Tuesday, 29 April 2014

१ त्रिलोक भास्कर २ जैन भूगोल मे दूरी नापने के सबसे छोटे से लेकर सबसे बड़े परिमाण कौनसे हैं ? ३ जैन भूगोल के परिमाणों के साथ, आज के भूगोल के परिमाणों का सम्बन्ध कैसे लगाये ? ४ अंगुल परिमाण के भेद कौनसे है और उनसे किन किन का माप होता है? ५ व्यवहार पल्य किसे कहते है? ६ उद्धार पल्य किसे कहते है और उससे किसका माप होता है? ७ अद्धा पल्य किसे कहते है और उससे किसका माप होता है? ८ १ कोडाकोडी संख्या कितनी होती है? ९ सागर का प्रमाण क्या है? १० लोकाकाश कहाँ स्थित है ? ११ लोकाकाश किससे व्याप्त है ? १२ लोकाकाश का आकार कैसा है ? १३ लोकाकाश किसके आधार से स्थित है ? १४ वातवलय किसे कहते है? और वे कैसे स्थित है? १५ वातवलयों के वर्ण कौनसे है? १६ लोकाकाश मे तीनो वातवलयों की मोटाई कितनी है? १७ लोकाकाश में कितने लोक हैं ? १८ इन तीनों लोकों के आकार कैसे हैं ? १९ सारे लोक की ऊँचाई और मोटाई कितनी है ? २० इस १४ राजु की ऊँचाई का लोकाकाश के निचले भाग से उपर तक का विवरण दिजिये । २१ लोकाकाश कि चौडाइ का विवरण दिजिये । २२ लोकाकाश का घनफल कितना है? २३ ७ राजू ऊंचे अधोलोक मे निगोद और नरकों की अलग अलग ऊंचाइया कितनी है ? २४ अधोलोक से मध्यलोक तक कि चौडाई घटने का क्रम कैसा है ? २५ अधोलोक का घनफल कितना है? २६ ऊर्ध्वलोक मे स्वर्गो की अलग अलग ऊंचाइया कितनी है ? २७ मध्यलोक से सिद्धशिला तक लोक की चौडाई बढने - घटने का क्रम कैसा है ? २८ ऊर्ध्वलोक का घनफल कितना है? २९ त्रसनाली क्या है और कहाँ होती है? ३० उपपाद की अपेक्षा त्रस जीव; त्रसनाली के बाहर कैसे पाए जाते है? ३१ मारणांतिक समुदघात की अपेक्षा त्रस जीव; त्रसनाली के बाहर कैसे पाए जाते है? ३२ केवलिसमुदघात की अपेक्षा त्रस जीव; त्रसनाली के बाहर कैसे पाए जाते है? ३३ अधोलोक मे कितनी पृथ्वीयाँ है? और उनके नाम क्या है? ३४ अधोलोक कि पृथ्वीयों की अलग अलग मोटई कितनी है? ३५ रत्नप्रभा पृथ्वी के कितने भाग है? और उनकी मोटाईया कितनी है? ३६ रत्नप्रभा पृथ्वी मे किस किस के निवास है? ३७ खरभाग के कितने भेद है और उनकी मोटाईया कितनी है? ३८ खरभाग की प्रथम पृथ्वी का नाम "चित्रा" कैसे सार्थक है? ३९ नारकी जीव कहाँ रहते है? ४० नरको मे बिल कहाँ होते है? ४१ प्रत्येक नरक मे कितने बिल है? ४२ कौनसे नारकी बिल उष्ण और कौनसे शीत है? ४३ नारकीयों के बिल की दुर्गन्धता और भयानकता कितनी है? ४४ नारकीयों के बिल के कितने और कौन कौनसे प्रकार है? ४५ प्रथम नरक मे इन्द्रक बिलो की रचना किस प्रकार है, और उनके नाम क्या है? ४६ श्रेणीबद्ध बिलों का प्रमाण कैसे निकालते है? ४७ प्रकीर्णक बिलों का प्रमाण कैसे निकालते है? ४८ नारकी बिलों का विस्तार कितना होता है? ४९ पृथक पृथक नरको मे संख्यात और असंख्यात बिलों का विस्तार कितना होता है? ५० नारकी बिलों मे तिरछा अंतराल कितना होता है? ५१ नारकी बिलों मे कितने नारकी जीव रहते है? ५२ इन्द्रक बिलों का विस्तार कितना होता है? ५३ इन्द्रक बिलों के मोटाई का प्रमाण कितना होता है? ५४ इन्द्रक बिलों के अंतराल का प्रमाण कितना है और उसे कैसे प्राप्त करे(कॅलक्युलेट करे)? ५५ एक नरक के अंतिम इन्द्रक से अगले नरक के प्रथम इन्द्रक का अंतर कितना होता है? ५६ नारकी जीव नरको मे उत्पन्न होते ही, उसे कैसा दुःख भोगना पडता है? ५७ नारकी जीव के जन्म लेने के उपपाद स्थान कैसे होते है? ५८ परस्त्री सेवन का पाप करने वाले जीव को नरको मे कैसा दुःख उठाना पडता है? ५९ माँस भक्षण का पाप करने वाले जीव को नरको मे कैसा दुःख उठाना पडता है? ६० मधु और मद्य सेवन का पाप करने वाले जीव को नरको मे कैसा दुःख उठाना पडता है? ६१ नरक की भुमी कितनी दुःखदायी है? ६२ नारकियों के साथ कितने रोगो का उदय रहता है? ६३ नारकियों का आहार कैसा होता है? ६४ क्या तीर्थंकर प्रकृती का बंध करने वाला जीव नरक मे जा सकता है? ६५ नारकियों के दुःख के कितने भेद है? ६६ नारकियों को परस्पर दुःख उत्पन्न करानेवाले असुरकुमार देव कौन होते है? ६७ क्या नरको मे अवधिज्ञान होता है ? ६८ अलग अलग नरको मे अवधिज्ञान का क्षेत्र कितना होता है ? ६९ नरको मे अवधिज्ञान प्रकट होने पर मिथ्यादृष्टि और सम्यगदृष्टि जीव की सोच मे क्या अंतर होता है ? ७० नरको मे सम्यक्त्व मिलने के क्या कारण है ? ७१ जीव नरको मे किन किन कारणों से जाता है ? ७२ प्रत्येक नरक के प्रथम पटल (बिल) और अन्तिम पटल मे नारकीयों के शरिर की अवगाहना कितनी होती है ? ७३ लेश्या किसे कहते है ? ७४ नरक मे कौनसी लेश्यायें होती है ? ७५ क्या नारकीयोंकी अपमृत्यु होती है ? ७६ नारकीयोंकी जघन्य, मध्यम, और उत्कृष्ठ आयु कितनी होती है ? ७७ प्रत्येक नरक के पटलों की अपेक्षा जघन्य, और उत्कृष्ठ आयु का क्या प्रमाण है? ७८ प्रत्येक नरक मे नारकियों के जन्म लेने के अन्तर का क्या प्रमाण है? ७९ कौन कौन से जीव किन-किन नरको मे जाने की योग्यता रखते है? ८० नरक से निकलकर नारकी किन-किन पर्याय को प्राप्त कर सकते है? ८१ भवनवासी देव ८२ भवनवासी देवों का स्थान अधोलोक मे कहाँ है? ८३ भवनवासी देवों के कितने और कौनसे भेद है? ८४ भवनवासी देवों के मुकुटों मे कौनसे चिन्ह होते है? ८५ भवनवासी देवों के भवनों का कुल प्रमाण कितना है? ८६ भवनवासी देवों के इन्द्रों का और उनके भवनों का पृथक पृथक (अलग अलग) प्रमाण कितना है? ८७ भवनवासी देवों के निवास के कौनसे भेद है? ८८ भवनवासी देवों के भवनों का प्रमाण क्या है? ८९ भवनवासी देवों के भवनों का स्वरुप कैसा है? ९० भवनवासी देवों के भवनों मे किस प्रकार के जिन मंदिर है? ९१ भवनवासी देवों के चैत्यवृक्षों का प्रमाण क्या है? ९२ भवनवासी देवों के चैत्यवृक्षों का स्वरूप कैसा है? ९३ भवनवासी देवों के चैत्यवृक्षों के मूल मे विराजमान जिन प्रतिमाओं का स्वरूप कैसा है? ९४ भवनवासी देवों के जिन मंदिरों का स्वरूप कैसा है? ९५ भवनवासी देवों के जिन मंदिरों के ध्वजभुमियों का स्वरूप कैसा है? ९६ भवनवासी देवों के जिन मंदिरों के मंडपों का स्वरूप कैसा है? ९७ भवनवासी देवों के जिन मंदिरों के भीतर की रचना कैसी होती है? ९८ भवनवासी देवों के जिन मंदिरों की प्रतिमायें कैसी होती है? ९९ भवनवासी देवों के जिन मंदिरों मे कौन कौन से देव पूजा करते है? १०० भवनवासी देवों के परिवारों मे कौन कौन होते है? १०१ भवनवासी देवों के परिवारों मे कौन कौन होते है? १०२ भवनवासी देवों के कितने प्रतिंद्र होते है? १०३ भवनवासी देवों के कितने त्रायस्त्रिंश होते है? १०४ भवनवासी सामानिक देवों का प्रमाण क्या है? १०५ भवनवासी आत्मरक्षक देवों का प्रमाण क्या है? १०६ भवनवासी पारिषद देवों का प्रमाण क्या है? १०७ भवनवासी मध्यम पारिषद देवों का प्रमाण क्या है? १०८ भवनवासी बाह्य पारिषद देवों का प्रमाण क्या है? १०९ भवनवासी अनीक देवों का प्रमाण क्या है? ११० भवनवासी प्रकीर्णक आदि शेष देवों का प्रमाण क्या है? १११ भवनवासी इंद्रों की देवियों की संख्या कितनी होती है? ११२ भवनवासी देवों का आहार कैसा और कब होता है? ११३ भवनवासी देव उच्छवास कब लेते है? ११४ भवनवासी देवो के शरीर का वर्ण कैसा होता है? ११५ भवनवासी देवो का गमन (विहार) कहाँ तक होता है? ११६ भवनवासी देव - देवियों का शरीर कैसा होता है? ११७ भवनवासी देव – देवियाँ काम सुख का अनुभव कैसे करते है? ११८ भवनवासी प्रतिन्द्र, इंद्र आदि के विभूतियों में क्या अंतर होता है ? ११९ भवनवासी देवो की आयु का प्रमाण कितना है ? १२० भवनवासी देवियों की आयु का प्रमाण कितना है ? १२१ भवनवासी देवो के शरीर की अवगाहना का प्रमाण कितना है ? १२२ भवनवासी देवो के अवधिज्ञान एवं विक्रिया का प्रमाण कितना है ? १२३ भवनवासी देव योनी में किन कारणों से जन्म होता है ? १२४ भवनवासी देव योनी में किन कारणों से सम्यक्त्व होता है ? १२५ भवनवासी देव योनी से निकलकर जीव कहाँ उत्पन्न होता है ? १२६ भवनवासी देव किस प्रकार और कौनसी शय्या पर जन्म लेते है और क्या विचार करते है ? १२७ भवनवासी देव किस प्रकार क्रीडा करते है ? जैन भूगोल मे दूरी नापने के सबसे छोटे से लेकर सबसे बड़े परिमाण कौनसे हैं ? जैन भूगोल में सबसे छोटे अणु को परमाणु कहते हैं । ऐसे अनन्तानन्त परमाणु = १ अवसन्नासन्न ८ अवसन्नासन्न = १ सन्नासन्न ८ सन्नासन्न = १ त्रुटिरेणु ८ त्रुटिरेणु का = त्रसरेणु ८ त्रसरेणु का = रथरेणु ८ रथरेणु = उत्तम भोग भूमिज के बाल का १ अग्रभाग उत्तम भोग भूमिज के बाल के ८ अग्रभाग = मध्यम भोग भूमिज के बाल का १ अग्रभाग मध्यम भोग भूमिज के बाल के ८ अग्रभाग = जघन्य भोग भूमिज के बाल का १ अग्रभाग जघन्य भोग भूमिज के बाल के ८ अग्रभाग = कर्म भूमिज के बाल का १ अग्रभाग कर्म भूमिज के बाल के ८ अग्रभाग = १ लिक्शा ८ लिक्शा = १ जू ८ जू = १ जौ ८ जौ = १ अंगुल या उत्सेधांगुल (५०० उत्सेधांगुल = १ प्रमाणांगुल) ६ उत्सेधांगुल = १ पाद २ पाद = १ बालिस्त २ बालिस्त = १ हाथ २ हाथ = १ रिक्कु २ रिक्कु = १ धनुष्य २००० धनुष्य = १ कोस ४ कोस = १ लघुयोजन ५०० लघुयोजन = १ महायोजन असंख्यात योजन = १ राजु जैन भूगोल के परिमाणों के साथ, आज के भूगोल के परिमाणों का सम्बन्ध कैसे लगाये ? १ गज = २ हाथ १७६० गज या ३५२० हाथ = १ मील २ मील = १ कोस ४००० मील या २००० कोस = १ महायोजन अंगुल परिमाण के भेद कौनसे है और उनसे किन किन का माप होता है? अंगुल परिमाण के ३ भेद होते है। उत्सेधांगुल : यह बालग्र, लिक्षा, जूँ और जौ से निर्मित होता है। देव, मनुष्य, तिर्यंच, और नारकियों के शरीर की ऊंचाई का प्रमाण, चारों प्रकार के देवों के निवास स्थान व नगर आदि का माप उत्सेधांगुल से होता है। प्रमाणांगुल : ५०० उत्सेधांगुल का १ प्रमाणांगुल होता है। भरत चक्रवर्ती का एक अंगुल प्रमाणांगुल के प्रमाण वाला है। इससे द्वीप, समुद्र, कुलाचल, वेदी, नदी, कुंड, सरोवर, जगती, भरत आदि क्षेत्रों का माप होता है। आत्मांगुल : जिस जिस काल मे भरत और ऐरावत क्षेत्र मे जो मनुष्य होते है, उस उस काल मे उन्ही उन्ही मनुष्यों के अंगुल का नाम आत्मांगुल है। इससे झारी, कलश, दर्पण, भेरी, युग, शय्या, शकट, हल, मूसल, शक्ति, तोमर, बाण, नालि, अक्ष, चामर, दुंदुभि, पीठ, छत्र, मनुष्यो के निवास स्थान, नगर, उद्यान आदि का माप होत है। व्यवहार पल्य किसे कहते है? १ योजन (१२ से १३ कि॰मी॰)विस्तार के गोल गढ्ढे का घनफल १९/२४ योजन प्रमाण होता है। ऐसे गढ्ढे मे मेंढो के रोम के छोटे छोटे टुकडे करके (जिसके पुनः दो टुकडे न हो सके)खचाखच भर दे। इन रोमों का प्रमाण ४१३४५२६३०३०८२०३१७७७४९५१२१९२०००००००००००००००००० होता है। अब इन रोमो मे से, सौ सौ वर्ष मे एक एक रोम खंड के निकालने पर जितने समय मे वह गड्डा खाली हो जाये, उतने काल को १ व्यवहार पल्य कहते है। उद्धार पल्य किसे कहते है और उससे किसका माप होता है? १ उद्धार पल्य की रोम राशि मे से प्रत्येक रोम खंड के असन्ख्यात वर्ष के जितने समय है, उतने खंड करके, तिसरे गढ्ढे को भरकर पुनः एक एक समय मे एक एक रोम खंड के निकालने पर जितने समय मे वह दुसरा पल्य खाली हो जाये, उतने काल को १ उद्धार पल्य कहते है। इस उद्धार पल्य से द्वीप और समुद्र का प्रमाण / माप होता है। अद्धा पल्य किसे कहते है और उससे किसका माप होता है? १ व्यवहार पल्य की रोम राशि को, असन्ख्यात करोड वर्ष के जितने समय है, उतने खंड करके, उनसे दुसरे पल्य को भरकर पुनः एक एक समय मे एक एक रोम खंड के निकालने पर जितने समय मे वह गड्डा खाली हो जाये, उतने काल को १ अद्धा पल्य कहते है। इस अद्धा पल्य से नारकि, मनुष्य, देव और तिर्यंचो कि आयु का तथा कर्मो की स्थिती का प्रमाण / माप होता है। १ कोडाकोडी संख्या कितनी होती है? १ करोड × १ करोड = १ कोडाकोडी सागर का प्रमाण क्या है? १० कोडाकोडी पल्य = १ सागर १० कोडाकोडी व्यवहार पल्य = १ व्यवहार सागर १० कोडाकोडी उद्धार पल्य = १ उद्धार सागर १० कोडाकोडी अद्धा पल्य = १ अद्धा सागर लोकाकाश कहाँ स्थित है ? केवली भगवान कथित अनन्तानन्त आलोकाकाश के बहुमध्य भाग में ३४३ घन राजु प्रमाण लोकाकाश स्थित है । लोकाकाश किससे व्याप्त है ? लोकाकाश जीव, पुदगल, धर्म, अधर्म और काल इन ५ द्रव्यों से व्याप्त है और स्वभाव से उत्पन्न है । इसकी सब दिशाओं मे आलोकाकाश स्थित है । लोकाकाश का आकार कैसा है ? कोई पुरुष अपने दोनो पैरो मे थोडासा अन्तर रखकर, और अपने दोनो हाथ अपने कमर पर रखकर खडा होने पर उसके शरीर का जो बाह्य आकार बनता है, उस प्रकार लोकाकाश का आकार है । लोकाकाश किसके आधार से स्थित है ? लोकाकाश निम्नलिखित ३ स्तरों के आधार से स्थित है। घनोदधिवातवलय घनवातवलय तनुवातवलय वातवलय किसे कहते है? और वे कैसे स्थित है? वातवलय वायुकयिक जीवों के शरीर स्वरूप है। वायु अस्थिर स्वभावी होते हुए भी, ये वातवलय स्थिर स्वभाव वाले वायुमंडल है। ये वातवलय लोकाकाश को चारो ओर से वेष्टीत है। प्रथम वलय को घनोदधिवातवलय कहते है। घनोदधिवातवलय के बाहर घनवातवलय है। घनवातवलय के बाहर तनुवातवलय है। तनुवातवलय के बाहर चारो तरफ अनंत अलोकाकाश है। वातवलयों के वर्ण कौनसे है? घनोदधिवातवलय गोमुत्र के वर्ण वाला है। घनवातवलय मूंग के वर्ण वाला है। तनुवातवलय अनेक वर्ण वाला है। लोकाकाश मे तीनो वातवलयों की मोटाई कितनी है? लोक के तल भाग मे १ राजू कि ऊंचाई तक प्रत्येक वातवलय बीस हजार योजन मोटा है। (कुल ६०,००० योजन) सातवी नरक पृथ्वी के पार्श्व भाग मे क्रम से इन तीनो कि मोटाई सात, पाँच और चार योजन है। (कुल १६ योजन) इसके उपर मध्यलोक के पार्श्व भाग मे क्रम से पाँच, चार और तीन योजन है। (कुल १२ योजन) इसके आगे ब्रह्म स्वर्ग के पार्श्व भाग मे क्रम से सात, पाँच और चार योजन है। (कुल १६ योजन) आगे ऊर्ध्व लोक के अंत मे - पार्श्व भाग मे क्रम से पाँच, चार और तीन योजन है। (कुल १२ योजन) लोक शिखर के उपर क्रमश्ः २ कोस, १ कोस और ४२५ धनुष्य कम १ कोस प्रमाण है। (कुल ३ कोस १५७५ धनुष्य) लोकाकाश में कितने लोक हैं ? लोकाकाश में ३ लोक हैं । अधोलोक मध्यलोक ऊर्ध्वलोक इन तीनों लोकों के आकार कैसे हैं ? अधोलोक का आकार वेत्रासन के समान, मध्यलोक का खड़े किये हुए मृदंग के ऊपरी भाग के समान्, और ऊर्ध्वलोक का खड़े किये हुए मृदंग के समान है । सारे लोक की ऊँचाई और मोटाई कितनी है ? ऊँचाई १४ राजु प्रमाण और मोटाइ ७ राजु है । इस १४ राजु की ऊँचाई का लोकाकाश के निचले भाग से उपर तक का विवरण दिजिये । सबसे निचे के ७ राजू मे अधोलोक है, जिसमे ७ नरक है । बचे हुए ७ राजू मे १ लाख ४० योजन का मध्यलोक है, जिसमे असन्ख्यात द्वीप-समुद्र और् मध्य मे सबसे ऊँचा सुमेरू पर्वत है । सुमेरू पर्वत के उपर १ लाख ४० योजन कम ७ राजू का उर्ध्वलोक है, जिसमे १६ स्वर्ग, ९ ग्रैवेयक, ९ अनुदिश, ५ अनुत्तर और सिद्धशिला है । इसतरह १४ राजू कि ऊँचाई मे मध्यलोक कि ऊँचाई नगन्य होने से ७ राजू मे अधोलोक और ७ राजू मे उर्ध्वलोक कहा गया है । लोकाकाश कि चौडाइ का विवरण दिजिये । अधोलोक के तलभाग मे जहा निगोद है, वहा चौडाई ७ राजू है । यह चौडाइ घटते घटते मध्यलोक मे १ राजू रह जाती है । पुनः बढते बढते उर्ध्वलोक के पांचवे स्वर्ग (ब्रम्ह स्वर्ग) तक ५ राजू हो जाती है । पुनः ब्रम्ह स्वर्ग से घटते घटते सिद्धशिला तक १ राजू होती है । लोकाकाश का घनफल कितना है? लोक की कुल चौडाई १४ राजू है। (तलभाग मे ७ राजू + मध्यलोक मे १ राजू + ब्रह्म स्वर्ग मे ५ राजू + सिद्धशिला मे १ राजू) यह कुल चौडाई ४ विभागो मे मिलकर है इसलिये अॅवरेज चौडाई निकालने के लिये, इस मे ४ का भाग देने से साढे तीन राजू हुए।