Wednesday, 2 April 2014

धातकीखण्ड मध्यलोक में सबसे बीच में थाली के समान गोल आकार वाला जम्बूद्वीप है। यह एक लाख योजन विस्तृत है। इसे चारों तरफ से घेरकर दो लाख विस्तृत लवण समुद्र है। इसको चारों तरफ से घेरकर धातकीखण्ड द्वीप है। यह चार लाख योजन विस्तार वाला है। जगती परकोटा - इस धातकीखण्ड को चारों तरफ से वेष्ठित करके आठ योजन ऊंची जगती है। यह परकोटे के समान है। इसका विस्तार मूल में १२ योजन, मध्य में ८ योजन और ऊपर में ४ योजन है। यह जगती मध्य में बहुत प्रकार से रत्नों से निर्मित और शिखर पर वैडूर्य मणियों से परिपूर्ण है। इस जगती के मूल प्रदेश में पूर्व-पश्चिम की ओर सात-सात गुफाएं हैं जो उत्कृष्ट तोरणों से रमणीय, अनादिनिधन एवं सुन्दर हैं। इन गुफाओं से गंगा आदि १४ नदियां निकलकर कालोदधि समुद्र में प्रवेश करती हैं। पहले लवण समुद्र को भी वेष्ठित करके एक जगती है जो कि इसी प्रमाण से सहित है। उसमें भी पूर्व-पश्चिम ७-७ गुफायें हैं। पूर्व धातकीखण्ड की नदियां जो पूर्व में बहने वाली हैं, वे कालोदधि में प्रवेश करती हैं और जो पश्चिम में बहने वाली हैं, वे लवण समुद्र में प्रवेश करती हैं। ऐसे ही पश्चिम धातकीखण्ड की नदियां ७ लवण समुद्र में और ७ कालोद समुद्र में प्रवेश करती हैं। इस जगती के चार योजन विस्तार वाले ऊपर के भाग पर ठीक बीच में सुवर्णमय वेदिका है। यह दो कोश ऊंची, पांच सौ धनुष प्रमाण चौड़ी है। इस वेदिका के अभ्यंतर पाश्र्व में महोरग जाति के व्यंतर देवों के भवन बने हुए हैं। इस जगती में पूर्व, दक्षिण, पश्चिम और उत्तर की दिशा में क्रम से विजय, वैजयंत, जयंत और अपराजित नाम के चार मुख्य द्वार हैं। ये प्रत्येक द्वार आठ योजन ऊंचे और चार योजन चौड़े हैं, वज्रमयी हैं तथा अपने-अपने नाम के ही व्यंतर देवों से रक्षित हैं। इष्वाकार पर्वत - इस द्वीप में दक्षिण और उत्तर भाग में इष्वाकार नाम के दो पर्वत हैं। ये इषु-बाण के समान लम्बे होने से सार्थक नाम वाले हैं। हजार योजन चौड़े और क्षेत्र के विस्तार बराबर अर्थात् चार लाख योजन लम्बे हैं तथा चार सौ योजन ऊंचे हैं। इनका वर्ण सुवर्णमय है और इन पर चार-चार वूâट स्थित हैं। एक-एक वूâट पर जिन मन्दिर और शेष तीन-तीन पर देवों के भवन बने हुए हैं। इन इष्वाकार के निमित्त से धातकीखण्ड के पूर्व धातकीखण्ड और पश्चिम धातकीखण्ड ऐसे दो भेद हो गए हैं। पूर्व धातकीखण्ड - इस पूर्व धातकीखण्ड में हिमवान्, महाहिमवान्, निषध, नील, रुक्मी और शिखरी ये छह पर्वत हैं और भरत, हैमवत, हरि, विदेह, रम्यक, हैरण्यवत और ऐरावत ये सात क्षेत्र हैं। इन पर्वतों के पद्म आदि सरोवरों में कमलों पर श्री, ह्री, धृति, कीर्ति, बुद्धि और लक्ष्मी ये छह देवियां अपने परिवार सहित रहती हैं जो कि तीर्थंकर की माता की सेवा के लिए आती हैं। इन्हीं पद्म आदि सरोवरों से