Wednesday, 20 July 2011

जाति-कुलमद

जाति-कुलमद

आचार्य हेमचन्द्र योगशास्त्र में कहते हैं -

जातिलाभकुलैश्वर्यबलरूपतपःश्रुत​ैः। कुर्वन् मदं पुनस्तानि हीनानि लभते नरः ।।४-१३।।

अर्थात्-जाति, लाभ, कुल, ऐश्वर्य, बल, रूप, तप और ज्ञान का मद करनेवाले मनुष्य को इस मद के दुष्परिणामस्वरूप ये चीजें हीन कोटि की मिलती हैं।

भौतिक सम्पत्ति विनाशशील है, अतः उस पर अभिमान करना समझदारी की कमी को सूचित करता है। विद्यासम्पत्ति अभिमान करने के लिये नहीं है, परन्तु विद्याहीनों की और अनुकम्पा-भाव रखकर उनके जीवन के कल्याण के लिये उन पर ज्ञान का प्रकाश डालने में उसकी सार्थकता है। कुल-जाति का गौरव अथवा उच्च समझे जानेवालों का उच्चत्व मानवता के सद्गुणों को अपनाने में और निम्न श्रेणी के गिने जानेवाले मनुष्यों के साथ आत्मीय भाव से बरतने में है, नहीं कि अपने बड़प्पन का अभिमान करके के और दूसरों को अनेक कुल-जाति के कारण हीन समझ कर उनके साथ हीनतायुक्त व्यवहार करने में। उच्चता अथवा नीचता, बड़ाई अथवा छुटाई जन्म के कारण नहीं है। गुण-कर्मों से सम्पादित बड़ाई ही सच्ची बड़ाई है। जहाँ इस प्रकार की बड़ाई हो वहाँ अभिमान जैसे दोषों को अवकाश ही नहीं मिल सकता। सद्गुणों का अभिमान भी सद्गुणों के लिये लाञ्छनरूप है। अभिमान प्रगति का अवरोधक है। वह जीवन की नैसर्गिक मधुरिमा को खट्टी बना देता है। अभिमान करने का कोई स्थान ही नहीं है। अपने को ऊँचा समझ कर घमंड करनेवाला अपने आपको ऊपर से नीचे गिरता है। उच्चता सद्गुणों और सत्कर्मों के संस्कार में है। जहाँ यह संस्कारिता प्रकाशित हो वहाँ ऊँच-नीचता की भेददृष्टि होने नहीं पाती; वहाँ तो निम्न-स्तर के मनुष्यों के साथ ही सहानुभूति और मैत्री का पवित्र प्रवाह बहता ही रहता है। उच्चता सद्गुणों-सत्कर्मों में और नीचता गुण-कर्महीनता में समझना यही सच्ची दृष्टि है। जन्म के कारण मनुष्य को उत्तम अथवा अधम मानना यह एक भ्रामक दृष्टि है।

समाज के धारण-पोषण के लिये समाज के व्यक्तियों को जो अनेकानेक व्यावसायिक प्रवृत्तियाँ करनी पड़ती हैं। उनको स्थूलरूप से चार विभागों में बाँटा गया और उन चार प्रकार की व्यावसायिक प्रवृत्तियाँ करनेवालों को अलग अलग रूपसे पहचानने के लिये अलग-अलग ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र नाम दिए गए।

जो मनुष्य मुख्यतया शास्त्राभ्यास कर के तथा पठन-पाठन से लोगों में ज्ञानसंस्कार सींचने का व्यवसाय करने लगें उन्हें ब्राह्मण कहा गया जो मुख्यतः अपने जीवन की परवा किए बिना आततायियों तथा दुष्ट आक्रमणकारों से प्रजा का रक्षण करने का तथा समाज में चलनेवाली दुष्प्रवृत्तियों को रोककर समाज को स्वस्थ रखने का व्यवसाय करने लगे वे क्षत्रिय कहलाए। जो लोग मुख्यतः खेती तथा अन्य व्यापार-रोजगार कर के समाज के लिये आवश्यक वस्तुएँ हाजिर करने का व्यवसाय ले बैठे वे वैश्य कहलाए। और जो लोग मुख्यतः शारीरिक श्रम कर के समाज की दूसरे रूप से सेवा करने लगे वे शूद्र कहलाए।

इस पर से ज्ञात होगा कि ये चारों प्रकार की प्रवृत्तियाँ समाज की सुख-सुविधा तथा सामाजिक विकास के लिये आवश्यक हैं। इनमें की एक भी प्रवृत्ति के बिना समाज टिक नहीं सकता। और न अपना विकास अथवा उन्नति साध सकता है। अतः अमुक मनुष्य अमुक व्यवसाय करता है इसिलये वह ऊँचा है और अमुक मनुष्य दूसरा व्यवसाय करता है इसलिये वह नीचा है ऐसा न समझना चाहिए। केवल व्यवसाय के भेद पर दृष्टि रख कर ऊँच-नीच का वर्गीकरण नहीं किया जा सकता। उसके लिये तो दूसरी बातें ध्यान में लेने की हैं। मनुष्य चाहे जो हो और चाहे जो धन्धा-रोजगार करता हो, परन्तु वह गुण से उच्च (सच्चरित) होना चाहिए। इतना ही नहीं, वह अपने कर्म से भी उच्च होना चाहिए। कर्म से उच्च अर्थात् अपना अपना विशिष्ट व्यवसाय प्रामाणिकतापूर्वक धर्मबुद्धि से तथा मन लगा कर योग्य रूप से करनेवाला। इस तरह मनुष्य यदि गुण एवं कर्म से उच्च हो तो वह उच्च है। ब्राह्मण का व्यवसाय करनेवाला मनुष्य यदि दुश्चरित हो अथवा अपने कर्तव्य के पालन में धूर्तता करे तो वह नीच है और शूद्र का व्यवसाय करनेवाला मनुष्य यदि सच्चरित हो और अपने कर्तव्य का बराबर पालन करता हो तो वह उच्च है। अतः जन्म के कारण से किसी को ऊँच-नीच नहीं कहा जा सता।

वस्तुतः मनुष्य में ब्राह्मणत्व, क्षत्रियत्व, वैश्यत्व तथा शूद्रत्व इन चारों तत्त्वों का सुभग संगम होना चाहिए, क्योंकि जीवनचर्या में स्वाध्याय या विद्योपासना, बल-शूरता, कृषि आदि व्यापार-विकास एवं व्यावहारिक बुद्धि तथा सेवावृत्ति-इन चारों तत्त्वों की अमुक यात्रा में आवश्यकता है। इन चारों की समुचित मात्रा होने पर ही मनुष्य मनुष्यत्वसम्पन्न होता है।

और शरीर में मस्तक, हाथ, पेट व पैर इन अंगों में से किसे उच्च और किसे नीचे कहें? पैर की क्या कम उपयोगिता है? इसी प्रकार पैर के स्थान के शूद्र की उपयोगिता कम कैसे समझी जाय? सब अंग यदि परस्पर मिलजुलकर कार्य करें तो वे स्वयं तथा अवयवी शरीर जीवित और सुखी रह सकते हैं, और यदि एक-दूसरे के साथ लड़ने झगड़ने लगे अथवा ईर्ष्यावश रूठ बैठे तो उन सबके लिये मरने का समय आ जाय। ठीक इसी भाँति ब्राह्मणादि वर्ण परस्पर उदारता से, वात्सल्यभाव से हिलमिलकर रहें तो इसमें उन सबका उदय-अभ्युदय है और झूठे अभिमानवश एक-दूसरे का तिरस्कार करने में इन सबका विनिपात है।

थोड़ा और अधिक विचार करें।

उच्चता और नीचता प्रकृतिधर्मकृत और मानवसमाज द्वारा कल्पित ऐसी दो प्रकार की गिनाई जा सकती हैं। इन दोनों में से सर्वप्रथम हम दूसरे प्रकार की देखें।

यह तो मानी जा के ऐसी बात है कि दुःखजनक परिस्थिति में पैदा होना पापोदय का और सुखजनक परिस्थिति में पैदा होना पुण्योदय का परिणाम है। इस तरह यदि रोगी घर में, दुर्बुद्धि अथवा मूर्ख परिवार में अथवा दरिद्र-कंगाल कुटुम्ब में पैदा होना पापकर्मों के उदय का परिणाम है, तो खराब राज्य अथवा खराब शासनवाले देश में पैदा होना भी पापोदय का परिणाम समझा जा सकता है और इसी प्रकार खराब सामाजिक रचनावाले समाज में पैदा होना भी पापोदय का परिणाम माना जा सकता है। रोगी वातावरणवाले घर में पैदा होकर मनुष्य कालक्रमेण अपने घर को सुधारे और आरोग्य के अनुकूल बनावे तब की बात तब, और इसी प्रकार कोई मनुष्य दरिद्र घर में पैदा होकर कालक्रमेण अपने घर की आर्थिक स्थिति सुधारे तब की बात तब, परन्तु जन्म के समय दुःखोत्पादक परिस्थिति में जन्म लेना और जब तक उस परिस्थिति में सुधार न हो तब तक योग्य पुरुषार्थ करने पर भी जो सहन करना पड़े वह पापपोदय का ही परिणाम गिना जाय।

यहाँ पर हमारा प्रश्न समाजरचा के बारे में है। खराब समाजरचनाओं में से एक रचना वर्णाश्रम-व्यवस्था की है। इस दूषित प्रणालिका के अनुसार समाज ने जन्म एवं कुछ धन्धे-रोजगारों के कारण अमुक वर्गों को उच्च और अमुक वर्गों को नीच मान लिया है। ऐसे दूषित रचनावाले समाज में अथवा देश में समाज-द्वारा कल्पित नीचवर्ग में उत्पन्न होने से उसे दूषित समाजरचना का बलि होना पड़ता है, अपने से उच्च माने जानेवाले वर्गों की ओर से हीनदृष्टि तथा घृणा और अपमान आदि का सन्ताप सहन कना पड़ता है। इस प्रकार का अन्याय्य क्लेश-सहन समाजद्वारा सर्जित नहीं नहीं, कल्पित समाजरचना के आभारी है। क्रान्तिकार वीरपुरुष पैदा हो कर दूषित समाजरचना को सुधारने का प्रयत्न करे और उनके प्रयत्नों की परम्परा के परिणामस्वरूप समाजरचा में यदि सुधार हो और जन्म के तथा धन्धे-रोजगारों के कारण ऊँच-नीच मानने की दृष्टि में परिवर्तन हो तब वातावरण सुधर जाने पर समाज-कल्पित जातिगत ऊँच-नीच के भेदों के बखेड़े सहन करने नहीं पड़ेंगे; परन्तु जब तक इस प्रकार की सुधारणा का योग्य प्रचार और प्रसार न हो तब तक तथाकथित नीचे वर्ग में पैदा होनेवाले को योग्य पुरुषार्थ करने पर भी कष्ट सहन करना पड़े और वह क्लेश सहन मूल में जिस कर्म पर आश्रित माना जाय उसे ‘नीच गोत्र’ कर्म कहते हैं।

ऊपर कहा वैसा यदि सामाजिक रचना में सुधार हो, जन्म-जाति अथवा धन्धे-रोजगारों के आधार पर खड़ी की हुई ऊँच-नीच के भेदों की कल्पना नाबूद हो अर्थात् इस प्रकार की कल्पना के आधार पर कोई ऊँच-नीच न समझा जाय ऐसा युग आए तब भी ‘गोत्रकर्म’ का स्थान तो रहने का ही और वह ऊपर के प्रकार की नहीं तो दूसरे प्रकार की उच्च-नीचता का खुलासा बैठाने के लिये। संस्कारी, सदाचरणी कुल-कुटुम्ब में पैदा होना अथवा असंस्कारी, असभ्य और हीन आचारवाले कुटुम्ब में पैदा होना इसके मूल में कोई ‘कर्म’ तो मानना ही पड़ेगा। अतः वह परिस्थिति गोत्र-कर्म पर अवलम्बित समझी जायगी-अनुक्रम से उच्च-गोत्र और नीच-गोत्र कर्म पर। यह ऊँच-नीचता प्रकृतिधर्मकृत समझनी चाहिए।