(१४/४ = ३ १/२) लोक की ऊंचाई १४ राजू और मोटाई ७ राजू है इस प्रकार लोक का घनफल = लोक की ऊँचाई × चौडाई × मोटाई = १४ राजू × ३ १/२ राजू × ७ राजू = ३४३ घनराजू है। ७ राजू ऊंचे अधोलोक मे निगोद और नरकों की अलग अलग ऊंचाइया कितनी है ? सबसे नीचे के १ राजू मे निगोद है । उसके उपर के १ राजू मे, महातमःप्रभा नाम का सातवां नरक है । उसके उपर के १ राजू मे, तमःप्रभा नाम का छटवां नरक है । उसके उपर के १ राजू मे, धूमप्रभा नाम का पांचवां नरक है । उसके उपर के १ राजू मे, पंकप्रभा नाम का चौथा नरक है । उसके उपर के १ राजू मे, बालुकाप्रभा नाम का तिसरा नरक है । उसके उपर के १ राजू मे, शर्कराप्रभा नाम का दुसरा और रत्नप्रभा नाम का प्रथम नरक है । इसप्रकार से ७ राजू ऊंचे अधोलोक मे, १ राजू मे २ नरक, ५ राजू मे ५ नरक और १ राजू मे निगोद है । अधोलोक से मध्यलोक तक कि चौडाई घटने का क्रम कैसा है ? अधोलोक के तल भाग मे : ७ राजू सातवी पृथ्वी-नरक के निकट : ६ १/७ राजू छटवी पृथ्वी-नरक के निकट : ५ २/७ राजू पांचवी पृथ्वी-नरक के निकट : ४ ३/७ राजू चौथी पृथ्वी-नरक के निकट : ३ ४/७ राजू तिसरी पृथ्वी-नरक के निकट : २ ५/७ राजू दूसरी पृथ्वी-नरक के निकट : १ ६/७ राजू प्रथम पृथ्वी-नरक के निकट : १ राजू संपूर्ण मध्य लोक की चौडाई १ राजू मात्र ही है। अधोलोक का घनफल कितना है? अधोलोक मे निचे की पूर्व-पश्चिम् चौडाई ७ राजू है। तथा मध्यलोक के यहाँ १ राजू है। (कुल ८ राजू) यह कुल चौडाई २ विभागो मे मिलकर है इसलिये अॅवरेज चौडाई निकालने के लिये, इस मे २ का भाग देने से चार राजू हुए।(८/२ = ४) अधोलोक की ऊंचाई ७ राजू और मोटाई ७ राजू है इस प्रकार अधोलोक का घनफल = ऊँचाई × चौडाई × मोटाई = ७ राजू × ४ राजू × ७ राजू = १९६ घनराजू है। ऊर्ध्वलोक मे स्वर्गो की अलग अलग ऊंचाइया कितनी है ? मध्यलोक के उपरी भाग मे सौधर्म विमान के ध्वजदंड तक १ लाख ४० योजन कम १ १/२ राजू उसके उपर के १ १/२ राजू मे, पहला और दूसरा स्वर्ग(सौधर्म और ईशान)है। उसके उपर के १/२ राजू मे, तिसरा और चौथा स्वर्ग (सानत्कुमार् और माहेन्द्र) है। उसके उपर के १/२ राजू मे, पाँचवा और छठा स्वर्ग (ब्रह्म और ब्रह्मोत्तर)है। उसके उपर के १/२ राजू मे, साँतवा और आँठवा स्वर्ग (लांतव और कापिष्ठ)है। उसके उपर के १/२ राजू मे, नौवा और दसवाँ स्वर्ग (शुक्र और महाशुक्र)है। उसके उपर के १/२ राजू मे, ग्यारहवा और बारहवा स्वर्ग (सतार और सहस्त्रार्)है। उसके उपर के १/२ राजू मे, तेरहवा और चौदहवा स्वर्ग (आनत और प्राणत)है। उसके उपर के १/२ राजू मे, पन्द्रहवा और सोलहवा स्वर्ग (आरण और अच्युत) है। उसके उपर के १ राजू मे, ९ ग्रैवेयक, ९ अनुदिश, ५ अनुत्तर और सिद्धशिला पृथ्वी है। मध्यलोक से सिद्धशिला तक लोक की चौडाई बढने - घटने का क्रम कैसा है ? मध्यलोक् मे : १ राजू पहले और दूसरे स्वर्ग(सौधर्म और ईशान)के अंत मे : २ ५/७ राजू तिसरे और चौथे स्वर्ग (सानत्कुमार् और माहेन्द्र)के अंत मे : ४ ३/७ राजू पाँचवे और छठे स्वर्ग (ब्रह्म और ब्रह्मोत्तर)के अंत मे : ५ राजू साँतवे और आँठवे स्वर्ग (लांतव और कापिष्ठ)के अंत मे : ४ ३/७ राजू नौवे और दसवे स्वर्ग (शुक्र और महाशुक्र)के अंत मे : ३ ६/७ राजू ग्यारहवे और बारहवे स्वर्ग (सतार और सहस्त्रार्)के अंत मे : ३ २/७ राजू तेरहवे और चौदहवे स्वर्ग (आनत और प्राणत)के अंत मे : २ ५/७ राजू पन्द्रहवे और सोलहवे स्वर्ग (आरण और अच्युत)के अंत मे : २ १/७ राजू ९ ग्रैवेयक, ९ अनुदिश, ५ अनुत्तर और सिद्धशिला पृथ्वी तक : १ राजू नोट : अपने अपने अंतिम इन्द्रक विमान संबंधी ध्वजदंड के अग्रभाग तक उन उन स्वर्गो का अंत समझना चहिए। ऊर्ध्वलोक का घनफल कितना है? ऊर्ध्वलोक मे मध्यलोक के उपर की पूर्व-पश्चिम् चौडाई १ राजू है। तथा आगे ब्रह्म स्वर्ग के यहाँ ५ राजू है। (कुल ६ राजू) यह कुल चौडाई २ विभागो मे मिलकर है इसलिये ब्रह्म स्वर्ग तक की अॅवरेज चौडाई निकालने के लिये, इस मे २ का भाग देने से ३ राजू हुए।(६/२ = ३) ब्रह्म स्वर्ग तक की ऊंचाई ३ १/२ राजू और मोटाई ७ राजू है इस प्रकार ब्रह्म स्वर्ग तक का घनफल = ऊँचाई × चौडाई × मोटाई = ३ १/२ राजू × ३ राजू × ७ राजू = ७३ १/२ घनराजू है। इतना ही घनफल ब्रह्म स्वर्ग से आगे लोक के अंत तक है, इसलिए उर्ध्वलोक का कुल घनफल ७३ १/२ × २ = १७४ घनराजू है। त्रसनाली क्या है और कहाँ होती है? तीनो लोको के बीचो बीच मे १ राजू चौडे एवं १ राजू मोटे तथा कुछ कम १३ राजू ऊंचे, त्रस जीवों के निवास क्षेत्र को त्रसनाली कहते है। ऊंचाई मे कुछ कम का प्रमाण ३२१६२२४१ २/३ धनुष है। इसके बाहर त्रस जीव नही होते। मगर उपपाद, मारणांतिकसमुदघात और केवलिसमुदघात की अपेक्षा से त्रस नाली के बाहर त्रस जीव पाये जाते है। उपपाद की अपेक्षा त्रस जीव; त्रसनाली के बाहर कैसे पाए जाते है? किसी भी विवक्षित भव के प्रथम पर्याय को उपपाद कहते है। लोक के अंतिम वातवलय मे स्थित कोइ स्थावर जीव जब विग्रहगती द्वारा त्रस पर्याय मे उत्पन्न होने वाला है और वह जब मरण करके प्रथम मोडा लेता है,उस समय त्रस नाम कर्म का उदय आ जाने से त्रस पर्याय को धारण करके भी त्रसनाली के बाहर होता है। मारणांतिक समुदघात की अपेक्षा त्रस जीव; त्रसनाली के बाहर कैसे पाए जाते है? त्रसनाली का कोइ जीव, जिसे मरण करके त्रसनाली के बाहर स्थावर मे जन्म लेना है, वह जब मरण के अंतर्मुहूर्त पहले, मारणांतिक समुदघात के द्वारा त्रसनाली के बाहर के प्रदेशों को स्पर्श करता है, तब उस त्रस जीव का अस्तित्व त्रसनाली के बाहर पाया जाता है। केवलिसमुदघात की अपेक्षा त्रस जीव; त्रसनाली के बाहर कैसे पाए जाते है? जब किसी सयोग केवली भगवान के आयु कर्म की स्थिति अंतर्मुहूर्त मात्र ही हो परन्तु नाम, गोत्र, और वेदनीय कर्म की स्थिती आधिक हो, तब उनके दंड, कपाट, प्रतर और लोकपूरण समुदघात होता है। ऐसा होने से सब कर्मो की स्थिती एक बराबर हो जाती है। इन समुदघात अवस्था मे त्रस जीव त्रसनाली के बाहर भी पाये जाते है। अधोलोक मे कितनी पृथ्वीयाँ है? और उनके नाम क्या है? अधोलोक मे ७ पृथ्वीयाँ है। इन्हे नरक भी कहते है। इन के नाम इस प्रकार है॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰ अधोलोक में सबसे पहली, मध्यलोक से लगी हुई, ‘रत्नप्रभा’ पृथ्वी है। इसके कुछ कम एक राजु नीचे 'शर्कराप्रभा’ है। इसी प्रकार से एक-एक के नीचे बालुका प्रभा, पंकप्रभा, धूमप्रभा, तम:प्रभा और महातम:प्रभा भूमियाँ हैं। घम्मा, वंशा, मेघा, अंजना, अरिष्टा, मघवी और माघवी ये भी इन पृथ्वियों के अनादिनिधन नाम हैं। अधोलोक कि पृथ्वीयों की अलग अलग मोटई कितनी है? धम्मा (रत्नप्रभा) : १ लाख ८०,००० योजन वंशा (शर्कराप्रभा) : ३२,००० योजन मेघा (बालुकाप्रभा) : २८,००० योजन अंजना (पंकप्रभा) : २४,००० योजन अरिष्टा (धूमप्रभा) : २०,००० योजन मघवी (तमःप्रभा) : १६,००० योजन माघवी (महातमःप्रभा) : ८,००० योजन नोट : ये सातो पृथ्वीयाँ, उर्ध्व दिशा को छोड शेष ९ दिशाओ मे घनोदधि वातवलय से लगी हुई है। रत्नप्रभा पृथ्वी के कितने भाग है? और उनकी मोटाईया कितनी है? रत्नप्रभा पृथ्वी के ३ भाग हैं- खरभाग (१६००० योजन) पंकभाग (८४००० योजन) अब्बहुलभाग (८०००० योजन) रत्नप्रभा पृथ्वी मे किस किस के निवास है? खरभाग और पंकभाग में भवनवासी तथा व्यंतरवासी देवों के निवास हैं। अब्बहुलभाग में प्रथम नरक के बिल हैं, जिनमें नारकियों के आवास हैं। खरभाग के कितने भेद है और उनकी मोटाईया कितनी है? खरभाग के १६ भेद है। चित्रा, वज्रा, वैडूर्या, लोहिता, कामसारकल्पा, गोमेदा, प्रवाला, ज्योतिरसा, अंजना, अंजनमुलिका, अंका, स्फटिका, चंदना, सर्वाथका, वकुला और शैला खरभाग की कुल मोटाई १६,००० योजन है। उपर्युक्त हर एक पृथ्वी १००० योजन मोटी है। खरभाग की प्रथम पृथ्वी का नाम "चित्रा" कैसे सार्थक है? खरभाग की प्रथम पृथ्वी मे अनेक वर्णो से युक्त महितल, शीलातल, उपपाद, बालु, शक्कर, शीसा, चाँदी, सुवर्ण, आदि की उत्पत्तिस्थान वज्र, लोहा, तांबा, रांगा, मणिशीला, सिंगरफ, हरिताल, अंजन, प्रवाल, गोमेद, रुचक, कदंब, स्फटिक मणि, जलकांत मणि, सुर्यकांत मणि, चंद्रकांत मणि, वैडूर्य, गेरू, चन्द्राश्म आदि विवीध वर्ण वाली अनेक धातुए है। इसीलिये इस पृथ्वी का "चित्रा" नाम सार्थक है नारकी जीव कहाँ रहते है? नारकी जीव अधोलोक के नरको मे जो बिल है, उनमे रहते है। नरको मे बिल कहाँ होते है? रत्नप्रभा पृथ्वी के अब्बहुल भाग से लेकर छठे नरक तक की पृथ्वीयों मे, उनके उपर व निचे के एक एक हजार योजन प्रमाण मोटी पृथ्वी को छोडकर पटलों के क्रम से और सातवी पृथ्वी के ठिक मध्य भाग मे नारकियों के बिल है। प्रत्येक नरक मे कितने बिल है? सातों नरको मे मिलकर कुल ८४ लाख बिल इस्प्रकार् है। प्रथम पृथ्वी : ३० लाख बिल द्वितीय पृथ्वी : २५ लाख बिल तृतीय पृथ्वी : १५ लाख बिल चौथी पृथ्वी : १० लाख बिल पाँचवी पृथ्वी : ३ लाख बिल छठी पृथ्वी : ९९,९९५ बिल साँतवी पृथ्वी : ५ बिल कौनसे नारकी बिल उष्ण और कौनसे शीत है? पहली, दुसरी, तीसरी और चौथी नरको के सभी बिल और पाँचवी पृथ्वी के ३/४ बिल अत्यंन्त उष्ण है। इनकी उष्णता इतनी तीव्र होती है कि अगर उनमे मेरु पर्वत इतना लोहे का शीतल पिंड डाला जाय तो वह तल प्रदेश तक पहुँचने से पहले ही मोम के समान पिघल जायेगा। पाँचवी पृथ्वी के बाकी १/४ बिल तथा छठी और साँतवी पृथ्वी के सभी बिल अत्यन्त शीतल है। इनकी शीतलता इतनी तीव्र होती है कि अगर उनमे मेरु पर्वत इतना लोहे का उष्ण पिंड डाला जाय तो वह तल प्रदेश तक पहुँचने से पहले ही बर्फ जैसा जम जायेगा। इसप्रकार नारकियोंके कुल ८४ लाख बिलों मे से ८२,२५,००० अति उष्ण होते है और १,७५,००० अति शीत होते है। नारकीयों के बिल की दुर्गन्धता और भयानकता कितनी है? बकरी, हाथी, घोडा, भैंस, गधा, उंट, बिल्ली, सर्प, मनुष्यादिक के सडे हुए माँस कि गंध की अपेक्षा, नारकीयों के बिल की दुर्गन्धता अनन्तगुणी होती है। स्वभावतः गाढ अंधकार से परिपूर्ण नारकीयों के बिल क्रकच, कृपाण, छुरिका, खैर की आग, अति तीक्ष्ण सुई और हाथीयों की चिंघाड से भी भयानक है। नारकीयों के बिल के कितने और कौन कौनसे प्रकार है? नारकीयों के बिल के निम्नलिखित ३ प्रकार है : इन्द्रक : जो अपने पटल के सब बिलो के बीच मे हो, उसे इन्द्रक कहते है। इन्हे प्रस्तर या पटल भी कहते है। श्रेणीबद्ध : जो बिल ४ दिशाओं और ४ विदिशाओं मे पंक्ति से स्थित रहते हे, उन्हे श्रेणीबद्ध कहते है। प्रकीर्णक : श्रेणीबद्ध बिलों के बीच मे इधर उधर रहने वाले बिलों को प्रकीर्णक कहते है। नरक इन्द्रक बिल श्रेणीबद्ध बिल प्रकीर्णक बिल प्रथम १३ ४४२० २९,९५,५६७ दुसरा ११ २६८४ २४,९७,३०५ तीसरा ९ १४७६ १४,९८,५१५ चौथा ७ ७०० ९,९९,२९३ पाँचवा ५ २६० २,९९,७३५ छठा ३ ६० ९९,९३२ साँतवा १ ४ ० कुल संख्या ४९ ९६०४ ८३,९०,३४७ प्रथम नरक मे इन्द्रक बिलो की रचना किस प्रकार है, और उनके नाम क्या है? प्रथम नरक मे १३ इन्द्रक पटल है। ये एक पर एक ऐसे खन पर खन बने हुए है। ये तलघर के समान भुमी मे है एवं चूहे आदि के बिल के समान है। ये पटल औंधे मुँख और बिना खिडकी आदि के बने हुए है। इसप्रकार इनका बिल नाम सार्थ है। इन १३ इन्द्रक बिलों के नाम क्रम से सीमन्तक, निरय, रौरव, भ्रांत, उद्भ्रांत, संभ्रांत, असंभ्रांत, विभ्रांत, त्रस्त, त्रसित, वक्रान्त, अवक्रान्त, और विक्रान्त है। श्रेणीबद्ध बिलों का प्रमाण कैसे निकालते है? प्रथम नरक के सीमन्तक नामक इन्द्रक बिल की चारो दिशाओँमे ४९ - ४९ और चारो विदिशाओ मे ४८ - ४८ श्रेणीबद्ध बिल है। चार दिशा सम्बन्धी ४ × ४९ = कुल १९६ और चार विदिशा सम्बन्धी ४ × ४८ = कुल १९२ हुए। इसप्रकार सीमन्तक नामक एक इन्द्रक बिल सम्बन्धी कुल ३८८ श्रेणीबद्ध बिल हुए। इससे आगे, दुसरे निरय आदि इन्द्रक बिलो के आश्रित रहने वाले श्रेणीबद्ध बिलो मे से एक एक बिल कम हो जाता है और प्रथम नरक के कुल ४४२० श्रेणीबद्ध बिल होते है। प्रकीर्णक बिलों का प्रमाण कैसे निकालते है? हर एक नरक के संपूर्ण बिलो की संख्या से उनके इन्द्रक और श्रेणीबद्ध बिलो की संख्या घटाने से उस उस नरक की प्रकीर्णक बिलों की संख्या मिलती है। जैसे प्रथम नरक के कुल ३० लाख बिलो मे से १३ इन्द्रक और ४४२० श्रेणीबद्ध बिलो कि संख्या घटाने से प्रकीर्णक बिलो कि संख्या (२९,९५,५६७) मिलती है। नारकी बिलों का विस्तार कितना होता है? इन्द्रक बिलों का विस्तार संख्यात योजन प्रमाण है। श्रेणीबद्ध बिलों का विस्तार असंख्यात योजन प्रमाण है। कुछ प्रकीर्णक बिलों का विस्तार संख्यात योजन तो कुछ का असंख्यात योजन प्रमाण है। कुल ८४ लाख बिलों मे से १/५ बिल का विस्तार संख्यात योजन तो ४/५ बिलों का असंख्यात योजन प्रमाण है। पृथक पृथक नरको मे संख्यात और असंख्यात बिलों का विस्तार कितना होता है? नरक संख्यात योजन वाले बिल असंख्यात योजन वाले बिल् प्रथम ६ लाख २४ लाख दुसरा ५ लाख २० लाख तिसरा ३ लाख १२ लाख चौथा २ लाख ८ लाख पाँचवा ६० हजार २४ लाख छठा १९ हजार ९९९ ७९ हजार ९९६ साँतवा १ ४ कुल् १६ लाख ८० हजार ६७ लाख २० हजार नारकी बिलों मे तिरछा अंतराल कितना होता है? संख्यात योजन विस्तार वाले बिलों मे तिरछे रुप मे जघन्य अंतराल ६ कोस और उत्कृष्ठ अंतराल १२ कोस प्रमाण है। असंख्यात योजन विस्तार वाले बिलों मे तिरछे रुप मे जघन्य अंतराल ७००० योजन और उत्कृष्ठ अंतराल असंख्यात योजन प्रमाण है। नारकी बिलों मे कितने नारकी जीव रहते है? संख्यात योजन विस्तार वाले बिलों मे नियम से संख्यात तथा असंख्यात योजन विस्तार वाले बिलों मे असंख्यात नारकी जीव रहते है। इन्द्रक बिलों का विस्तार कितना होता है? प्रथम इन्द्रक का विस्तार ३५ लाख योजन और अन्तिम इन्द्रक का १ लाख योजन प्रमाण है। दुसरे से ४८ वे इन्द्रक का प्रमाण तिलोयपण्णत्ती से समझ लेना चहिये। इन्द्रक बिलों के मोटाई का प्रमाण कितना होता है? नरक इन्द्रक की मोटाई प्रथम १ कोस दुसरा १ १/२ कोस तिसरा २ कोस चौथा २ १/२ कोस पाँचवा ३ कोस छठा ३ १/२ कोस साँतवा ४ कोस इन्द्रक बिलों के अंतराल का प्रमाण कितना है और उसे कैसे प्राप्त करे(कॅलक्युलेट करे)? इन्द्रक बिलों के अंतराल का प्रमाण : नरक आपस मे अंतर प्रथम ६४९९-३५/४८ योजन दुसरा २९९९-४७/८० योजन तिसरा ३२४९-७/१६ योजन चौथा ३६६५-४५/४८ योजन पाँचवा ४४९९-१/१६ योजन छठा ६९९८-११/१६ योजन साँतवा एक ही बिल होने से, अंतर नही होता अंतराल निकालने की विधी (उदाहरण) : रत्नप्रभा पृथ्वी के अब्बहुल भाग मे जहाँ प्रथम नरक है - उसकी मोटाई ८०,००० योजन है। इसके उपरी १ हजार और निचे की १ हजार योजन मे कोइ पटल नही होने से उसे घटा दे तो ७८,००० योजन शेष रहते है। फिर एक एक पटल की मोटाई १ कोस होने से १३ पटलों की कुल मोटाई १३ कोस (३-१/४ योजन)भी उपरोक्त ७८००० योजन से घटा दे। अब एक कम १३ पटलों से उपरोक्त शेष को भाग देने से पटलों के मध्य का अंतर मिल जायेगा। (८०००० - २०००) - (१/४ × १३) ÷ (१३ - १) = ६४९९-३५/४८ योजन एक नरक के अंतिम इन्द्रक से अगले नरक के प्रथम इन्द्रक का अंतर कितना होता है? आपस मे अंतर प्रथम नरक के अंतिम इन्द्रक से दुसरे नरके के प्रथम इन्द्रक तक् २,०९,००० योजन कम १ राजू दुसरे नरक के अंतिम इन्द्रक से तिसरे नरके के प्रथम इन्द्रक तक् २६,००० योजन कम १ राजू तिसरे नरक के अंतिम इन्द्रक से चौथे नरके के प्रथम इन्द्रक तक् २२,००० योजन कम १ राजू चौथे नरक के अंतिम इन्द्रक से पाँचवे नरके के प्रथम इन्द्रक तक् १८,००० योजन कम १ राजू पाँचवे नरक के अंतिम इन्द्रक से छठे नरके के प्रथम इन्द्रक तक् १४,००० योजन कम १ राजू छठे नरक के अंतिम इन्द्रक से साँतवे नरके के प्रथम इन्द्रक तक् ३,००० योजन कम १ राजू नारकी जीव नरको मे उत्पन्न होते ही, उसे कैसा दुःख भोगना पडता है? पाप कर्म से नरको मे जीव पैदा होकर, एक मुहुर्त काल मे छहों पर्याप्तियों को पूर्ण कर अकस्मिक दुःख को प्राप्त करता है। पश्चात, वह भय से काँपता हुआ बडे कष्ट से चलने को प्रस्तुत होता है और छत्तीस आयुधो के मध्य गिरकर गेंद के समान उछलता है। प्रथम नरक मे जीव ७ योजन ६५०० धनुष प्रमाण उपर उछलता है। आगे शेष नरको मे उछलने का प्रमाण क्रम से उत्तरोत्तर दूना दूना है। नारकी जीव के जन्म लेने के उपपाद स्थान कैसे होते है? सभी प्रकार के बिलों मे उपर के भाग मे (छत मे)अनेक प्रकार के तलवारो से युक्त अर्धवृत्त और अधोमुख वाले जन्मस्थान है। ये जन्म स्थान पहले से तिसरे पृथ्वी तक उष्ट्रिका, कोथली, कुंभी, मुदगलिका, मुदगर और नाली के समान है। चौथे और पाँचवी पृथ्वी मे जन्मभुमियो के आकार गाय, हाथी, घोडा, भस्त्रा, अब्जपुट, अम्बरीष, और द्रोणी (नाव) जैसे है। छठी और साँतवी पृथ्वी मे जन्मभुमियो के आकार झालर, द्वीपी, चक्रवाक, श्रृगाल, गधा, बकरा, ऊंट, और रींछ जैसे है। ये सभी जन्मभुमिया अंत मे करोंत के सदृश चारो तरफ से गोल और भयंकर है। परस्त्री सेवन का पाप करने वाले जीव को नरको मे कैसा दुःख उठाना पडता है? एैसे जीव के शरिर मे बाकी नारकी तप्त लोहे का पुतला चिपका देते है, जिससे उसे घोर वेदना होती है। माँस भक्षण का पाप करने वाले जीव को नरको मे कैसा दुःख उठाना पडता है? एैसे जीव के शरिर के बाकी नारकी छोटे छोटे तुकडे करके उसी के मुँह मे डालते है। मधु और मद्य सेवन का पाप करने वाले जीव को नरको मे कैसा दुःख उठाना पडता है? एैसे जीव को बाकी नारकी अत्यन्त तपे हुए द्रवित लोहे को जबरदस्ती पीला देते है, जिससे उसके सारे अवयव पिघल जाते है। नरक की भुमी कितनी दुःखदायी है? नारकी भुमी दुःखद स्पर्शवाली, सुई के समान तीखी दुब से व्याप्त है। उससे इतना दुःख होता हे कि जैसे एक साथ हजारों बिच्छुओ ने डंक मारा हो। नारकियों के साथ कितने रोगो का उदय रहता है? नारकियों के साथ ५ करोड ६८ लाख, ९९ हजार, ५८४ रोगो का उदय रहता है नारकियों का आहार कैसा होता है? कुत्ते, गधे आदि जानवरों के अत्यन्त सडे हुए माँस और विष्ठा की दुर्गन्ध की अपेक्षा, अनन्तगुनी दुर्गन्धित मिट्टी नारकियों का आहार होती है। प्रथम नरक के प्रथम पटल (इन्द्रक बिल) की ऐसी दुर्गन्धित मिट्टी को यदि हमारे यहाँ मध्यलोक मे डाला जाये तो उसकी दुर्गध से १ कोस पर्यन्त के जीव मर जायेंगे। इससे आगे दुसरे, तिसरे आदि पटलों मे यह मारण शक्ती आधे आधे कोस प्रमाण बढते हुए साँतवे नरक के अन्तिम बिल तक २५ कोस प्रमाण हो जाती है। क्या तीर्थंकर प्रकृती का बंध करने वाला जीव नरक मे जा सकता है? जी हाँ। अगर उस जीव ने तीर्थंकर प्रकृती का बंध करने से पहले नरकायु का बंध कर लिया है तो वह पहले से तिसरे नरक तक उत्पन्न हो सकता है। एैसे जीव को भी असाधारण दुःख का अनुभव करना पडता है। पर सम्यक्त्व के प्रभाव से वो वहाँ पूर्वकृत कर्मों क चिंतवन करता है। जब उसकी आयु ६ महिने शेष रह जाती है, तब स्वर्ग से देव आकर उस नारकी के चारो तरफ परकोटा बनाकर उसका उपसर्ग दुर करते है। इसी समय मध्यलोक मे रत्नवर्षा आदि गर्भ कल्याणक सम्बन्धी उत्सव होने लगते है। नारकियों के दुःख के कितने भेद है? नरकों मे नारकियों को ४ प्रकार के दुःख होते है। क्षेत्र जनित : नरक मे उत्पन्न हुए शीत, उष्ण, वैतरणी नदी, शाल्मलि वृक्ष आदि के निमीत्त से होने वाले दुःख को क्षेत्र जनित दुःख कहते है। शारीरिक : शरीर मे उत्पन्न हुए रोगों के दुःख और मार-काट, कुंभीपाक आदि के दुःख शारीरिक कहलाते है। मानसिक : संक्लेश, शोक, आकुलता, पश्चाताप आदि के निमीत्त से होने वाले दुःख को मानसिक दुःख कहते है। असुरकृत : तिसरे नरक तक संक्लेश परिणाम वाले असुरकुमार जाति के भवनवासी देवों द्वरा उत्पन्न कराये गये दुःख को असुरकृत दुःख कहते है। नारकियों को परस्पर दुःख उत्पन्न करानेवाले असुरकुमार देव कौन होते है? पुर्व मे देवायु का बन्ध करने वाले मनुष्य या तिर्यंच अनन्तानुबन्धी मे से किसी एक का उदय आने से रत्नत्रय को नष्ट करके असुरकुमार जाती के देव होते है। सिकनानन, असिपत्र, महाबल, रुद्र, अम्बरीष, आदि असुर जाती के देव तीसरी बालुकाप्रभा पृथ्वी (नरक) तक जाकर नारकियों को परस्पर क्रोध उत्पन्न करा-करा कर उनमे युद्ध कराते है और प्रसन्न होते है। क्या नरको मे अवधिज्ञान होता है ? हाँ । नरको मे भी अवधिज्ञान होता है। नरके मे उत्पन्न होते ही छहों पर्याप्तियाँ पुर्ण हो जाती है और भवप्रत्यय अवधिज्ञान प्रकट हो जाता है। मिथ्यादृष्टि नारकियों का अवधिज्ञान विभंगावधि - कुअवधि कहलाता है। एवं सम्यगदृष्टि नारकियोंका ज्ञान अवधिज्ञान कहलाता है। अलग अलग नरको मे अवधिज्ञान का क्षेत्र कितना होता है ? प्रथम नरक मे अवधिज्ञान का क्षेत्र १ योजन (४ कोस) है। दुसरे नरक से आगे इसमे आधे आधे कोस की कमी होती जाती है। जैसे दुसरे नरके मे ३ १/२ कोस, तिसरे मे ३ कोस आदि। साँतवे नरक मे यह प्रमाण १ कोस रह जाता है। नरको मे अवधिज्ञान प्रकट होने पर मिथ्यादृष्टि और सम्यगदृष्टि जीव की सोच मे क्या अंतर होता है ? अवधिज्ञान प्रकट होते ही नारकी जीव पूर्व भव के पापोंको, बैर विरोध को, एवं शत्रुओं को जान लेते है। जो सम्यगदृष्टि है, वे अपने पापों का पश्चाताप करते रहते है और मिथ्यादृष्टि पुर्व उपकारों को भी अपकार मानते हुए झगडा-मार काट करते है। कोइ भद्र मिथ्यादृष्टि जीव पाप के फल को भोगते हुए, अत्यन्त दुःख से घबडाकर 'वेदना अनुभव' नामक निमित्त से सम्यगदर्शन को प्राप्त करते है। नरको मे सम्यक्त्व मिलने के क्या कारण है ? धम्मा आदि तीन पृथ्वीयों मे मिथ्यात्वभाव से युक्त नारकियोँ मे से कोइ जातिस्मरण से, कोई दुर्वार वेदना से व्यथित होकर, कोई देवों का संबोधन पाकर सम्यक्त्व को प्राप्त करता है। पंकप्रभा आदि शेष चार पृथ्वीयों मे देवकृत संबोधन नही होता, इसलिये जातिस्मरण और वेदना अनुभव मात्र से सम्यक्त्व को प्राप्त करता है। इस तरह सभी नरकों मे सम्यप्त्व के लिये, कारणभूत सामग्री मिल जाने से नारकी जीव सम्यक्त्व को प्राप्त करता है। जीव नरको मे किन किन कारणों से जाता है ? मुलतः पाँच पापों का और सप्त व्यसनों का सेवन करने से जीव नरक मे जाता है। हिंसा, झुठ, चोरी, अब्रम्ह, और परिग्रह ये पाँच पाप है। चोरी करना, जुँआ खेलना, शराब पीना, माँस खाना, परस्त्री सेवन, वेश्यागमन, शिकार खेलना ये सप्त व्यसन है। प्रत्येक नरक के प्रथम पटल (बिल) और अन्तिम पटल मे नारकीयों के शरिर की अवगाहना कितनी होती है ? प्रथम पटल मे अन्तिम पटल मे प्रथम नरके मे ३ हाथ ७ धनुष ३ हाथ ६ अंगुल द्वितीय नरके मे ८ धनुष २ हाथ २४/११ अंगुल १५ धनुष २ हाथ १२ अंगुल तृतीय नरके मे १७ धनुष ३४ २/३ अंगुल ३१ धनुष १ हाथ चतुर्थ नरके मे ३५ धनुष २ हाथ २० ४/७ अंगुल ६२ धनुष २ हाथ पंचम नरके मे ७५ धनुष १२५ धनुष षष्ठम नरके मे १६६ धनुष २ हाथ १६ अंगुल २५० धनुष साँतवे नरक के अवधिस्थान इन्द्रक बिल मे : ५०० धनुष प्रत्येक नरक के अन्तिम पटल के शरिर की अवगाहना उस नरक की उत्कृष्ठ अवगाहना होती है। लेश्या किसे कहते है ? कषायों के उदय से अनुरंजित, मन वचन और काय की प्रवृत्ती को लेश्या कहते है। उसके कृष्ण, नील, कापोत, पीत, पद्म, और शुक्ल ऐसे ६ भेद होते है। प्रारंभ की तीन लेश्यायें अशुभ है और संसार की कारण है एवं शेष तीन लेश्यायें शुभ है और मोक्ष की कारण है। नरक मे कौनसी लेश्यायें होती है ? प्रथम और द्वितीय नरक मे : कापोत लेश्या तृतीय नरक मे : ऊपर कापोत और निचे नील लेश्या चतुर्थ नरक मे : नील लेश्या पंचम नरक मे :ऊपरी भाग मे नील और निचले भाग मे कृष्ण लेश्या षष्ठम नरक मे :कृष्ण लेश्या सप्तम नरक मे :परमकृष्ण लेश्या क्या नारकीयोंकी अपमृत्यु होती है ? नहीं। नारकीयोंकी अपमृत्यु नहीं होती है। दुःखो से घबडाकर नारकी जीव मरना चाहते है, किन्तु आयु पूरी हुए बिना मर नही सकते है। दुःख भोगते हुए उनके शरिर के तिल के समान खन्ड खन्ड होकर भी पारे के समान पुनः मिल जाते है। नारकीयोंकी जघन्य, मध्यम, और उत्कृष्ठ आयु कितनी होती है ? नारकीयोंकी जघन्य आयु १०,००० वर्ष और उत्कृष्ठ ३३ सागर की होती है। १०,००० वर्ष से एक समय अधिक और ३३ सागर से एक समय कम के मध्य की सभी आयु मध्यम कहलाती है। प्रत्येक नरक के पटलों की अपेक्षा जघन्य, और उत्कृष्ठ आयु का क्या प्रमाण है? प्रत्येक नरक के पहले पटल की उत्कृष्ठ आयु, दुसरे पटल की जघन्य आयु होती है। उदा॰ प्रथम नरक मे १३ पटल है। इसमे प्रथम पटल मे उत्कृष्ठ आयु, ९०,००० वर्ष है। यही आयु दुसरे पटल की जघन्य आयु हो जाती है। इसीप्रकार प्रथम नरक की उत्कृष्ठ आयु, दुसरे नरक की जघन्य आयु होती है। नरक जघन्य आयु उत्कृष्ठ आयु पहला १० हजार वर्ष १ सागर दुसरा १ सागर ३ सागर तिसरा ३ सागर ७ सागर चौथा ७ सागर १० सागर पाँचवा १० सागर १७ सागर छठा १७ सागर २२ सागर साँतवा २२ सागर ३३ सागर आयु के अन्त मे नारकियों के शरिर वायु से ताडित मेघों के समान निःशेष विलिन हो जाते है। प्रत्येक नरक मे नारकियों के जन्म लेने के अन्तर का क्या प्रमाण है? नरक मे उत्पन्न होने वाले दो जीव के जन्म के बीच के अधिक से अधिक समय (अन्तर) का प्रमाण निम्नप्रकार है। प्रथम नरक मे : २४ मुहूर्त द्वितीय नरक मे : ७ दिन तृतीय नरक मे : १५ दिन चतुर्थ नरक मे : १ माह पंचम नरक मे : २ माह षष्ठम नरक मे : ४ माह सप्तम नरक मे : ६ माह कौन कौन से जीव किन-किन नरको मे जाने की योग्यता रखते है? कर्म भुमी के मनुष्य और संज्ञी पंचेंद्रिय तिर्यंच जीव ही मरण करके अगले भव मे नरको मे जा सकते है। असंज्ञी पंचेंद्रिय तिर्यंच जीव प्रथम नरक तक, सरीसृप द्वितीय नरक तक जा सकता है। पक्षी तिसरे नरक तक, भुजंग आदि चौथे तक, सिंह पाँचवे तक, स्त्रियाँ छठे तक जा सकते है। मत्स्य और मनुष्य साँतवे नरक जाने की योग्यता रखते है। नारकी, देव, भोग भुमीयाँ, विकलत्रय और स्थावर जीव मरण के बाद अगले भव मे नरको मे नही जाते। नरक से निकलकर नारकी किन-किन पर्याय को प्राप्त कर सकते है? नरक से निकलकर कोइ भी जीव अगले भव मे चक्रवर्ती, बलभद्र, नारायण और प्रतिनारायण नही हो सकता है। प्रथम तीन नरको से निकले जीव तिर्थंकर हो सकते है। चौथे नरक तक के जीव वहाँ से निकलकर, मनुष्य पर्याय मे चरम शरिरी हो कर मोक्ष भी जा सकते है। पाँचवे नरक तक के जीव संयमी मुनी हो सकते है। छठे नरक तक के जीव देशव्रती हो सकते है। साँतवे नरक से निकले जीव कदाचित सम्यक्त्व को ग्रहण कर सकते है। मगर ये नियम से पंचेंद्रिय, पर्याप्तक, संज्ञी तिर्यंच ही होते है। मनुष्य नही हो सकते है। भवनवासी देव भवनवासी देवों का स्थान अधोलोक मे कहाँ है? पहली रत्नप्रभा भुमी के ३ भागो मे से पहले २ भाग (खरभाग और पंकभाग) मे उत्कृष्ठ रत्नों से शोभायमान भवनवासी और व्यंतरवासी देवों के भवन है। भवनवासी देवों के कितने और कौनसे भेद है? भवनवासी देवों के १० भेद है : १)असुरकुमार २) नागकुमार, ३) सुपर्णकुमार ४) द्विपकुमार ५) उदधिकुमार ६) स्तनितकुमार ७) विद्युत्कुमार ८) दिक्कुमार ९) अग्निकुमार १०) वायुकुमार भवनवासी देवों के मुकुटों मे कौनसे चिन्ह होते है? भवनवासी देवों के मुकुटों मे १० प्रकार के चिन्ह होते है : असुरकुमार - चूडामणि नागकुमार - सर्प सुपर्णकुमार - गरुड द्विपकुमार - हाथी उदधिकुमार - मगर स्तनितकुमार - वर्धमान विद्युत्कुमार - वज्र दिक्कुमार - सिंह अग्निकुमार - कलश वायुकुमार - घोडा भवनवासी देवों के भवनों का कुल प्रमाण कितना है? भवनवासी देवों के कुल ७ करोड, ७२ लाख भवन है। इन भवनों मे एक एक अकृत्रिम जिनालय है। यही अधोलोक संबंधी ७ करोड, ७२ लाख अकृत्रिम चैत्यालय है जिसमे अकृत्रिम जिनबिंब है। इन्हे हम मन वचन काय से नमस्कार करते है। भवनवासी देवों के इन्द्रों का और उनके भवनों का पृथक पृथक (अलग अलग) प्रमाण कितना है? भवनवासी देवों के १० प्रकारोँ मे पृथक पृथक दो दो इन्द्र होते है। इसप्रकार कुल २० इन्द्र होते है। इनमे से प्रत्येकोंके प्रथम १० इन्द्रोंको दक्षिण इन्द्र और आगे के १० इन्द्रोंको उत्तर इन्द्र कहते है। ये सब अणिमा-महिमा आदि ऋद्धियों से और मणिमय भुषणों से युक्त होते है। देव दक्षिण इन्द्र दक्षिणेंद्र के भवन उत्तर इन्द्र उत्तरणेंद्र के भवन कुल भवन असुरकुमार चमर ३४ लाख वैरोचन ३० लाख ६४ लाख नागकुमार भूतानंद ३४ लाख धरणानंद ४० लाख ७४ लाख सुपर्णकुमार वेणू ३८ लाख वेणूधारी ३४ लाख ७२ लाख द्विपकुमार पूर्ण ४० लाख वशिष्ठ ३६ लाख ७६ लाख उदधिकुमार जलप्रभ ४० लाख जलकांत ३६ लाख ७६ लाख स्तनितकुमार घोष ४० लाख महाघोष ३६ लाख ७६ लाख विद्युत्कुमार हरिषेण ४० लाख हरिकांत ३६ लाख ७६ लाख दिक्कुमार अमितगती ४० लाख अमितवाहन ३६ लाख ७६ लाख अग्निकुमार अग्निशिखी ४० लाख अग्निवाहन ३६ लाख ७६ लाख वायुकुमार वेलंब ५० लाख प्रभंजन ४६ लाख ९६ लाख इसप्रकार दक्षिणेंद्र के ४ करोड ६ लाख भवन और उत्तरेंद्र के ३ करोड ६६ लाख भवन मिलाकर कुल ७ करोड ७२ लाख भवन होते है। भवनवासी देवों के निवास के कौनसे भेद है? इनके ३ भेद है : भवन : रत्नप्रभा पृथ्वी मे स्थित निवास भवनपुर : द्विप समुद्र के उपर स्थित निवास आवास : रमणीय तालाब, पर्वत तथा वृक्षादिक के उपर स्थित निवास नागकुमार आदि देवो मे से किन्ही के तीनों प्रकार के निवास होते है, मगर असुरकुमार देवो के सिर्फ भवनरुप ही निवास स्थान होते है। इनमे से अल्पऋद्धि, महाऋद्धि और मध्यमऋद्धि के धारक भवनवासियों के भवन क्रमशः चित्रा पृथ्वी के निचे दो हजार, ४२ हजार और १ लाख योजन पर्यन्त जाक्र है। भवनवासी देवों के भवनों का प्रमाण क्या है? ये सब भवन समचतुष्कोण तथा वज्रमय द्वारों से शोभायमान है। इनकी ऊंचाइ ३०० योजन और विस्तार संख्यात और असंख्यात होता है। संख्यात विस्तार वाले भवनों मे संख्यात देव और असंख्यात विस्तार वाले भवनों मे असंख्यात देव रहते है। भवनवासी देवों के भवनों का स्वरुप कैसा है? भवनवासी देवो के भवनो के मध्य मे १०० योजन ऊंचे एक एक कूट स्थित है। इन कूटों के चारो तरफ नाना प्रकार के रचनाओं से युक्त, उत्तम सुवर्ण और रत्नों से निर्मित भवनावासी देवो के महल है. ये महल सात, आठ, नौ, दस इत्यादि अनेक तलों वाले है. यह भवन रत्नामालाओं से भूषीत, चमकते हुए मणिमय दीपकों से सुशोभित, जन्मशाला, अभिषेकशाला, भूषणशाला, मैथुनशाला, परिचर्यागृह और मंत्रशाला आदि से रमणीय है. इनमे मणिमय तोरणों से सुंदर द्वारों वाले सामान्यगृह, कदलिगृह, गर्भगृह, चित्रगृह, आसनगृह, नादगृह, और लतागृह इत्यादि गृह विशेष भी है. यह भवन सुवर्णमय प्राकार से संयुक्त, विशाल छज्जों से शोभित, फहराती हुइ ध्वजाओं, पुष्करिणी, वापी, कूप, क्रीडन युक्त मत्तावारणो, मनोहर गवाक्ष और कपाटों सहित अनादिनिधन है. इन भवनों के चारो पार्श्वभागों में चित्र विचित्र आसन एवं उत्तम रत्नों से निर्मित दिव्या शय्याये स्थित है. भवनवासी देवों के भवनों मे किस प्रकार के जिन मंदिर है? भवनवासी देवो के भवनो के मध्य मे १०० योजन ऊंचे एक एक कूट स्थित है। इन कूटों के उपर पद्मराग मणिमय कलशों से सुशोभित जिनमंदिर है। यह मंदिर ४ गोपुर, ३ मणिमय प्राकार, वन ध्वजाये, एवं मालाओं से संयुक्त है। भवनवासी देवों के चैत्यवृक्षों का प्रमाण क्या है? भवनवासी देवो के जिनमंदिरों के चारो ओर नाना चैत्यवृक्षो सहित पवित्र अशोक वन, सप्तच्छद वन, चंपक वन, आम्र वन स्थित है। प्रत्येक चैत्यवृक्ष का अवगाढ-जड़ १ कोस, स्कंध की ऊँचाइ १ योजन, और शाखाओं की लंबाइ ४ योजन प्रमाण है। भवनवासी देवों के चैत्यवृक्षों का स्वरूप कैसा है? असुरकुमार आदि १० प्रकार के भवनवासी देवों के भवनों में ओलग शालाओं के आगे विविध प्रकार के रत्नों से निर्मित चैत्यावृक्ष होते है। पीपल, सप्तपर्ण, शाल्मली, जामुन, वेतस, कदंब, प्रियंगु, शिरीष, पलाश, और राजदृम ये १० चैत्यवृक्ष क्रम से उन असुरादिक कुलो के चिन्ह रूप है। ये दिव्य वृक्ष विविध प्रकार के उत्तम रत्नो की शाखाओं से युक्त, विचित्र पुष्पों से अलंकृत, और उत्कृष्ठ मरकत मणिमय उत्तम पत्रों से व्याप्त है। यह अतिशय शोभा को प्राप्त, विविध प्रकार के अंकुरों से मंडित, अनेक प्रकार के फलों से युक्त, है। ये वृक्ष नाना प्रकार के रत्नों से निर्मित, छत्र के उपर से संयुक्त, घंटा ध्वजा से रमणीय, आदि अंत से रहित पृथ्वीकायिक स्वरुप है। भवनवासी देवों के चैत्यवृक्षों के मूल मे विराजमान जिन प्रतिमाओं का स्वरूप कैसा है? भवनवासी देवों के चैत्यवृक्षों के मूल मे चारो दिशाओं मे से प्रत्येक दिशा मे पद्मासन से स्थित पाँच-पाँच जिन प्रतिमाये विराजमान होती है। उन सभी प्रतिमाओं के आगे रत्नमय २० मानस्तंभ है। एक एक मानस्तंभ के ऊपर चारो दिशाओ में सिंहासन की शोभा से युक्त जिन प्रतिमाये है। ये प्रतिमाये देवो से पूजनीय, चार तोरणो से रमणीय, आठ महामंगल द्रव्यों से सुशोभित और उत्तमोत्तम रत्नो से निर्मित होती है। भवनवासी देवों के जिन मंदिरों का स्वरूप कैसा है? इन जिनालयों मे चार-चार गोपुरों से संयुक्त तीन कोट है। प्रत्येक वीथी मे एक एक मानस्थंभ व वन है। स्तूप तथा कोटो के अंतराल मे क्रम से वनभूमि, ध्वजभुमि,और चैत्यभुमि ऐसे तीन भुमियाँ है। इन जिनालयो मे चारों वनों के मध्य मे स्थित तीन मेखलाओ से युक्त नंदादिक वापिकायें, तीन पीठों से युक्त धर्म विभव