Wednesday, 20 July 2011

जाति-कुलमद

जाति-कुलमद

आचार्य हेमचन्द्र योगशास्त्र में कहते हैं -

जातिलाभकुलैश्वर्यबलरूपतपःश्रुत​ैः। कुर्वन् मदं पुनस्तानि हीनानि लभते नरः ।।४-१३।।

अर्थात्-जाति, लाभ, कुल, ऐश्वर्य, बल, रूप, तप और ज्ञान का मद करनेवाले मनुष्य को इस मद के दुष्परिणामस्वरूप ये चीजें हीन कोटि की मिलती हैं।

भौतिक सम्पत्ति विनाशशील है, अतः उस पर अभिमान करना समझदारी की कमी को सूचित करता है। विद्यासम्पत्ति अभिमान करने के लिये नहीं है, परन्तु विद्याहीनों की और अनुकम्पा-भाव रखकर उनके जीवन के कल्याण के लिये उन पर ज्ञान का प्रकाश डालने में उसकी सार्थकता है। कुल-जाति का गौरव अथवा उच्च समझे जानेवालों का उच्चत्व मानवता के सद्गुणों को अपनाने में और निम्न श्रेणी के गिने जानेवाले मनुष्यों के साथ आत्मीय भाव से बरतने में है, नहीं कि अपने बड़प्पन का अभिमान करके के और दूसरों को अनेक कुल-जाति के कारण हीन समझ कर उनके साथ हीनतायुक्त व्यवहार करने में। उच्चता अथवा नीचता, बड़ाई अथवा छुटाई जन्म के कारण नहीं है। गुण-कर्मों से सम्पादित बड़ाई ही सच्ची बड़ाई है। जहाँ इस प्रकार की बड़ाई हो वहाँ अभिमान जैसे दोषों को अवकाश ही नहीं मिल सकता। सद्गुणों का अभिमान भी सद्गुणों के लिये लाञ्छनरूप है। अभिमान प्रगति का अवरोधक है। वह जीवन की नैसर्गिक मधुरिमा को खट्टी बना देता है। अभिमान करने का कोई स्थान ही नहीं है। अपने को ऊँचा समझ कर घमंड करनेवाला अपने आपको ऊपर से नीचे गिरता है। उच्चता सद्गुणों और सत्कर्मों के संस्कार में है। जहाँ यह संस्कारिता प्रकाशित हो वहाँ ऊँच-नीचता की भेददृष्टि होने नहीं पाती; वहाँ तो निम्न-स्तर के मनुष्यों के साथ ही सहानुभूति और मैत्री का पवित्र प्रवाह बहता ही रहता है। उच्चता सद्गुणों-सत्कर्मों में और नीचता गुण-कर्महीनता में समझना यही सच्ची दृष्टि है। जन्म के कारण मनुष्य को उत्तम अथवा अधम मानना यह एक भ्रामक दृष्टि है।

समाज के धारण-पोषण के लिये समाज के व्यक्तियों को जो अनेकानेक व्यावसायिक प्रवृत्तियाँ करनी पड़ती हैं। उनको स्थूलरूप से चार विभागों में बाँटा गया और उन चार प्रकार की व्यावसायिक प्रवृत्तियाँ करनेवालों को अलग अलग रूपसे पहचानने के लिये अलग-अलग ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र नाम दिए गए।

जो मनुष्य मुख्यतया शास्त्राभ्यास कर के तथा पठन-पाठन से लोगों में ज्ञानसंस्कार सींचने का व्यवसाय करने लगें उन्हें ब्राह्मण कहा गया जो मुख्यतः अपने जीवन की परवा किए बिना आततायियों तथा दुष्ट आक्रमणकारों से प्रजा का रक्षण करने का तथा समाज में चलनेवाली दुष्प्रवृत्तियों को रोककर समाज को स्वस्थ रखने का व्यवसाय करने लगे वे क्षत्रिय कहलाए। जो लोग मुख्यतः खेती तथा अन्य व्यापार-रोजगार कर के समाज के लिये आवश्यक वस्तुएँ हाजिर करने का व्यवसाय ले बैठे वे वैश्य कहलाए। और जो लोग मुख्यतः शारीरिक श्रम कर के समाज की दूसरे रूप से सेवा करने लगे वे शूद्र कहलाए।