वस्तुतः आजकल की सामाजिक रचना में भी तथाकथित नीच कुल में उत्पन्न मनुष्य भी यदि सम्यग्दृष्टि के साथ साथ व्रताचरणसम्पन्न हो तो उसका नीच-गोत्र का नहीं किन्तु उच्च-गोत्र का उदय है-ऐसा जैन कर्मशास्त्र कहते हैं। अर्थात् दृष्टि और आचरण के सुसंस्कारवाले, को फिर वह किसी भी जाति-कुल-वंश का क्यों न हो, जैनशास्त्र नीच-गोत्र का नहीं परन्तु उच्च-गोत्र के उदयवाला मानता है। अरे! चाण्डाल जाति के होने पर भी जो उत्तम चारित्रसम्पन्न बने हैं उनके लिये जैन आगमों ने पूजावाचक शब्दों का प्रयोग कर के उनका अत्यन्त सम्मानपूर्वक उल्लेख किया है।

Friday, 15 July 2011

સુવાક્ય

સુવાક્ય

  • એક જ ભવ માટે મૂઢ પ્રાણીઓ જે પાપ કરે છે ,તે પાપ તેમને હજારો જન્મ સુધી દુઃખ ઉત્પન કરે છે.
  • વ્યક્તિગત પાપ કરતાં સમૂહગત પાપની ભયંકરતા અનેકગણી છે.
  • જીવન સફળ કરવા તારક જિનવાણી સાંભળો
  • એવું ક્યારેય ન માનતા કે તમને જે કંઈ મળ્યું છે તે તમારી આવડત હોશિયારી કે ચાલાકી થી મળ્યું છે. નજર દોડાવશો તો તમારા જેવા હોશિયાર લોકો ઘણા દેખાશે જેમને આ બધું નથી મળ્યું.
  • તમે નહિ ખર્ચેલા રૂપિયા ના તમે ચોકીદાર માત્ર છો , માલિક નહિ.
  • જો તમને પહેરવા કપડા , રહેવા ઘર , બે વખત ખાવા અન્ન મળતું હોય તો ખરા દિલ થી ઉપરવાળા નો આભાર માનજો. આ જ દુનિયા માં એવા લાખો લોકો છે જેમને આ બધું નથી મળતું.
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JainScience (જૈન વિજ્ઞાન) શું પૃથ્વી ફરે છે ? સૂર્ય મોટો કે પૃથ્વી મોટી ? ચંન્દ્રયાત્રા વિષે ની હકીકત પૃથ્વી ગોળ છે કે સપાટ છે ? બીજુ ઘણુ બધુ જાણવા


જૈન ધર્મ નું તત્વજ્ઞાન

જૈન ધર્મ નું તત્વજ્ઞાન

        આત્મસાધનામાં જ્ઞાન નું સર્વ પ્રથમ સ્થાન છે.કહ્યું છે કે "પહેલું જ્ઞાન પછી દયા". દયા કોની કરવી ?, કેવી રીતે કરવી ? એ બરાબર જાણવામાં આવે તો દયા બરાબર ઉગી નીકળે. આથી દયા ને બીજું અને જ્ઞાન ને પ્રથમ સ્થાન આપવામાં આવ્યું છે.


         જેને પોતાનું જ્ઞાન નથી , પોતે કોણ છે ? , શા માટે છે ? , પોતે ક્યાંથી આવ્યો છે ? , વગેરે જાણતો નથી , જેને સ્વ નું જ્ઞાન નથી તે પોતાનું કલ્યાણ કરી શકતો નથી.


         જ્ઞાન અપાર અને અનંત છે. માત્ર કેવળજ્ઞાની જ તે જ્ઞાન ને પામી શકે છે. આવું કેવલજ્ઞાન પામવા માટે સર્વ પ્રથમ "નવ-તત્વ" નું જ્ઞાન હોવું આવશ્યક અને અનિવાર્ય છે. અનંત જ્ઞાન એ "નવ-તત્વ" નો જ બૃહદ વિસ્તાર છે. તેના જ્ઞાન અને સંસ્કાર થી સાધક પોતાના આત્મ નું કલ્યાણ નિ:શંક સાધી શકે છે. આ "નવ-તત્વ" આ પ્રમાણે છે.

૧ > જીવ
૨ > અજીવ
૩ > પુણ્ય
૪ > પાપ
૫ > આશ્રવ
૬ > સંવર
૭ > નિર્જરા
૮ > બંધ
૯ > મોક્ષ



         જૈન ધર્મ કહે છે કે જે આ નવ તત્વ ને જાણે છે , જેને આ નવ-તત્વ માં રસ , રૂચી , અને શ્રધા છે તે જ આત્મ સાધનાનો અધિકારી છે.આવા અધિકારી સાધક ને સમકિતી કે સમ્યગદ્રષ્ટિ કહે છે. નવ તત્વ ના જ્ઞાન અને શ્રદ્ધા ને સમ્યક્ત્વ કહે છે અથવા સમકિતી કહે છે. સમકિતી એ મોક્ષ યાત્રા નું પ્રથમ ચરણ છે. એ ચરણ ઉપડ્યા વિના , સમકિતી ની પ્રાપ્તિ કાર્ય વિના મોક્ષ મળતો નથી.

સંક્ષેપ માં નવ તત્વ

૧ > જીવ તત્વ
        જીવ ને આત્મા કહે છે. તે ચેતનામય અરૂપી સત્તા છે. ચેતનાની ક્રિયા ( ઉપયોગ) એ તેનું લક્ષણ છે. જ્ઞાન, દર્શન, સુખ-દુખ આદિ દ્વારા તે વ્યક્ત થાય છે. જીવ ૫૬૩ પ્રકાર ના છે.
૨ > અજીવ તત્વ
        જેનામાં ચેતના નથી / આત્મા નથી તે અજીવ છે. જડ છે. સદાને સર્વથા તે નિર્જીવ રહેવાથી તે અજીવ કહેવાય છે. અજીવ તત્વ ૫૬૦ પ્રકારના છે.
૩ > પુણ્ય તત્વ
        મન, વચન અને કાયાની શુભવૃત્તિ , શુભ વિચાર અને શુભ આચારની આત્મા જે શુભ કર્મ પુદગલો ને ગ્રહણ કરે છે, તેને પુણ્ય તત્વ કહે છે. પુણ્ય કર્મ નવ પ્રકારે બંધાય છે.
                ૧ > ભૂખ્યા ને જમાડવાથી , સાધુ - સંતો આદિ ને ભિક્ષા આપવાથી. તેને અન્નદાન પણ કહે છે.
                ૨ > તરસ્યા ને પાણી આપવાથી. અથાર્ત જલદાન  થી
                ૩ > વાસણ ના દાન થી
                ૪ > શય્યા મકાન ના દાન થી
                ૫ > વસ્ત્ર દાન થી
                ૬ > મન થી સહુ કોઈ નું યોગ ક્ષેમ વિચારવાથી
                ૭ > ગુણાનુવાદ કરવાથી
                ૮ > જ્ઞાની - ગુણીજનો - તપસ્વી આદિ ની સેવા કરવાથી
                ૯ > સુયોગ્ય ને સુપાત્રનો વિનય બહુમાન કરવાથી
     પુણ્ય કરનાર ૪૨ પ્રકાર ના સુફળ ભોગવે છે.
૪ > પાપ તત્વ
    મન , વચન અને કાયાની અશુભ વૃતિ , અશુભ વિચાર  અને અશુભ આચારથી આત્મા જે અશુભ કર્મ પુદગલોને ગ્રહણ કરે છે તેને પાપ તત્વ કહેવાય છે. પાપ કર્મ ૧૮ પ્રકારે બંધાય છે.
૧ > જીવ હિંસા
૨ > જૂઠ
૩ > ચોરી
૪ > વ્યભિચાર
૫ > સંગ્રહ પર મમત્વ
૬ > ક્રોધ
૭ > માન
૮ > માયા
૯ > લોભ
૧૦ > રાગ ( આસક્તિ )
૧૧ > ઈર્ષા ( દ્વેષ )
૧૨ > કલેશ - કંકાસ
૧૩ > ખોટું આળ
૧૪ > ચાડી ચુગલી
૧૫ > નિંદા - કુથલી
૧૬ > હરખ - શોક ( રતી - અરતિ )
૧૭ > કપટ સહીત જૂઠ
૧૮ > અસત્ય મમતા શ્રદ્ધા ( મિથ્યાત્વ )

આ અઢાર માંથી કોઈ એક કે વધુ નું આચરણ કરવાથી આત્મા પાપ કર્મ થી બંધાય છે. પાપ કર્મ કરનાર ૮૨ પ્રકાર ના કુફળ ભોગવે છે.


૫ > આશ્રવ તત્વ
        જે માર્ગોએ થી આવી ને કર્મ પુદગલો આત્મા ને દોષિત કરે છે તે કર્મ - માર્ગો ને આશ્રવ તત્વ કહે છે.
વહાણ માં છિદ્ર ના હોય તો તેમાં પાણી ભરાતું નથી , પરંતુ છિદ્ર વાળું વહાણ હોય તો તેમાં પાણી ભરાઈ જાય છે તે પ્રમાણે કર્મોને આવવાના છિદ્રો ને આશ્રવ કહ્યા છે. અથાર્ત આશ્રવ એટલે કર્મો ને વહી આવવાના નાળા - ગરનાળા. જીવાત્મા ને ભવસાગર માં ડુબાડી દેતા આશ્રવ ના ૪૨ પ્રકાર છે.


૬ > સંવર તત્વ
        સંવર એટલે રોકવું. જે માર્ગોથી કે નિમિત્તો થી કર્મો આત્મા ઉપર ખડકાય છે તે માર્ગો ને પૂરી દેવા.કર્મ નિરોધ કરવો તે સંવર તત્વ છે. ૬૭ પ્રકાર થી કર્મો નો સંવર થાય છે.


૭ > નિર્જરા તત્વ
         સંવર ના આચરણ થી કર્મો તો આવતા અટકી ગયા પરંતુ આશ્રવ દ્વારા જમા થયેલા કર્મો નો પ્રશ્ન ઉભો રહે છે. આ સંચિત કર્મો નો ક્ષય કરવો તેને નિર્જરા તત્વ કહે છે. નિર્જરા ૧૨ પ્રકાર થી થાય છે. આ બાર પ્રકાર એટલે જૈન ધર્મ ની આહાર સંહિતામાં નિર્દિષ્ટ ૧૨ પ્રકાર નાતપ.

૮ > બંધ તત્વ
        આસ્રવ અને નિર્જરા - આ બે તત્વો ની વચ્ચે ની સ્થિતિ બંધ છે. આત્મા ની સાથે સયુંકત કર્મયોગ્ય  પરમાણુ કર્મ રૂપ માં પરિવર્તન થવાની પ્રક્રિયા ને બંધ તત્વ કહે છે. દુધ માં પાણી , તલ માં તેલ , ફૂલ માં અત્તર રહેલ છે તેમ આત્મા અને કર્મ પુદગલ એકમેક માં બંધાઈ રહે તેને બંધ તત્વ કહે છે. બંધ તત્વ ચાર પ્રકાર નું છે.

૯ > મોક્ષ તત્વ

        તમામ પ્રકાર ના કર્મો નો ક્ષય થવો તેને મોક્ષ કહે છે. સમ્યક દર્શન , સમ્યગ જ્ઞાન , સમ્યક ચારિત્ર અને તાપ - આ ચાર ના ઉત્કટ અને વિશુધ આચરણ થી મોક્ષ મળે છે. આ નવ તત્વ માંથી
જીવ અને અજીવ તત્વો જાણવા યોગ્ય ( જ્ઞેય ) છે.
પાપ, આસ્રવ , અને બંધ ત્યાગ કરવા યોગ્ય ( હેય ) છે.
પુણ્ય , સંવર , નિર્જરા , અને મોક્ષ - આ ચાર તત્વો આચારણીય (
ઉપાદેય ) છે.