तथा चैत्यवृक्ष शोभायमान होते है। भवनवासी देवों के जिन मंदिरों के ध्वजभुमियों का स्वरूप कैसा है? इन ध्वजभुमियों मे सिंह, गज, वृषभ, गरुड, मयुर, चंद्र, सूर्य, हंस, पद्म, चक्र इन चिन्होंसे अंकित ध्वजायें होती है। उपरोक्त प्रत्येक चिन्हों वाली १०८ महाध्वजायें होती है और इन एक-एक महाध्वजा के आश्रित १०८ लघु (क्षुद्र) ध्वजायें भी होती है। भवनवासी देवों के जिन मंदिरों के मंडपों का स्वरूप कैसा है? इस जिन मंदिरों मे वंदन मंडप, अभिषेक मंडप, नर्तन मंडप, संगीत मंडप और प्रेक्षणमंडप होते है। इसके अलावा क्रीड़गृह, गुणनगृह (स्वाध्याय शाला) एवं विशाल चित्रशालायें भी होती है। भवनवासी देवों के जिन मंदिरों के भीतर की रचना कैसी होती है? इन मंदिरोँ मे देवच्छंद के भीतर श्रीदेवी, श्रुतदेवी, तथा सर्वाण्ह और सानत्कुमार यक्षों की मूर्तियाँ एवं आठ मंगल द्रव्य होते है। झारी, कलश, दर्पण, ध्वजा, चामर, छत्र, व्यजन और सुप्रतिष्ठ इन आठ मंगल द्रव्यों मे से वहाँ प्रत्येक १०८ - १०८ होते है। इनमे चमकते हुए रत्नदीपक और ५ वर्ण के रत्नों से निर्मित चौक होते है। यहाँ गोशीर्ष, मलयचंदन, कालागरू और धूप कि गंध तथा भंभा, मृदंग, मर्दल, जयघंटा, कांस्यताल, तिवली, दुंदुभि एवं पतह के शब्द नित्य गुंजायमान होते है। भवनवासी देवों के जिन मंदिरों की प्रतिमायें कैसी होती है? हांथ मे चंवर लिए हुए नागकुमार देवों से युक्त, उत्तम उत्तम रत्नों से निर्मित, देवों द्वारा वंद्य, ऐसी उत्तम प्रतिमायें सिंहासन पर विराजमान है। प्रत्येक जिनभवन मे १०८ - १०८ प्रतिमायें विराजमान है। ऐसे अनादिनिधन जिनभवन ७ करोड ७२ लाख है, जो की भवनवासी देवों के भवनों की संख्या प्रमाण है। भवनवासी देवों के जिन मंदिरों मे कौन कौन से देव पूजा करते है? जो देव सम्यगदर्शन से युक्त है, वे कर्म क्षय के निमित्त नित्य ही जिनेंद्र भगवान कि पूजा करते है। इसके अतिरिक्त सम्यगदृष्टि देवों से सम्बोधित किये गये मिथ्यादृष्टि देव भी कुल देवता मानकर जिनेंद्र प्रतिमाओं की बहुत प्रकार से पूजा करते रहते है। भवनवासी देवों के परिवारों मे कौन कौन होते है? भवनवासी देव १० प्रकार (जाती) के होते है और प्रत्येक प्रकार में दो - दो इंद्र होते है. प्रत्येक इंद्र के दस-दस प्रकार के परिवार देव होते है. जैसे चमरेंद्र के १० परिवार देव, वैरोचणेंद्र के १० परिवार देव इत्यादि. ये परिवार देव इस प्रकार होते है : प्रतिन्द्र, त्रायस्त्रिंश, सामानिक, लोकपाल, तनुरक्षक (आत्मरक्षक), पारिषद, अनीक, प्रकीर्णक, आभियोग्य और किल्विषक. इस परिवार में इंद्र - राजा के समान, प्रतिन्द्र – युवराज के समान, त्रायस्त्रिंश – पुत्र के समान, और सामानिक देव – पत्नी के समान होते हे. प्रत्येक इंद्र के सोम, यम, वरुण और कुबेर नामक, चार – चार रक्षक लोकपाल होते है जो क्रम से पूर्व, पश्चिम आदि दिशाओं में होते है. ये परिवार में तंत्रपालो के समान होते है. तनुरक्षक देव अंगरक्षक के समान होते है. राजा की बाह्य, मध्य और आभ्यंतर समिती के समान देवो में भी ३ प्रकार की परिषद होती है. इन तीन परिषदों में बैठनेवाले देव, क्रमशः बाह्य पारिषद, मध्य * पारिषद, और आभ्यंतर पारिषद कहलाते है. अनीक देव सेना के तुल्य, प्रकीर्णक – प्रजा के तुल्य, आभियोग्य – दास के समान और किल्विषक - चांडालके समान होते है. भवनवासी देवों के परिवारों मे कौन कौन होते है? भवनवासी देव १० प्रकार (जाती) के होते है और प्रत्येक प्रकार में दो - दो इंद्र होते है. प्रत्येक इंद्र के दस-दस प्रकार के परिवार देव होते है. जैसे चमरेंद्र के १० परिवार देव, वैरोचणेंद्र के १० परिवार देव इत्यादि. ये परिवार देव इस प्रकार होते है : प्रतिंद्र, त्रायस्त्रिंश, सामानिक, लोकपाल, तनुरक्षक (आत्मरक्षक), पारिषद, अनीक, प्रकीर्णक, आभियोग्य और किल्विषक. इस परिवार में इंद्र - राजा के समान, प्रतिन्द्र – युवराज के समान, त्रायस्त्रिंश – पुत्र के समान, और सामानिक देव – पत्नी के समान होते हे. प्रत्येक इंद्र के सोम, यम, वरुण और कुबेर नामक, चार – चार रक्षक लोकपाल होते है जो क्रम से पूर्व, पश्चिम आदि दिशाओं में होते है. ये परिवार में तंत्रपालो के समान होते है. तनुरक्षक देव अंगरक्षक के समान होते है. राजा की बाह्य, मध्य और आभ्यंतर समिती के समान देवो में भी ३ प्रकार की परिषद होती है. इन तीन परिषदों में बैठनेवाले देव, क्रमशः बाह्य पारिषद, मध्य * पारिषद, और आभ्यंतर पारिषद कहलाते है. अनीक देव सेना के तुल्य, प्रकीर्णक – प्रजा के तुल्य, आभियोग्य – दास के समान और किल्विषक - चांडालके समान होते है. भवनवासी देवों के कितने प्रतिंद्र होते है? भवनवासी प्रतिंद्रो की संख्या उनके इंद्रो के समान - बीस होती है. (हर जाती के २ इंद्र और २ प्रतिंद्र होते है) भवनवासी देवों के कितने त्रायस्त्रिंश होते है? प्रत्येक भवनवासी इंद्रो के ३३ ही त्रायस्त्रिंश होते है. भवनवासी सामानिक देवों का प्रमाण क्या है? चमरेन्द्र के ६४,०००, वैरोचन के ६०,००० और भूतानंद के ५६,००० सामानिक देव है. शेष १७ इंद्रो के पचास - पचास हजार सामानिक देव है. इसप्रकार भवनवासी सामानिक देवों का कुल प्रमाण १० लाख ३० हजार है. ६४००० + ६०००० + ५६००० + (१७ × ५०,०००) = १०,३०,००० भवनवासी आत्मरक्षक देवों का प्रमाण क्या है? चमरेन्द्र के २ लाख ५६ हजार , वैरोचन के २ लाख ४० हजार और भूतानंद के २ लाख २४ हजार आत्मरक्षक देव है. शेष १७ इंद्रो के दो – दो लाख आत्मरक्षक देव है. इसप्रकार भवनवासी आत्मरक्षक देवों का कुल प्रमाण ४१ लाख २० हजार है. २,५६,००० + २,४०,००० + २,२४,००० + (१७ × २,००,०००) = ४१,२०,००० भवनवासी पारिषद देवों का प्रमाण क्या है? चमरेन्द्र के २८ हजार , वैरोचन के २६ हजार और भूतानंद के ६ हजार आभ्यंतर पारिषद देव है. शेष १७ इंद्रो के चार – चार हजार आभ्यंतर पारिषद देव है. इसप्रकार भवनवासी आभ्यंतर पारिषद देवों का कुल प्रमाण १ लाख २८ हजार है. २८,००० + २६,००० + ६,००० + (१७ × ४,०००) = १,२८,००० भवनवासी मध्यम पारिषद देवों का प्रमाण क्या है? चमरेन्द्र के ३० हजार , वैरोचन के २८ हजार और भूतानंद के ८ हजार मध्यम पारिषद देव है. शेष १७ इंद्रो के छ – छ हजार मध्यम पारिषद देव है. इसप्रकार भवनवासी मध्यम परिषद, जिसका नाम “चंद्रा“ है, उसके देवों का कुल प्रमाण १ लाख ६८ हजार है. ३०,००० + २८,००० + ८,००० + (१७ × ६,०००) = १,६८,००० भवनवासी बाह्य पारिषद देवों का प्रमाण क्या है? चमरेन्द्र के ३२ हजार , वैरोचन के ३० हजार और भूतानंद के १० हजार बाह्य पारिषद देव है. शेष १७ इंद्रो के आठ – आठ हजार बाह्य पारिषद देव है. इसप्रकार भवनवासी बाह्य परिषद, जिसका नाम “समिता“ है, उसके देवों का कुल प्रमाण २ लाख ८ हजार है. ३२,००० + ३०,००० + १०,००० + (१७ × ८,०००) = २,०८,००० भवनवासी अनीक देवों का प्रमाण क्या है? प्रत्येक भवनवासी इंद्रो के सात – सात अनीक होती है. इन सातो में से प्रत्येक अनीक सात सात कक्षाओं से युक्त होती है उनमे से प्रथम कक्षा का प्रमाण अपने अपने सामानिक देवो के बराबर होता है, इसके आगे उत्तरोत्तर प्रथम कक्षा से दूना दूना होता जाता है असुरकुमार जाती में महिष, घोडा, हाथी, रथ, पादचारी, गंधर्व और नर्तकी ये सात अनीक होती है, इनमे से प्रथम ६ अनीको में देव प्रधान होते है तथा आखिरी अनीक में देवी प्रधान होती है शेष नागकुमार आदि जातियों में सिर्फ प्रथम अनीक अलग है और आगे की ६ अनीक असुरकुमारो जैसी ही है नागाकुमारो में प्रथम अनीक - नाग, सुपर्णकुमारो में गरुड़, द्वीपकुमारो में गजेन्द्र, उदधिकुमारो में मगर, स्तनितकुमारो में ऊँट, विद्युतकुमारो में गेंडा, दिक्कुमारो में सिंह, अग्निकुमारो में शिविका और वायुकुमारो में अश्व ये प्रथम अनीक है. चमरेन्द्र के ८१ लाख, २८ हजार इतनी प्रथम अनीक की महिषसेना है. तथा उतनी ही सेना बाकी अनीको की होती है. (७ × ८१,२८,०००) = ५,६८,९६,००० वैरोचन के ७६ लाख, २० हजार इतनी महिषसेना है तथा शेष इतनी ही है. (७ × ७६,२०,०००) = ५,३३,४०,००० भूतानंद के ७१ लाख, १२ हजार इतनी प्रथम नागसेना है तथा शेष घोडा आदि भी इतनी ही है. (७ × ७१,१२,०००) = ४,९७,८४,००० शेष १७ भवनवासी इंद्रो की प्रथम अनीक का प्रमाण ६३ लाख, ५० हजार और कुल ७ अनीको का प्रमाण ४,४४,५०,००० है भवनवासी प्रकीर्णक आदि शेष देवों का प्रमाण क्या है? भवनवासियों के सभी २० इन्द्रोके, प्रकीर्णक, अभियोग्य और किल्विषक इन शेष देवों का प्रमाण का उपदेश काल के वश से उपलब्ध नहीं है. भवनवासी इंद्रों की देवियों की संख्या कितनी होती है? चमरेंद्र के कृष्णा, रत्ना, सुमेघा, सुका और सुकांता ये पाँच अग्रमहिषी महादेवीयाँ है. इन महादेवीयों में प्रत्येक के ८००० परिवार देवीयाँ है. इस प्रकार “परिवार देवियाँ” ४०,००० प्रमाण है. ये महादेवीयाँ विक्रिया से अपने आठ – आठ हजार रूप बना सकती है. चमरेंद्र के १६,००० वल्लभा देवियाँ भी है. इन्हें मिलाने से चमरेंद्र की कुल ५६ हजार देवियाँ होती है द्वितीय - वैरोचन इंद्र के पदमा, पद्मश्री, कनकश्री, कनकमाला, और महापद्मा ये पाँच अग्रमहिषी महादेवीयाँ है. इनकी विक्रिया, परिवार देवी, वल्लभा देवी आदि का प्रमाण चमरेन्द्र के समान होने से इस इंद्र की भी कुल ५६ हजार देवियाँ होती है. इसीप्रकार भूतानंद और धरणानंद के पचास – पचास हजार देवियाँ है. वेणुदेव, वेणुधारी इंद्रों के ४४ हजार देवियाँ है और शेष इंद्रों के ३२ – ३२ हजार प्रमाण है. इन इंद्रों की पारिषद आदि देवों की देवांगनाओ का प्रमाण तिलोयपन्नत्ति से जान लेना चाहिए. सबसे निकृष्ठ देवों की भी ३२ देवियाँ अवश्य होती है भवनवासी देवों का आहार कैसा और कब होता है? भवनवासी देव तथा देवियों का अति स्निग्ध, अनुपम और अमृतमय आहार होता है. चमर, और वैरोचन इन दो इंद्रो का १००० वर्ष के बाद आहार होता है. इसके आगे भूतानंद आदि ६ इंद्रो का साढ़े बारा दिनों में, जलप्रभ आदि ६ इंद्रो का १२ दिनो में, और अमितगती आदि ६ इंद्रो का साढ़े सात दिनों में आहार ग्रहण होता है. दस हजार वर्ष वाली जघन्य आयु वाले देवो का आहार दो दिन में तो पल्योपम की आयु वालो का पाँच दिन में भोजन का अवसर आता है. इन देवो के मन में भोजन की इच्छा होते ही उनके कंठ से अमृत झरता है और तृप्ति हो जाती है. इसे ही मानसिक आहार कहते है. भवनवासी देव उच्छवास कब लेते है? चमर, और वैरोचन इंद्र १५ दिन में, भूतानंद आदि ६ इंद्र साढ़े बार मुहुर्त में, जलप्रभ आदि ६ इंद्र साढ़े छ मुहुर्त में, उच्छवास लेते है. दस हजार वर्ष वाली आयु वाले देव ७ श्वासोच्छ्वास प्रमाण काल के बाद, और पल्योपम की आयु वाले पाँच मुहुर्त के बाद उच्छवास लेते है भवनवासी देवो के शरीर का वर्ण कैसा होता है? असुरकुमार, सुपर्णकुमार, द्वीपकुमार और दिक्कुमार का वर्ण काला होता है नागकुमार, उधदिकुमार, स्तानितकुमार का वर्ण अधिक काला होता है विद्युतकुमार का वर्ण बिजली के सदृश्य, अग्निकुमार का अग्नि की कांती के समान, एवं वायुकुमार का नीलकमल के सदृश्य होता है भवनवासी देवो का गमन (विहार) कहाँ तक होता है? भवनवासी इंद्र भक्ति से पंचकल्याणको के निमित्त ढाई द्वीप में, जिनेन्द्र भगवान के पूजन के निमित्त से नन्दीश्वर द्वीप आदि पवित्र स्थानो में, शील आदी से संयुक्त किन्ही मुनिवर की पूजन या परीक्षा के निमित्तसे तथा क्रीडा के लिए यथेच्छ स्थान पर आते जाते रहते है. ये देव स्वयं अन्य किसी की सहायता से रहित ईशान स्वर्ग तक जा सकते है तथा अन्य देवो की सहायता से अच्युत स्वर्ग तक भी जाते है. भवनवासी देव - देवियों का शरीर कैसा होता है? इनके शरीर निर्मल कांतीयुक्त, सुगंधीत उच्छवास से सहित, अनुपम रूप वाले, तथा समचतुरस्त्र सस्न्थान से युक्त होते है. इन देव-देवियों को रोग, वृद्धत्व नहीं होते बल्कि इनका अनुपम बल और वीर्य होता है. इनके शरीर में मल, मूत्र, हड्डी, माँस, मेदा, खून, मज्जा, वसा, शुक्र आदि धातु नहीं है. भवनवासी देव – देवियाँ काम सुख का अनुभव कैसे करते है? ये देवगण काय प्रवीचार से युक्त है. अर्थात् वेद की उदीरणा होने पर मनुष्यों के समान काम सुख का अनुभव करते है. ये इंद्र और प्रतिन्द्र विविध प्रकार के छत्र आदि विभूतियों को धारण करते है. चमर इंद्र सौधर्म इंद्र से ईर्ष्या करता है. वैरोचन ईशान से, वेणु भूतानंद से, वेणुधारी धरणानंद से, ईर्ष्या करते है. नाना प्रकार की विभूतियों को देखकर मात्सर्य से या स्वभाव से ही जलाते रहते है भवनवासी प्रतिन्द्र, इंद्र आदि के विभूतियों में क्या अंतर होता है ? प्रतिन्द्र आदि देवो के सिंहासन, छत्र, चमर अपने अपने इंद्रो की अपेक्षा छोटे रहते है. सामानिक और त्रायस्त्रिंश देवो में विक्रिया, परिवार, ऋद्धि और आयु अपने अपने इंद्रो की समान है. इंद्र उन सामानिक देवो की अपेक्षा केवल आज्ञा, छत्र, सिंहासन और चामरो से अधिक वैभव युक्त होते है. भवनवासी देवो की आयु का प्रमाण कितना है ? चमर, वैरोचन : १ सागरोपम भूतानंद, धरणानंद : ३ पल्योपम वेणु, वेणुधारी : २ १/२ पल्योपम पूर्ण, वसिष्ठ : २ पल्योपम जलप्रभ आदि शेष १२ इंद्र : १ पल्योपम भवनवासी देवियों की आयु का प्रमाण कितना है ? चमरेंद्र की देवियाँ : २ १/२ पल्योपम वैरोचन की देवियाँ : ३ पल्योपम भूतानंद की देवियाँ : १/८ पल्योपम धरणानंद की देवियाँ:कूछ आधिक १/८ पल्योपम वेणु की देवियाँ:३ पूर्व कोटि वेणुधारी की देवियाँ:कूछ आधिक ३ पूर्व कोटि अवशिष्ठ दक्षिण इंद्रो में से प्रत्येक इंद्र की देवियों की आयु ३ करोड़ वर्ष और उत्तर इंद्रो में से प्रत्येक इंद्र की देवियों की आयु कुछ आधिक ३ करोड़ वर्ष है. असुर आदि १० प्रकार के देवो में निकृष्ट देवो की जघन्य आयु का प्रमाण १० हजार वर्ष मात्र है. भवनवासी देवो के शरीर की अवगाहना का प्रमाण कितना है ? असुरकुमारों के शरीर की ऊंचाई : २५ धनुष्य शेष देवों के शरीर की ऊंचाई : १० धनुष्य यह ऊंचाई का प्रमाण मूल शरीर का है. विक्रिया से निर्मित शरीरो की ऊंचाई अनेक प्रकार की है. भवनवासी देवो के अवधिज्ञान एवं विक्रिया का प्रमाण कितना है ? अपने अपने भवन में स्थित देवो का अवधिज्ञान उर्ध्व दिशा में उत्र्कुष्ठ रूप से मेरु पर्वत को स्पर्श करता है, तथा अपने भवनों के निचे, थोड़े थोड़े क्षेत्र में प्रवृत्ति करता है. वही अवधिज्ञान तिरछे क्षेत्र की अपेक्षा अधिक क्षेत्र को जानता है. असुरादी देव अनेक रूपों की विक्रिया करते हुए अपने अपने अवधिज्ञान के क्षेत्र को पूरित करते है भवनवासी देव योनी में किन कारणों से जन्म होता है ? निम्नलिखित आचरण से भवनवासी योनी में जन्म होता है. शंकादी दोषों से युक्त होना क्लेशभाव और मिथ्यात्व भाव से युक्त चारित्र धारण करना कलहप्रिय, अविनयी, जिनसुत्र से बहिर्भुत होना. तीर्थंकर और संघ की आसादना (निंदा) करना कुमार्ग एवं कुतप करने वाले तापसी भवनवासी योनी में जन्म लेते है. भवनवासी देव योनी में किन कारणों से सम्यक्त्व होता है ? सम्यक्त्व सहित मरण कर के कोई जीव भवनवासी देवो में उत्पन्न नहीं होता. कदाचित् जातिस्मरण, देव ऋद्धि दर्शन, जिनबिम्ब दर्शन और धर्म श्रवण के निमित्तो से ये देव सम्यक्त्व को प्राप्त करा लेते है. भवनवासी देव योनी से निकलकर जीव कहाँ उत्पन्न होता है ? ये जीव कर्म भूमि में मनुष्य गती अथवा तिर्यंच गति को प्राप्त कर सकते है, किन्तु शलाका पुरुष नहीं हो सकते है. यदि मिथ्यात्व से सहित संक्लेश परिणाम से मरण किया तो एकेंद्रिय पर्याय में जन्म लेते है भवनवासी देव किस प्रकार और कौनसी शय्या पर जन्म लेते है और क्या विचार करते है ? भवनवासी भवनों में उत्तम, कोमल उपपाद शाला में उपपाद शय्या पर देवगति नाम कर्म के कारण जीव जन्म लेता है उत्पन्न होते ही अंतर्मुहूर्त में छहों पर्याप्तियो को पूर्ण कर १६ वर्ष के युवक के समान शरीर को प्राप्त कर लेते है इन देवो के वैक्रियिक शरीर होने से इनको कोई रोग आदि नहीं होते है देव भवनों में जन्म लेते ही, बंद किवाड़ खुल जाते है और आनंद भेरी का शब्द (नाद) होने लगता है इस भेरी को सुनकर, परिवार के देव देवियाँ हर्ष से जय जयकार करते हुए आते है जय, घंटा, पटह, आदि वाद्य, संगीत नाट्य आदि से चतुर मागध देव मंगल गीत गाते है इस दृश्य को देखकर नवजात देव आश्चर्यचकित हो कर सोचता है की तत्क्षण उसे अवधिज्ञान नेत्र प्रकट होता है यहाँ अवधि विभंगावधि होती है और सम्यक्त्व प्रकट होने पर सुअवधि कहलाती है ये देवगण पूर्व पुण्य का चिंतवन करते हुए यह सोचते है की मैंने सम्यक्त्व शुन्य धर्म धारण करके यह निम्न देव योनी पायी है. इसके पश्चात अभिषेक योग्य द्रव्य लेकर जिन भवनों में स्थित जिन प्रतिमाओं की पूजा करते है (सम्यग्दृष्टि देव कर्म क्षय का कारण मानकर देव पूजा करते है तो मिथ्यादृष्टि देव अन्य देवो की प्रेरणा से कुल देवता मानकर पूजा करते है.) पूजा के पश्चात अपने अपने भवनों में आकर सिंहासन पर विराजमान हो जाते है. भवनवासी देव किस प्रकार क्रीडा करते है ? ये देवगण दिव्य रूप लावण्य से युक्त अनेक प्रकार की विक्रिया से सहित, स्वभाव से प्रसन्न मुख वाली देवियों के साथ क्रीडा करते है ये देव स्पर्श, रस, रूप और शब्द से प्राप्त हुए सुखों का अनुभव करते हुए क्षणमात्र भी तृप्ति को प्राप्त नहीं करते है द्वीप, कुलाचल, भोग भूमि नंदनवन आदि उतम स्थानों में ये देव क्रीडा करते है

