HAVE YOU EVER THOUGHT ? Who Are You ? A Doctor ? An Engineer ? A Businessman ? A Leader ? A Teacher ? A Husband ? A Wife ? A Son ? A Daughter are you one, or so many ? these are temporary roles of life who are you playing all these roles ? think again ...... who are you in reality ? A body ? A intellect ? A mind ? A breath ? you are interpreting the world through these mediums then who are you seeing through these mediums. THINK AGAIN & AGAIN.
Wednesday, 2 April 2014
पुष्करार्ध द्वीप
पुष्करवर द्वीप का विस्तार सोलह लाख योजन है। यह द्वीप चारों तरफ से कालोदधि समुद्र को घेरे हुए है। इस द्वीप के ठीक बीच में मानुषोत्तर पर्वत स्थित है जो कि वलयाकार (चूड़ी के समान आकार वाला) है। इससे इस द्वीप के दो भाग हो जाने से इधर के आधे भाग को पुष्करार्ध कहते हैं। इस पुष्करार्ध में भी दक्षिण-उत्तर में एक-एक इष्वाकार पर्वत हैं। ये आठ लाख योजन लंबे, हजार योजन विस्तृत और ४०० योजन ऊंचे हैं। इन दोनों पर्वतों के निमित्त से इस पुष्करार्ध के भी पूर्व पुष्करार्ध और पश्चिम पुष्करार्ध ऐसे दो भेद हो गए हैं। पूर्व पुष्करार्ध में ठीक बीच में ‘मंदर’ नाम का मेरु पर्वत है और पश्चिम पुष्करार्ध में विद्युन्माली नाम का मेरु है। ये मेरु ८४ हजार योजन ऊंचे हैं। इनका सभी वर्णन धातकीखंड के मेरुओं के समान है। इन मेरुओं में भी सोलह-सोलह जिनमंदिर हैं और पांडुकवन में विदिशाओं में पांडुकशिला आदि शिलायें हैं जिन पर वहां के तीर्थंकरों का जन्माभिषेक महोत्सव मनाया जाता है।
पूर्व पुष्करार्ध और पश्चिम पुष्करार्ध दोनों में भरत, हैमवत, हरि, विदेह, रम्यक, हैरण्यवत और ऐरावत नाम के सात क्षेत्र हैं। हिमवान्, महाहिमवान्, निषध, नील, रुक्मी और शिखरी नाम के छह पर्वत हैं। ये पर्वत चक्र के आरे के समान हैं और क्षेत्र आरे के अन्तराल के समान हैं। इनमें से विदेहक्षेत्र में सोलह वक्षार और बारह विभंगा नदियों के निमित्त से ३२ विदेह हो गये हैं। भरत और ऐरावत क्षेत्र के आर्यखंड में षट्काल परिवर्तन होता रहता है। बत्तीसों विदेहों में शाश्वत कर्मभूमि की व्यवस्था है अर्थात् वहां हमेशा चतुर्थकाल के प्रारम्भ जैसा ही काल रहता है। हैमवत, हरि, विदेह के अन्तर्गत देवकुरु, उत्तरकुरु, रम्यक और हैरण्यवत इन छह क्षेत्रों में सदा ही भोगभूमि की व्यवस्था रहती है। विदेहक्षेत्र में मेरु के दक्षिण में देवकुरु और उत्तर में उत्तरकुरु क्षेत्र हैं। उत्तरकुरु में ईशान कोण में पुष्कर-पद्म१ वृक्ष है तथा देवकुरु में शाल्मली वृक्ष है। ये वृक्ष जम्बूवृक्ष के सदृश ही पृथ्वीकायिक हैं और अपने परिवार वृक्षों से सहित हैं इसीलिए इन पुष्कर वृक्षों के निमित्त से इस द्वीप का पुष्करद्वीप नाम सार्थक है। यहां पर भी हिमवान आदि पर्वतों पर पद्म, महापद्म आदि छ: सरोवर हैं जिनसे गंगा-सिन्धु आदि चौदह नदियां निकलती हैं। इनमें से सात-सात नदियां मानुषोत्तर पर्वत की गुफा से बाहर होकर पुष्कर समुद्र में प्रवेश कर जाती हैं और सात-सात नदियां कालोद समुद्र की वेदिका के गुफाद्वारों से निकल कर कालोद समुद्र में प्रवेश कर जाती हैं। इन पद्म आदि सरोवरों में बने कमलों पर श्री, ह्री, धृति, कीर्ति, बुद्धि और लक्ष्मी नाम की देवियां अपने परिवार देवियों समेत निवास करती हैं। इस प्रकार से कुल व्यवस्था जम्बूद्वीप के समान ही यहां पर समझनी चाहिए। मात्र मेरु और वृक्ष के नाम में ही अन्तर है। इस तरह यहां पूर्व पुष्करार्ध में एक मन्दरमेरु के १६ चैत्यालय, गजदंत के ४ चैत्यालय, सोलह वक्षार के १६, चौंतीस विजयार्धों के ३४ और छ: कुलाचलों के ६, ऐसे ७८ जिनमन्दिर हैं। इसी तरह पश्चिम पुष्करार्ध में भी विद्युन्माली मेरु के १६ आदि सर्व ७८ जिनमन्दिर हैं तथा दो इष्वाकार के २ जिनमन्दिर हैं। ऐसे ७८±७८±२·१५८ जिनमंदिर पुष्करार्ध द्वीप में हैं। यहां जम्बूद्वीप के भरतक्षेत्र का विस्तार ५२६,६/१९ योजन मात्र है, वहां पुष्करार्ध द्वीप में भरतक्षेत्र का अभ्यंतर विस्तार ४१५७९,१७२/२१२ योजन है, मध्यम विस्तार ५३५१२,१९९/२१२ योजन है और बाह्य विस्तार ६५४४६,१२/२१२ योजन है। ऐसे ही अन्य क्षेत्रों का विस्तार भी बहुत बड़ा है। हिमवान् आदि पर्वतों की ऊँचाई जम्बूद्वीप के पर्वतों के समान है किन्तु विस्तार बहुत ही बड़ा है। यहां पुष्करार्ध द्वीप में ३४±३४·६८ कर्मभूमि हैं और ६±६·१२ भोगभूमि हैं, जहां पर मनुष्य रहते हैं। इस प्रकार से यहीं तक मनुष्य पाए जाते हैं, शेष द्वीपों में मनुष्य नहीं हैं।
मानुषोत्तर पर्वत
पुष्कर द्वीप के ठीक बीच में चूड़ी के समान आकार वाला मानुषोत्तर पर्वत है। इसकी ऊंचाई १७२१ (एक हजार सात सौ इ×ाâीस योजन है) मूल में इसकी चौड़ाई १०२२ योजन, मध्य में ७२३ योजन और ऊपर में ४२४ योजन प्रमाण है। इस पर्वत की नींव ४३० योजन, एक कोश है, इस पर्वत के शिखर पर दो कोश ऊंची और ४००० धनुष चौड़ी दिव्य मणिमय वेदी है। इस मानुषोत्तर पर्वत में चौदह महानदियों के निकलने के लिए चौदह गुफा द्वार बने हुए हैं, जिनसे पुष्करार्ध द्वीप की गंगा आदि नदियां निकलकर पुष्कर समुद्र में प्रवेश कर जाती हैं। इस मानुषोत्तर पर्वत पर नैऋत्य और वायव्य इन दो दिशाओं को छोड़कर पूर्व आदि चार दिशा और शेष दो विदिशा में पंक्ति रूप से तीन-तीन वूâट अवस्थित हैं। आग्नेय के तीन और ईशान के तीन, इन छह वूटों पर दिव्य प्रासाद बने हैं जिन पर गरुड़कुमार जाति के देव अपने वैभव के साथ रहते हैं। दिशागत अवशेष बारह वूâटों के प्रासादों की चारों दिशाओं में सुवर्ण कुमार के कुल में उत्पन्न हुई दिक्कुमारी देवांगनाएं रहती हैं। इन अठारहों वूâटों के अभ्यंतर भाग में अर्थात् मनुष्यलोक और पूर्व, दक्षिण, पश्चिम और उत्तर इन चारों दिशाओं में एक-एक वूâट हैं। इन वूटों पर अकृत्रिम जिनमन्दिर बने हुए हैं जो कि स्वर्ण एवं रत्नों से निर्मित हैं। इन मन्दिरों में