જૈન ધર્મ નું જ્ઞાન - વિજ્ઞાન

જૈન ધર્મ નું જ્ઞાન - વિજ્ઞાન

        જૈન ધર્મ કહે છે કે જે જાણે છે તે આત્મા છે. આત્મા જાણે છે અને જ્ઞાન એ જાણવાનું સાધન છે. કરતા અને કારણ ની અપેક્ષાએ જ્ઞાન અને આત્મા બંને ભિન્ન છે. પરંતુ વાસ્તવ માં જ્ઞાન એ આત્મા નું સ્વરૂપ છે. જ્ઞાન એ આત્મા નો ગુણ છે.
        જ્ઞેય અને જ્ઞાન બંને સ્વતંત્ર છે. દ્રવ્ય , ગુણ, અને પર્યાય એ જ્ઞેય છે , જયારે જ્ઞાન એ આત્મા નો નીજી ગુણ છે.
        પરંતુ જાણવા માત્ર થી જ્ઞાન નથી થતું. જાણવું એ તો પ્રવૃત્તિ કે પ્રયોગ છે. જ્ઞાન ની ક્ષમતા અનુસાર દ્રવ્ય , ગુણ , અને પર્યાય જાની શકાય છે. આ જાણવાના માધ્યમ ઇન્દ્રિય અને મન છે. આ બંનેની શક્તિ માર્યાદિત છે. આથી એક સમયે એક જ પર્યાય ( અંશ ) ને જાણી શકાય છે. પરંતુ અનાવૃત જ્ઞાન ( કેવળ જ્ઞાન) થી એકી સાથે તમામ પદાર્થો ને જાણી શકાય છે.
જ્ઞાન ના પ્રકાર

    અનાવૃત કર્મ ના આવરણ વિનાનું જ્ઞાન એક છે , તે છે કેવળજ્ઞાન. પરંતુ કર્મ ની આવરણ ની અવસ્થા માં જ્ઞાન ના ચાર પ્રકાર બતાવાયા છે. આવૃત અને અનાવૃત જ્ઞાન મળી ને પંચ પ્રકારના જ્ઞાન છે તે આ પ્રમાણે  :
૧ > મતિ જ્ઞાન :
        પાંચ ઇન્દ્રિય અને મન - આ છ વડે જે જણાય તે મતિજ્ઞાન છે.
        સ્પર્શન , રસન , ઘ્રાણ , ચક્ષુ , અને શ્રોત્ર  - આ પાંચ ઇન્દ્રિયો છે. તે બહાર ના વિષયો ને ગ્રહણ કરે છે અને જાણે છે , પરંતુ તેની અનુભૂતિ મન કરે છે. મન મનન કરે છે. ઇન્દ્રિયો દ્વારા ગ્રહણ કરેલા વિષયો ને જાણવાનું , માનવાનું , અને તેનું મનન કરવાનું એ કામ કરે છે. આ મન સમગ્ર શરીર માં વ્યાપ્ત છે.
        ઇન્દ્રિય અને મન ના જાણવા માં આટલો ફરક છે. ઇન્દ્રિયો માત્ર મૂર્ત-દ્રવ્ય ના વર્તમાન પર્યાયને જ જાણે છે. જયારે મન મૂર્ત અને અમૂર્ત બનેના ત્રૈકાલિક અનેક         રૂપોને જાણે છે. મન ઇન્દ્રિય ની મદદ વિના પણ જાણી શકે છે.
        મન અનેકવિધ રીતે વિચારે છે. વિચાર-પ્રક્રિયા અનુસરે મતિજ્ઞાન ના મુખ્ય ૨૮ ભેદ છે અને વિસ્તારથી તેના ૩૪૦ પ્રકાર છે.
૨ > શ્રુત જ્ઞાન
        સાંભળવાથી કે જોવા થી જે જ્ઞાન થાય તે શ્રુતજ્ઞાન છે. અમુક શબ્દનો અમુક અર્થ થાય છે. આ પ્રકારે વાચ્ય-વાચક નો જે સબંધ થાય છે , તેને શ્રુતજ્ઞાન કહે છે. શ્રુત જ્ઞાન ના ૧૪ પ્રકાર છે. ઉક્ત મતિજ્ઞાન અને શ્રુતજ્ઞાન નો ક્ષીરનીર જેવો ગાઢ સબંધ છે. જગતનો દરેક જીવ આ બે જ્ઞાન ધરાવે છે .
        મતિજ્ઞાનના વિવિધ પ્રકારમાં જાતિસ્મરણ જ્ઞાન નો પણ સમાવેશ થાય છે. આ જ્ઞાન થી પૂર્વ જન્મો ની  સ્મૃતિ અકબંધ તાજી થાય છે. આ જ્ઞાન થી ઉત્કૃષ્ટાએ ૯૦૦ ભવ જોઈ શકાય છે.

૩ > અવધિ જ્ઞાન
        માર્યાદિત ક્ષેત્ર રહેલા રૂપી-મૂર્ત પદાર્થોને ઇન્દ્રિયોની મદદ વિના જાણી શકાય તેને અવધિજ્ઞાન કહે છે. તે ૮ પ્રકાર નું છે.
        તીર્થંકરો , દેવતાઓ અને નારકી - આ ત્રણેય ને જન્મતાંની સાથે જ અવધિજ્ઞાન હોય છે. માણસો અને તિર્યંચોને આ જ્ઞાન કર્મોના ક્ષયોપશમ થી થાય છે.

૪ > મન:પર્યવ જ્ઞાન
        માણસ જે કઈ મનમાં વિચારે છે, તેને અનુરૂપ ચિંતક - પ્રવર્તક પુદગલ દ્રવ્યોની આકૃતિઓ બને છે. આ જ્ઞાન થી એ પર્યાયો જાણી શકાય છે. મતલબ કે મનના પ્રવર્તક કે ઉત્તેજક પુદગલ દ્રવ્યોને સાક્ષાત જાણનાર આ જ્ઞાન ને મન:પર્યવ જ્ઞાન કહે છે.
આ જ્ઞાન બે પ્રકાર નું છે.
        અવધિજ્ઞાન કરતા મન:પર્યવ જ્ઞાનનું ક્ષેત્ર સીમિત છે. પૂરંતુ વિશુદ્ધિ વિશેષ છે. અવધિજ્ઞાન દેવ, મનુષ્ય, તીર્યંચ , અને નરક ચારે ગતિવાળા  ને થાય છે. પરંતુ મન:પર્યવ જ્ઞાન માત્ર સાધુને જ થાય છે. અવધિજ્ઞાની રૂપી સુક્ષ્મ પર્યાયો ને જાણી શકતા નથી જયારે મન:પર્યવ જ્ઞાની તે જાણી શકે છે.

> કેવળ જ્ઞાન

        જ્ઞાનાવરણીય કર્મનો સંપૂર્ણ ક્ષય થતા આ જ્ઞાન ઉપલબ્ધ થાય છે. ઇન્દ્રિય અને મન ની મદદની આ જ્ઞાન પ્રાપ્તિ પછી જરૂર નથી રહેતી. કેવળજ્ઞાની લોક અને અલોક બંનેને જાણે છે.

જૈન ધર્મ નું જીવવિજ્ઞાન

 જીવ અનાદિ , અનંત અને શાશ્વત પદાર્થ છે. જીવ નો કોઈ સર્જનહાર નથી. જીવ સ્વયંસિદ્ધ છે. ત્રિકાળ જીવંત રહેતો હોવાથી તે જીવ કહેવાય છે. ચૈતન્ય - સ્વરૂપ અને ચૈતન્ય લક્ષણવાળા પદાર્થ ને જીવ કહે છે. આવા જીવો અનંતા અને અનેકવિધ છે. જીવ ને આત્મા કહે છે. ચેતન પણ તેનું જ એક નામ છે અને તેનું એક લક્ષણ છે.
આ આત્મા ચેતનામય અરૂપી સત્તા છે. તેને શબ્દ , રૂપ , રસ , ગંધ , અને સ્પર્શ નથી. એ નિરંજન અને નિરાકાર છે. જ્ઞાનમય અસંખ્ય પ્રદેશો નો એ પીંડ છે.
ચેતના ની  ક્રિયા એ આત્મા ( જીવ ) નું લક્ષણ છે. જ્ઞાન , દર્શન , સુખ , અને દુખ દ્વારા તે અભિવ્યક્ત થાય છે. આત્મા માં સંકોચ અને વિસ્તાર ની શક્તિ રહેલી છે. તે કીડી જેવા નાનકડા શરીર માં પણ રહી શકે છે અને હાથી જેવા મોટા શરીર માં પણ રહી શકે છે.
બાહ્ય લક્ષણ
        જે પોતાની ઈન્દ્રિયો દ્વારા આહાર ગ્રહણ કરે છે અને તેનું વિસર્જન પણ કરે છે, તે જાગે છે અને ઊંઘે છે. તે શ્રમ પણ કરે છે અને વિશ્રામ પણ કરે છે. તે ભય પામે છે. આત્મરક્ષા માટે તે પ્રયત્ન કરે છે. મૈથુન સેવન કરે છે અને મૈથુનથી જન્મે છે. તે વધે છે અને ઘટે છે, તેસંગ્રહ કરે છે.
અંતરંગ લક્ષણ
        ચેતના આત્મા નું ભીતરી લક્ષણ છે. જીવમાત્ર માં ઓછાવત્તા  પ્રમાણ માં ચૈતન્ય શક્તિ રહેલી છે. કર્મો ના આવરણ પ્રમાણે તેની શક્તિ ઓછી કે વધુ જોવા મળે છે. આત્મા સમગ્ર શરીર માં વ્યાપ્ત છે. તે કર્મ પુદ્દ્ગલોને ગ્રહણ કરે છે અને તે કર્માનુસાર તે અવનવા જન્મ લે છે અને કર્મોનો ક્ષય કરીને તે મુક્ત પણ બને છે.
આથી
જીવ ના મુખ્ય બે પ્રકાર કહ્યા છે. > મુક્ત જીવ
> સંસારી જીવ

જીવ ના ભેદ - પ્રભેદ
        જેમને તમામ કર્મોનો સર્વથા અને સંપૂર્ણ ક્ષય કર્યો છે, જેમને ફરીથી જન્મ લેવાનો નથી, એવા શરીર વિનાના નિરંજન , નિરાકાર આત્માને મુક્ત જીવ કહે છે. આવા મુક્તાત્માઓ અનંત છે. અને જેવો વિવિધ કર્મો થી બદ્ધ છે , જેઓ પુનઃ પુનઃ જન્મ મરણ કરી ને અવનવા દેહો માં જીવે છે તેઓ સૌ સંસારી જીવો કહેવાય છે. સંસારી જીવો ના બે ભેદ છે.
> ત્રસ
> સ્થાવર

ત્રસ જીવો
        જેઓ પોતાની ઈચ્છા મુજબ હરેફરે છે, શરીર ને સંકોચે છે, વિસ્તારે છે, રડે છે, ભય પામે છે, ત્રાસ અનુભવે છે. વગેરે ત્રસ જીવોની ઓળખ ના લક્ષણો છે. ત્રસ જીવો ૮ પ્રકારે જન્મ લે છે.
૧ > ઈંડા માંથી જન્મે તે ( પક્ષી વગેરે )
૨ > કોથળી માંથી જન્મે તે ( હાથી વગેરે )
૩ > ગર્ભાશયમાંથી જન્મે તે ( ગાય , માણસ વગેરે )
૪ > રસથી જન્મે તે ( કીડા વગેરે )
૫ > પરસેવાથી જન્મે તે ( જૂ, માંકડ વગેરે )
૬ > પૃથ્વી ફાડીને નીકળે ( તીડ વગેરે )
૭ > સમૂર્ચ્છિમ્ મળમૂત્ર માંથી જન્મે તે ( કીડી, માખી વગેરે )
૮ > શય્યા માં કે કુંભીમાં જન્મે તે ( નારકી , દેવતા વગેરે )


ભેદ : ઇન્દ્રિયો પ્રમાણે ત્રસ જીવો ચાર પ્રકાર ના છે.
૧ > બેઇન્દ્રિય : કયા અને મુખ એમ બેઇન્દ્રિય વાળા જીવ. શંખ છીપ, અળસિયા , કરમિયા , પોર વગેરે.
૨ > તેઇન્દ્રિય : કયા , મુખ , અને નાક એમ ત્રણ ઇન્દ્રિય વાળા જીવ. જૂ , લીખ , માંકડ , મકોડા , ધનેડા વગેરે
૩ > ચઉરીન્દ્રિય : કયા , મુખ , નાક અને આંખ એમ ચાર ઇન્દ્રિયવાળા જીવ. ડાંસ , મચ્છર , વીંછી , કરોળિયા વગેરે
૪ > પંચેન્દ્રિય : કયા , મુખ , નાક , આંખ અને કાન એમ પાંચ ઇન્દ્રિયવાળા જીવ. નારકી, તીર્યંચ , મનુષ્ય , અને દેવતા.