Wednesday, 2 April 2014

भोगभूमिज मनुष्य - हैमवत और हैरण्यवत क्षेत्र ३६८४,४/१९ योजन विस्तृत है। उनमें सुषमा-दुषमा काल के सदृश जघन्य भोगभूमि की व्यवस्था है। विशेषता केवल यह है कि इन क्षेत्रों में हानि-वृद्धि से रहित अवस्थिति एक सी हीr रहती है। हरिक्षेत्र और रम्यक क्षेत्र का विस्तार ८४२१,१/१९ योजन है। यहाँ पर सुषमा काल के सदृश मध्यम भोगभूमि की व्यवस्था सदा एक सी रहती है। सुमेरु के दक्षिण में देवकुरु और उत्तरकुरु है। इनका उत्तर-दक्षिण विस्तार ११५९२,२/१९ योजन है। यहां पर सुषमा-सुषमा सदृश उत्तम भोगभूमि की व्यवस्था सदा अवस्थितरूप से है। इस प्रकार यहां जंबूद्वीप में ६ भोगभूमि हैं। ऐसे ही धातकीखंड में पूर्व धातकी में ६ और पश्चिम धातकी में ६ हैं। पुष्करार्ध में भी पूर्व पुष्करार्ध में ६ और पश्चिम पुष्करार्ध में ६, कुल ३० भोगभूमि हैं। इन भोगभूमियों में युगल ही स्त्री-पुरुष जन्म लेते हैं। वे आर्य-आर्या कहलाते हैं और १० प्रकार के कल्पवृक्षों से भोग सामग्री प्राप्त करते हैं। जघन्य भोगभूमि में आयु १ पल्य और शरीर की ऊंचाई एक कोश प्रमाण है। मध्यम भोगभूमि में आयु २ पल्य और शरीर की ऊंचाई २ कोश है। उत्तम भोगभूमि में आयु ३ पल्य और शरीर की ऊंचाई ३ कोश ही है। आयु के अन्त में पुरुष छींक और स्त्री जंभाई के द्वारा मरण को प्राप्त होते हैं। ये मरकर देवगति को ही प्राप्त करते हैं। कुभोगभूमिज मनुष्य - लवण समुद्र में ४८ और कालोद समुद्र में ४८ ऐसी ९६ कुभोगभूमि हैं। इन्हें कुमानुष द्वीप या अंतरद्वीप भी कहते हैं। जम्बूद्वीप की जगती से ५०० योजन जाकर ४ दिशा के ४ और ४ विदिशा के ४ ऐसे ८ द्वीप हैं। इन आठों की अन्तर दिशाओं में ५५० योजन जाकर ८ द्वीप हैं तथा भरत-ऐरावत के विजयार्ध के दोनों तटों से और हिमवान तथा शिखरी पर्वत के तटों से ६०० योजन समुद्र में जाकर ८ द्वीप हैं। दिशागत द्वीप १०० योजन विस्तृत हैं, विदिशा के द्वीप ५५ योजन, दिशा-विदिशा के अन्तराल के द्वीप ५० योजन और पर्वत के तटों के द्वीप २५ योजन विस्तृत हैं। ये सभी द्वीप जल से एक योजन ऊंचे हैं।१ इन द्वीपों में कुमानुष युगल ही जन्म लेते हैं और युगल ही मरण प्राप्त करते हैं। यहाँ की व्यवस्था जघन्य भोगभूमि के सदृश है अर्थात् इनकी आयु एक पल्य और शरीर की ऊंचाई एक कोश है। मरण के बाद ये देवगति को ही प्राप्त करते हैं। पूर्वादि दिशाओं के मनुष्य क्रम से एक जंघा वाले, पूंछ वाले, सींग वाले और गूंगे हैं। विदिशाओं में क्रम से शष्कुलीकर्ण, कर्णप्रावरण, लम्बकर्ण और शशकर्ण जैसे कर्ण वाले हैं। अंतर दिशाओं के मनुष्य क्रम से सिंह, अश्व, श्वान, महिष, वराह, शार्दूल, घूक और बन्दर के समान मुख वाले हैं। हिमवान के दोनों तटों के क्रम से मत्स्यमुख और कालमुख वाले हैं। भरत के विजयार्ध के तटों के मेषमुख और गोमुख हैं। शिखरी पर्वत के तटों के मेघमुख और विद्युन्मुख हैं तथा ऐरावत के विजयार्ध सम्बन्धी तटों के आदर्शमुख और हस्तिमुख जैसे मुख वाले हैं। इन मनुष्यों के मुख, कान आदि ही पशुवत् विकृत हैं, शेष शरीर मनुष्यों का है अतएव ये कुमानुष कहलाते हैं। इनमें से एक जंघा वाले कुमानुष गुफाओं में रहते हैं और वहां की मीठी मिट्टी खाते हैं। शेष सभी कुमानुष वृक्षों के नीचे रहकर फल, पूâलों से जीवन व्यतीत करते हैं३ अथवा ये कल्पवृक्षों से प्राप्त फलों का भोजन करते हैं४। लवण समुद्र के अभ्यन्तर भाग में ये ४±४±८±८·२४ द्वीप हैं। ऐसे ही बाह्य तट की तरफ भी २४ हैं। इसी प्रकार कालोद समुद्र के अभ्यंतर बाह्य तट संबंधी २४±२४·४८ हैं अत: ये ९६ अंतरद्वीप हैं। सम्यक्त्व से रहित कुत्सित पुण्य करके तथा कुपात्रों में दान देकर मनुष्य अथवा तिर्यंच इन कुमानुषों में जन्म ले लेते हैं। इस प्रकार से ५ भरत, ५ ऐरावत क्षेत्रों के आर्यखंड के मनुष्य, १६० विदेहक्षेत्रों के आर्य खंडों के मनुष्य ऐसे १७० आर्यखंडों के मनुष्य, ३४० विद्याधर श्रेणियों के विद्याधर मनुष्य, ८५० म्लेच्छखंडों के मनुष्य और ९६ कुभोगभूमियों के मनुष्य, ये ५ भेदरूप मनुष्य हो जाते हैं। इनमें भरत, ऐरावत, विदेह के मनुष्य, विद्याधर श्रेणियों के मनुष्य और म्लेच्छखंडों के मनुष्य कर्मभूमिज हैं। ३० भोगभूमि और ९६ कुभोगभूमियों के मनुष्य भोगभूमिज हैं, इसलिए सभी मनुष्य दो भेदों में ही कहे गए हैं। मानुषोत्तर पर्वत के भीतर के क्षेत्रों में ही मनुष्य होते हैं, इसके बाहर नहीं१। जंबूद्वीप एक लाख, लवण समुद्र दो लाख, धातकीखंड चार लाख, कालोद समुद्र आठ लाख और पुष्करार्धद्वीप आठ लाख योजन विस्तृत है। इनमें जंबूद्वीप को चारों ओर से घेरकर लवणसमुद्र आदि होने से दोनों तरफ से उनकी संख्या ली जायेगी। अत: १±२±२±४±४±८±८±८±८·४५ लाख योजन का यह मनुष्य क्षेत्र है। इस मानुषोत्तर पर्वत से परे आधा पुष्कर द्वीप है। उसे घेरकर पुष्कर समुद्र है। इसी तरह एक-दूसरे को वेष्ठित किए हुए असंख्यात द्वीप-समुद्र इस मध्यलोक में हैं। अंतिम आधे द्वीप और पूरे समुद्र में एकेन्द्रिय, विकलेन्द्रिय, पंचेन्द्रिय आदि सभी तिर्यंच रहते हैं। मनुष्यराशि-पर्याप्त मनुष्यों की संख्या २९ अंक प्रमाण है। यथा- १९८०७०४०६२८५६६०८४३९८३८५९८७५८४ भावस्त्रीवेदी मनुष्यराशि भी २९ अंक प्रमाण है। यथा- ५९४२११२१८८५६९८२५३१९५१५७९६२७५२ इनमें से अंतद्र्वीपज मनुष्य सबसे थोड़े हैं। इनसे भी संख्यातगुणे मनुष्य ५ देवकुरु, ५ उत्तरकुरु ऐसे १० कुरुक्षेत्रों में हैं। इनसे भी संख्यातगुणे ५ हरिवर्ष एवं ५ रम्यक क्षेत्रों में हैं। इनसे भी संख्यातगुणे ५ हैमवत और ५ हैरण्यवत क्षेत्रों में हैं। इनसे संख्यातगुणे ५ भरत और ५ ऐरावत क्षेत्रों में हैं और इनसे संख्यात गुणे विदेहक्षेत्र में हैं अर्थात् सबसे थोड़े मनुष्य कुभोगभूमि में और सबसे अधिक मनुष्य विदेहक्षेत्रों में हैं। गुणस्थान व्यवस्था - भरत ऐरावत के ५-५ आर्यखंडों में कम से कम एक मिथ्यात्व और अधिक हों तो १४ गुणस्थान होते हैं। विदेहक्षेत्रों के १६० आर्यखंडों में कम से कम ६ और अधिक हों तो १४ गुणस्थान होते हैं। सर्व भोगभूमिजों में अधिकतम ४ गुणस्थान हैं। चूंकि ये व्रती नहीं बनते हैं, सब म्लेच्छखंडों में एक मिथ्यात्व गुणस्थान ही है। विद्याधरों में ५ गुणस्थान हैं, यदि वे विद्याओं को छोड़कर मुनिदीक्षा ले लेते हैं तब १४ गुणस्थान तक भी प्राप्त कर लेते हैं। ये सब मनुष्य पुरुषवेद, स्त्रीवेद अथवा नपुंसकवेद इन तीनों में से कोई एक वेद से सहित होते हैं। म्लेच्छखंडों में, भोगभूमि और कुभोगभूमि में नपुंसक वेद नहीं है। आर्य-म्लेच्छ मनुष्य - श्री उमास्वामी आचार्य ने अन्य प्रकार से मनुष्यों में दो भेद किए हैं-यथा ‘आर्याम्लेच्छाश्च’४। मनुष्यों के आर्य और म्लेच्छ ऐसे दो भेद हैं। टीकाकार श्री भट्टाकलंक देव ने कहा है-‘ऋद्धि प्राप्त और अनृद्धि प्राप्त (बिना ऋद्धि वाले) की अपेक्षा आर्य के दो भेद हैं।’ अनृद्धि प्राप्त आर्य के ५ भेद हैं-क्षेत्रार्य, जात्यार्य, कर्मार्य, चारित्रार्य और दर्शनार्य। ऋद्धि प्राप्त आर्य के ८ भेद हैं-ये ऋद्धिधारी मुनियों के भेद हैं। ऋद्धि के बुद्धि, क्रिया, विक्रिया, तप, बल, औषध, रस और क्षेत्र ये ८ भेद हैं। इनके अवांतर भेद ५७ या ६४ भी माने हैं। म्लेच्छ के भी दो भेद हैं-अंतरद्वीपज और कर्मभूमिज। ९६ कुभोगभूमि में होने वाले कुमानुष अंतरद्वीपज म्लेच्छ हैं तथा यहाँ आर्यखण्ड में जन्म लेने वाले शक, यवन, शबर, पुलिंद आदि कर्मभूमिज म्लेच्छ हैं। इन आर्य-म्लेच्छ दो भेदों में ही उपर्युक्त कर्मभूमिज, भोगभूमिज मनुष्य अंतर्भूत हो जाते हैं। १७० कर्मभूमि के क्षत्रिय, वैश्य आदि उच्चवर्णी मनुष्य, विद्याधर तथा भोगभूमिज मनुष्य आर्य हैं। कर्मभूमि के नीच वर्णी मनुष्य, म्लेच्छखंड के मनुष्य और कुभोगभूमि के मनुष्य ये सभी म्लेच्छ हैं। भोगभूमि - जहां कल्पवृक्षों से भोगों की सामग्री प्राप्त हो जाती है, असि, मषि, कृषि, व्यापार आदि क्रियायें नहीं करनी पड़ती हैं, वह भोगभूमि है। यहाँ मात्र सुख ही सुख है। कर्मभूमि - जहां असि, मषि, कृषि, विद्या, वाणिज्य और शिल्प ये छह क्रियायें होती हैं, वह कर्मभूमि है। यहां पर प्रकृष्ट शुभ-अशुभ कर्म किए जा सकते हैं इसीलिए कर्मभूमि नाम सार्थक है। प्रकृष्ट अर्थात् सर्वोत्कृष्ट सर्वार्थसिद्धि के सुख प्राप्त कराने वाला पुण्य, तीर्थंकर प्रकृति का बंध, उदय और महान ऋद्धियों की उत्पत्ति आदि असाधारण पुण्य तथा संपूर्ण संसार के कारणों के अभाव रूप निर्जरा भी इस कर्मभूमि में ही संभव है तथा प्रकृष्ट-कलंकल पृथ्वी-निगोद और सप्तम नरक के महादु:खों को प्राप्त कराने वाला पाप भी यहीं संभव है। इसी कारण से इन ५ भरत, ५ ऐरावत और १६० विदेहों का कर्मभूमि नाम है३। इस कर्मभूमि में सुख और दु:ख दोनों पाए जाते हैं४। यहीं से मनुष्य कर्मों का नाश कर मोक्ष प्राप्त कर लेते हैं। इस प्रकार से ४५ लाख योजन प्रमाण ढाईद्वीप में इन १७० कर्मभूमियों से ही मोक्ष होता है। स्वर्ग के देव, देवेन्द्र भी यहाँ जन्म लेना चाहते हैं, चूंकि मनुष्यगति से ही मोक्ष प्राप्त किया जाता है।
‘अढाई द्वीप और दो समुद्रों के अन्तर्गत १५ कर्मभूमियां हैं।’ दससु भरहेरावएसु पंचसु महाविदेहेसु४। ५ भरत, ५ ऐरावत और ५ महाविदेह की १५ कर्मभूमि हैं। जम्बूद्वीप एक लाख योजन व्यास वाला गोलाकार है। इसमें भरत, हैमवत, हरि, विदेह, रम्यव्â, हैरण्यवत और ऐरावत ये ७ क्षेत्र हैं। ये हिमवान् आदि ६ पर्वतों से विभाजित हैं। इनमें से भरतक्षेत्र ५२६,६/१९ योजन विस्तृत है। आगे के पर्वत और क्षेत्र विदेह तक दूने-दूने विस्तार वाले हैं, आगे आधे-आधे होते गए हैं। भरतक्षेत्र के मनुष्य-इस भरतक्षेत्र में गंगा-सिन्धु नदी और विजयार्ध पर्वत के निमित्त से छह खण्ड हो गये हैं। इनमें से दक्षिण के मध्य का आर्यखंड है, शेष पांच म्लेच्छखंड हैं। इस आर्यखण्ड में अवसर्पिणी और उत्सर्पिणी ये दो काल वर्तते हैं। १० कोड़ाकोड़ी सागर की एक अवसर्पिणी और इतने ही प्रमाण की उत्सर्पिणी होती है। इन दोनों के ६-६ भेद हैं। सुषमा-सुषमा, सुषमा, सुषमा-दुषमा, दुषमा-सुषमा, दुषमा और अतिदुषमा। इनमें से प्रथम काल ४ कोड़ाकोड़ी सागर का, द्वितीय काल ३ कोड़ाकोड़ी सागर का, तृतीय काल २ कोड़ाकोड़ी सागर का, चतुर्थ काल ४२ हजार वर्ष कम एक कोड़ाकोड़ी सागर का, पंचम काल २१ हजार वर्ष का और छठा काल भी २१ हजार वर्ष का होता है। ऐसे ही उत्सर्पिणी में छठे अतिदुषमा से आदि लेकर सुषमासुषमा तक काल वर्तता है। इस तरह अवसर्पिणी-उत्सर्पिणी दोनों मिलकर २० कोड़ाकोड़ी सागर का एक कल्पकाल माना गया है। अवसर्पिणी के प्रथम सुषमासुषमाकाल में यहां पर भोगभूमि की व्यवस्था रहती है। स्त्री-पुरुष युगल ही उत्पन्न होते हैं और साथ ही मरण प्राप्त करते हैं। ये दस प्रकार के कल्पवृक्षों से भोग सामग्री प्राप्त करते हैं। पानांग, तूर्यांग, भूषणांग, वस्त्रांग, भोजनांग, आलयांग, दीपांग, भाजनांग, मालांग और तेजांग जाति के कल्पवृक्ष अपने नाम के अनुसार ही वस्तुएं प्रदान करते हैं। यहां पर मनुष्यों के शरीर की ऊँचाई तीन कोश और आयु तीन पल्य की होती है पुन: घटते-घटते द्वितीय काल के प्रारम्भ में मनुष्यों की ऊँचाई दो कोश और आयु दो पल्य की होती है। पुन: घटती हुई तृतीय काल के आदि में शरीर की ऊंचाई एक कोश और आयु एक पल्य की रहती है। इस काल के अंत में कल्पवृक्ष नष्ट हो जाते हैं। चतुर्थकाल में कर्मभूमि प्रारम्भ हो जाती है। यहाँ पर उत्कृष्ट आयु एक कोटि पूर्व वर्ष और शरीर की ऊँचाई ५०० धनुष की होती है। पंचम काल में उत्कृष्ट आयु १२० वर्ष और शरीर की उत्कृष्ट ऊंचाई ७ हाथ प्रमाण रहती है।१ छठे काल के प्रारम्भ में शरीर की ऊंचाई साढ़े तीन हाथ अथवा ३ हाथ और उत्कृष्ट आयु २० वर्ष की होती है।२ इस युग में तृतीय काल के अंत में जब कुछ कम एक पल्य का आठवां भाग काल शेष रह गया३ तब प्रतिश्रुति, सन्मति आदि से लेकर क्रम से १४ कुलकर उत्पन्न हुए हैं। चौदहवें कुलकर नाभिराय थे, इनकी रानी का नाम मरुदेवी था। इन्हीं से जन्मे प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव ने प्रजा को असि, मषि आदि षट् क्रियाओं का उपदेश देकर क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र इन तीन वर्णों की व्यवस्था की थी।४ भगवान ऋषभदेव की आयु ८४ लाख पूर्व वर्ष की थी और शरीर की ऊंचाई ५०० धनुष प्रमाण थी। अजितनाथ से लेकर आयु और ऊंचाई घटते-घटते महावीर स्वामी की आयु ७२ वर्ष की और ऊंचाई ७ हाथ की रह गई। इस काल में २४ तीर्थंकर, १२ चक्रवर्ती, ९ बलदेव, ९ वासुदेव और ९ प्रतिवासुदेव ये ६३ शलाका पुरुष होते हैं। चतुर्थकाल में कोई भी भव्यजीव तपश्चर्या के बल से कर्मों को नाशकर मोक्ष प्राप्त कर सकता है। पंचमकाल में हीन संहनन होने से कोई भी मनुष्य मोक्ष नहीं प्राप्त कर सकता है। फिर भी पंचमकाल के अंत तक धर्म रहता है, क्योंकि आचार्यों ने कहा है कि- ‘इतने मात्र समय में चातुर्वण्र्य संघ जन्म लेता रहेगा।’ इस दुषमकाल में धर्म, आयु और ऊंचाई आदि कम होती जाएगी फिर अन्त में इक्कीसवां कल्की उत्पन्न होगा। उसके समय में वीरांगज मुनि, सर्वश्री आर्यिका, अग्निदत्त श्रावक और पंगुश्री श्राविका ये चतुर्विध संघ होगा। वह कल्की मंत्री द्वारा मुनि के हाथ से प्रथम ग्रास को कर के रूप में मांगेगा तब मुनिराज अंतराय करके वापस आकर आर्यिका आदि को बुलाकर सल्लेखना देकर आप स्वयं सल्लेखना ग्रहण कर लेंगे। कार्तिक कृ. अमावस्या के प्रात: ये मुनि आदि शरीर छोड़कर स्वर्ग प्राप्त करेंगे तब धर्म का नाश हो जायेगा। मध्यान्ह में असुरदेव कल्की राजा को मार डालेगा और सायंकाल में अग्नि नष्ट हो जाएगी। इसके बाद तीन वर्ष, साढ़े आठ मास बीत जाने पर छठा काल आयेगा। उस समय के मनुष्य घर, वस्त्र आदि से रहित, अतीव दु:खी, मांसाहारी होंगे। इस काल के अंत में महाप्रलय होगा, भीषण वायु चलेगी। बर्प, क्षार जल, विष जल, धुंआ, धूलि, वज्र और अग्नि की वर्षा सात-सात दिनों तक होगी। उस समय कुछ मनुष्य और तिर्यंच युगलों को देव, विद्याधर रक्षा करके विजयार्ध पर्वत की गुफा आदि में रख देंगे। यहां आर्यखंड की चित्रा पृथ्वी के ऊपर स्थित वृद्धिंगत एक योजन की भूमि जलकर नष्ट हो जायेगी।