गंगा, सिन्धु, रोहित, रोहितास्या, हरित, हरिकान्ता, सीता, सीतोदा, नारी, नरकान्ता, सुवर्णवूâला, रूप्यवूâला और रक्ता, रक्तोदा ये चौदह महानदियां निकलती हैं जो अपनी-अपनी परिवार नदियों के साथ क्षेत्रों में बहती हुई समुद्र में प्रवेश कर जाती हैं। हिमवान एवं शिखरी पर्वत पर ११-११ वूâट हैं, महाहिमवान एवं रुक्मी पर ८-८ वूâट हैं एवं निषध, नील पर ९-९ वूट हैं। इनमें से १-१ जिनमंदिर शेष में देव देवियों के भवन हैं। भरतक्षेत्र के छह खण्ड-यहां के भरतक्षेत्र में भी ठीक बीच में पूर्व-पश्चिम लम्बा विजयार्ध पर्वत है, यह तीन कटनी वाला है। इसमें प्रथम कटनी पर विद्याधर मनुष्य रहते हैं, द्वितीय कटनी पर आभियोग्य जाति के देवों के नगर बने हुए हैं और तृतीय कटनी पर नववूâट हैं जिसके एक वूâट पर जिनमन्दिर और शेष ८ पर देवों के भवन बने हुए हैं। हिमवान पर्वत के पद्म सरोवर से गंगा-सिन्धु नदी निकलकर नीचे गिरकर विजयार्ध पर्वत की गुफाओं से बाहर आकर भरतक्षेत्र में बहती हुई, इस भरतक्षेत्र में छह खण्ड कर देती है। इसमें इष्वाकार की तरफ के तीन खण्डों के बीच का जो खण्ड है वह आर्यखण्ड है। शेष पांच म्लेच्छ खण्ड हैं। षट्काल परिवर्तन - इस आर्यखण्ड में सुषमा-सुषमा आदि छहों कालों का परिवर्तन होता रहता है। आज वहां भी पंचमकाल चल रहा है। चूंकि तीर्थंकर नेमिनाथ के समय यहां से द्रौपदी का अपहरण कर एक देव धातकीखंड के भरतक्षेत्र के आर्यखण्ड में एक कंकापुरी नाम की नगरी है वहां के राजा के यहां पहुंचा आया था बाद में नारद के द्वारा ज्ञात होने पर श्रीकृष्ण अपने विद्या के प्रभाव से देवता को वश में करके उसकी सहायता से पांचों पांडवों को साथ लेकर वहाँ पहुँचे थे और राजा को पराजित कर द्रौपदी को वापस ले आये थे। इस उदाहरण से बिल्कुल स्पष्ट है कि यहां भरतक्षेत्र में जो भी काल परिवर्तन, जिस गति से चल रहा है, ऐसा ही वहाँ है। चूंकि उस समय यहाँ की शरीर की अवगाहना के समान ही वहां के शरीर की अवगाहना १० धनुष (४० हाथ) प्रमाण ही होगी, तभी तो यहां से द्रौपदी का वहां अपहरण कराना संभव था अन्यथा असंभव था। इस जम्बूद्वीप का भरतक्षेत्र ५२६ योजन है और धातकीखण्ड का भरतक्षेत्र ६६१४, १२९/२१२ योजन है। वहां के क्षेत्र चक्र के विवर के समान होने से मध्य का विस्तार १२५८१,३६/२१२ योजन है और बाह्य विस्तार १८५४७,१५५/२१२ योजन है। यहां के भरतक्षेत्र की अपेक्षा वहां का भरतक्षेत्र बहुत गुना अधिक है। इस धातकीखण्ड के ऐरावत क्षेत्र में भी ऐसे ही छह खण्ड हैं और वहां पर भी आर्यखण्ड में षट्काल परिवर्तन होता रहता है। भोगभूमि - यहाँ धातकीखण्ड में भी हैमवत और हैरण्यवत क्षेत्र में जघन्य भोगभूमि है। हरि और रम्यक क्षेत्र में मध्यम भोगभूमि है और विदेह के दक्षिण-उत्तर में देवकुरु क्षेत्र में उत्तम भोगभूमि की व्यवस्था है। ये छहों भोगभूमियां शाश्वत हैं। विजयमेरु - इसी पूर्व धातकीखण्ड में विदेहक्षेत्र