સ્થાવર જીવો
         જેમના શરીરમાં જીવ છે પરંતુ દુ:ખને દુર કરવાનો અને સુખ મેળવવાનો જે પ્રયત્ન નથી કરતા તે સ્થાવર જીવો છે.આવા જીવો ને માત્ર કાયા ની એકજ  ઇન્દ્રિય હોય છે. આવા જીવો પાંચ પ્રકાર ના છે.
૧ > પૃથ્વીકાય : માટીના જીવો જેમ કે લાલ માટી , સફેદ માટી , રેતી , પત્થર , મીઠું , રાતનો , સુરમો , અબરખ વગેરે .
૨ > અપકાય : પાણી ના જીવો. જેમ કે વરસાદ નું પાણી , ઠારનું પાણી ,ધુમ્મસ , ઝાકળ વગેરે તમામ પ્રકાર નું પાણી
૩ > તેઉકાય : અગ્નિ ના જીવો. જેમ કે તણખા , જ્યોત ,જ્વાળા ,વડવાનલ , ભઠ્ઠી વગેરે.
૪ > વાઉકાય : વાયુ ના જીવો જેમ કે વિવિધ પવન , વંટોળ , ચક્રપાત વગેરે .
૫ > વનસ્પતિકાય : વૃક્ષ-વેલી વનસ્પતિ ના જીવો જેમ કે ફળ, ફૂલ, વેલી, ઘાસ , દરેક પ્રકાર ની લીલોતરી, શાકભાજી વગેરે.

આ દરેક જીવો ના પણ ભેદ અને પ્રભેદ છે. એ બધા નો કુલ સરવાળો આ પ્રમાણે કરાયો છે.
દેવતાના ૧૯૮ પ્રકાર ના ભેદ
માણસના ૩૦૩ પ્રકાર ના ભેદ
તીર્યંચના ૪૮ પ્રકાર ના ભેદ
નારકીના ૧૪ પ્રકાર ના ભેદ
આમ કુલ ૫૬૩ પ્રકાર ના જીવો છે.