१ अनंतर पुन: उत्सर्पिणी काल का पहला अतिदुषमा नाम का काल आएगा जिसमें इस छठे काल जैसी व्यवस्था होगी। ये ही सुरक्षित रखे गए मनुष्य, तिर्यंच गुफा आदि से निकलकर पृथ्वी पर पैâल जायेंगे। ऐसे ही क्रम से दुषमा आदि से लेकर सुषमा-सुषमा तक छहों काल वर्तन करेंगे। ऐरावत क्षेत्र के मनुष्य - इस भरतक्षेत्र के समान ही जंबूद्वीप के ऐरावत क्षेत्र के आर्यखंड में छहकाल परिवर्तन होता है तथा धातकी खंड के २ भरत, २ ऐरावत और पुष्करार्धद्वीप के भी २ भरत, २ ऐरावत क्षेत्रों में यही काल परिवर्तन होता रहता है। इस प्रकार से ५ भरत और ५ ऐरावत के आर्यखंडों में षट्काल परिवर्तन में तीन-तीन कालों में भोगभूमि की व्यवस्था रहती है और तीन-तीन कालों में कर्मभूमि की व्यवस्था होती है। बीस कोड़ाकोड़ीr सागर के कल्पकाल में १८ कोड़ाकोड़ी सागर तक भोगभूमि और २ कोड़ाकोड़ी सागर तक ही कर्मभूमि की व्यवस्था है। महाविदेहक्षेत्र का विस्तार ३३६८४,४/१९ योजन है२। इसके ठीक बीच में सुमेरु पर्वत है। सुमेरु के दक्षिण में देवकुरु और उत्तर में उत्तरकुरु क्षेत्र हैं तथा पूर्व-पश्चिम में सीता-सीतोदा नदी बहती है। सुमेरु के पूर्व में पूर्व विदेह और पश्चिम में पश्चिम विदेह है। महाविदेह के ३२ क्षेत्र-सीता नदी के दोनों पाश्र्व भागों में ४-४ वक्षार पर्वत और ३-३ विभंगा नदियों से सीमित ८-८ क्षेत्र हैं। ऐसे ही सीतोदा के दोनों पाश्र्व भागों में ४-४ वक्षार और ३-३ विभंगा से सीमित ८-८ क्षेत्र हैं। इस तरह ये ३२ क्षेत्र हैं। कच्छा, सुकच्छा, महाकच्छा, कच्छकावती, आवर्ता, लांगलावर्ता, पुष्कला, पुष्कलावती, वत्सा, सुवत्सा, महावत्सा, वत्सकावती, रम्या, सुरम्यका, रमणीया, मंगलावती, पद्मा, सुपद्मा, महापद्मा, पद्मकावती, शंखा, नलिना, कुमदा, सरिता, वप्रा, सुवप्रा, महावप्रा, वप्रकावती, गंधा, सुगंधा, गंधिला और गंधमालिनी, क्रम से उन ३२ विदेहक्षेत्रों के ये नाम हैं। प्रत्येक क्षेत्र का पूर्व-पश्चिम विस्तार २२१२,७/८ योजन है तथा लम्बाई १६५९२, २/१९ योजन है। कच्छा आदि प्रत्येक विदेहक्षेत्र में ठीक बीच में एक-एक विजयार्ध पर्वत है जो ५० योजन विस्तृत, २२१२,७/८ योजन लंबे तथा २५ योजन ऊंचे, तीन कटनी वाले हैं। सीता-सीतोदा के दक्षिण तट के क्षेत्रों में गंगा - सिंधु नाम की दो-दो नदियाँ निषध पर्वत की तलहटी के कुण्ड से निकलकर विजयार्ध की गुफा में प्रवेश कर जाती हैं। ऐसे सीता-सीतोदा के उत्तर तट के क्षेत्रों में नील पर्वत की तलहटी के कुण्डों से निकलकर रक्ता-रक्तोदा नदियां बहती हैं। इस तरह प्रत्येक कच्छा आदि क्षेत्रों में विजयार्ध पर्वत और दो-दो नदियों के निमित्त से ६-६ खण्ड हो जाते हैं। आर्यखण्ड - इस प्रकार से इन छह खण्डों में नदी की तरफ के मध्य का एक आर्यखण्ड है, शेष ५ म्लेच्छखंड हैं। प्रत्येक ३२ क्षेत्रों के ३२ आर्यखंडों के बीच-बीच में जो प्रमुख नगरी हैं उनके क्रम से क्षेमा, क्षेमपुरी, अरिष्टा, अरिष्टपुरी, खड्गा, मंजूषा, औषधि, पुण्डरीकिणी, सुसीमा, कुण्डला, अपराजिता, प्रभंकरा, अंका, पद्मवती, शुभा, रत्नसंचया, अश्वपुरी, सिंहपुरी, महापुरी, विजयपुरी, अरजा, विरजा, अशोका, वीतशोका, विजया, वैजयंता, जयंता, अपराजिता, चक्रपुरी, खड्गपुरी, अयोध्या और अवध्या ये नाम हैं। ये महायोजन से ९ योजन चौड़ी और १२ योजन लम्बी हैं। यहां भरतक्षेत्र के आर्यखंड में जैसे अयोध्या है ऐसे ही ये नगरियां हैं। ये ही वहां की राजधानी हैं। वहां विदेहक्षेत्र में सदा ही तीर्थंकर देव, गणधर देव, अनगार मुनि, केवली, ऋद्धिधारी मुनि आदि रहते हैं। चक्रवर्ती, बलदेव, वासुदेव, प्रतिवासुदेव भी हुआ करते हैं। वहां के मनुष्यों की उत्कृष्ट आयु एक कोटि पूर्व वर्ष और शरीर की ऊंचाई ५०० धनुष की रहती है। असि, मषि आदि षट्कर्मों से आजीविका चलती है। क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र ये तीन ही वर्ण होते हैं। वहां पर सतत मोक्षगमन चालू रहता है। तीर्थंकर ऋषभदेव ने अपने अवधिज्ञान से इस विदेहक्षेत्र की वर्ण व्यवस्था आदि को जानकर ही यहां भरतक्षेत्र में वैसी व्यवस्था बनाई थी। विद्याधर मनुष्य - यह भरतक्षेत्र ५२६,३/१९ योजन है। हिमवान् पर्वत इससे दूने प्रमाण १०५२,१२/१९ योजन विस्तार वाला है। इस भरतक्षेत्र के ठीक बीच में एक विजयार्ध पर्वत है, वह रजतमय है। यह २५ योजन ऊँचा और मूल में ५० योजन विस्तृत है तथा पूर्व-पश्चिम में दोनों तरफ लवण समुद्र को स्पर्श कर रहा है। १० योजन ऊपर जाकर इसके दोनों पाश्र्व भागों-दक्षिण, उत्तर में १० योजन ही विस्तृत विद्याधरों की १-१ श्रेणियां हैं। दक्षिण श्रेणी में ५० एवं उत्तर श्रेणी में ६० नगर हैं।१ किन्नामित, किंकरगीत आदि इनके नाम हैं। इन नगरों में विद्याधर मनुष्य रहते हैं। ये लोग असि, मषि, कृषि, वाणिज्य, शिल्प और विद्या इन छह कर्मों से आजीविका करते हैं। इन विद्याधर स्त्री-पुरुषों को सदा तीन प्रकार की विद्यायें प्राप्त रहती हैं-कुल विद्या, जाति विद्या और साधित विद्या। जो कुल परम्परागत प्राप्त हो जाती हैं वे कुल विद्या हैं, जो मातृ पक्ष से प्राप्त होती हैं वे जाति विद्या हैं और जिन्हें मंत्र जपकर आराधना विधि से सिद्ध करते हैं वे साधित विद्या हैं। इस विजयार्ध पर्वत पर इस विद्याधर श्रेणी से १० योजन ऊपर जाकर दोनों तरफ १०-१० योजन विस्तृत दूसरी श्रेणी है। इसमें अभियोग्य जाति के देवों के भवन बने हुए हैं। इससे ५ योजन ऊपर जाकर १० योजन विस्तार वाला इस पर्वत का शिखर है।२ इस पर ९ कूट हैं जिसमें एक कूट पर जिनमंदिर है, शेष पर देवों के भवन बने हुए हैं। इस पर्वत में दो गुफायें हैं। जिनमें से गंगा, सिन्धु नदियां प्रवेश कर बाहर निकलकर क्षेत्र में बहती हैं। ये दोनों नदियां हिमावान पर्वत के पद्म सरोवर से निकलती हैं। ऐरावत क्षेत्र में भी इसी प्रकार से विजयार्ध पर्वत हैं। उस पर भी दोनों तरफ विद्याधर श्रेणियां हैं। उन पर यहीं के समान विद्याधर रहते हैं। अंतर इतना ही है कि उस पर्वत की गुफा में रक्ता-रक्तोदा नाम की नदियां प्रवेश कर बाहर निकल कर ऐरावत क्षेत्र में बहती हैं। ये नदियां शिखरी पर्वत के पुण्डरीक सरोवर से निकलती हैं। धातकीखण्ड में दो भरत, दो ऐरावत हैं। ऐसे ही पुष्करार्ध द्वीप में भी दो भरत, दो ऐरावत हैं। इसमें भी विद्याधरों के नगर बने हुए हैं। इन पांचों ही भरत और पांचों ही ऐरावत क्षेत्रों के आर्यखण्ड में षट्काल परिवर्तन होता रहता है। इन विजयार्ध पर्वत की विद्याधर श्रेणियों में रहने वाले विद्याधर मनुष्यों में क्रम से अवसर्पिणी में चतुर्थकाल की आदि से लेकर अन्त तक हानि होती है और उत्सर्पिणी में तृतीय काल के प्रारंभ से लेकर अन्त तक वृद्धि होती है। अवसर्पिणी के चतुर्थकाल की आदि में एक कोटि पूर्व वर्षों की उत्कृष्ट आयु है और शरीर की ऊंचाई ५०० धनुष प्रमाण है तथा अंत में १२० वर्ष की उत्कृष्ट आयु है और शरीर की ऊंचाई ७ हाथ प्रमाण रह जाती है। फिर यहां के पंचमकाल, छठे काल, वापस उत्सर्पिणी के प्रथम, द्वितीय काल, इन चारों कालों के २१-२१ हजार मिलकर ८४ हजार वर्षों तक यही जघन्य आयु और जघन्य अवगाहना बनी रहती है पुन: वृद्धि होते हुए उत्सर्पिणी के तृतीय काल के अंत में कोटिपूर्व वर्ष की आयु और ५०० धनुष की अवगाहना हो जाती है पुन: चतुर्थ, पंचम और छठे काल तक वही स्थिति बनी रह जाती है। फिर जब यहां आर्यखंड में अवसर्पिणी का चौथा काल आता है और ह्रास होना शुरू होता है तब इन विद्याधरों में भी आयु, अवगाहना आदि का ह्रास होने लगता है। तभी तो चतुर्थकाल में यहां के मनुष्यों के उन विद्याधर मनुष्यों के साथ सम्बन्ध होते रहते हैं। विदेहक्षेत्र में कच्छा आदि ३२ विदेह देशों में ३२ विजयार्ध हैं। ये भी ५० योजन चौड़े हैं और २५ योजन ऊंचे हैं। इन पर दोनों बाजू में ५५-५५ नगरियां हैं, उनमें भी विद्याधर मनुष्य रहते हैं। इन विदेहों के विद्याधरों में सदा ही चतुर्थकाल के प्रारम्भ जैसी ही स्थिति रहती है, काल परिवर्तन नहीं होता है। जंबूद्वीप में एक भरत, एक ऐरावत के ऐसे दो तथा विदेह के ३२, ऐसे ३४ विजयार्ध हैं। ऐसे धातकीखंड में दो भरत, दो ऐरावत और ६४ विदेह के ६४, ऐसे ६८ विजयार्ध हैं तथा पुष्करार्ध में भी ६८ हैं। कुल मिलाकर ६४±६८±६८·१७० विजयार्ध पर्वत हैं। प्रत्येक विद्याधरों की २-२ श्रेणी होने से १७०²२·३४० विद्याधर श्रेणियां हैं। ये सभी विद्याधर स्त्री-पुरुष आकाशगामी, रूपपरिवर्तिनी आदि विद्याओं के बल से अपने विमानों में बैठकर आकाशमार्ग से सर्वत्र विचरण किया करते हैं। सुमेरु पर्वत आदि अकृत्रिम चैत्यालयों की वंदना करते रहते हैं और जिनेन्द्रदेव की तथा निग्र्रंथ गुरुओं की भक्ति में तत्पर रहते हैं। वहां जैनधर्म के सिवाय अन्य कोई धर्म नहीं है और निग्र्रंथ गुरुओं के सिवाय अन्य कोई गुरु नहीं हैं। वहां पर हमेशा ही केवली, श्रुतकेवली, महामुनि, आर्यिका, श्रावक और श्राविकागण विद्यमान रहते हैं। लवण समुद्र में अनेक द्वीप हैं जिनमें इस भरतक्षेत्र के विजयार्ध के विद्याधर लोग रहते हैं। रावण के पूर्वज भी यहीं से गये थे। इस बात का खुलासा पद्मपुराण में है।१ यथा- भरतक्षेत्र के विजयार्ध की दक्षिण श्रेणी में एक चक्रवाल नाम का नगर है। उसमें पूर्णधन विद्याधर राजा था। शत्रुओं ने उसे मार दिया। अनंतर उसके पुत्र मेघवाहन को उस चक्रवाल नगर से निर्वासित कर दिया। वह मेघवाहन दु:खी हो भगवान अजितनाथ के समवशरण में आ गया, उसके शत्रु भी उसका पीछा करते हुए वहीं पर आ गये किन्तु समवशरण में सब शांतभाव को प्राप्त हो गए। वहीं पर व्यंतर देवों में से राक्षस जाति के देवों के इन्द्र, भीम और सुभीम ने प्रसन्न होकर मेघवाहन से कहा कि-इस लवण समुद्र में अतिशय सुन्दर हजारों महाद्वीप हैं, उनमें एक राक्षस द्वीप है, वह ७०० योजन लम्बा-चौड़ा है। इसके बीच में त्रिवूâटाचल पर्वत है। इसके नीचे ३० योजन विस्तृत लंका नगरी है। उसमें बड़े-बड़े जिनमंदिर, सरोवर, उद्यान आदि शोभित हैं, उसमें जाकर तुम रहो, इत्यादि प्रकार से कहकर भीम इन्द्र ने मेघवाहन को एक देवाधिष्ठित हार भी दिया। उसे प्राप्तकर यह मेघवाहन अपने भाई-बन्धुओं सहित वहां जाकर लंका नगरी में रहने लगा।२ इन्हीं के वंश में रावण विद्याधर हुआ है। ऐसे ही वानरवंशियों का कथन है। यथा- विजयार्ध पर्वत की दक्षिण श्रेणी में मेघपुर न गर है। वहां श्रीकंठ राजा रहता था। लंका के राजा कीर्तिधवल इसके बहनोई थे। एक बार शत्रुओं से त्रसित श्रीकंठ को कीर्तिधवल ने कहा-विजयार्ध पर्वत पर तुम्हारे बहुत से शत्रु हैं अत: इस लवण समुद्र के बीच वायव्य दिशा में ३०० योजन विस्तृत एक वानर द्वीप है,१ वहां जाकर रहो। तब इस श्रीकंठ ने वहां जाकर किष्कुपर्वत पर एक किष्कुपुर नामका नगर बसाया और वहीं रहने लगा। वहां बन्दर बहुत थे, उनके साथ क्रीड़ा करने से बन्दर के चिन्ह को मुकुट आदि में धारण करने से इन्हीं के वंशज वानरवंशी कहलाए हैं। म्लेच्छ खण्ड के मनुष्य-गंगा-सिन्धु नदी और विजयार्ध पर्वत से भरतक्षेत्र के छह खंड हो गये हैं, जिनमें दक्षिण और उत्तर के ३-३ खंड हैं। दक्षिण भरत के मध्य का आर्यखंड है, शेष पांचों म्लेच्छ खण्ड हैं। उत्तर भरत के ३ म्लेच्छखंडों में से मध्य के खंड के ठीक बीच में एक वृषभाचल पर्वत है। यह १०० योजन ऊंचा है, भूतल पर १०० योजन विस्तृत है और घटते हुए ऊपर में ५० योजन विस्तृत है। इस पर वृषभ नाम का व्यंतर देव रहता है। उसके भवन में जिनमंदिर है।२ भरतक्षेत्र के भरत आदि चक्रवर्तियों ने छह खंड जीतकर इसी पर्वत पर जाकर अपनी विजय प्रशस्ति लिखी है। ऐसे ही ऐरावत क्षेत्र में भी पांच म्लेच्छखंड हैं तथा ३२ विदेहों में भी ५-५ म्लेच्छखंड हैं।३ इस प्रकार ५ भरत, ५ ऐरावत और १६० विदेहों के ५-५ म्लेच्छखंड हैं अतः कुल (१७०²५·८५०) ८५० म्लेच्छ खण्ड हैं। इनमें भी मनुष्य रहते हैं, वे कर्मभूमिज हैं। भरत, ऐरावत के १०²५·५० म्लेच्छखंडों में चतुर्थकाल की आदि से लेकर अंत तक का परिवर्तन होता है, शेष ८०० में नहीं।४ चूंकि चतुर्थकाल में चक्रवर्ती सम्राट वहां की ३२००० कन्याओं से विवाह करते हैं। शेष जो विदेहक्षेत्र के म्लेच्छखंड हैं उनमें चतुर्थकाल की आदि जैसी ही व्यवस्था रहती है, काल परिवर्तन नहीं होता है। इन म्लेच्छखंडों में धर्म, कर्म से बहिर्भूत, नीच कुल से समन्वित, विषयासक्त और दुर्गति में जाने वाले म्लेच्छ मनुष्य रहते हैं।५ विदेहों के म्लेच्छखंड धर्मरहित हैं और धर्म कर्म से बहिर्भूत तथा खोटे कुलोत्पन्न म्लेच्छों से भरे हैं।६ आदिपुराण में कहा है कि ये लोग धर्मक्रियाओं से रहित हैं इसलिए म्लेच्छ माने गए हैं। धर्मक्रियाओं के सिवाय ये अन्य आचरणों से आर्यखण्ड में उत्पन्न होने वाले लोगों के समान हैं।७ ये म्लेच्छ राजा कुल परम्परागत देवों की उपासना भी करते हैं। यथा-चिलात और आवंत नाम के दो म्लेच्छ राजाओं ने भरत सम्राट के योद्धाओं को अपने देश पर आक्रमण करता हुआ जानकर कुल परम्परागत चले आए नागमुख और मेघमुख नाम के देवों का पूजन कर उनका स्मरण किया।८ इससे यह समझ में आता है कि वे म्लेच्छ राजा क्षत्रिय राजाओं के समान ही थे तभी चक्रवर्ती उनकी कन्याओं से विवाह करते थे।
पुष्करार्ध द्वीप पुष्करवर द्वीप का विस्तार सोलह लाख योजन है। यह द्वीप चारों तरफ से कालोदधि समुद्र को घेरे हुए है। इस द्वीप के ठीक बीच में मानुषोत्तर पर्वत स्थित है जो कि वलयाकार (चूड़ी के समान आकार वाला) है। इससे इस द्वीप के दो भाग हो जाने से इधर के आधे भाग को पुष्करार्ध कहते हैं। इस पुष्करार्ध में भी दक्षिण-उत्तर में एक-एक इष्वाकार पर्वत हैं। ये आठ लाख योजन लंबे, हजार योजन विस्तृत और ४०० योजन ऊंचे हैं। इन दोनों पर्वतों के निमित्त से इस पुष्करार्ध के भी पूर्व पुष्करार्ध और पश्चिम पुष्करार्ध ऐसे दो भेद हो गए हैं। पूर्व पुष्करार्ध में ठीक बीच में ‘मंदर’ नाम का मेरु पर्वत है और पश्चिम पुष्करार्ध में विद्युन्माली नाम का मेरु है। ये मेरु ८४ हजार योजन ऊंचे हैं। इनका सभी वर्णन धातकीखंड के मेरुओं के समान है। इन मेरुओं में भी सोलह-सोलह जिनमंदिर हैं और पांडुकवन में विदिशाओं में पांडुकशिला आदि शिलायें हैं जिन पर वहां के तीर्थंकरों का जन्माभिषेक महोत्सव मनाया जाता है। पूर्व पुष्करार्ध और पश्चिम पुष्करार्ध दोनों में भरत, हैमवत, हरि, विदेह, रम्यक, हैरण्यवत और ऐरावत नाम के सात क्षेत्र हैं। हिमवान्, महाहिमवान्, निषध, नील, रुक्मी और शिखरी नाम के छह पर्वत हैं। ये पर्वत चक्र के आरे के समान हैं और क्षेत्र आरे के अन्तराल के समान हैं। इनमें से विदेहक्षेत्र में सोलह वक्षार और बारह विभंगा नदियों के निमित्त से ३२ विदेह हो गये हैं। भरत और ऐरावत क्षेत्र के आर्यखंड में षट्काल परिवर्तन होता रहता है। बत्तीसों विदेहों में शाश्वत कर्मभूमि की व्यवस्था है अर्थात् वहां हमेशा चतुर्थकाल के प्रारम्भ जैसा ही काल रहता है। हैमवत, हरि, विदेह के अन्तर्गत देवकुरु, उत्तरकुरु, रम्यक और हैरण्यवत इन छह क्षेत्रों में सदा ही भोगभूमि की व्यवस्था रहती है। विदेहक्षेत्र में मेरु के दक्षिण में देवकुरु और उत्तर में उत्तरकुरु क्षेत्र हैं। उत्तरकुरु में ईशान कोण में पुष्कर-पद्म१ वृक्ष है तथा देवकुरु में शाल्मली वृक्ष है। ये वृक्ष जम्बूवृक्ष के सदृश ही पृथ्वीकायिक हैं और अपने परिवार वृक्षों से सहित हैं इसीलिए इन पुष्कर वृक्षों के निमित्त से इस द्वीप का पुष्करद्वीप नाम सार्थक है। यहां पर भी हिमवान आदि पर्वतों पर पद्म, महापद्म आदि छ: सरोवर हैं जिनसे गंगा-सिन्धु आदि चौदह नदियां निकलती हैं। इनमें से सात-सात नदियां मानुषोत्तर पर्वत की गुफा से बाहर होकर पुष्कर समुद्र में प्रवेश कर जाती हैं और सात-सात नदियां कालोद समुद्र की वेदिका के गुफाद्वारों से निकल कर कालोद समुद्र में प्रवेश कर जाती हैं। इन पद्म आदि सरोवरों में बने कमलों पर श्री, ह्री, धृति, कीर्ति, बुद्धि और लक्ष्मी नाम की देवियां अपने परिवार देवियों समेत निवास करती हैं। इस प्रकार से कुल व्यवस्था जम्बूद्वीप के समान ही यहां पर समझनी चाहिए। मात्र मेरु और वृक्ष के नाम में ही अन्तर है। इस तरह यहां पूर्व पुष्करार्ध में एक मन्दरमेरु के १६ चैत्यालय, गजदंत के ४ चैत्यालय, सोलह वक्षार के १६, चौंतीस विजयार्धों के ३४ और छ: कुलाचलों के ६, ऐसे ७८ जिनमन्दिर हैं। इसी तरह पश्चिम पुष्करार्ध में भी विद्युन्माली मेरु के १६ आदि सर्व ७८ जिनमन्दिर हैं तथा दो इष्वाकार के २ जिनमन्दिर हैं। ऐसे ७८±७८±२·१५८ जिनमंदिर पुष्करार्ध द्वीप में हैं। यहां जम्बूद्वीप के भरतक्षेत्र का विस्तार ५२६,६/१९ योजन मात्र है, वहां पुष्करार्ध द्वीप में भरतक्षेत्र का अभ्यंतर विस्तार ४१५७९,१७२/२१२ योजन है, मध्यम विस्तार ५३५१२,१९९/२१२ योजन है और बाह्य विस्तार ६५४४६,१२/२१२ योजन है। ऐसे ही अन्य क्षेत्रों का विस्तार भी बहुत बड़ा है। हिमवान् आदि पर्वतों की ऊँचाई जम्बूद्वीप के पर्वतों के समान है किन्तु विस्तार बहुत ही बड़ा है। यहां पुष्करार्ध द्वीप में ३४±३४·६८ कर्मभूमि हैं और ६±६·१२ भोगभूमि हैं, जहां पर मनुष्य रहते हैं। इस प्रकार से यहीं तक मनुष्य पाए जाते हैं, शेष द्वीपों में मनुष्य नहीं हैं। मानुषोत्तर पर्वत पुष्कर द्वीप के ठीक बीच में चूड़ी के समान आकार वाला मानुषोत्तर पर्वत है। इसकी ऊंचाई १७२१ (एक हजार सात सौ इ×ाâीस योजन है) मूल में इसकी चौड़ाई १०२२ योजन, मध्य में ७२३ योजन और ऊपर में ४२४ योजन प्रमाण है। इस पर्वत की नींव ४३० योजन, एक कोश है, इस पर्वत के शिखर पर दो कोश ऊंची और ४००० धनुष चौड़ी दिव्य मणिमय वेदी है। इस मानुषोत्तर पर्वत में चौदह महानदियों के निकलने के लिए चौदह गुफा द्वार बने हुए हैं, जिनसे पुष्करार्ध द्वीप की गंगा आदि नदियां निकलकर पुष्कर समुद्र में प्रवेश कर जाती हैं। इस मानुषोत्तर पर्वत पर नैऋत्य और वायव्य इन दो दिशाओं को छोड़कर पूर्व आदि चार दिशा और शेष दो विदिशा में पंक्ति रूप से तीन-तीन वूâट अवस्थित हैं। आग्नेय के तीन और ईशान के तीन, इन छह वूटों पर दिव्य प्रासाद बने हैं जिन पर गरुड़कुमार जाति के देव अपने वैभव के साथ रहते हैं। दिशागत अवशेष बारह वूâटों के प्रासादों की चारों दिशाओं में सुवर्ण कुमार के कुल में उत्पन्न हुई दिक्कुमारी देवांगनाएं रहती हैं। इन अठारहों वूâटों के अभ्यंतर भाग में अर्थात् मनुष्यलोक और पूर्व, दक्षिण, पश्चिम और उत्तर इन चारों दिशाओं में एक-एक वूâट हैं। इन वूटों पर अकृत्रिम जिनमन्दिर बने हुए हैं जो कि स्वर्ण एवं रत्नों से निर्मित हैं। इन मन्दिरों में देवों से पूज्य अकृत्रिम जिनप्रतिमायें विराजमान हैं। इन सभी वूâटों की ऊंचाई ५०० योजन है। मूल में चौड़ाई ५०० योजन है तथा ऊपर में चौड़ाई २५० योजन है। इस मानुषोत्तर पर्वत के बाहर कोई भी मनुष्य नहीं जा सकते हैं। चाहे वे विद्याधर मनुष्य हों, चाहे आकाशगामी ऋद्धिधारी महामुनीश्वर ही क्यों न हों इसलिए यह पर्वत मनुष्य लोक की सीमा निर्धारण करने वाला होने से ‘‘मानुषोत्तर’’ इस अन्वर्य नाम को धारण कर रहा है। केवली समुद्घात, मारणान्तिक समुद्घात और उपपाद जन्म वालों की अपेक्षा ही वहां मानुषोत्तर पर्वत के बाहर मनुष्य का अस्तित्व मान लिया गया है१। इसी बात को आचार्य श्री उमास्वामी महाराज ने स्पष्ट किया है। ‘‘प्राङ्मानुषोत्तरान्मनुष्या।।