृषि, वाणिज्य, शिल्प और विद्या इन छह कर्मों से आजीविका करते हैं। इन विद्याधर स्त्री-पुरुषों को सदा तीन प्रकार की विद्यायें प्राप्त रहती हैं-कुल विद्या, जाति विद्या और साधित विद्या। जो कुल परम्परागत प्राप्त हो जाती हैं वे कुल विद्या हैं, जो मातृ पक्ष से प्राप्त होती हैं वे जाति विद्या हैं और जिन्हें मंत्र जपकर आराधना विधि से सिद्ध करते हैं वे साधित विद्या हैं।
इस विजयार्ध पर्वत पर इस विद्याधर श्रेणी से १० योजन ऊपर जाकर दोनों तरफ १०-१० योजन विस्तृत दूसरी श्रेणी है। इसमें अभियोग्य जाति के देवों के भवन बने हुए हैं। इससे ५ योजन ऊपर जाकर १० योजन विस्तार वाला इस पर्वत का शिखर है।२ इस पर ९ कूट हैं जिसमें एक कूट पर जिनमंदिर है, शेष पर देवों के भवन बने हुए हैं। इस पर्वत में दो गुफायें हैं। जिनमें से गंगा, सिन्धु नदियां प्रवेश कर बाहर निकलकर क्षेत्र में बहती हैं। ये दोनों नदियां हिमावान पर्वत के पद्म सरोवर से निकलती हैं। ऐरावत क्षेत्र में भी इसी प्रकार से विजयार्ध पर्वत हैं। उस पर भी दोनों तरफ विद्याधर श्रेणियां हैं। उन पर यहीं के समान विद्याधर रहते हैं। अंतर इतना ही है कि उस पर्वत की गुफा में रक्ता-रक्तोदा नाम की नदियां प्रवेश कर बाहर निकल कर ऐरावत क्षेत्र में बहती हैं। ये नदियां शिखरी पर्वत के पुण्डरीक सरोवर से निकलती हैं। धातकीखण्ड में दो भरत, दो ऐरावत हैं। ऐसे ही पुष्करार्ध द्वीप में भी दो भरत, दो ऐरावत हैं। इसमें भी विद्याधरों के नगर बने हुए हैं। इन पांचों ही भरत और पांचों ही ऐरावत क्षेत्रों के आर्यखण्ड में षट्काल परिवर्तन होता रहता है। इन विजयार्ध पर्वत की विद्याधर श्रेणियों में रहने वाले विद्याधर मनुष्यों में क्रम से अवसर्पिणी में चतुर्थकाल की आदि से लेकर अन्त तक हानि होती है और उत्सर्पिणी में तृतीय काल के प्रारंभ से लेकर अन्त तक वृद्धि होती है।
अवसर्पिणी के चतुर्थकाल की आदि में एक कोटि पूर्व वर्षों की उत्कृष्ट आयु है और शरीर की ऊंचाई ५०० धनुष प्रमाण है तथा अंत में १२० वर्ष की उत्कृष्ट आयु है और शरीर की ऊंचाई ७ हाथ प्रमाण रह जाती है। फिर यहां के पंचमकाल, छठे काल, वापस उत्सर्पिणी के प्रथम, द्वितीय काल, इन चारों कालों के २१-२१ हजार मिलकर ८४ हजार वर्षों तक यही जघन्य आयु और जघन्य अवगाहना बनी रहती है पुन: वृद्धि होते हुए उत्सर्पिणी के तृतीय काल के अंत में कोटिपूर्व वर्ष की आयु और ५०० धनुष की अवगाहना हो जाती है पुन: चतुर्थ, पंचम और छठे काल तक वही स्थिति बनी रह जाती है। फिर जब यहां आर्यखंड में अवसर्पिणी का चौथा काल आता है और ह्रास होना शुरू होता है तब इन विद्याधरों में भी आयु, अवगाहना आदि का ह्रास होने लगता है। तभी तो चतुर्थकाल में यहां के मनुष्यों के उन विद्याधर मनुष्यों