आत्मा के स्वरूप का शास्त्रीय विवेचन

आत्मा के स्वरूप का शास्त्रीय विवेचन
जीव का लक्षण चेतना है। चेतना अर्थात् ज्ञानशक्ति। ऐसी शक्ति जीव के अतिरिक्त अन्य किसी रूपी अथवा अरूपी द्रव्य में नहीं है। चेतनस्वरूप-ज्ञानस्वरूप जीव अपनी चेतनाशक्ति द्वारा जानता है, वस्तु का ज्ञान करता है अथवा कर सकता है। जीव इतर पदार्थों का ज्ञान कर सकता है, इतना ही नहीं, वह अपने आप भी ज्ञान कर सकता है, इतना ही नहीं, वह अपने आप भी ज्ञान कर सकता है। इसीलिये वह स्वपरप्रकाशक कहलाता है। सब प्रकार का (यथार्थ अथवा अयथार्थ) ज्ञान स्वयंप्रकाशक (स्वसंवेदनरूप अथवा स्वसंविदित) है अर्थात् वह स्वयं अपने आप को प्रकाशित करता है। परन्तु यथार्थज्ञान स्वप्रकाशक और अर्थप्रकाशक इस प्रकार दोनों स्वरूपवाला होने से स्वपरप्रकाशक (स्वपरव्यवसायी) समझा जाता है। प्रदीप की भाँति ज्ञान भी स्वयं प्रकाशरूप हो कर ही अर्थ को प्रकाशित करता है। जो ज्ञान अयथार्थ (सन्दिग्ध अथवा भ्रान्त) है वह परप्रकाशक नहीं हो सकता यह तो स्पष्ट ही है।
विश्व में जितने पदार्थ हैं वे सब सामान्य तथा विशेष स्वभाववाले हैं। जब चेतना पदार्थ के विशेष स्वभाव की ओर लक्ष न करके मुख्यतः पदार्थ के सामान्य स्वभाव को लक्ष्य बनाती है तब चेतना के उस समय के परिणमन को ‘दर्शन’ कहते हैं। और जब चेतना पदार्थ के सामान्य स्वभाव की ओर लक्ष न कर के मुख्यरूप से पदार्थ के विशेष स्वभाव को लक्ष्य बनाती है तब चेतना के उस समय के परिणमन को ‘ज्ञान’ कहते हैं। चेतना का, योग्य निमित्त के योग से जानने की क्रिया में परिणमन होने का नाम ‘उपयोग’ है। इस पर से ज्ञात होगा कि उपयोग दो विभागों में विभक्त है : सामान्य उपयोग और विशेष उपयोग। जो बोध ग्राह्य वस्तु को सामान्यरूप से जाने वह सामान्य-उपयोग और जो बोध ग्राह्य वस्तु को विशेषरूप से जाने वह विशेष उपयोग है। विशेष उपयोग को साकार उपयोग और सामान्य उपयोग को निराकार उपयोग कहते हैं। साकार और निराकार शब्दों में आए हुए ‘आकार’ शब्द का अर्थ ‘विशेष’ समझने का है। ‘निराकार’ उपयोग का अर्थ है आकार अर्थात् विशेष का ग्रहण जिसमें नहीं है ऐसा उपयोग अर्थात् सामान्यग्रहणात्मक उपयोग निराकार उपयोग है। सामान्य उपयोग को ‘दर्शन’ और विशेष उपयोग को ‘ज्ञान’ कहते हैं।
दर्शन का लक्ष सामान्य की ओर होने से उससे एकता अथवा समानता का मान उत्पन्न होता है जबकि ज्ञान का लक्ष विशेषता की ओर होने के कारण उससे विशेषरूपता का-भिन्नता का भान होता है। प्रथम दर्शन और बाद में ज्ञान ऐसा क्रम लगभग सर्वसाधारण मझा जाता है। प्रथम यदि दर्शन न हो तो ज्ञान हो ही कैसे? दर्शन और ज्ञान का भेद समझने के लिये यहाँ पर एक स्थूल दृष्टान्त देना उपयोगी होगा। गायों के समूह को दूर से देखने पर हमें प्रारम्भ में ‘ये सब गायें हैं’ ऐसा सामान्यतः भान होता है। ऐसे समय हम मुख्यतः गायों में रहे हुए सामान्य तत्त्व की ओर ध्यान देते हैं। गायों का समूह समीप आने पर उनके रंग, सींग, कद आदि में रही हुई विशेषताओं की ओर यदि हम लक्ष दें तो एक गाय से दूसरी गाय में रही हुई भिन्नता हमारी समझ में आती है। ऐसे समय हम मुख्यतः गायों में रही हुई विशेषताओं की ओर ध्यान देते हैं।
दर्शन एवं ज्ञान में तात्त्विक भेद नहीं है। दोनों बोधरूप ही हैं। भेद केवल विषय की सीमा को लेकर ही है। अतःज्ञान को विशाल अर्थ में यदि हम लें तो उसमें दर्शन का समावेश हो जाता है।
लगभग सभी दर्शन ऐसा मानते हैं कि ज्ञानव्यापार के उत्पत्तिक्रम में सर्वप्रथम ऐसे बोध का स्थान अनिवार्य रूप से आता है जो ग्राह्य विषय के सत्तामात्र स्वरूप का ग्राहक हो और जिसमें कोई भी अंश विशेषण-विशेष्यरूप से भासित न हो।
लोक-व्यवहार का सम्पूर्ण आधार ‘ज्ञान’ पर है। यही कारण है कि ज्ञान का आवारक ‘ज्ञानावरणीय’ कर्म पूर्वोक्त आठ कर्मों में प्रथम रखा है। ज्ञान के सम्बन्ध में पहले थोड़ा निरूपण किया गया है। उसमें ज्ञान के ‘मति’ आदि पाँच भेद बतलाए हैं। यहां पर हम इनके बारे में तनिक ब्योरे से देखें।
मति और श्रुत ज्ञान मन तथा इन्द्रियों द्वारा होते हैं। मन से युक्त चक्षु आदि इन्द्रियों से रूप आदि विषयों का जो प्रत्यक्ष ज्ञान होता है वह (सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष) मतिज्ञान है और मन से सुखादि का जो संवेदन होता है वह मानस (सांव्यवहारिक) प्रत्यक्ष मतिज्ञान है। इस प्रकार मतिज्ञान का एक विभाग प्रत्यक्ष (सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष) रूप है और मन से तर्क-वितर्क-विचार, स्मरण, प्रत्यभिज्ञान, अनुमानादि जो होता है वह परोक्ष मतिज्ञान है। प्रत्यक्षरूप मतिज्ञान के अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणा ऐसे चार भेद हैं। प्रथम निर्विकल्परूप अव्यक्त ‘दर्शन’ के बाद अवग्रह होता है। सामान्यतः रूप, स्पर्श आदि का प्रतिभास अवग्रह है। अवग्रह के पश्चात् वस्तु की विशेषता के बारे में सन्देह उत्पन्न होने पर उसके बारे में निर्णयोन्मुखी जो विशेष आलोचना होती है वह ‘ईहा’ है। किसी दृश्य आकृति का चक्षु द्वारा, किसी शब्द का श्रवणेन्द्रिय द्वारा, किसी स्पर्श का स्पर्शनेन्द्रिय द्वारा प्रतिभास (अवग्रहरूप प्रतिभास) होने के पश्चात् विशेष चिह्न ज्ञात होने पर ‘यह वृक्ष ही होना चाहिए, मनुष्य नहीं’ अथवा ‘यह मनुष्य बंगाली होना चाहिए, पंजाबी नहीं’ अथवा ‘यह शंख का शब्द होना चाहिए, शृंग का नहीं’ अथवा ‘वह रस्सी का स्पर्श होना चाहिए, सर्प का नहीं’ इस प्रकार की निर्णयाभिमुखी जो विचारणा-सम्भावना होती है वह ईहा’ है।
ईहा के बाद ‘यह वृक्ष ही है,’ ‘यह बंगाली ही है,’ ‘यह शंख का ही शब्द है,’ ‘यह रस्सी का ही स्पर्श है’-इस प्रकार का निर्णय होना ‘अवाय’ है। और अवाय से निर्णीत पदार्थ का कालान्तर में स्मरण हो सके ऐसा संस्कारवाला ज्ञान ‘धारणा’ है। इसे ‘संस्कार’ भी कहते हैं। अर्थात् ‘अवाय’ रूप निश्चय कुछ समय के बाद लुप्त हो जाने पर भी ऐसा ‘संस्कार’ रखता जाता है जिससे आगे जा कर उस निश्चित विषय का स्मरण हो आता है। इस अवायरूप निश्चय की सतत धारा, तज्जन्य संस्कार तथा संस्कारजन्य स्मरण-यह सब मतिव्यापार ‘धारणा’ है। परन्तु इस समग्र मतिव्यापार में ‘संस्कार’ प्रत्यक्ष मतिज्ञान है, जबकि ‘स्मरण’ परोक्ष मतिज्ञान है।
इस प्रकार ‘अवग्रह’ आदि चार ज्ञानों का उत्पत्ति क्रम है।
शास्त्र में औत्पत्तिकी, वैनयिकी, कर्मजा और पारिणामिकी इस प्रकार चार तरहकी बुद्धि का वर्णन आता है और उनका मतिज्ञानरूप से उल्लेख किया है। किसी विकट उलझन को सुलझाने के समय उसे सुलझा सके ऐसी सहज बुद्धि यदि तुरन्त उत्पन्न हो तो वह औत्पत्तिकी बुद्धि है। इसे प्रत्युत्पन्नमति भी कह सकते है। विनय अर्थात् शिक्षण द्वारा विकसित बुद्धि वैनयिकी बुद्धि है, शिल्प एवं कर्म द्वारा संस्कृत बुद्धि कर्मजा बुद्धि है और लम्बे अनुभव से परिपक्व हुई बुद्धि पारिणामिकी बुद्धि है।
इन चार प्रकारों की बुद्धि का जिक्र ‘नन्दिसूत्र’ में उदाहरणों के संक्षिप्त नामों के साथ आता है और वे उदाहरण उस सूत्र की टीका में श्री मलयगिरिने संक्षेप में दिए हैं। इनमें से कुछ बहुत मनोरंजक हैं। यहाँ पर तो विषय का तनिक ख्याल आ सके इस दृष्टि से दो-एक उदाहरण उस टीका में से देते हैं।
औत्पत्तिकी बुद्धि पर टीकाकार ने आज भी सामान्य जनता में अतिप्रसिद्ध ऐसा एक उदाहरण दिया है।
जैसे कि -
एक परुष की दो विधवा स्त्रियों के बीच पुत्र के लिये झगड़ा हुआ। दोनों कहने लगीं, यह मेरा पुत्र है। न्यायाधीश ने आज्ञा दी, पुत्र को दो टुकड़े कर के एक एक टुकड़ा दोनों स्त्रियों को बाँट दो। जो नकली माता थी वह तो फैसले पर कुछ भी न बोली, परन्तु जो असली माता थी उसका हृदय कांप उठा और प्रेम के आवेश में उसने कहा : यह मेरा पुत्र नहीं है। यह समूचा पुत्र उसे दे दो। इस पर से वास्तविक माता का पता चल गया। यह न्यायाधीश की औत्पत्तिकी बुद्धि का उदाहरण है।
वैनयिकी बुद्धि का उदाहरण-एक वृद्धा ने दो ज्योतिषियों से पूछा कि देशान्तर से मेरा पुत्र कब आयगा? ऐसा पूछते समय वृद्धा के सिर पर रखा हुआ घड़ा नीचे गिर कर टुकड़े टुकड़े हो गया। इस पर से उन दो ज्योतिषियों में से एक ने कहा : माँजी, तुम्हारा लड़का, जैसे वह घट नष्ट हुआ वैसे मर गया है। तब दूसरे ने उसे रोक कर कहा : माँजी, तुम्हारा पुत्र घर पर आ गया है। तुम घर पर जाओ। वृद्धा गर गई और पुत्र को देख कर आनन्दित हुई। यह ज्योतिषी की वैनयिकी बुद्धि का उदाहरण है। उसने ऐसे विचार से-ऐसी तर्कशक्ति से इस प्रकार का भविष्य कथन किया कि जैसे वृद्धा का घड़ा, प्रश्न पूछते समय ही, अपनी जननी मिट्टी में मिल गया वैसे वृद्धा का पुत्र भी अभी ही उसे मिलना चाहिए।
कर्मजा बुद्धि के उदाहरणों में शिल्प एवं कर्म (कला) में प्रवीणतासूचक उदाहरण दिए हैं।
पारिणामिकी बुद्धि के उदाहरणों में से एक उदाहरण इस प्रकार है -
परस्त्री का त्यागी एक श्रावक एक बार अपना पत्नी की सखी को देख कर उस पर मोहित हो गया। मोह से पीड़ित अपने पति को देख कर पत्नी ने कहा : ‘तुम दुःखी न हो। तुम्हारी इच्छा मैं पूर्ण कर दूँगी।’ इसके बाद रात पड़ने पर अपनी सखी के वस्त्राभरण धारण कर के सखीरूप से अपने पति से वह एकान्त में मिली। उसके साथ संग करने के बाद उस पुरुष को अपने व्रतभंग के लिये दुःख हुआ। पत्नी ने जब सच्ची बात कही तब उसका दुःख कुछ हलका हुआ और गुरु के पास जा कर मन में दुष्ट संकल्प करने से जो व्रतभंग हुआ था उसके लिये प्रायश्चित्त किया। यह श्राविका की पारिणामिकी बुद्धि का उदाहरण है।
इस प्रकार हमने मतिज्ञान देखा। अब श्रुतज्ञान को देखें। श्रुतज्ञान अर्थात् श्रुत यानी सुने हुए का ज्ञान। इसका एक अर्थ होता है शास्त्र-आगम का ज्ञान। सामान्यतः किसी भी विषय के शास्त्र अथवा ग्रन्थ से उत्पन्न होनेवाला ज्ञान श्रुतज्ञान है। सदुपयोग अथवा दुरुपयोग किसी भी शास्त्र अथवा ज्ञान का हो सकता है। मोक्ष में उपयोगी होना किसी शास्त्र का नियत स्वभाव नहीं है। अधिकारी यदि योग्य और मुमुक्षु हो तो लौकिक समझे जानेवाले शास्त्र को भी वह मोक्ष के लिये उपयोगी बना सकता है और अधिकारी योग्य न हो तो आध्यात्मिक श्रेणि के शास्त्र भी उसके पतन में निमित्त हो सकते हैं। फिर भी विषय और प्रणेता की योग्यता की दृष्टि से शास्त्र अवश्य अपना विशिष्ट महत्त्व रखते हैं।
व्यापक रूप से विचार करने पर श्रुतज्ञान का अर्थ शब्दजन्य ज्ञान अथवा संकेतजन्य ज्ञान होता है। शब्द सुन कर के अथवा लिखा हुआ पढ़कर के जो ज्ञान होता है वह श्रुतज्ञान है ही, परन्तु संकेत द्वारा होनेवाला ज्ञान भी श्रुतज्ञान कहलाता है। जैसे कि, किसी के साथ के इशारे से अथवा किसी के खाँसने से जो समझ में आता है वह श्रुतज्ञान है। यदि कोई अपने मुँह के आगे हाथ रखे तो उस संकेत से जो खाने का अर्थ समझा जाता है वह श्रुतज्ञान है। ऊपर उठे हुए अक्षरों पर हाथ फिराने से एक अन्धा जो पढ़ता है-समझता है वह श्रुतज्ञान है। तार के ‘कट् कट्’ शब्दों पर से जो समझा जाता है वह श्रुतज्ञान है। आमने सामने दो मनुष्य एक-दूसरे की संज्ञाओं से जो कुछ समझते हैं वह श्रुतज्ञान है। खाँसी आदि से, अन्धेरे में कोई मनुष्य है ऐसा जो ज्ञान होता है वह श्रुतज्ञान है। एक गूंगा आदमी दूसरों के हाथ की चेष्टाओं अथवा संकेत से अथवा गूंगे के संकेत आदि से दूसरा जो समझता है वह श्रुतज्ञान है। इसी प्रकार एक बहरे को दूसरे के हाथ की संज्ञाओं से जो ज्ञान होता है वह श्रुतज्ञान है। पाँचों इन्द्रियों में स्वस्थ पुरुषों में भी बहुत बार वाणीप्रयोग न कर के मुँह, हाथ, मस्तक आदि की संज्ञाओं से-चेष्टाओं से एक-दूसरे को समझा देने का अथवा उत्तर दे देने का प्रचार है। इस से जो बोध होता है वह श्रुतज्ञान है।
शब्द सुन कर जिस प्रकार अर्थ की उपस्थति होती है उसी प्रकार संकेत से भी अर्थ की उपस्थिति होती है। जिस तरीके से शब्द द्वारा ज्ञान उत्पन्न होता है उसी तरीके से संकेत द्वारा भी ज्ञान पैदा होता है। अतः संकेतजन्य ज्ञान शाब्दबोध जैसा है और इसीलिये वह श्रुतज्ञान है।
शब्द का सुनना तो श्रोत्रेन्द्रिय का अवग्रहादिरूप मतिज्ञान है, परन्तु उससे बोध (शाब्दबोध) होना श्रुतज्ञान है। चेष्टा, संकेत अथवा संज्ञा का देखना चाक्षुष अवग्रहादि मतिज्ञान है, परन्तु उससे अर्थ की उपस्थिति होना-अर्थ का बोध होना श्रुतज्ञान है। इसी प्रकार संकेत का श्रवण श्रोत्रेन्द्रिय का अवग्रहादि मतिज्ञान है, परन्तु उससे शाब्दबोध जैसा अर्थबोध होना श्रुतज्ञान है।
मति और श्रुत में भेद क्या है?-इसके बारे में विशेषावश्यकभाष्य के टीकाकार कहते हैं कि ‘इन्द्रिय और मन द्वारा उत्पन्न होनेवाला सब प्रकार का ज्ञान ‘मतिज्ञान’ ही है। सिर्फ परोपदेश और आगम-वचन से पैदा होने पर वह ‘श्रुत’ कहलाता है, जो (इस प्रकार की विशेषतावाला) मतिज्ञान का एक विशिष्ट भेद ही है।’
सामान्यतः ऐसा कहा जा सकता है कि मति और श्रुत में क्रमशः बुद्धि और विद्वत्ता जैसा भेद है। मतिज्ञानी को बुद्धिमान् और श्रुतज्ञानी को विद्वान् कह सकते हैं। विद्वान् की मति श्रुत से रँगी हुई होती है। इस प्रकार ये दोनों एकरस बन जाते हैं।
मतिज्ञान निमित्त के योगसे स्वयं उत्पन्न होनेवाला ज्ञान है, अर्थात् उसमें परोपदेश की अपेक्षा नहीं होती, जबकि श्रुतज्ञान परोपदेश से (आगम अथवा शास्त्रवचन भी परोपदेश ही है) पैदा होता है और उसमें, पहले कहा उस तरह, शब्द एवं अर्थ के संकेत की आवश्यकता है। मतिज्ञान द्वारा ज्ञात वस्तु को दूसरे से कहने के लिये जब हम मन ही मन उस ज्ञान को भाषा के रूप में परिणत करते हैं तब भाषा के रूप में परिणत होने के कारण वह ‘श्रुतज्ञान’ नहीं हो जाता। उस समय भी वह तो ‘मतिज्ञान’ ही कहलाता है। ‘श्रुतज्ञान’ तो भाषा द्वारा पैदा होने से ही होता है। मतिज्ञान से जाना हुआ भी भाषा में रखा जा सकता है और श्रुतज्ञान से जाना हुआ भी भाषा में रखा जा सकता है। श्रुतज्ञान से ज्ञात पदार्थ पर विशेष विचार-विशेष चिन्तन-विशेष ऊहापोह बुद्धिरूप है और बुद्धि ‘मतिज्ञान’ है। वैनयिकी बुद्धि, जिसका पहले उल्लेख हो चुका है, विशेष विचाररूप है और मतिज्ञान है।