३५।।’’ मानुषोत्तर पर्वत के इधर ही मनुष्य रहते हैं। श्री अकलंक देव ने इसे भाष्य में कहा है कि- ‘‘जम्बूद्वीप से प्रारम्भ करके मानुषोत्तर पर्वत के पहले-पहले (इधर के भाग में) ही मनुष्य हैं, इस पर्वत के बाहर नहीं हैं। यही मानुषोत्तर पर्वत का व्याख्यान है। इसके उत्तर भाग में-बाहर में केवली समुद्घात, मरणांतिक समुद्घात और उपपाद को छोड़कर कदाचित् भी विद्याधर और ऋद्धिप्राप्त मनुष्य (महामुनि) भी नहीं जा सकते हैं। इसलिए इसका ‘‘मानुषोत्तर’’ यह सार्थक नाम है१।’’ उपपाद - कोई जीव मानुषोत्तर पर्वत से बाहर का तिर्यंच है या देव है। वह यदि वहां से मरा और उसके मनुष्यगति नामकर्म का उदय आ गया। वहां से विग्रहगति में एक, दो समय के बाद ही यहां मनुष्य लोक में जन्म लेगा, मात्र वहां उसके मनुष्यगति और मनुष्य आयु कर्म का उदय ही आया है। इसे उपपाद कहते हैं। इस अपेक्षा से कदाचित् वहां मनुष्यों का अस्तित्व है। समुद्घात - केवली भगवान जब दण्ड, कपाट, प्रतर और लोकपूरण समुद्घात करते हैं, उस समय उनके प्रदेश मानुषोत्तर के बाहर चले जाते हैं। ऐसे ही मरण के अंतर्मुहूर्त पहले कदाचित् किसी मनुष्य को वहां बाहर में जन्म लेना है, यदि उसके मारणांतिक समुद्घात होता है तो उसकी आत्मा के कुछ प्रदेश वहां जाकर जन्म लेने योग्य प्रदेश का स्पर्श कर वापस यहां मनुष्य के शरीर में आ जाते हैं। इस अपेक्षा से भी वहां मनुष्य का अस्तित्त्व मान लिया गया है। बाकी कोई भी मनुष्य किसी भी स्थिति में इस पर्वत से बाहर नहीं जा सकते हैं। यही कारण है कि इस पर्वत के बाहर नंदीश्वर द्वीप के दर्शनों का सौभाग्य मनुष्यों को नहीं मिल पाता है वहां मात्र देवगण ही जाते हैं। यह मानुषोत्तर पर्वत एक हजार सात सौ इक्कीस योजन मात्र ही ऊंचा है जबकि सुमेरु पर्वत इस चित्रा पृथ्वी से ९९ हजार योजन ऊंचा है, फिर भी विद्याधर मनुष्य और आकाशगामी चारणऋद्धिधारी मुनिगण निन्यानवे हजार योजन की ऊंचाई पर पांडुकवन के चैत्यालयों की वंदना कर आते हैं किन्तु इस मानुषोत्तर पर्वत का उल्लंघन नहीं कर सकते हैं। इसमें नियोग ही एक मात्र कारण है, ऐसा समझना चाहिए। मानुषोत्तर के बाहर असंख्यात द्वीपों में क्या है ? मानुषोत्तर के बाहर सभी द्वीपों में केवल भद्र परिणामी तिर्यंच ही हैं अन्य कोई नहीं हैं इसीलिए आगम में इसे तिर्यग्लोक कहा है। यह तिर्यग्लोक मनुष्यों से रहित है और असंख्यात तिर्यंचों से भरा हुआ है।१ ये सभी तिर्यंच भोगभूमिज हैं। यहाँ पर विशेष बात यह समझने की है कि इस मध्यलोक में असंख्यात द्वीप, समुद्र हैं अर्थात् २५ कोड़ाकोड़ी पल्योपम में जितने रोम हैं, उतने प्रमाण ही द्वीप, समुद्र हैं। इन द्वीप, समुद्रों में सबसे बड़ा अंतिम स्वयंभूरमण नाम का द्वीप है। इस द्वीप को वेष्टित करके असंख्यात योजन वाला स्वयंभूरमण नाम का समुद्र है। इस अंतिम द्वीप के ठीक मध्य में चूड़ी के समान आकार वाला नागेन्द्र नाम का एक पर्वत स्थित है। इस पर्वत के बाहर आधे स्वयंभूरमण द्वीप में और स्वयंभूरमण समुद्र में कर्मभूमि मानी गई है। वहाँ रहने वाले असंख्यातों तिर्यंच कर्मभूमियाँ हैं। ये प्राय: व्रूâर स्वभाव वाले हैं। इनमें से कुछ तिर्यंचों को सम्यक्त्व एवं कुछ तिर्यंचों को देशव्रत भी हो जाता है। वहाँ पर देवों के संबोधन से अथवा जातिस्मरण से ऐसा संभव है। इस नागेन्द्र पर्वत से इधर के आधे स्वयंभूरमण द्वीप में तथा मानुषोत्तर पर्वत से परे सभी असंख्यातों द्वीपों में जघन्य भोगभूमि की व्यवस्था है। वहां पर जन्म लेने वाले तिर्यंच युगल ही उत्पन्न होते हैं। ये सभी गर्भ से जन्म लेते हैं। पंचेन्द्रिय, भद्रपरिणामी हैं, व्रूâरता से रहित हैं और मृग आदि अच्छी जाति वाले हैं। ये एक पल्य की आयु के धारक एवं वैर भाव से रहित होते हैं। कल्पवृक्षों से उत्पन्न भोग सामग्री प्राप्त करते हैं एवं आयु के अंत में मरकर देवगति को ही प्राप्त करते हैं। जो मूढ़ जीव सम्यग्दर्शन और व्रतों से रहित हैं तथा कुपात्रों को दान देकर कुछ कुत्सित पुण्य संचित कर लेते हैं, वे ही जीव मरकर इस तिर्यंच भोगभूमि में उत्पन्न हो जाते हैं। उन जघन्य भोगभूमियों में कृमि, कुन्थु, मच्छर आदि तुच्छ जन्तु, व्रूâर परिणामी जीव एवं विकलत्रय प्राणी कभी भी उत्पन्न नहीं होते हैं।१ असंख्यात समुद्रों का जल वैâसा है ? लवण समुद्र के जल का स्वाद नमक सदृश खारा है। वारुणीवर समुद्र का जल मद्य के सदृश है। क्षीरवर समुद्र का जल दूध सदृश है, घृतवर समुद्र का जल घी के समान है। कालोदधि, पुष्करवर समुद्र और स्वयंभूरमण समुद्र का जल, जल जैसे स्वाद वाला है। इन सात समुद्रों के सिवाय शेष सभी असंख्यात समुद्रों का जल इक्षुरस सदृश मधुर और सुस्वादु है। लवण समुद्र, कालोदधि और स्वयंभूरमण समुद्र में ही जलचर जीव हैं। शेष समुद्रों में मगरमच्छ आदि जलचर जन्तु नहीं हैं और न भोगभूमियों में विकलत्रय जीव ही होते हैं। इस प्रकार से यहां पर मानुषोत्तर पर्वत का वर्णन किया है तथा उसके बाहर असंख्यात द्वीप-समुद्रों में क्या-क्या हैं, सो भी संक्षेप में बताया गया है।
धातकीखण्ड मध्यलोक में सबसे बीच में थाली के समान गोल आकार वाला जम्बूद्वीप है। यह एक लाख योजन विस्तृत है। इसे चारों तरफ से घेरकर दो लाख विस्तृत लवण समुद्र है। इसको चारों तरफ से घेरकर धातकीखण्ड द्वीप है। यह चार लाख योजन विस्तार वाला है। जगती परकोटा - इस धातकीखण्ड को चारों तरफ से वेष्ठित करके आठ योजन ऊंची जगती है। यह परकोटे के समान है। इसका विस्तार मूल में १२ योजन, मध्य में ८ योजन और ऊपर में ४ योजन है। यह जगती मध्य में बहुत प्रकार से रत्नों से निर्मित और शिखर पर वैडूर्य मणियों से परिपूर्ण है। इस जगती के मूल प्रदेश में पूर्व-पश्चिम की ओर सात-सात गुफाएं हैं जो उत्कृष्ट तोरणों से रमणीय, अनादिनिधन एवं सुन्दर हैं। इन गुफाओं से गंगा आदि १४ नदियां निकलकर कालोदधि समुद्र में प्रवेश करती हैं। पहले लवण समुद्र को भी वेष्ठित करके एक जगती है जो कि इसी प्रमाण से सहित है। उसमें भी पूर्व-पश्चिम ७-७ गुफायें हैं। पूर्व धातकीखण्ड की नदियां जो पूर्व में बहने वाली हैं, वे कालोदधि में प्रवेश करती हैं और जो पश्चिम में बहने वाली हैं, वे लवण समुद्र में प्रवेश करती हैं। ऐसे ही पश्चिम धातकीखण्ड की नदियां ७ लवण समुद्र में और ७ कालोद समुद्र में प्रवेश करती हैं। इस जगती के चार योजन विस्तार वाले ऊपर के भाग पर ठीक बीच में सुवर्णमय वेदिका है। यह दो कोश ऊंची, पांच सौ धनुष प्रमाण चौड़ी है। इस वेदिका के अभ्यंतर पाश्र्व में महोरग जाति के व्यंतर देवों के भवन बने हुए हैं। इस जगती में पूर्व, दक्षिण, पश्चिम और उत्तर की दिशा में क्रम से विजय, वैजयंत, जयंत और अपराजित नाम के चार मुख्य द्वार हैं। ये प्रत्येक द्वार आठ योजन ऊंचे और चार योजन चौड़े हैं, वज्रमयी हैं तथा अपने-अपने नाम के ही व्यंतर देवों से रक्षित हैं। इष्वाकार पर्वत - इस द्वीप में दक्षिण और उत्तर भाग में इष्वाकार नाम के दो पर्वत हैं। ये इषु-बाण के समान लम्बे होने से सार्थक नाम वाले हैं। हजार योजन चौड़े और क्षेत्र के विस्तार बराबर अर्थात् चार लाख योजन लम्बे हैं तथा चार सौ योजन ऊंचे हैं। इनका वर्ण सुवर्णमय है और इन पर चार-चार वूâट स्थित हैं। एक-एक वूâट पर जिन मन्दिर और शेष तीन-तीन पर देवों के भवन बने हुए हैं। इन इष्वाकार के निमित्त से धातकीखण्ड के पूर्व धातकीखण्ड और पश्चिम धातकीखण्ड ऐसे दो भेद हो गए हैं। पूर्व धातकीखण्ड - इस पूर्व धातकीखण्ड में हिमवान्, महाहिमवान्, निषध, नील, रुक्मी और शिखरी ये छह पर्वत हैं और भरत, हैमवत, हरि, विदेह, रम्यक, हैरण्यवत और ऐरावत ये सात क्षेत्र हैं। इन पर्वतों के पद्म आदि सरोवरों में कमलों पर श्री, ह्री, धृति, कीर्ति, बुद्धि और लक्ष्मी ये छह देवियां अपने परिवार सहित रहती हैं जो कि तीर्थंकर की माता की सेवा के लिए आती हैं। इन्हीं पद्म आदि सरोवरों से गंगा, सिन्धु, रोहित, रोहितास्या, हरित, हरिकान्ता, सीता, सीतोदा, नारी, नरकान्ता, सुवर्णवूâला, रूप्यवूâला और रक्ता, रक्तोदा ये चौदह महानदियां निकलती हैं जो अपनी-अपनी परिवार नदियों के साथ क्षेत्रों में बहती हुई समुद्र में प्रवेश कर जाती हैं। हिमवान एवं शिखरी पर्वत पर ११-११ वूâट हैं, महाहिमवान एवं रुक्मी पर ८-८ वूâट हैं एवं निषध, नील पर ९-९ वूट हैं। इनमें से १-१ जिनमंदिर शेष में देव देवियों के भवन हैं। भरतक्षेत्र के छह खण्ड-यहां के भरतक्षेत्र में भी ठीक बीच में पूर्व-पश्चिम लम्बा विजयार्ध पर्वत है, यह तीन कटनी वाला है। इसमें प्रथम कटनी पर विद्याधर मनुष्य रहते हैं, द्वितीय कटनी पर आभियोग्य जाति के देवों के नगर बने हुए हैं और तृतीय कटनी पर नववूâट हैं जिसके एक वूâट पर जिनमन्दिर और शेष ८ पर देवों के भवन बने हुए हैं। हिमवान पर्वत के पद्म सरोवर से गंगा-सिन्धु नदी निकलकर नीचे गिरकर विजयार्ध पर्वत की गुफाओं से बाहर आकर भरतक्षेत्र में बहती हुई, इस भरतक्षेत्र में छह खण्ड कर देती है। इसमें इष्वाकार की तरफ के तीन खण्डों के बीच का जो खण्ड है वह आर्यखण्ड है। शेष पांच म्लेच्छ खण्ड हैं। षट्काल परिवर्तन - इस आर्यखण्ड में सुषमा-सुषमा आदि छहों कालों का परिवर्तन होता रहता है। आज वहां भी पंचमकाल चल रहा है। चूंकि तीर्थंकर नेमिनाथ के समय यहां से द्रौपदी का अपहरण कर एक देव धातकीखंड के भरतक्षेत्र के आर्यखण्ड में एक कंकापुरी नाम की नगरी है वहां के राजा के यहां पहुंचा आया था बाद में नारद के द्वारा ज्ञात होने पर श्रीकृष्ण अपने विद्या के प्रभाव से देवता को वश में करके उसकी सहायता से पांचों पांडवों को साथ लेकर वहाँ पहुँचे थे और राजा को पराजित कर द्रौपदी को वापस ले आये थे। इस उदाहरण से बिल्कुल स्पष्ट है कि यहां भरतक्षेत्र में जो भी काल परिवर्तन, जिस गति से चल रहा है, ऐसा ही वहाँ है। चूंकि उस समय यहाँ की शरीर की अवगाहना के समान ही वहां के शरीर की अवगाहना १० धनुष (४० हाथ) प्रमाण ही होगी, तभी तो यहां से द्रौपदी का वहां अपहरण कराना संभव था अन्यथा असंभव था। इस जम्बूद्वीप का भरतक्षेत्र ५२६ योजन है और धातकीखण्ड का भरतक्षेत्र ६६१४, १२९/२१२ योजन है। वहां के क्षेत्र चक्र के विवर के समान होने से मध्य का विस्तार १२५८१,३६/२१२ योजन है और बाह्य विस्तार १८५४७,१५५/२१२ योजन है। यहां के भरतक्षेत्र की अपेक्षा वहां का भरतक्षेत्र बहुत गुना अधिक है। इस धातकीखण्ड के ऐरावत क्षेत्र में भी ऐसे ही छह खण्ड हैं और वहां पर भी आर्यखण्ड में षट्काल परिवर्तन होता रहता है। भोगभूमि - यहाँ धातकीखण्ड में भी हैमवत और हैरण्यवत क्षेत्र में जघन्य भोगभूमि है। हरि और रम्यक क्षेत्र में मध्यम भोगभूमि है और विदेह के दक्षिण-उत्तर में देवकुरु क्षेत्र में उत्तम भोगभूमि की व्यवस्था है। ये छहों भोगभूमियां शाश्वत हैं। विजयमेरु - इसी पूर्व धातकीखण्ड में विदेहक्षेत्र के ठीक बीच में विजयमेरु नाम का पर्वत है। यह चौरासी हजार योजन ऊंचा है और पृथ्वीतल पर चौरानवे सौ ‘‘९४००’’ योजन विस्तृत है। इस मेरु का विस्तार शिखर तल पर हजार योजन है और इसकी चूलिका चालीस योजन ऊंची नील मणिमय है। यह सुदर्शन मेरु की चूलिका के समान ही है। इस मेरु में भी भूतल पर भद्रशाल वन है। इससे ५०० योजन ऊपर जाकर नंदनवन है, इससे ५५,५०० योजन ऊपर जाकर सौमनस वन है और इसके ऊपर २८००० योजन जाकर पांडुकवन है। इस पर्वत पर भद्रशाल, नंदन, सौमनस और पांडुकवनों में चार-चार चैत्यालय होने से सोलह जिन चैत्यालय हैं। इसमें भी पांडुकवन की विदिशाओं में पांडुकशिला, पांडुकंबला, रक्ता और रक्तकंबला नाम की चार शिला हैं। इन पर भरत, पूर्व विदेह, पश्चिम विदेह और ऐरावत के तीर्थंकरों का जन्माभिषेक मनाया जाता है। गजदंत - इस मेरु के भूतल पर चारों विदिशाओं में चार गजदंत पर्वत हैं। ये दक्षिण में मेरु से लेकर निषध तक लम्बे हैं और उत्तर में भी मेरु से लेकर नील पर्वत तक लम्बे हैं। इन प्रत्येक वूटों पर एक-एक जिनमंदिर और शेष कूटों पर देवभवन हैं। धातकी वृक्ष - विजयमेरु के दक्षिण में दोनों गजदंत के बीच में देवकुरु क्षेत्र है और उत्तर में उत्तरकुरु नाम का क्षेत्र है। दोनों क्षेत्रों में जम्बूवृक्ष-शाल्मीवृक्ष के सदृश धातकी वृक्ष ‘‘आंवले के वृक्ष’’ स्थित हैं। ये वृक्ष पृथ्वीकायिक हैं। एक धातकीवृक्ष के परिवार वृक्ष जम्बूवृक्ष से दूने होने से जम्बूवृक्ष (१४०१२०²२·२,८०,२४०) दो लाख, अस्सी हजार, दो सौ चालीस हैं। दोनों के परिवार वृक्ष ५,६०,४८० हो जाते हैं।