HAVE YOU EVER THOUGHT ? Who Are You ? A Doctor ? An Engineer ? A Businessman ? A Leader ? A Teacher ? A Husband ? A Wife ? A Son ? A Daughter are you one, or so many ? these are temporary roles of life who are you playing all these roles ? think again ...... who are you in reality ? A body ? A intellect ? A mind ? A breath ? you are interpreting the world through these mediums then who are you seeing through these mediums. THINK AGAIN & AGAIN.
Sunday, 1 March 2015
चतुर्विध संघ की संस्थापना :-
भगवान ऋषभदेव इस अवसर्पिणी कालचक्र के प्रथम तीर्थंकर थे । उनके जन्म से पूर्व भारत भूमि अकर्म भूमि थी । यहॉं के निवासियों के जीवन में अकर्मण्यता थी । कल्पवृक्षों से मनुष्यों की जीवन यापन सम्बन्धी आवश्कताएँ पूर्ण हो जाती थीं, इसलिए मनुष्यों की कर्म में न रूचि थी, और न हीं उन्हें कर्म का महत्व ज्ञात था ।
ऋषभदेव के जन्म के पश्चात् स्तिथियाँ बदल गई । कल्पवृक्षों की शक्ति क्षीण होने लगी थीं । जनसंख्या में वृद्धि हो रही थी । मनुष्यों की आवश्कताएँ कल्पवृक्षों से पूर्ण नहीं हो पा रही थीं । मॉंग की तुलना में वस्तुएँ कम थीं । ऐसे में मनुष्यों में पारस्परिक विग्रह और असंतोष उभरने लगा ।
उस समय ऋषभदेव ने कर्मयुग की संस्थापना की । उन्होंने मनुष्य को कर्म की विधि और उसके महत्व से परिचित कराया । फलतः कृषि विज्ञान का सूत्रपात हुआ । कर्म में निष्ठाशील बनने पर तत्युगीन मानव की आवश्कताएँ सहज ही पूर्ण होने लगी ।
कर्म विज्ञान से तत्युगीन मानव को परिचित कराने के पश्चात् ऋषभदेव ने उसे धर्म विज्ञान से परिचित कराने के लिए महाभिनिष्क्रमण किया । कैवल्य पद प्राप्त कर उन्होंने धर्मतीर्थ की संस्थाना की । उन्होंने मानव को संदेश दिया धर्म ही वह अमृत-तत्व है जो आत्मा को उसके परम स्वरूप परमात्मा में प्रतिष्ठित करता है । धर्मामृत का पान करके आत्मा सदा-सदा के लिए जन्म और मृत्यु के विष से मुक्त बन जाता है ।
इस तरह विश्व में प्रथम बार धर्म चक्र का परावर्तन हुआ । भगवान ऋषभदेव ने धर्म तीर्थ के रूप में चतुर्विध संघ की संस्थापना की । उनके चतुर्विध संघ का स्वरूप था श्रमण, श्रमणी, श्रावक और श्राविका ।
उपरोक्त विवरण से सहज ही यह निष्कर्ष निकलता है कि धर्म और कर्म के संदर्भ में विश्व मानव के आदीम संस्कर्ता भगवान ऋषभदेव थे । वर्तमान श्रमण संघ के जिस स्वरूप की मैं चर्चा करूँगा उसका उद्भव भी भगवान ऋषभदेव से ही हुआ है ।
भगवान महावीर भगवान ऋषभदेव की परम्परा के अन्तिम स्वयं-बुद्ध {तीर्थंकर} महापुरूष थे । वे जैन धर्म अथवा श्रमण संघ के संस्थापक नहीं थे, बल्कि वे उसके पुनर्संस्कर्ता थे । धर्मतत्व की ज्योति मंद पड़ने लगी थी । महावीर ने उस ज्योति को पुनः अमन्द बना दिया ।
अनन्त ज्ञान और अनन्त दर्शन से महावीर ने साक्षात्कार साधकर परम पद प्राप्त कर लिया था । परम पद पर प्रतिष्ठित महावीर की आत्मा से करूणा का महान प्रस्फुटित हुआ । उन्होंने जन्म-मरण, आधि, व्याधि और उपाधि के दावानल में सुलगते जीव जगत को देखा । महावीर की करूणा अनन्त-अनन्त धाराओं में बह चली । उन्होंने जगत को धर्मोंपदेश रूपी अमृत जल से सिंचित किया । उनके उपदेश से असंख्य मनुष्यों में सद्धर्म से जीने की प्यास जाग्रत हुई । हजारों मनुष्यों ने महावीर के महापथ पर बढ़ने का सत्संकल्प किया ।
जगत् कल्याण के लिए महावीर ने धर्म तीर्थ की पुनर्स्थापना की । उनके धर्मतीर्थ के चार अंग थे -
1- श्रमण तीर्थ, 2- श्रमणी तीर्थ, 3- श्रावक तीर्थ और 4- श्राविका तीर्थ ।
अल्प कालावधि में ही हजारों पुरूष और स्त्रियॉं श्रमण, श्रमणी, श्रावक और श्राविका के रूप में महावीर-प्ररूपित धर्म के अनुगामी बन गए । यही चतुर्विध-तीर्थ चतुर्विध-संघ के रूप में साकार हुआ ।
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