इस पर से ज्ञात होगा कि ये चारों प्रकार की प्रवृत्तियाँ समाज की सुख-सुविधा तथा सामाजिक विकास के लिये आवश्यक हैं। इनमें की एक भी प्रवृत्ति के बिना समाज टिक नहीं सकता। और न अपना विकास अथवा उन्नति साध सकता है। अतः अमुक मनुष्य अमुक व्यवसाय करता है इसिलये वह ऊँचा है और अमुक मनुष्य दूसरा व्यवसाय करता है इसलिये वह नीचा है ऐसा न समझना चाहिए। केवल व्यवसाय के भेद पर दृष्टि रख कर ऊँच-नीच का वर्गीकरण नहीं किया जा सकता। उसके लिये तो दूसरी बातें ध्यान में लेने की हैं। मनुष्य चाहे जो हो और चाहे जो धन्धा-रोजगार करता हो, परन्तु वह गुण से उच्च (सच्चरित) होना चाहिए। इतना ही नहीं, वह अपने कर्म से भी उच्च होना चाहिए। कर्म से उच्च अर्थात् अपना अपना विशिष्ट व्यवसाय प्रामाणिकतापूर्वक धर्मबुद्धि से तथा मन लगा कर योग्य रूप से करनेवाला। इस तरह मनुष्य यदि गुण एवं कर्म से उच्च हो तो वह उच्च है। ब्राह्मण का व्यवसाय करनेवाला मनुष्य यदि दुश्चरित हो अथवा अपने कर्तव्य के पालन में धूर्तता करे तो वह नीच है और शूद्र का व्यवसाय करनेवाला मनुष्य यदि सच्चरित हो और अपने कर्तव्य का बराबर पालन करता हो तो वह उच्च है। अतः जन्म के कारण से किसी को ऊँच-नीच नहीं कहा जा सता।

वस्तुतः मनुष्य में ब्राह्मणत्व, क्षत्रियत्व, वैश्यत्व तथा शूद्रत्व इन चारों तत्त्वों का सुभग संगम होना चाहिए, क्योंकि जीवनचर्या में स्वाध्याय या विद्योपासना, बल-शूरता, कृषि आदि व्यापार-विकास एवं व्यावहारिक बुद्धि तथा सेवावृत्ति-इन चारों तत्त्वों की अमुक यात्रा में आवश्यकता है। इन चारों की समुचित मात्रा होने पर ही मनुष्य मनुष्यत्वसम्पन्न होता है।

और शरीर में मस्तक, हाथ, पेट व पैर इन अंगों में से किसे उच्च और किसे नीचे कहें? पैर की क्या कम उपयोगिता है? इसी प्रकार पैर के स्थान के शूद्र की उपयोगिता कम कैसे समझी जाय? सब अंग यदि परस्पर मिलजुलकर कार्य करें तो वे स्वयं तथा अवयवी शरीर जीवित और सुखी रह सकते हैं, और यदि एक-दूसरे के साथ लड़ने झगड़ने लगे अथवा ईर्ष्यावश रूठ बैठे तो उन सबके लिये मरने का समय आ जाय। ठीक इसी भाँति ब्राह्मणादि वर्ण परस्पर उदारता से, वात्सल्यभाव से हिलमिलकर रहें तो इसमें उन सबका उदय-अभ्युदय है और झूठे अभिमानवश एक-दूसरे का तिरस्कार करने में इन सबका विनिपात है।

थोड़ा और अधिक विचार करें।

उच्चता और नीचता प्रकृतिधर्मकृत और मानवसमाज द्वारा कल्पित ऐसी दो प्रकार की गिनाई जा सकती हैं। इन दोनों में से सर्वप्रथम हम दूसरे प्रकार की देखें।

यह तो मानी जा के ऐसी बात है कि दुःखजनक परिस्थिति में पैदा होना पापोदय का और सुखजनक परिस्थिति में पैदा होना पुण्योदय का परिणाम है। इस तरह यदि रोगी घर में, दुर्बुद्धि अथवा मूर्ख परिवार में अथवा दरिद्र-कंगाल कुटुम्ब में पैदा होना पापकर्मों के उदय का परिणाम है, तो खराब राज्य अथवा खराब शासनवाले देश में पैदा होना भी पापोदय का परिणाम समझा जा सकता है और इसी प्रकार खराब सामाजिक रचनावाले समाज में पैदा होना भी पापोदय का परिणाम माना जा सकता है। रोगी वातावरणवाले घर में पैदा होकर मनुष्य कालक्रमेण अपने घर को सुधारे और आरोग्य के अनुकूल बनावे तब की बात तब, और इसी प्रकार कोई मनुष्य दरिद्र घर में पैदा होकर कालक्रमेण अपने घर की आर्थिक स्थिति सुधारे तब की बात तब, परन्तु जन्म के समय दुःखोत्पादक परिस्थिति में जन्म लेना और जब तक उस परिस्थिति में सुधार न हो तब तक योग्य पुरुषार्थ करने पर भी जो सहन करना पड़े वह पापपोदय का ही परिणाम गिना जाय।