२ इन वृक्षों पर सम्यक्त्व रूपी रत्न से संयुक्त और उत्तम आभूषणों से भूषित आकृति को धारण करने वाले प्रभास और प्रियदर्शन नाम के दो अधिपति देव निवास करते हैं। परिवार वृक्षों के भवनों पर उनके परिवार देव रहते हैं। इनमें दो मूल वृक्षों की शाखा पर एक-एक जिनमंदिर हैं। शेष वृक्षों पर भी देवों के भवनों में जिनमंदिर हैं। पूर्व-पश्चिम विदेह - यहां धातकीखंड में भी विजयमेरु के पूर्व भाग में जो विदेह है उसे पूर्वविदेह कहते हैं और पश्चिमभाग में पश्चिमविदेह है। पूर्व विदेह में भद्रशालवन की वेदी के बाद चार वक्षार सीता नदी के उत्तर तट पर और चार वक्षार दक्षिण तट पर हैं। तीन-तीन विभंगा नाqदयां हैं। इनके अंतराल में सोलह विदेहक्षेत्र हो जाते हैं। ऐसे ही सोलह विदेहक्षेत्र पश्चिम विदेहक्षेत्र में भी हैं। इस प्रकार से पूर्व धातकीखंड के बत्तीस विदेह, सोलह वक्षार और बारह विभंगा नदियां हैं। प्रत्येक विदेहक्षेत्र में भी विजयार्ध और गंगा-सिन्धु नदी के निमित्त से छह-छह खण्ड हो जाते हैं। प्रत्येक के आर्यखंड में कर्मभूमि हैं। यहां विदेह में शाश्वत कर्मभूमि होने से सदाकाल चतुर्थकाल के आदि जैसा ही परिवर्तन रहता है। पूर्वधातकीखंड के अकृत्रिम चैत्यालय विजयमेरु के १६, चार गजदंत के ४, दो धातकी वृक्ष के २, १६ वक्षार के १६, ३४ विजयार्ध के ३४, ६ कुलाचल के ६·७८, ऐसे अट्ठत्तर अकृत्रिम जिनचैत्यालय हैं। इनके अतिरिक्त यहां पर ३४ आर्यखंडों में चक्रवर्ती आदि मनुष्यों द्वारा निर्मापित अगणित कृत्रिम जिनमंदिर हैं। इस प्रकार संक्षेप में पूर्वधातकीखंड का वर्णन किया है। पश्चिमधातकीखंड - इस पश्चिमधातकीखण्ड में भी दक्षिण से लेकर उत्तर तक भरत, हैमवत, हरि, विदेह, रम्यव्, हैरण्यवत और ऐरावत ये सात क्षेत्र हैं। हिमवान्, महाहिमवान्, निषध, नील, रुक्मी और शिखरी नाम के ही छह कुल पर्वत हैं। इनकी लंबाई, चौड़ाई, ऊंचाई आदि पूर्वधातकीखण्ड के क्षेत्र, पर्वतों के समान ही है। इन पर्वतों पर पद्म आदि छह सरोवर हैं। उनमें कमलों पर श्री आदि छह देवियां निवास करती हैं। इन छह सरोवरों से गंगा, सिन्धु आदि चौदह महानदियां निकलती हैं जो कि भरत आदि सात क्षेत्रों में बहती हैं। यहां पर भी भरत, ऐरावत में छह खंडों में से आर्यखंड में षट्काल परिवर्तन होता रहता है। विदेहक्षेत्र में मध्य में अचल नाम का मेरु है जो कि ८४ हजार योजन ऊंचा है। उसमें भी भद्रसाल, नन्दन, सौमनस और पांडुकवनों में चार-चार मिलाकर १६ चैत्यालय हैं। मेरु की पांडुकशिला आदि चार शिलायें हैं, उन पर वहीं के भरत, ऐरावत और पूर्व-पश्चिम विदेह के तीर्थंकरों का जन्माभिषेक होता है। मेरु के भूतल पर चारों विदिशाओं में चार गजदंत पर्वत हैं। प्रत्येक पर एक-एक जिनमंदिर हैं और शेष पर देवभवन हैं। मेरु के दक्षिण-उत्तर में देवकुरु-उत्तरकुरु क्षेत्र हैं तथा पूर्व-पश्चिम में पूर्वविदेह-पश्चिम विदेह हैं। इन विदेहों मे भी १६ वक्षार और १२ विभंगा नदियों से ३२ क्षेत्र हो गये हैं। प्रत्येक क्षेत्र में विजयार्ध पर्वत और गंगा-सिन्धु नदियों से छह-छह खण्ड हो जाते हैं। वहां पर विदेह के प्रत्येक ३२ आर्यखण्ड में सदा ही चतुर्थकाल की आदि जैसी व्यवस्था रहती है इसीलिए इन्हें शाश्वत कर्मभूमि कहते हैं। इस प्रकार यहां पश्चिमधातकीखंड में भरत-ऐरावत और बत्तीस विदेहों को मिलाकर ३४ आर्यखंड हैं। हैमवत और हैरण्यवत क्षेत्र में सदा मध्यम भोगभूमि है और देवकुरु-उत्तरकुरु में सदा उत्तम भोगभूमि है तथा इन्हीं देवकुरु-उत्तरकुरु में धातकीवृक्ष भी हैं जो कि पृथ्वीकायिक, अनादिनिधन हैं। अकृत्रिम चैत्यालय-यहां पर भी अचलमेरु के १६, गजदन्त के ४, धातकी वृक्षों के २, सोलह वक्षार के १६, चौंतीस विजयार्धों के ३४, षट् कुलाचलों के ६·७८, ऐसे अट्ठत्तर अकृत्रिम जिनमंदिर हैं। तथा पूर्वधातकीखंड और पश्चिमधातकीखंड को विभाजित करने वाले दक्षिण-उत्तर में जो दो लम्बे इष्वाकार पर्वत बताये गये हैं उन पर भी एक-एक जिनमंदिर हैं। ऐसे ये अकृत्रिम दो मंदिर यहां धातकीखंड- द्वीप में हो जाते हैं। इस प्रकार धातकीखंड का संक्षिप्त वर्णन किया गया है।

लवण समुद्र लवण समुद्र जम्बूद्वीप को चारों ओर से घेरे हुए खाई के सदृश गोल है, इसका विस्तार दो लाख योजन प्रमाण है। एक नाव के ऊपर अधोमुखी दूसरी नाव के रखने से जैसा आकार होता है उसी प्रकार वह समुद्र चारों ओर आकाश में मण्डलाकार से स्थित है। उस समुद्र का विस्तार ऊपर दस हजार योजन और चित्रापृथ्वी के समभाग में दो लाख योजन है। समुद्र के नीचे दोनों तटों में से प्रत्येक तट से पंचानवे हजार योजन प्रवेश करने पर दोनों ओर से एक हजार योजन की गहराई में तल विस्तार दस हजार योजन मात्र है१। समभूमि से आकाश में इसकी जलशिखा है, यह अमावस्या के दिन समभूमि से ११००० योजन प्रमाण ऊंची रहती है। वह शुक्ल पक्ष में प्रतिदिन क्रमश: वृद्धि को प्राप्त होकर पूर्णिमा के दिन १६००० योजन प्रमाण ऊंची हो जाती है। इस प्रकार जल के विस्तार में १६००० योजन की ऊंचाई पर दोनों ओर समानरूप से १९०००० योजन की हानि हो गई है। यहां प्रतियोजन की ऊंचाई पर होने वाली वृद्धि का प्रमाण ११,७/८ योजन प्रमाण है। गहराई की अपेक्षा रत्नवेदिका से ९५ प्रदेश आगे जाकर एक अंगुल, ९५ हाथ जाकर एक हाथ, ९५ कोस जाकर एक कोस एवं ९५ योजन जाकर एक योजन की गहराई हो गई है। इसी प्रकार से ९५ हजार योजन जाकर १००० योजन की गहराई हो गई है अर्थात् लवण समद्र के समजल भाग में समुद्र का जल १ योजन नीचे जाने पर एक तरफ से विस्तार में ९५ योजन हानिरूप हुआ है। इसी क्रम से एक प्रदेश नीचे जाकर ९५ प्रदेशों की, १ अंगुल नीचे जाकर ९५ अंगुलों की, एक हाथ नीचे जाकर ९५ हाथों की भी हानि समझ लेना चाहिए। अमावस्या के दिन उक्त जलशिखा की ऊंचाई ११००० योजन होती है। पूर्णिमा के दिन वह उससे ५००० योजन बढ़ जाती है अत: ५००० के १५वें भाग प्रमाण क्रमश: प्रतिदिन ऊंचाई में वृद्धि होती है। १६०००-११०००/१५·५०००/१५,५०००/१५·३३३, १/३ योजन-तीन सौ तेतीस से कुछ अधिक प्रमाण प्रतिदिन वृद्धि होती है। समुद्र के मध्य में पाताल - लवण समुद्र के मध्य भाग में चारों ओर उत्कृष्ट, मध्यम और जघन्य ऐसे १००८ पाताल हैं। ज्येष्ठ पाताल ४, मध्यम ४ और जघन्य १००० हैं। उत्कृष्ट पाताल चार दिशाओं में ४ हैं, मध्यम पाताल ४ विदिशाओं में ४ एवं उत्कृष्ट मध्यम के मध्य में ८ अन्तर दिशाओं में १००० जघन्य पाताल हैं। ४ उत्कृष्ट पाताल- उस समुद्र के मध्य भाग में पूर्वादि दिशाओं के क्रम से पाताल, कदम्बक, बड़वामुख और यूपकेसर नामक चार पाताल हैं। इन पातालों का विस्तार मूल में और मुख में १०००० योजन प्रमाण है। इनकी गहराई, ऊंचाई और मध्य विस्तार मूल विस्तार से दस गुणा-१,००००० योजन प्रमाण है। पातालों की वज्रमय भित्तिका ५०० योजन मोटी है। ये पाताल जिनेन्द्र भगवान द्वारा अरंजन-घट विशेष के समान कहे गए हैं। पाताल के उपरिम त्रिभाग में घनी वायु और मध्य त्रिभाग में क्रम से जल, वायु दोनों रहते हैं। सभी पातालों के पवन सर्वकाल शुक्ल पक्षों में स्वभाव से बढ़ते हैं एवं कृष्णपक्ष में स्वभाव से घटते हैं। शुक्ल पक्ष में पूर्णिमा तक प्रतिदिन २२२२,२/९ योजन पवन की वृद्धि हुआ करती है। पूर्णिमा के दिन पातालों के अपने-अपने तीन भागों में से नीचे के दो भागों में वायु और ऊपर के तृतीय भाग में केवल जल रहता है। अमावस्या के दिन अपने-अपने तीन भागों में से क्रमश: ऊपर के दो भागों में जल और नीचे के तीसरे भाग में केवल वायु स्थित रहता है। पातालों के अन्त मेें अपने-अपने मुख विस्तार को ५ से गुणा करने पर जो प्राप्त हो, उतने प्रमाण आकाश में अपने-अपने पाश्र्व भागों में जलकण जाते हैं। ‘‘तत्त्वार्थराजवार्तिक’’ ग्रन्थ में जलवृद्धि का कारण किन्नरियों का नृत्य बतलाया है। यथा-‘‘रत्नप्रभाखरपृथ्वी-भागसन्निवेशिभवनालयवातकुमारतद्वनिताक्रीड़ा जनितानिलसंक्षोभकृतपातालोन्मीलननिमीलनहेतुकौ वायुतोयनिष्क्रमप्रवेशौ भवत:। तत्कृता दशयोजन-सहस्रविस्तारमुखजलस्योपरि पंचाशद्योजनावधृता जलवृद्धि:। तत् उभयत आरत्नवेदिकाया: सर्वत्र द्विगव्यूतिप्रमाणा जलवृद्धि:। पातालोन्मीलन-वेगोपशमेन हानि:१।’’ अर्थ - रत्नप्रभा पृथ्वी के खरभाग में रहने वाली वातकुमार देवियों की क्रीड़ा से क्षुब्ध वायु के कारण ५०० योजन जल की वृद्धि होती है अर्थात् वायु और जल का निष्क्रम और प्रवेश होता है और दोनों तरफ रत्नवेदिका पर्यन्त सर्वत्र दो गव्यूति प्रमाण जलवृद्धि होती है। पाताल के उन्मीलन के वेग की शान्ति से जल की हानि होती है। इन पातालों का तीसरा भाग १०००००/३·३३३३३,१/३ योजन प्रमाण है। ज्येष्ठ पाताल सीमंत बिल के उपरिम भाग में संलग्न है अर्थात् ये पाताल भी मृदंग के आकार सदृश गोल हैं, समभूमि से नीचे की गहराई का जो प्रमाण है वह इन पातालों की ऊंचाई है। यदि प्रश्न यह होवे कि १ लाख योजन तक इनकी गइराई समतल से नीचे वैâसे होगी तो उसका समाधान यह है कि रत्नप्रभा पृथ्वी एक लाख अस्सी हजार योजन मोटी है वहां खरभाग, पंकभाग पर्यन्त ये पाताल पहुँचे हुए ऊँचे (गहरे) हैं। ४ मध्यम पाताल - विदिशाओं में भी इनके समान चार पाताल हैं, उनका मुख विस्तार और मूल विस्तार १००० योजन तथा मध्य में और ऊंचाई-गहराई में १०००० योजन है, इनकी वज्रमय भित्ति ५० योजन प्रमाण है। इन पातालों के उपरिम तृतीय भाग में जल, नीचे के तृतीय भाग में वायु, मध्य के तृतीय भाग में जल, वायु दोनों रहते हैं। पातालों की गहराई-ऊंचाई १०००० योजन है। १००००/३·३३३३,१/३ पातालों का तृतीय भाग तीन हजार तीन सौ तेतीस से कुछ अधिक है। इनमें प्रतिदिन होने वाली जलवायु की हानि-वृद्धि का प्रमाण २२२,२/९ योजन है। १००० जघन्य पाताल - उत्तम, मध्यम, पातालों के मध्य में आठ अन्तर दिशाओं में एक हजार जघन्य पाताल हैं। इनके विस्तार आदि का प्रमाण मध्यम पातालों की अपेक्षा दसवें भाग मात्र है अर्थात् मुख औ र मूल में ये पाताल १०० योजन हैं। मध्य में चौड़े और गहरे १००० योजन प्रमाण हैं। इनमें भी उपरिम त्रिभाग में जल, नीचे में वायु और मध्य में जलवायु दोनों है। इनका त्रिभाग ३३३,१/३ योजन है और प्रतिदिन जलवायु की हानि-वृद्धि २२२/९ योजन मात्र है। नागकुमार देवों के १,४२,००० नगर - लवण समुद्र के बाह्य भाग में ७२०००, शिखर पर २८००० और अभ्यन्तर भाग में ४२००० नगर अवस्थित हैं। समुद्र के अभ्यन्तर भाग की वेला की रक्षा करने वाले वेलंधर नागकुमार देवों के नगर ४२००० हैं। जलशिखा को धारण करने वाले नागकुमार देवों के ७२००० नगर हैं१। ये नगर दोनों तटों से ७०० योजन जाकर तथा शिखर से ७००,१/२ योजन जाकर आकाशतल में स्थित हैं। इनका विस्तार १०००० योजन प्रमाण है। नगरियों के तट उत्तम रत्नों से निर्मित समान गोल हैं। प्रत्येक नगरियों में ध्वजाओं, तोरणों से सहित दिव्य तटवेदियां हैं। उन नगरियों में उत्तम वैभव से सहित वेलंधर और भुजग देवों के प्रासाद स्थित हैं। जिनमंदिरों से रमणीय वापिका, उपवनों से सहित इन नगरियों का वर्णन बहुत ही सुंदर है। ये नगरियां अनादिनिधन हैं। उत्कृष्ट पाताल के आसपास के ८ पर्वत - समुद्र के दोनों किनारों में बयालीस हजार योजन प्रमाण प्रवेश करके पातालों के पाश्र्व भागों में आठ पर्वत हैं। (ऊपर) तट से ४२००० योजन आगे समुद्र में जाकर ‘पाताल’ के पश्चिम दिशा में कौस्तुभ और पूर्व दिशा में कौस्तुभास नाम के दो पर्वत हैं, ये दोनों पर्वत रजतमय, धवल, १००० योजन ऊंचे, अर्थ घट के समान आकार वाले, वज्रमय, मूल भाग से सहित, नाना रत्नमय अग्रभाग से सुशोभित हैं। प्रत्येक पर्वत का तिरछा विस्तार एक लाख सोलह हजार योजन है इस प्रकार से जगती से पर्वतों तक तथा पर्वतों का विस्तार मिलाकर दो लाख योजन होता है। पर्वत का विस्तार १,१६००० है। जगती से पर्वत का अंतराल ४२०००±४२०००·८४०००,११६०००±८४०००·२,०००००२। ये पर्वत मध्य में रजतमय हैं। इनके ऊपर इन्हीं के नाम वाले कौस्तुभ-कौस्तुभास देव रहते हैं। इनकी आयु, अवगाहना आदि विजय देव के समान है। कदंबपाताल की उत्तर दिशा में उदक नामक पर्वत और दक्षिण दिशा में उदकाभास नामक पर्वत है, ये दोनों पर्वत नीलमणि जैसे वर्ण वाले हैं। इन पर्वतों के ऊपर क्रम से शिव और शिवदेव निवास करते हैं। इनकी आयु आदि कौस्तुभ देव के समान है। बड़वामुख पाताल की पूर्व दिशा में शंख और पश्चिम दिशा में महाशंख नामक पर्वत हैं। ये दोनों ही शंख के समान वर्ण वाले हैं। इन पर उदक, उदकावास देव स्थित हैं, इनका वर्णन पूर्वोक्त सदृश है। यूपकेसरी के दक्षिण भाग में दक नामक पर्वत और उत्तर भाग में दकवास नामक पर्वत हैै। ये दोनों पर्वत वैडूर्यमणिमय हैं। इनके ऊपर क्रम से लोहित, लोहितांक देव रहते हैं। ८ सूर्य द्वीप हैं - जम्बूद्वीप की जगती से बयालीस हजार योजन जाकर ‘सूर्यद्वीप’ नाम से प्रसिद्ध आठ द्वीप हैं।३ ये द्वीप पूर्व में कहे हुए कौस्तुभ आदि पर्वतों के दोनों पाश्र्व भागों में स्थित होकर निकले हुए मणिमय दीपकों से युक्त शोभायमान हैं। त्रिलोकसार में १६ ‘चन्द्रद्वीप’ भी माने गये हैं। यथा-अभ्यन्तर तट और बाह्य तट दोनों से ४२००० योजन छोड़कर चारों विदिशाओं के दोनों पाश्र्व भागों में दो-दो, ऐसे आठ ‘‘सूर्यद्वीप’’ हैं और दिशा-विदिशा के बीच में जो आठ अन्तर दिशायें हें उनके दोनों पाश्र्व भागों में दो-दो, ऐसे १६ ‘चन्द्रद्वीप’ नामक द्वीप हैं। ये सब द्वीप ४२००० योजन व्यास वाले और गोल आकार वाले हैं। यहां द्वीप से ‘टापू’ को समझना। समुद्र में गौतमद्वीप का वर्णन-लवण समुद्र के अभ्यन्तर तट से १२००० योजन आगे जाकर १२००० योजन ऊंचा एवं इतने ही प्रमाण व्यास वाला गोलाकार गौतम नामक द्वीप है जो कि समुद्र में ‘वायव्य’ विदिशा में है। ये उपर्युक्त सभी द्वीप वन, उपवन वेदिकाओं से रम्य हैं और ‘जिनमंदिर’ से सहित हैं। उन द्वीपों के स्वामी वेलंधर जाति के नागकुमार देव हैं। वे अपने-अपने द्वीप के समान नाम के धारक हैं। मागधद्वीप आदि का वर्णन - भरतक्षेत्र के पास समुद्र के दक्षिण तट से संख्यात योजन जाकर आगे मागध, वरतनु और प्रभास नाम के तीन द्वीप हैं अर्थात् गंगा नदी के तोरण द्वार से आगे कितने ही योजन प्रमाण समुद्र में जाने पर ‘मागध’ द्वीप है। जम्बूद्वीप के दक्षिण वैजयंत द्वार से कितने ही योजन समुद्र में जाने पर ‘वरतनु’ द्वीप है एवं सिन्धु नदी के तोरण से कितने ही योजन जाकर ‘प्रभास’ द्वीप है१। इन द्वीपों में इन्हीं नाम के देव रहते हैं। इन देवों को भरतक्षेत्र के चक्रवर्ती वश में करते हैं। ऐसे ही ऐरावत क्षेत्र के उत्तर भाग में, रक्तोदा नदी के पाश्र्व भाग में, समुद्र के अन्दर ‘मागध’ द्वीप, अपराजित द्वार से आगे ‘वरतनु’ द्वीप एवं रक्ता नदी के आगे कुछ दूर जाकर ‘प्रभास’ द्वीप है जो कि ऐरावत क्षेत्र के चक्रवर्तियों के द्वारा जीते जाते हैं। ४८ कुमानुष द्वीप लवण समुद्र में कुमानुषों के ४८ द्वीप हैं। इनमें से २४ द्वीप तो अभ्यन्तर भाग में एवं २४ द्वीप बाह्य भाग में स्थित हैं। जम्बूद्वीप की जगती से ५०० योजन आगे जाकर ४ द्वीप चारों दिशाओं में और इतने ही योजन जाकर चार द्वीप चारों विदिशाओं में हैं। जम्बूद्वीप की जगती से ५५० योजन आगे जाकर दिशा, विदिशा की अन्तर दिशाओं में ८ द्वीप हैं। हिमवान्, विजयार्ध पर्वत के दोनों किनारों में जगती से ६०० योजन जाकर ४ द्वीप एवं उत्तर में शिखरी और विजयार्ध के दोनों पाश्र्व भागों में ६०० योजन अन्दर समुद्र में जाकर ४ द्वीप हैं। दिशागत द्वीप १०० योजन प्रमाण विस्तार वाले हैं, ऐसे ही विदिशागत द्वीप ५५ योजन विस्तृत, अन्तर दिशागत द्वीप ५० योजन विस्तृत एवं पर्वत के पाश्र्वगत द्वीप २५ योजन विस्तृत हैं। ये सब उत्तम द्वीप वनखण्ड, तालाबों से रमणीय, फल फूलों के भार से संयुक्त तथा मधुर रस एवं जल से परिपूर्ण हैं। यहां कुभोगभूमि की व्यवस्था है। यहां पर जन्म लेने वाले मनुष्य ‘कुमानुष’ कहलाते हैं और विकृत आकार वाले होते हैं। पूर्वादिक दिशाओं में स्थित चार द्वीपों के कुमानुष क्रम से एक जंघा वाले, पूंछ वाले, सींग वाले और गूंगे होते हैं। आग्नेय आदि विदिशाओं के कुमानुष क्रमश: शष्कुलीकर्ण, कर्ण प्रावरण, लम्बकर्ण और शशकर्ण होते हैं। अन्तर दिशाओं में स्थित आठ द्वीपों के वे कुमानुष क्रम से सिंह, अश्व, श्वान, महिष, वराह, शार्दूल, घूक और बन्दर के समान मुख वाले होते हैं। हिमवान् पर्वत के पूर्व-पश्चिम किनारों में क्रम से मत्स्यमुख, कालमुख तथा दक्षिण विजयार्ध के किनारों में मेषमुख, गोमुख कुमानुष होते हैं। इन सब में से एकोरुक कुमानुष गुफाओं में रहते हैं और मिष्ट मिट्टी को खाते हैं। शेष कुमानुष वृक्षों के नीचे रहकर फल पूâलों से जीवन व्यतीत करते हैं। इस प्रकार से दिशागत द्वीप ४, विदिशागत ४, अन्तर दिशागत ८, पर्वत तटगत ८, ४±४±८±८·२४ अन्तद्र्वीप हुए हैं, ऐसे ही लवण समुद्र के बाह्य भाग के भी २४ द्वीप मिलकर २४±२४·४८ अन्तद्र्वीप लवण समुद्र में हैं।१ कुभोगभूमि में जन्म लेने के कारण - मिथ्यात्व में रत, मन्दकषायी, मिथ्या देवों की भक्ति में तत्पर, विषम पंचाग्नि तप करने वाले, सम्यक्त्व रत्न से रहित जीव मरकर कुमानुष होते हैं। जो लोग तीव्र अभिमान से गर्वित होकर सम्यक्त्व और तप से युक्त साधुओं का किंचित् अपमान करते हैं, जो दिगम्बर साधु की निन्दा करते हैं, ऋद्धि, रस आदि गौरव से युक्त होकर दोषों की आलोचना गुरु के पास नहीं करते हैं, गुरुओं के साथ स्वाध्याय, वंदना कर्म नहीं करते हैं, जो मुनि एकाकी विचरण करते हैं, क्रोध कलह से सहित हैं, अरहन्त गुरु आदि की भक्ति से रहित, चतुर्विध संघ में वात्सल्य से रहित, मौन बिना भोजन करने वाले हैं, जो पाप में संलग्न हैं, वे मृत्यु को प्राप्त होकर विषम परिपाक वाले, पाप कर्मों के फल से इन द्वीपों में कुत्सितरूप से युक्त कुमानुष उत्पन्न होते हैं१। त्रिलोकसार में भी यह कहा गया है-