के साथ सम्बन्ध होते रहते हैं। विदेहक्षेत्र में कच्छा आदि ३२ विदेह देशों में ३२ विजयार्ध हैं। ये भी ५० योजन चौड़े हैं और २५ योजन ऊंचे हैं। इन पर दोनों बाजू में ५५-५५ नगरियां हैं, उनमें भी विद्याधर मनुष्य रहते हैं। इन विदेहों के विद्याधरों में सदा ही चतुर्थकाल के प्रारम्भ जैसी ही स्थिति रहती है, काल परिवर्तन नहीं होता है। जंबूद्वीप में एक भरत, एक ऐरावत के ऐसे दो तथा विदेह के ३२, ऐसे ३४ विजयार्ध हैं। ऐसे धातकीखंड में दो भरत, दो ऐरावत और ६४ विदेह के ६४, ऐसे ६८ विजयार्ध हैं तथा पुष्करार्ध में भी ६८ हैं। कुल मिलाकर ६४±६८±६८·१७० विजयार्ध पर्वत हैं। प्रत्येक विद्याधरों की २-२ श्रेणी होने से १७०²२·३४० विद्याधर श्रेणियां हैं। ये सभी विद्याधर स्त्री-पुरुष आकाशगामी, रूपपरिवर्तिनी आदि विद्याओं के बल से अपने विमानों में बैठकर आकाशमार्ग से सर्वत्र विचरण किया करते हैं। सुमेरु पर्वत आदि अकृत्रिम चैत्यालयों की वंदना करते रहते हैं और जिनेन्द्रदेव की तथा निग्र्रंथ गुरुओं की भक्ति में तत्पर रहते हैं। वहां जैनधर्म के सिवाय अन्य कोई धर्म नहीं है और निग्र्रंथ गुरुओं के सिवाय अन्य कोई गुरु नहीं हैं। वहां पर हमेशा ही केवली, श्रुतकेवली, महामुनि, आर्यिका, श्रावक और श्राविकागण विद्यमान रहते हैं।
लवण समुद्र में अनेक द्वीप हैं जिनमें इस भरतक्षेत्र के विजयार्ध के विद्याधर लोग रहते हैं। रावण के पूर्वज भी यहीं से गये थे। इस बात का खुलासा पद्मपुराण में है।१ यथा- भरतक्षेत्र के विजयार्ध की दक्षिण श्रेणी में एक चक्रवाल नाम का नगर है। उसमें पूर्णधन विद्याधर राजा था। शत्रुओं ने उसे मार दिया। अनंतर उसके पुत्र मेघवाहन को उस चक्रवाल नगर से निर्वासित कर दिया। वह मेघवाहन दु:खी हो भगवान अजितनाथ के समवशरण में आ गया, उसके शत्रु भी उसका पीछा करते हुए वहीं पर आ गये किन्तु समवशरण में सब शांतभाव को प्राप्त हो गए। वहीं पर व्यंतर देवों में से राक्षस जाति के देवों के इन्द्र, भीम और सुभीम ने प्रसन्न होकर मेघवाहन से कहा कि-इस लवण समुद्र में अतिशय सुन्दर हजारों महाद्वीप हैं, उनमें एक राक्षस द्वीप है, वह ७०० योजन लम्बा-चौड़ा है। इसके बीच में त्रिवूâटाचल पर्वत है। इसके नीचे ३० योजन विस्तृत लंका नगरी है। उसमें बड़े-बड़े जिनमंदिर, सरोवर, उद्यान आदि शोभित हैं, उसमें जाकर तुम रहो, इत्यादि प्रकार से कहकर भीम इन्द्र ने मेघवाहन को एक देवाधिष्ठित हार भी दिया। उसे प्राप्तकर यह मेघवाहन अपने भाई-बन्धुओं सहित वहां जाकर लंका नगरी में रहने लगा।२