देवों से पूज्य अकृत्रिम जिनप्रतिमायें विराजमान हैं। इन सभी वूâटों की ऊंचाई ५०० योजन है। मूल में चौड़ाई ५०० योजन है तथा ऊपर में चौड़ाई २५० योजन है। इस मानुषोत्तर पर्वत के बाहर कोई भी मनुष्य नहीं जा सकते हैं। चाहे वे विद्याधर मनुष्य हों, चाहे आकाशगामी ऋद्धिधारी महामुनीश्वर ही क्यों न हों इसलिए यह पर्वत मनुष्य लोक की सीमा निर्धारण करने वाला होने से ‘‘मानुषोत्तर’’ इस अन्वर्य नाम को धारण कर रहा है। केवली समुद्घात, मारणान्तिक समुद्घात और उपपाद जन्म वालों की अपेक्षा ही वहां मानुषोत्तर पर्वत के बाहर मनुष्य का अस्तित्व मान लिया गया है१। इसी बात को आचार्य श्री उमास्वामी महाराज ने स्पष्ट किया है। ‘‘प्राङ्मानुषोत्तरान्मनुष्या।।३५।।’’ मानुषोत्तर पर्वत के इधर ही मनुष्य रहते हैं। श्री अकलंक देव ने इसे भाष्य में कहा है कि- ‘‘जम्बूद्वीप से प्रारम्भ करके मानुषोत्तर पर्वत के पहले-पहले (इधर के भाग में) ही मनुष्य हैं, इस पर्वत के बाहर नहीं हैं। यही मानुषोत्तर पर्वत का व्याख्यान है। इसके उत्तर भाग में-बाहर में केवली समुद्घात, मरणांतिक समुद्घात और उपपाद को छोड़कर कदाचित् भी विद्याधर और ऋद्धिप्राप्त मनुष्य (महामुनि) भी नहीं जा सकते हैं। इसलिए इसका ‘‘मानुषोत्तर’’ यह सार्थक नाम है१।’’
उपपाद -
कोई जीव मानुषोत्तर पर्वत से बाहर का तिर्यंच है या देव है। वह यदि वहां से मरा और उसके मनुष्यगति नामकर्म का उदय आ गया। वहां से विग्रहगति में एक, दो समय के बाद ही यहां मनुष्य लोक में जन्म लेगा, मात्र वहां उसके मनुष्यगति और मनुष्य आयु कर्म का उदय ही आया है। इसे उपपाद कहते हैं। इस अपेक्षा से कदाचित् वहां मनुष्यों का अस्तित्व है।
समुद्घात -
केवली भगवान जब दण्ड, कपाट, प्रतर और लोकपूरण समुद्घात करते हैं, उस समय उनके प्रदेश मानुषोत्तर के बाहर चले जाते हैं। ऐसे ही मरण के अंतर्मुहूर्त पहले कदाचित् किसी मनुष्य को वहां बाहर में जन्म लेना है, यदि उसके मारणांतिक समुद्घात होता है तो उसकी आत्मा के कुछ प्रदेश वहां जाकर जन्म लेने योग्य प्रदेश का स्पर्श कर वापस यहां मनुष्य के शरीर में आ जाते हैं। इस अपेक्षा से भी वहां मनुष्य का अस्तित्त्व मान लिया गया है। बाकी कोई भी मनुष्य किसी भी स्थिति में इस पर्वत से बाहर नहीं जा सकते हैं। यही कारण है कि इस पर्वत के बाहर नंदीश्वर द्वीप के दर्शनों का सौभाग्य मनुष्यों को नहीं मिल पाता है वहां मात्र देवगण ही जाते हैं। यह मानुषोत्तर पर्वत एक हजार सात सौ इक्कीस योजन मात्र ही ऊंचा है जबकि सुमेरु पर्वत इस चित्रा पृथ्वी से ९९ हजार योजन ऊंचा है, फिर भी विद्याधर मनुष्य और आकाशगामी चारणऋद्धिधारी मुनिगण निन्यानवे हजार योजन की ऊंचाई पर पांडुकवन के चैत्यालयों की वंदना कर आते हैं किन्तु इस मानुषोत्तर पर्वत का उल्लंघन नहीं कर सकते हैं। इसमें नियोग ही एक मात्र कारण है, ऐसा समझना चाहिए। मानुषोत्तर के बाहर असंख्यात द्वीपों में क्या है ? मानुषोत्तर के बाहर सभी द्वीपों में केवल भद्र परिणामी तिर्यंच ही हैं अन्य कोई नहीं हैं इसीलिए आगम में इसे तिर्यग्लोक कहा है। यह तिर्यग्लोक मनुष्यों से रहित है और असंख्यात तिर्यंचों से भरा हुआ है।