यहाँ पर हमारा प्रश्न समाजरचा के बारे में है। खराब समाजरचनाओं में से एक रचना वर्णाश्रम-व्यवस्था की है। इस दूषित प्रणालिका के अनुसार समाज ने जन्म एवं कुछ धन्धे-रोजगारों के कारण अमुक वर्गों को उच्च और अमुक वर्गों को नीच मान लिया है। ऐसे दूषित रचनावाले समाज में अथवा देश में समाज-द्वारा कल्पित नीचवर्ग में उत्पन्न होने से उसे दूषित समाजरचना का बलि होना पड़ता है, अपने से उच्च माने जानेवाले वर्गों की ओर से हीनदृष्टि तथा घृणा और अपमान आदि का सन्ताप सहन कना पड़ता है। इस प्रकार का अन्याय्य क्लेश-सहन समाजद्वारा सर्जित नहीं नहीं, कल्पित समाजरचना के आभारी है। क्रान्तिकार वीरपुरुष पैदा हो कर दूषित समाजरचना को सुधारने का प्रयत्न करे और उनके प्रयत्नों की परम्परा के परिणामस्वरूप समाजरचा में यदि सुधार हो और जन्म के तथा धन्धे-रोजगारों के कारण ऊँच-नीच मानने की दृष्टि में परिवर्तन हो तब वातावरण सुधर जाने पर समाज-कल्पित जातिगत ऊँच-नीच के भेदों के बखेड़े सहन करने नहीं पड़ेंगे; परन्तु जब तक इस प्रकार की सुधारणा का योग्य प्रचार और प्रसार न हो तब तक तथाकथित नीचे वर्ग में पैदा होनेवाले को योग्य पुरुषार्थ करने पर भी कष्ट सहन करना पड़े और वह क्लेश सहन मूल में जिस कर्म पर आश्रित माना जाय उसे ‘नीच गोत्र’ कर्म कहते हैं।

ऊपर कहा वैसा यदि सामाजिक रचना में सुधार हो, जन्म-जाति अथवा धन्धे-रोजगारों के आधार पर खड़ी की हुई ऊँच-नीच के भेदों की कल्पना नाबूद हो अर्थात् इस प्रकार की कल्पना के आधार पर कोई ऊँच-नीच न समझा जाय ऐसा युग आए तब भी ‘गोत्रकर्म’ का स्थान तो रहने का ही और वह ऊपर के प्रकार की नहीं तो दूसरे प्रकार की उच्च-नीचता का खुलासा बैठाने के लिये। संस्कारी, सदाचरणी कुल-कुटुम्ब में पैदा होना अथवा असंस्कारी, असभ्य और हीन आचारवाले कुटुम्ब में पैदा होना इसके मूल में कोई ‘कर्म’ तो मानना ही पड़ेगा। अतः वह परिस्थिति गोत्र-कर्म पर अवलम्बित समझी जायगी-अनुक्रम से उच्च-गोत्र और नीच-गोत्र कर्म पर। यह ऊँच-नीचता प्रकृतिधर्मकृत समझनी चाहिए।

वस्तुतः आजकल की सामाजिक रचना में भी तथाकथित नीच कुल में उत्पन्न मनुष्य भी यदि सम्यग्दृष्टि के साथ साथ व्रताचरणसम्पन्न हो तो उसका नीच-गोत्र का नहीं किन्तु उच्च-गोत्र का उदय है-ऐसा जैन कर्मशास्त्र कहते हैं। अर्थात् दृष्टि और आचरण के सुसंस्कारवाले, को फिर वह किसी भी जाति-कुल-वंश का क्यों न हो, जैनशास्त्र नीच-गोत्र का नहीं परन्तु उच्च-गोत्र के उदयवाला मानता है। अरे! चाण्डाल जाति के होने पर भी जो उत्तम चारित्रसम्पन्न बने हैं उनके लिये जैन आगमों ने पूजावाचक शब्दों का प्रयोग कर के उनका अत्यन्त सम्मानपूर्वक उल्लेख किया है।

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