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Sunday, 1 March 2015
जैन धर्म की मुख्य बातें :-
तीर्थंकर :-
जब मनुष्य ही उन्नति करके परमात्मा बन जाए तो वह तीर्थंकर कहलाता है।दूसरे पक्ष से देखें तो 'तीर्थ' कहते हैं घाट को, किनारे को, तो धर्म-तीर्थ का प्रवर्तन करने वाले 'तीर्थंकर' कहे जाते हैं। जबकि अवतार तो परमात्मा के, ईश्वर के प्रतिरूप माने जाते हैं, जो समय-समय पर अनेक रूपों में जन्म लेते हैं।
जैन धर्म के अनुसार 24 तीर्थंकर हो गए हैं। पहले तीर्थंकर ऋषभनाथजी हैं तो चौबीसवें महावीर स्वामी। ऋषभनाथ को 'आदिनाथ', पुष्पदन्त को 'सुविधिनाथ' और महावीर को 'वर्द्धमान, 'वीर', 'अतिवीर' और 'सन्मति' भी कहा जाता है।
सम्प्रदाय :-
जैन धर्म मानने वालों के मुख्य रूप से दो आम्नाय (सम्प्रदाय) हैं- दिगम्बर और श्वेताम्बर।
दिगम्बर सम्प्रदाय के मुनि वस्त्र नहीं पहनते। 'दिग्' माने दिशा। दिशा ही अम्बर है, जिसका वह 'दिगम्बर'। वेदों में भी इन्हें 'वातरशना' कहा है। जबकि श्वेताम्बर सम्प्रदाय के मुनि सफेद वस्त्र धारण करते हैं। कोई 300 साल पहले श्वेताम्बरों में ही एक शाखा और निकली 'स्थानकवासी'। ये लोग मूर्तियों को नहीं पूजते। जैनियों की तेरहपंथी, बीसपंथी, तारणपंथी, यापनीय आदि कुछ और भी उपशाखाएँ हैं। जैन धर्म की सभी शाखाओं में थोड़ा-बहुत मतभेद होने के बावजूद भगवान महावीर तथा अहिंसा, संयम और अनेकांतवाद में सबका समान विश्वास है।
आगम ग्रंथ :-
भगवान महावीर ने सिर्फ उपदेश ही दिए। उन्होंने कोई ग्रंथ नहीं रचा। बाद में उनके गणधरों ने, प्रमुख शिष्यों ने उनके उपदेशों और वचनों का संग्रह कर लिया। इनका मूल साहित्य प्राकृत में है, विशेष रूप से मागधी में।
जैन शासन के सबसे पुराने आगम ग्रंथ 46 माने जाते हैं। इनका वर्गीकरण इस प्रकार किया गया है।
अंगग्रंथ (12)- 1. आचार, 2. सूत्रकृत, 3. स्थान, 4. समवाय 5. भगवती, 6. ज्ञाता धर्मकथा, 7. उपासकदशा, 8. अन्तकृतदशा, 9. अनुत्तर उपपातिकदशा, 10. प्रश्न-व्याकरण, 11. विपाक और 12. दृष्टिवाद। इनमें 11 अंग तो मिलते हैं, बारहवाँ दृष्टिवाद अंग नहीं मिलता।
उपांगग्रंथ (12)- 1. औपपातिक, 2. राजप्रश्नीय, 3. जीवाभिगम, 4. प्रज्ञापना, 5. जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति 6. चंद्र प्रज्ञप्ति, 7. सूर्य प्रज्ञप्ति, 8. निरयावली या कल्पिक, 9. कल्पावतसिका, 10. पुष्पिका, 11. पुष्पचूड़ा और 12. वृष्णिदशा।
प्रकीर्णग्रंथ (10)- 1. चतुःशरण, 2. संस्तार, 3. आतुर प्रत्याख्यान, 4. भक्तपरिज्ञा, 5. तण्डुल वैतालिक, 6. चंदाविथ्यय, 7. देवेन्द्रस्तव, 8. गणितविद्या, 9. महाप्रत्याख्यान और 10. वीरस्तव।
छेदग्रंथ (6)- 1. निशीथ, 2. महानिशीथ, 3. व्यवहार, 4. दशशतस्कंध, 5. बृहत्कल्प और 6. पञ्चकल्प।
मूलसूत्र (4)- 1. उत्तराध्ययन, 2. आवश्यक, 3. दशवैकालिक और 4. पिण्डनिर्य्युक्ति।
स्वतंत्र ग्रंथ (2)- 1. अनुयोग द्वार और 2. नन्दी द्वार।
पुराण :-
जैन परम्परा में 63 शलाका-महापुरुष माने गए हैं। पुराणों में इनकी कथाएँ तथा धर्म का वर्णन आदि है। प्राकृत, संस्कृत, अपभ्रंश तथा अन्य देशी भाषाओं में अनेक पुराणों की रचना हुई है। दोनों सम्प्रदायों का पुराण-साहित्य विपुल परिमाण में उपलब्ध है। इनमें भारतीय इतिहास की महत्वपूर्ण सामग्री मिलती है।
मुख्य पुराण हैं- जिनसेन का 'आदिपुराण' और जिनसेन (द्वि.) का 'अरिष्टनेमि' (हरिवंश) पुराण, रविषेण का 'पद्मपुराण' और गुणभद्र का 'उत्तरपुराण'। प्राकृत और अपभ्रंश भाषाओं में भी ये पुराण उपलब्ध हैं। भारत की संस्कृति, परम्परा, दार्शनिक विचार, भाषा, शैली आदि की दृष्टि से ये पुराण बहुत महत्वपूर्ण हैं।
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