इस प्रकार मतिज्ञान की व्यापकता होने पर भी उसकी संस्कारिता, पुष्टिमत्ता और बलवत्ता का आधार श्रुतज्ञान है। प्रगति और उन्नति के मार्ग पर वह हमें आरूढ़ करता है। पूर्वजों एवं साथियों के अनुभव का लाभ यदि हमें न मिले तो हमारी अवस्था पशुओं की अपेक्षा भी अधम हो जाय। इसलिये श्रुतज्ञान का क्षेत्र भी अत्यन्त विशाल है। यद्यपि मतिज्ञान के बिना श्रुतज्ञान खड़ा नहीं हो सकता किन्तु श्रुतज्ञान के बिना मतिज्ञान पशु से अधिक उन्नत श्रेणि पर नहीं ले जा सकता। इस प्रकार मति और श्रुत दोनों एक-दूसरे में ओतप्रोत होने पर भी दोनों के बीच का भेद समझा जा सकता है।
मति और श्रुत संसार के समग्र प्राणियों में-सूक्ष्म जीव से लेकर पंचेन्द्रिय तक के सब जीवों में है। शास्त्र के आधार पर मति और श्रुत का विषय सब द्रव्य हैं, अर्थात् रूपी एवं अरूपी सब द्रव्यों का मति और श्रुत द्वारा विचार किया जा सकता है और वे जाने जा सकते हैं। परन्तु ये दोनों ज्ञान किसी भी द्रव्य के परिमित ही पर्याय जानते हैं। इतना अवश्य है कि मतिज्ञान की अपेक्षा श्रुत का पर्यायग्राहित्व अधिक है।
मतिज्ञान इन्द्रियजन्य है और साथ ही मनोजन्य भी है। मन स्वानुभूत अथवा शास्त्रश्रुत सब मूर्त-अमूर्त द्रव्यों का चिन्तन करता है। अतः मनोजन्य मतिज्ञान की अपेक्षा से समग्र द्रव्य मतिज्ञान के विषय कहे जा सकते हैं। मानसिक चिन्तन जब शब्दोल्लेखसहित होता है तब श्रुतज्ञान है और जब शब्दोल्लेखरहित होता है तब मतिज्ञान है ।
शास्त्रदृष्टि से मति और श्रुत ये दोनों ज्ञान इन्द्रियमनोजनित होने के कारण-साक्षात् आत्मा द्वारा न होकर अन्य निमित्तों के बल पर उत्पन्न होने से परोक्ष कहलाए हैं। इनमें नेत्र आदि इन्द्रियों से होनेवाले रूप आदि विषयों के ज्ञान भी आ जाते हैं। फिर भी नेत्रादिइन्द्रियजन्य रूपादिविषयक ज्ञान लोकव्यवहार में प्रत्यक्ष गिने जाते है, अतः शास्त्र को भी उन्हें प्रत्यक्ष मानना पड़ा है। पारमार्थिक दृष्टि से ये ज्ञान परोक्ष होने पर भी व्यावहारिक दृष्टि से प्रत्यक्ष माने जाने के कारण उन्हें सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष कहा है।
शास्त्रानुसार पारमार्थिक (वास्तविक) प्रत्यक्ष तीन प्रकार का है : अवधि, मनःपर्याय और केवल। ये तीनों इन्द्रिय एवं मन किसी की भी अपेक्षा रखे बिना केवल आत्मशक्ति से प्रकट होते हैं। अतः ये अतीन्द्रिय ज्ञान हैं।
अवधि का विषय रूपी (मूर्त) द्रव्य हैं अर्थात् अवधिज्ञान रूपी द्रव्यों को प्रत्यक्ष करता है।
अवधिज्ञान के असंख्य भेद हैं। ऐसा उच्च कोटि का भी अवधिज्ञान होता है जो मनोद्रव्य को ग्रहण कर सकता है और कार्मिक द्रव्यों को भी जान सकता है।
मनःपर्यायज्ञान भी रूपी द्रव्यों को ही ग्रहण करनेवाला ज्ञान है। परन्तु रूपी द्रव्य दूसरा कोई नहीं, केवल मनोद्रव्य (मनरूप से परिणत पुद्गल) ही। कहने का अभिप्राय यह है कि मनःपर्यायज्ञान मनुष्यलोक में रहनेवाले संज्ञी पंचेन्द्रिय जीवों के मनोद्रव्य को ग्रहण करता है। इस कारण मनःपर्यायज्ञान का विषय अवधिज्ञान के विषय का अनन्तवाँ भाग कहा है।
मनःपर्याय ज्ञान से दूसरे के मन में जिस वस्तु का चिन्तन हो रहा हो उस वस्तु का ज्ञान नहीं होता, परन्तु विचार करते समय मन की (मनोद्रव्य की) जो आकृतियाँ बनती हैं उन आकृतियों का ही साक्षात्कार होता है। चिन्त्यमान वस्तु का ज्ञान तो पीछे से अनुमान द्वारा होता है। जिस प्रकार हम पुस्तक आदि में छपी हुई लिपि को प्रत्यक्ष देखते हैं उसी प्रकार मनःपर्यायज्ञान मनोद्रव्य की विशिष्ट आकृतियों को प्रत्यक्ष देखता है। इन आकृतियों का साक्षात्कार ही मनःपर्याय की साक्षात्क्रिया है। परन्तु लिपिदर्शन पर से (लिपि पढ़कर) हमें जो ज्ञान होता है वह प्रत्यक्ष नहीं किन्तु शाब्दबोध (श्रुतज्ञान) है उसी प्रकार मनोद्रव्य की विशिष्ट आकृतियों के दर्शन (साक्षात्कार) से जो चिन्त्यमान वस्तुओं का ज्ञान होता है वह प्रत्यक्ष नहीं किन्तु अनुमानज्ञान है और वह मनःपर्याय की सीमा की बाहर का है।
अवधि और मनःपर्याय के बीच विशुद्धि, क्षेत्र, स्वामी और विषय द्वारा भेद बतलाया जाता है।
अवधिज्ञान की अपेक्षा मनःपर्यायज्ञान अपने विषय को अधिक स्पष्टरूप से जानता है। यह हुआ विशुद्धिकृत भेद। कोई अवधिज्ञान अत्यन्त अल्प सीमा का स्पर्श करता है तो कोई उससे कुछ अधिक सीमा का। यह तारतम्य असंख्य प्रकार का है। इससे अवधिज्ञान के असंख्य भेद होते हैं। उच्चतम अवधिज्ञान सम्पूर्ण लोक का (समग्र लोक के सम्पूर्ण रूपी द्रव्यों का) स्पर्श करता है-उसे जानता है, जबकि मनःपर्यायज्ञान का विषयक्षेत्र मनुष्यक्षेत्र ही है। यह हुआ क्षेत्रकृत भेद। अवधिज्ञान का स्वामी मनुष्य, तिर्यंच, देव और नारक चारों गति के जीव हो सकते हैं, जबकि मनःपर्यायज्ञान का स्वामी केवल सर्वविरत मनुष्य ही हो सकता है। यह हुआ स्वामिकृत भेद। अवधइ का विषय उत्कृष्टरूप से सम्पूर्ण रूपी द्रव्य हैं, जबकि मनःपर्याय ज्ञान का विषय उसका अनन्तवाँ भाग है, अर्थात् केवल मनोद्रव्य है। यह हुआ विषयकृत भेद।
मनःपर्यायज्ञान का विषय अल्प होने पर भी अवधिज्ञान की अपेक्षा वह विशुद्धतर माना गया है। इसका कारण स्पष्ट है। विशुद्धि का आधार विषय की न्यूनाधिकता पर नहीं, किन्तु विषय में रही हुई न्यूनाधिक सूक्ष्मताओं के जानने में है। जैसे कि, दो मनुष्यों में एक ऐसा है जो अनेक शास्त्रों को जानता है और दूसरा एक ही शास्त्र को जानता है। अब, यदि एक ही शास्त्र को जाननेवाला अपने शास्त्र-विषय को उस अनेकशास्त्रज्ञ मनुष्य की अपेक्षा अधिक गहराई से, अधिक सूक्ष्मता से जानता हो तो उसका उस विषय का ज्ञान उस अनेक शास्त्रज्ञ मनुष्य के ज्ञान की अपेक्षा विशुद्ध कहलायगा, उच्चतर समझा जायगा। इसी प्रकार विषय अल्प होने पर भी उसकी सूक्ष्मताओं को अवधिज्ञान की अपेक्षा विशेष रूप से जाननेवाला मनःपर्याय ज्ञान अवधिज्ञान की अपेक्षा विशुद्धतर समझा जाता है।
अवधिज्ञान, मनःपर्याय ज्ञान और केवलज्ञान ये तीनों ज्ञान पारमार्थिक प्रत्यक्ष की श्रेणी के हैं। इनमें अन्तिम ज्ञान सर्ववित् (रूपी, अरूपी सर्वविषयग्राही) है, अतः वह सकल-प्रत्यक्ष कहलाता है, जबकि पहले के दो (अवधि और मनःपर्याय) अपूर्ण प्रत्यक्ष होने के कारण विकलप्रत्यक्ष कहे गए हैं।
अब ‘ज्ञान’ से पूर्व अल्प समय के लिये चमकनेवाले ‘दर्शन’ को देखें। इसके चक्षुर्दर्शन, अचक्षुर्दर्शन, अवधिदर्शन और केवलदर्शन इस प्रकार चार भेद किए गए हैं। चक्षु द्वारा होनेवाले प्रत्यक्ष ज्ञान से पूर्व जो दर्शन होता है वह चक्षुर्दर्शन और चक्षु के अतिरिक्त दूसरी इन्द्रियों तथा मन द्वारा होनेवाले प्रत्यक्ष से पूर्व जो दर्शन होता है वह अचक्षुर्दर्शन है। अवधिज्ञान से पहले होनेवाला अवधिदर्शन और केवलज्ञान का पूर्ववर्ती केवलदर्शन है। मनःपर्याय ज्ञान के पहले ‘दर्शन’ नहीं माना गया। इस बारे में ऐसी कल्पना होती है कि अवधिज्ञान का जो प्रकार मनोद्रव्य का स्पर्श करता है वही विशेष सूक्ष्म होने पर ‘मनःपर्यायज्ञान’ होता है। अतः इसके पूर्वगामी दर्शन के रूप में अवधिदर्शन के अतिरिक्त अन्य किसी दर्शन की खोज करने की आवश्यकता नहीं है। महान् आचार्य सिद्धसेन दिवाकर अपनी ‘निश्चयद्वात्रिंशिका’ में अवधिज्ञान असंख्य भेदवाला होने से मनःपर्याय ज्ञान को उसका एक भेदरूप मान कर उसी में (अवधिज्ञान में) उसे अन्तर्गत करते हैं।
दर्शन से होनेवाला सामान्य बोध इतना अधिक सामान्य स्थिति का है कि मिथ्यादृष्टि और सम्यग्दृष्टि के दर्शन में कुछ फर्क नहीं पड़ता।
सम्यग्दृष्टि के मति, श्रुत एवं अवधि सम्यग्ज्ञानरूप और मिथ्यादृष्टि के वे मिथ्याज्ञान अथवा अज्ञानरूप माने गए है।
इस बात पर थोड़ा दृष्टिपात करें।
न्यायशास्त्र में विषय के यथार्थ ज्ञान को प्रमाण और अयथार्त ज्ञान को अप्रमाण कहा गया है। इस प्रकार का सम्यग्-असम्यग्ज्ञान का विभाग जैन अध्यात्मशास्त्र को मान्य है ही; परन्तु सम्यग्दृष्टि का ज्ञान सम्यग्ज्ञान और मिथ्यादृष्टि का ज्ञान मिथ्याज्ञान अथवा अज्ञान-इस प्रकार के निरूपण के पीछे जैनदर्शन की एक खास दृष्टि है। और वह यह कि जिस ज्ञान से आध्यात्मिक उत्कर्ष हो वह सम्यग्ज्ञान और जिस ज्ञान से आध्यात्मिक पतन हो वह मिथ्याज्ञान। सम्यग्दृष्टि जीव को भी संशय हो सकता है, भ्रम हो सकता है, अधूरी समझ हो सकती है, फिर भी वह कदाग्रहरहित और सत्यगवेषक होने से विशेषदर्शी सुज्ञ के अवलम्बन से अपनी भूल सुधारने के लिये तत्पर रहता है और सुधार भी लेता है। वह अपने ज्ञान का उपयोग मुख्यतः विषयवासना के पोषण में न करके आध्यात्मिक विकास के साधन में ही करता है। सम्यग्दृष्टिरहित जीव की स्थिति इससे विपरीत होती है। उसे सामग्री की बहुलता के कारण निश्चयात्मक और स्पष्ट ज्ञान हो सकता है, परन्तु कदाग्रह एवं अहंकारवश, अपनी भूल मालूम होने पर भी उसे सुधारने के लिये वह तैयार नहीं होता। झूठ को भी सच मानने-मनवाने का वह प्रयत्न करता है, सच्ची बात जानने पर भी कदाग्रहादि दोष के कारण, उसे स्वीकाने में हिचकता है। अभिमान के कारण, जो पका हो वह चाहे मिथ्या हो, चाहे वह गलत तरीके का हो परन्तु उसे वह छोड़ता नहीं है। अहंकार के आवेश में विशेषदर्शी विज्ञ के विचारों को भी वह तुच्छ मानने लगता है। वह आत्मदृष्टि अथवा आत्मभावना से शून्य होता है। अतः अपने ज्ञान का उपयोग वह आध्यात्मिक हितसाधन में न कर के सांसारिक भोगवासना के पोषण में-उसे सन्तुष्ट करने में ही करता है। भौतिक उन्नति प्राप्त करने में ही उसके ज्ञान की इतिश्री होती है।
कहने का अभिप्राय यह है कि जो मुमुक्षु आत्मा होते हैं वे समभाव के अभ्यासी और आत्मविवेकसम्पन्न होते हैं। इससे वे अपने ज्ञान का उपयोग समभाव की पुष्टि में करते हैं, न कि सांसारिक वासना की पुष्टि में। इस कारण लौकिक दृष्टि से उनका ज्ञान चाहे-जितना अल्प क्यों न हो, फिर भी वह सम्यग्ज्ञान कहलाता है; क्योंकि वह उन्हें सन्मार्ग पर ले जाता है। इसके विपरीत संसारभावना के रस में लोलुप आत्माओं का ज्ञान चाहे-जितना विशाल और स्पष्ट क्यों न हो, वह समभाव का उद्भावक न होने से और संसारभावना का पोषक होने के कारण ज्ञान न कहा जा कर अज्ञान कहलाता है। क्योंकि उनका वह ज्ञान उन्हें वास्तविक कुशलमार्ग पर ले जाने के बदले दुर्गति के मार्ग पर ले जाता है। संसारवासना के पोषण में उपयुक्त ज्ञान कुशलमार्गी कैसे कहा जा सकता है? वह तो उन्मार्गी ही कहलायगा। इससे ऐसा ज्ञान मिथ्याज्ञान-अज्ञान कहलाए यह स्पष्ट है।
वस्तुस्थिति ऐसी है कि प्राप्त किए हुए ज्ञान का सदुपयोग भी हो सकता है और दुरुपयोग भी। प्राप्त किए हुए ज्ञान के बारे में सम्यक्त्वी और मिथ्यात्वी की दृष्टि भिन्न-भिन्न होती है। सम्यक्त्वी अपने ज्ञान का सदुपयोग करने की ओर वृत्ति रखेगा। और यदि आवेश अथवा स्वार्थवश उसका दुरुपयोग हो जाय तो उससे उसका अन्तःकरण खटकेगा, खिन्न होगा; जबकि मिथ्यात्वी भौतिक विषयानन्द का उपासक होने के कारण अपने ज्ञान का वह अपने संकुचित स्वार्थ के लिये चाहे किसी प्रकार से उपयोग करेगा। उससे यदि कोई दुष्कृत्य अथवा पापाचरण हो जाय तो उसे उसके लिये कुछ दुःख नहीं होगा, उलटा उसमें वह आनन्द मानेगा। सम्यक्त्वी मनुष्य सत् को सत् और असत् को असत् समझता है, अतः उससे यदि कोई पापाचरण हो जाय तो उसके लिये उसे दुःख होता है। वह कल्याणबुद्धि और श्रेयार्थी आत्मा होने से कल्याण के, आत्मोद्धार के मार्ग पर चलता है, जबकि मिथ्यात्वी को पुण्य-पापका भेद मान्य न होनेसे ऊपर उपरसे ‘साहुकार’ जैसा क्यों न बरतता हो, प्रामाणिक क्यों न दीखता हो, फिर भी उसकी मनोदशा मिथ्यादृष्टि से दूषित होती है। और उसकी ऐसी स्थिति जबतक चालू रहे तबतक उसके निस्तार का कोई मार्ग नहीं है।
इस प्रकार जैन-दर्शन ने अध्यात्मदृष्टि को सन्मुख रखकर ही ज्ञान का सम्यग्-असम्यग् रूपसे विभाजन किया है।
जीव की स्वाभाविक और वैभाविक अवस्थाएँ बतलाने के लिये ‘भाव’ का निरूपण किया गया है। ‘भाव’ अर्थात् अवस्था। भाव पाँच प्रकार के हैं : औपशमिक भाव, क्षायिक भाव, क्षायोपशमिक भाव, औदयिक भाव और पारिणामिक भाव। अब इन्हें देखना शरू करें।
आठ प्रकार के कर्मों का उल्लेख पहले हो चुका है : ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, वेदनीय, मोहनीय, आयुष्य, नाम, गोत्र और अन्तराय। इन कर्मों का स्वरूप पुनः यहाँ पर याद कर के आगे चलें।
ज्ञान के बारे में आगे किए गए विवेचन पर से देखा जा सकता है कि मति, श्रुत, अवधि, मनःपर्याय और केवल इस प्रकार ज्ञान के पाँच भेद होने से उनके आवारक कर्म भी पाँच प्रकार के होंगे। अर्थात् मतिज्ञानावरण, श्रुतज्ञानावरण, अवधिज्ञानावरण, मनःपर्यायज्ञानावरण और केवलज्ञानावरण-इस प्रकार ज्ञानावरण कर्म के पाँच भेद होते हैं। मनुष्यों (प्राणियों) में बुद्धि का जो कमोवेश विकास देखा जाता है वह इस ज्ञानावरण कर्म के कमोवेश क्षयोपशम (शिथिलीभाव) के कारण है। दर्शन के चक्षुर्दर्शन, अचक्षुर्दर्शन, अवधिदर्शन और केवलदर्शन ऐसे चार भेद होने से उनके आवारक कर्म भी चक्षुर्दर्शनावरण, अचक्षुर्दर्शनावरण, अवधिदर्शनावरण और केवलदर्शनावरण रूपसे चार प्रकार के हैं। निद्रा-पंचक का भी दर्शनावरणीय में समावेश किया गया है। वेदनीय कर्म के सातवेदनीय और असातवेदनीय ऐसे दो भेद बतलाए हैं। मोहनीय कर्म के दो भेद बताए हैं - दर्शनमोहनीय और चारित्रमोहनीय। आयुष्य कर्म, नाम कर्म, गोत्र कर्म और अन्तराय कर्म के स्वरूप का उल्लेख पहले किया जा चुका है। दान, लाभ, भोग, उपभोग और वीर्यशक्ति में विघ्न उपस्थित करनेवाले अन्तराय कर्म के दानान्तराय, लाभान्तराय, भोगान्तराय, उपभोगान्तराय और वीर्यान्तराय ऐसे पाँच भेद किए गए हैं। मनुष्यों में (प्राणियों में) जो कमोबेश कार्यशक्ति देखी जाती है उसका कारण अन्तराय कर्म का न्यूनाधिक क्षयोपशम (शिथिलीभाव) है। दानान्तराय आदि का प्रभाव संसार में देखा जाता है और उनके क्षयोपशम से उपलब्ध दानादि सिद्धियाँ भी देखी जाती हैं।