१ ये सभी तिर्यंच भोगभूमिज हैं। यहाँ पर विशेष बात यह समझने की है कि इस मध्यलोक में असंख्यात द्वीप, समुद्र हैं अर्थात् २५ कोड़ाकोड़ी पल्योपम में जितने रोम हैं, उतने प्रमाण ही द्वीप, समुद्र हैं। इन द्वीप, समुद्रों में सबसे बड़ा अंतिम स्वयंभूरमण नाम का द्वीप है। इस द्वीप को वेष्टित करके असंख्यात योजन वाला स्वयंभूरमण नाम का समुद्र है। इस अंतिम द्वीप के ठीक मध्य में चूड़ी के समान आकार वाला नागेन्द्र नाम का एक पर्वत स्थित है। इस पर्वत के बाहर आधे स्वयंभूरमण द्वीप में और स्वयंभूरमण समुद्र में कर्मभूमि मानी गई है। वहाँ रहने वाले असंख्यातों तिर्यंच कर्मभूमियाँ हैं। ये प्राय: व्रूâर स्वभाव वाले हैं। इनमें से कुछ तिर्यंचों को सम्यक्त्व एवं कुछ तिर्यंचों को देशव्रत भी हो जाता है। वहाँ पर देवों के संबोधन से अथवा जातिस्मरण से ऐसा संभव है। इस नागेन्द्र पर्वत से इधर के आधे स्वयंभूरमण द्वीप में तथा मानुषोत्तर पर्वत से परे सभी असंख्यातों द्वीपों में जघन्य भोगभूमि की व्यवस्था है। वहां पर जन्म लेने वाले तिर्यंच युगल ही उत्पन्न होते हैं। ये सभी गर्भ से जन्म लेते हैं। पंचेन्द्रिय, भद्रपरिणामी हैं, व्रूâरता से रहित हैं और मृग आदि अच्छी जाति वाले हैं। ये एक पल्य की आयु के धारक एवं वैर भाव से रहित होते हैं। कल्पवृक्षों से उत्पन्न भोग सामग्री प्राप्त करते हैं एवं आयु के अंत में मरकर देवगति को ही प्राप्त करते हैं। जो मूढ़ जीव सम्यग्दर्शन और व्रतों से रहित हैं तथा कुपात्रों को दान देकर कुछ कुत्सित पुण्य संचित कर लेते हैं, वे ही जीव मरकर इस तिर्यंच भोगभूमि में उत्पन्न हो जाते हैं। उन जघन्य भोगभूमियों में कृमि, कुन्थु, मच्छर आदि तुच्छ जन्तु, व्रूâर परिणामी जीव एवं विकलत्रय प्राणी कभी भी उत्पन्न नहीं होते हैं।१ असंख्यात समुद्रों का जल वैâसा है ? लवण समुद्र के जल का स्वाद नमक सदृश खारा है। वारुणीवर समुद्र का जल मद्य के सदृश है। क्षीरवर समुद्र का जल दूध सदृश है, घृतवर समुद्र का जल घी के समान है। कालोदधि, पुष्करवर समुद्र और स्वयंभूरमण समुद्र का जल, जल जैसे स्वाद वाला है। इन सात समुद्रों के सिवाय शेष सभी असंख्यात समुद्रों का जल इक्षुरस सदृश मधुर और सुस्वादु है। लवण समुद्र, कालोदधि और स्वयंभूरमण समुद्र में ही जलचर जीव हैं। शेष समुद्रों में मगरमच्छ आदि जलचर जन्तु नहीं हैं और न भोगभूमियों में विकलत्रय जीव ही होते हैं। इस प्रकार से यहां पर मानुषोत्तर पर्वत का वर्णन किया है तथा उसके बाहर असंख्यात द्वीप-समुद्रों में क्या-क्या हैं, सो भी संक्षेप में बताया गया है।
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
No comments:
Post a Comment