इन्हीं के वंश में रावण विद्याधर हुआ है। ऐसे ही वानरवंशियों का कथन है। यथा- विजयार्ध पर्वत की दक्षिण श्रेणी में मेघपुर न गर है। वहां श्रीकंठ राजा रहता था। लंका के राजा कीर्तिधवल इसके बहनोई थे। एक बार शत्रुओं से त्रसित श्रीकंठ को कीर्तिधवल ने कहा-विजयार्ध पर्वत पर तुम्हारे बहुत से शत्रु हैं अत: इस लवण समुद्र के बीच वायव्य दिशा में ३०० योजन विस्तृत एक वानर द्वीप है,१ वहां जाकर रहो। तब इस श्रीकंठ ने वहां जाकर किष्कुपर्वत पर एक किष्कुपुर नामका नगर बसाया और वहीं रहने लगा। वहां बन्दर बहुत थे, उनके साथ क्रीड़ा करने से बन्दर के चिन्ह को मुकुट आदि में धारण करने से इन्हीं के वंशज वानरवंशी कहलाए हैं। म्लेच्छ खण्ड के मनुष्य-गंगा-सिन्धु नदी और विजयार्ध पर्वत से भरतक्षेत्र के छह खंड हो गये हैं, जिनमें दक्षिण और उत्तर के ३-३ खंड हैं। दक्षिण भरत के मध्य का आर्यखंड है, शेष पांचों म्लेच्छ खण्ड हैं। उत्तर भरत के ३ म्लेच्छखंडों में से मध्य के खंड के ठीक बीच में एक वृषभाचल पर्वत है। यह १०० योजन ऊंचा है, भूतल पर १०० योजन विस्तृत है और घटते हुए ऊपर में ५० योजन विस्तृत है। इस पर वृषभ नाम का व्यंतर देव रहता है। उसके भवन में जिनमंदिर है।२ भरतक्षेत्र के भरत आदि चक्रवर्तियों ने छह खंड जीतकर इसी पर्वत पर जाकर अपनी विजय प्रशस्ति लिखी है।
ऐसे ही ऐरावत क्षेत्र में भी पांच म्लेच्छखंड हैं तथा ३२ विदेहों में भी ५-५ म्लेच्छखंड हैं।३ इस प्रकार ५ भरत, ५ ऐरावत और १६० विदेहों के ५-५ म्लेच्छखंड हैं अतः कुल (१७०²५·८५०) ८५० म्लेच्छ खण्ड हैं। इनमें भी मनुष्य रहते हैं, वे कर्मभूमिज हैं। भरत, ऐरावत के १०²५·५० म्लेच्छखंडों में चतुर्थकाल की आदि से लेकर अंत तक का परिवर्तन होता है, शेष ८०० में नहीं।४ चूंकि चतुर्थकाल में चक्रवर्ती सम्राट वहां की ३२००० कन्याओं से विवाह करते हैं। शेष जो विदेहक्षेत्र के म्लेच्छखंड हैं उनमें चतुर्थकाल की आदि जैसी ही व्यवस्था रहती है, काल परिवर्तन नहीं होता है। इन म्लेच्छखंडों में धर्म, कर्म से बहिर्भूत, नीच कुल से समन्वित, विषयासक्त और दुर्गति में जाने वाले म्लेच्छ मनुष्य रहते हैं।५
विदेहों के म्लेच्छखंड धर्मरहित हैं और धर्म कर्म से बहिर्भूत तथा खोटे कुलोत्पन्न म्लेच्छों से भरे हैं।६ आदिपुराण में कहा है कि ये लोग धर्मक्रियाओं से रहित हैं इसलिए म्लेच्छ माने गए हैं। धर्मक्रियाओं के सिवाय ये अन्य आचरणों से आर्यखण्ड में उत्पन्न होने वाले लोगों के समान हैं।७ ये म्लेच्छ राजा कुल परम्परागत देवों की उपासना भी करते हैं। यथा-चिलात और आवंत नाम के दो म्लेच्छ राजाओं ने भरत सम्राट के योद्धाओं को अपने देश पर आक्रमण करता हुआ जानकर कुल परम्परागत चले आए नागमुख और मेघमुख नाम के देवों का पूजन कर उनका स्मरण किया।८ इससे यह समझ में आता है कि वे म्लेच्छ राजा क्षत्रिय राजाओं के समान ही थे तभी चक्रवर्ती उनकी कन्याओं से विवाह करते थे।
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