के ठीक बीच में विजयमेरु नाम का पर्वत है। यह चौरासी हजार योजन ऊंचा है और पृथ्वीतल पर चौरानवे सौ ‘‘९४००’’ योजन विस्तृत है। इस मेरु का विस्तार शिखर तल पर हजार योजन है और इसकी चूलिका चालीस योजन ऊंची नील मणिमय है। यह सुदर्शन मेरु की चूलिका के समान ही है। इस मेरु में भी भूतल पर भद्रशाल वन है। इससे ५०० योजन ऊपर जाकर नंदनवन है, इससे ५५,५०० योजन ऊपर जाकर सौमनस वन है और इसके ऊपर २८००० योजन जाकर पांडुकवन है। इस पर्वत पर भद्रशाल, नंदन, सौमनस और पांडुकवनों में चार-चार चैत्यालय होने से सोलह जिन चैत्यालय हैं। इसमें भी पांडुकवन की विदिशाओं में पांडुकशिला, पांडुकंबला, रक्ता और रक्तकंबला नाम की चार शिला हैं। इन पर भरत, पूर्व विदेह, पश्चिम विदेह और ऐरावत के तीर्थंकरों का जन्माभिषेक मनाया जाता है। गजदंत - इस मेरु के भूतल पर चारों विदिशाओं में चार गजदंत पर्वत हैं। ये दक्षिण में मेरु से लेकर निषध तक लम्बे हैं और उत्तर में भी मेरु से लेकर नील पर्वत तक लम्बे हैं। इन प्रत्येक वूटों पर एक-एक जिनमंदिर और शेष कूटों पर देवभवन हैं। धातकी वृक्ष - विजयमेरु के दक्षिण में दोनों गजदंत के बीच में देवकुरु क्षेत्र है और उत्तर में उत्तरकुरु नाम का क्षेत्र है। दोनों क्षेत्रों में जम्बूवृक्ष-शाल्मीवृक्ष के सदृश धातकी वृक्ष ‘‘आंवले के वृक्ष’’ स्थित हैं। ये वृक्ष पृथ्वीकायिक हैं। एक धातकीवृक्ष के परिवार वृक्ष जम्बूवृक्ष से दूने होने से जम्बूवृक्ष (१४०१२०²२·२,८०,२४०) दो लाख, अस्सी हजार, दो सौ चालीस हैं। दोनों के परिवार वृक्ष ५,६०,४८० हो जाते हैं।२ इन वृक्षों पर सम्यक्त्व रूपी रत्न से संयुक्त और उत्तम आभूषणों से भूषित आकृति को धारण करने वाले प्रभास और प्रियदर्शन नाम के दो अधिपति देव निवास करते हैं। परिवार वृक्षों के भवनों पर उनके परिवार देव रहते हैं। इनमें दो मूल वृक्षों की शाखा पर एक-एक जिनमंदिर हैं। शेष वृक्षों पर भी देवों के भवनों में जिनमंदिर हैं। पूर्व-पश्चिम विदेह - यहां धातकीखंड में भी विजयमेरु के पूर्व भाग में जो विदेह है उसे पूर्वविदेह कहते हैं और पश्चिमभाग में पश्चिमविदेह है। पूर्व विदेह में भद्रशालवन की वेदी के बाद चार वक्षार सीता नदी के उत्तर तट पर और चार वक्षार दक्षिण तट पर हैं। तीन-तीन विभंगा नाqदयां हैं। इनके अंतराल में सोलह विदेहक्षेत्र हो जाते हैं। ऐसे ही सोलह विदेहक्षेत्र पश्चिम विदेहक्षेत्र में भी हैं। इस प्रकार से पूर्व धातकीखंड के बत्तीस विदेह, सोलह वक्षार और बारह विभंगा नदियां हैं। प्रत्येक विदेहक्षेत्र में भी विजयार्ध और गंगा-सिन्धु नदी के निमित्त से छह-छह खण्ड हो जाते हैं। प्रत्येक के आर्यखंड में कर्मभूमि हैं। यहां विदेह में शाश्वत कर्मभूमि होने से सदाकाल चतुर्थकाल के आदि जैसा ही परिवर्तन रहता है। पूर्वधातकीखंड के अकृत्रिम चैत्यालय विजयमेरु के १६, चार गजदंत के ४, दो धातकी वृक्ष के २, १६ वक्षार के १६, ३४ विजयार्ध के ३४, ६ कुलाचल के ६·७८, ऐसे अट्ठत्तर अकृत्रिम जिनचैत्यालय हैं। इनके अतिरिक्त यहां पर ३४ आर्यखंडों में चक्रवर्ती आदि मनुष्यों द्वारा निर्मापित अगणित कृत्रिम जिनमंदिर हैं। इस प्रकार संक्षेप में पूर्वधातकीखंड का वर्णन किया है। पश्चिमधातकीखंड - इस पश्चिमधातकीखण्ड में भी दक्षिण से लेकर उत्तर तक भरत, हैमवत, हरि, विदेह, रम्यव्, हैरण्यवत और ऐरावत ये सात क्षेत्र हैं। हिमवान्, महाहिमवान्, निषध, नील, रुक्मी और शिखरी नाम के ही छह कुल पर्वत हैं। इनकी लंबाई, चौड़ाई, ऊंचाई आदि पूर्वधातकीखण्ड के क्षेत्र, पर्वतों के समान ही है। इन पर्वतों पर पद्म आदि छह सरोवर हैं। उनमें कमलों पर श्री आदि छह देवियां निवास करती हैं। इन छह सरोवरों से गंगा, सिन्धु आदि चौदह महानदियां निकलती हैं जो कि भरत आदि सात क्षेत्रों में बहती हैं। यहां पर भी भरत, ऐरावत में छह खंडों में से आर्यखंड में षट्काल परिवर्तन होता रहता है। विदेहक्षेत्र में मध्य में अचल नाम का मेरु है जो कि ८४ हजार योजन ऊंचा है। उसमें भी भद्रसाल, नन्दन, सौमनस और पांडुकवनों में चार-चार मिलाकर १६ चैत्यालय हैं। मेरु की पांडुकशिला आदि चार शिलायें हैं, उन पर वहीं के भरत, ऐरावत और पूर्व-पश्चिम विदेह के तीर्थंकरों का जन्माभिषेक होता है। मेरु के भूतल पर चारों विदिशाओं में चार गजदंत पर्वत हैं। प्रत्येक पर एक-एक जिनमंदिर हैं और शेष पर देवभवन हैं। मेरु के दक्षिण-उत्तर में देवकुरु-उत्तरकुरु क्षेत्र हैं तथा पूर्व-पश्चिम में पूर्वविदेह-पश्चिम विदेह हैं। इन विदेहों मे भी १६ वक्षार और १२ विभंगा नदियों से ३२ क्षेत्र हो गये हैं। प्रत्येक क्षेत्र में विजयार्ध पर्वत और गंगा-सिन्धु नदियों से छह-छह खण्ड हो जाते हैं। वहां पर विदेह के प्रत्येक ३२ आर्यखण्ड में सदा ही चतुर्थकाल की आदि जैसी व्यवस्था रहती है इसीलिए इन्हें शाश्वत कर्मभूमि कहते हैं। इस प्रकार यहां पश्चिमधातकीखंड में भरत-ऐरावत और बत्तीस विदेहों को मिलाकर ३४ आर्यखंड हैं। हैमवत और हैरण्यवत क्षेत्र में सदा मध्यम भोगभूमि है और देवकुरु-उत्तरकुरु में सदा उत्तम भोगभूमि है तथा इन्हीं देवकुरु-उत्तरकुरु में धातकीवृक्ष भी हैं जो कि पृथ्वीकायिक, अनादिनिधन हैं। अकृत्रिम चैत्यालय-यहां पर भी अचलमेरु के १६, गजदन्त के ४, धातकी वृक्षों के २, सोलह वक्षार के १६, चौंतीस विजयार्धों के ३४, षट् कुलाचलों के ६·७८, ऐसे अट्ठत्तर अकृत्रिम जिनमंदिर हैं। तथा पूर्वधातकीखंड और पश्चिमधातकीखंड को विभाजित करने वाले दक्षिण-उत्तर में जो दो लम्बे इष्वाकार पर्वत बताये गये हैं उन पर भी एक-एक जिनमंदिर हैं। ऐसे ये अकृत्रिम दो मंदिर यहां धातकीखंड- द्वीप में हो जाते हैं। इस प्रकार धातकीखंड का संक्षिप्त वर्णन किया गया है।

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