अन्तर्युद्ध

अन्तर्युद्ध
मानसिक मन्दता की क्या बात करनी? बहुत से मनुष्य ऐसे कमजोर मन के होते हैं कि वे स्वयं ही अपना पतन करानेवाले प्रलोभन के संसर्ग के स्वप्न सेवते रहते हैं और उसकी प्राप्ति के लिये इधर-उधर के मिथ्या प्रयत्न करते हैं।
बाहर की परिस्थिति मनुष्य के पतन के लिये कारणभूत होती है, परन्तु सच्ची बात तो यह है कि जिस प्रकार वातावरण में रहे हुए रोग के जन्तु दुर्बल जीवनशक्तिवाले मनुष्य पर आक्रमण करके उसे आक्रान्त करते हैं और समर्थ प्राणशक्तिवाले पर उनका प्रभाव बिलकुल नहीं पड़ता, उसी प्रकार बाहर के प्रलोभन, वासना से भरे हुए दुर्बल मन के मनुष्य का अधःपतन करते हैं, न कि सत्त्वपूर्ण मन के मनुष्य का।
मनुष्य अपनी दुर्बलताओं के लिये परिस्थिति को दोष देता है और ऐसा मनाता है कि ‘क्या करूँ? लालच सामने आई, इसलिये मैं टिक न सका।’ परन्तु परिस्थिति को दोष देने की अपेक्षा अपनी मानसिक निर्बलता का दोष निकालना ही अधिक सङ्गत और यथार्थ है। मनुष्य का मन लालच की खोज में रहता है, उसमें उसे रस पड़ता है, अतः लालच सामने आते ही वह गिरता है या स्वयं हर्षावेश से उसका स्वागत करता है! अतएव विकास की इच्छा रखनेवाले मनुष्य को चाहिए कि अपनी निर्बलता समझ करके अपने समग्र दोषों का उत्तरदायित्व अपने पर लेकर उन्हें दूर करने के लिये कटिबद्ध हो। सत्त्वशील मनोबल के आगे बाहर का भौतिक बल किस विसात में?
सामान्यतः बाहर की प्रलोभक परिस्थितियों से दूर रहने में ही सुरक्षितता है, परन्तु इसमें भी (दूर रहने में अथवा दूर हट जाने में भी) मनोबल की आवश्यकता पड़ेगी ही। इतना भी मनोबल जिसमें न हो वह तो कदम कदम पर मरने का। प्रलोभनों के सामने टिक रहने की शक्ति प्राप्त करने का राजमार्ग प्रलोभक परिस्थितियों से हो सके वहाँ तक दूर रहने में और इस प्रकार दूर रह कर मनोबल को विकसित करने में है। ऐसी शक्ति सर्वप्रथम कल्पना में सिद्ध करने की होती है। इसी प्रकार प्रारम्भ करना इष्ट है और सुरक्षा भी इसमें है। तालीम ले रहा हो उस हालत में अर्थात् साधक दशा में सिद्धि का अभिमान करनेवाला व्यक्ति अपने अधःपतन को आमन्त्रित करता है। अविचारी साहस करने में खतरा है, और प्रलोभनों से दूर रह कर प्राप्त की हुई सिद्धि भ्रामक न हो यह भी देखने का है। प्रलोभन विद्यमान हों फिर भी उनके सम्मुख अचलभाव से टिक रहने में ही सच्ची कसौटी है। इसलिये समय समय पर अपनी मोह-वासना का संशोधन और निरीक्षण खूब बारीकी के साथ करते रहना बहुत जरूरी है।
बाह्य परिस्थिति की ओर मनुष्य को असावधान न रहना चाहिए। क्या कोई जान-बूझकर रोग के कीटाणुओं का भक्षण करता है अथवा उनके पास जाता है? परन्तु बाह्य परिस्थिति पर मनुष्य का अधिकार बहुत कम होता है और किस समय मनुष्य कहाँ जाकर पड़ेगा इसकी खबर किसी को नहीं होती। अतः प्रलोभनों से बचने के लिये मनुष्य को प्रतिक्षण सतर्क, जाग्रत् और शक्तिशाली बने रहने की आवश्यकता है। हमेशा अपने मन को स्वच्छ वासना, अथवा मालिन्य से रहित और धैर्यपूर्ण रखना यही पतन से बचने का सच्चा मार्ग है। ऐसा होने पर ही प्रलोभक अथवा संक्षोभक परिस्थति के समय मन पतित अथवा पराजित न होकर स्थिर एवं तेजस्वी रह सकेगा।
अच्छे अच्छे मनुष्यों के मन प्रलोभक अथवा संक्षोभक परिस्थिति उपस्थित होने पर विचलित हो जाते हैं। ऐसे समय सुज्ञ मनुष्य को अपने मन के साथ युद्ध करना पड़ता है। इस युद्ध में-ऐसे आन्तर विग्रह में महामना महानुभाव मानव खिल उठता है, खिलता जाता है और उसका संयमबल इतना अधिक बढ़ जाता है कि किसी भी लालच के सामने वह अविचल खड़ा रह कर विजेता के आनन्द का संवेदन कर सकता है।

मैत्री आदि चार भावनाएँ

मैत्री आदि चार भावनाएँ
‘समानशीलव्यसनेषु सख्यम्’ अर्थात् समान आचार और समान आदतवालों में परस्पर मित्रता होती है अथवा हो सकती है। इस उक्ति के अनुसार, सब जीवनिकृष्ट श्रेणी के शरीरधारियों से लेकर अत्यन्त उच्च कक्षा के शरीरधारियों तक के सब संसारवर्ती जीव स्वरूप से अर्थात् अपने सत्तागत मूल रूप से सर्वथा एक समान होने से अर्थात् इस प्रकार की मौलिक पूर्ण समानता होने से सब प्राणियों में परस्पर मैत्री होने की ऊर्मिल कल्पना उठ सकती है, परन्तु तिर्यग्योनि के प्राणियों में अज्ञानता, और विवेक का अभाव होने से इस प्रकार का व्यापक मैत्रीभाव यदि न हो अथवा न सधे तो यह समझा जा सकता है, किन्तु मनुष्यों में समझ और बुद्धि विशेष मात्रा में होने से उनमें मैत्रीभाव की सिद्धि सम्भाव्य है। फिर भी ऐसा न हो कर उसकी जगह पशुसृष्टियोग्य ईर्ष्या, द्वेष, क्रूरता, वैरविरोध और स्वार्थान्धता का प्रकाण्ड घटाटोप मानवजाति में फैला हुआ दृग्गोचर होता है। इस पर से यही फलित होता है कि से मनुष्य पाशविक वासनामय आवरण के भिन्न-भिन्न परदों को चीर कर ऊँचे नहीं आए हैं। किन्तु विवेकबुद्धि मनुष्य के चित्त के निकट की वस्तु है, अतः यदि वह शान्त और स्थिर हो कर विवेकयुक्त विचार करे तो सब प्राणी समान हैं यह बात उसकी समझ में झट आ जाय ऐसी है, जिससे इसके अनुसन्धान में सब प्राणियों की ओर उसके चित्त में मैत्रीभाव उत्पन्न होने की बहुत ही शक्यता रहती है। वेदान्त दर्शन सब जीवों को ब्रह्म की चिनगारीरूप मानता है और जैन, वैशेषिक, सांख्य, योग आदि दर्शनकार सब जीवों को पृथक् पृथक् स्वतन्त्र और अखण्ड द्रव्य मानने के साथ ही साथ वे सब मौलिक रूप से समान हैं ऐसा मानते हैं। इस प्रकार सब आर्य दर्शनकार ‘सब जीव मूलतः एक समान तेजःस्वरूप हैं’ ऐसा प्रतिपादन कर के उसके फलितार्थरूप ‘अद्वेष्टा सर्वभूतानां मैत्रः करुण एव च’ अर्थात् किसी की ओर द्वेषवृत्ति न रखकर प्राणिमात्र की ओर मैत्रीभाव रखने की तथा दीन-दुखियों की ओर दयालु बनने की घोषणा करते हैं। ईर्ष्या-द्वेष, वैर-विरोध आदि दोष दूसरे का अपकार और सामाजिक अशान्ति पैदा करने के साथ ही साथ अपने आत्मा की भी दुःखद हिंसारूप हैं। अतएव इन दोषों को दूर करने के लिये आर्य सन्त-महात्मा प्रबल अनुरोध करते हैं। जैन एवं पातंजल आदि दर्शन आत्मौपम्य की भावना के आधार पर और इस भावना को विकसित करने की दृष्टि से मैत्री आदि (मैत्री, प्रमोद, कारुण्य तता माध्यस्थ्य) चार भावनाएँ बतलाते हैं। इसके अनुशीलन के आधार पर जीवन की उत्तरोत्तर विकासभूमि पर आरोहण करना सुगम बनता है। ये चार भावनाएँ इस प्रकार हैं :-
मैत्री-भावना
प्राणिमात्र में मैत्रीवृत्ति रखना और उसका विकास करना मैत्री-भावना है। ऐसी वृत्ति के विकास पर ही प्रत्येक प्राणी के साथ अहिंसक और सत्यवादी रहा जा सकता है। मैत्री अर्थात् अन्य आत्माओं में-अन्य आत्माओं के साथ आत्मीयता की भावना। ऐसी भावना होने पर दूसरों को दुःख देने की अथवा दूसरों का अहित करने की वृत्ति पैदा होने नहीं पाती; इतना ही नहीं, दूसरों का भला करने की ही वृत्ति सदा जागरित रहती है। इस भावना का विषय प्राणिमात्र है।
प्रमोद भावना
मनुष्य बाह्य सम्पत्ति के बारे में दूसरे को अपने से बढ़ा हुआ देखकर ईर्ष्या करने लगता है, परन्तु उसकी वह सम्पन्नता उसने यदि अपने सद्गुणों से अथवा शुभकर्मजन्य पुण्य के परिणामस्वरूप प्राप्त की हो और उसका उपयोग वह शुभ कार्य करने में करता हो तो उसकी ईर्ष्या करने के बदले उसके शुभ-पुण्य कार्यों का तथा गुणों का अनुमोदन कर के हमें प्रसन्न होना चाहिए। अनीति, अन्यायाचरण के विरुद्ध असन्तोष अथवा पुण्यप्रकोप प्रकट करना उचित है, परन्तु सिर्फ अपने से दूसरा बड़ा है इस कारण उस पर द्वेष अथवा ईर्ष्या करना गलत है। ईर्ष्यालु मनुष्य अपने दुःख से दुःखित होता है और साथ ही दूसरों के सुख से दुःखी होकर दुगुना दुःखानुभव करता है। जबतक ईर्ष्या जैसे दोष दूर न हों तब तक सत्य, अहिंसा का पालन नहीं हो सकता। अतः ईर्ष्या जैसे दोषों के विरुद्ध प्रमोदवृत्ति विकसित करनी आवश्यक है। जो अपने से गुण में अधिक है उस पर प्रमुदित होना, उसका आदर करना प्रमोदभावना है। इस भावना का विषय अपने से गुण में अधिक ऐसा मनुष्य है। अपने इष्ट जन की अभिवृद्धि देखकर जिस प्रकार आनन्द होता है उसी प्रकार प्राणिमात्र की ओर जब आत्मीयता का भाव उत्पन्न हुआ हो तभी किसी भी गुणाधिक को देखकर प्रमोद उत्पन्न हो सकता है। अतः इस भावना के मूल में आत्मीयता की बुद्धि रही हुई है।
सामान्यतः किसी भी गुणी के गुण की ओर प्रमोद (प्रसन्नता) होना प्रमोद-भावना है। गुणी के गुणों का अनुरागी होना स्वयं गुणी बनने का राजमार्ग है।
उपर्युक्त दोनों भावनाओं के बारे में तनिक विशेष अवलोकन करें -
दूसरे का सुख देखकर अथवा दूसरे को अधिक सुखी देखकर मनुष्य के मन में ईर्ष्या या असूयाभाव उत्पन्न होता है, परन्तु व्यापक मैत्रीभाव उसके हृदय में यदि उत्पन्न हो तो वह दूसरे के सुख को देख कर उसे (अर्थात् उसके सुख को) अपने मित्र का अथवा अपने आत्मीय का समझता है जिससे उसकी ओर उसके मन में ईर्ष्या या असूया उत्पन्न न होकर वह मानसिक स्वस्थता का अनुभव करता है इसीलिये सुखी पुरुष का सुख भी मैत्री भावना का विषय बतलाया गया है । अर्थात् दूसरे के सुख की ओर सुहृद्भाव रखना मैत्री-भावना है। प्रमोद-भावना के बारे में यह सूचित करना आवश्यक प्रतीत होता है कि कोई मनुष्य धनवान्, बलवान् अथवा सत्ताशाली हो या भौतिक तौर पर यदि सुखी माना जाता हो तो इतने पर से ही उस पर प्रमुदित होना ऐसा कहने का आशय नहीं है, परन्तु यदि वह अपने धन का, बल का अथवा अधिकार का उपयोग दीन-दुःखी मनुष्यों को अच्छी दशा में लाने के लिये अथवा उनके दुःख दूर करने के लिये करता हो तो उस मनुष्य को गुणी समझ कर उसके गुण की ओर प्रमुदित होना योग्य है। मनुष्य भले ही निर्धन हो, परन्तु यदि वह प्रामाणिक रूप से उद्यम अथवा श्रम कर के अपनी आजीविका चलाता हो और उसी में सन्तोष मानता हो तो उसके ऐसे सद्गुणों के लिये प्रमुदित होना उचित है। प्रमोद का विषय पुण्य कहा है, परन्तु इसका अर्थ यह नहीं होता कि यदि कोई अपनी पुण्यवत्ता का दुरुपयोग करे तब भी उस पर प्रमुदित होना। वस्तुतः प्रमोद का विषय पुण्यवत्ता यानी पुण्याचरणशीलता है।
करुणा-भावना
अब करुणा-भावना के बारे में देखें। पीड़ित को देख कर हृदय में यदि अनुकम्पाभाव बहने न लगे तो अहिंसा आदि व्रत टिक नहीं सकते। इसलिये करुणा-भावना की आवश्यकता है। इस भावना का विषय दुःखी जीव है, क्योंकि अनुग्रह अथवा सहायता की अपेक्षा दुःखी, दीन, अशक्त, अनाथ को ही होती है। प्रत्येक जीव के साथ आत्मीयता-बुद्धि हो तभी, इष्टजन को दुःखी देख कर जिस प्रकार एक तरह का करुणामय मृदु संवेदन हृदय में अभिव्याप्त हो जाता है उसी प्रकार, किसी को भी पीड़ित देखकर करुणा का पवित्र स्रोत बहने लगे। इस प्रकार इस भावना के मूल में आत्मीयता-बुद्धि रही हुई है। भवचक्र के दुःख में पड़े हुओं का उद्धार करने की भावना किसी सन्त के हृदय में उत्पन्न होना यह भी करुणा-भावना है। ज्ञानी महात्मा और केवली भगवान् सर्वानुग्रहपरायण करुणाशील होते हैं। इसीलिये उनका ‘परम कारुणिक’ ऐसे विशेषण से उल्लेख किया जाता है।
माध्यस्थ्य-भावना
कभी कभी अहिंसादि गुणों की रक्षा के लिये तटस्थता धारण करना उपयोगी होता है। अतः माध्यस्थ्य-भावना की भी आवश्यकता है। ‘माध्यस्थ्य’ अर्थात् तटस्थता अथवा उपेक्षा। जड़बुद्धि, अथवा उपयोगी और हितकारी उपदेश ग्रहण करने की पात्रता जिसमें बिलकुल न हो ऐसे किसी व्यक्ति को सुधारने का परिणाम अन्ततः जब शून्यमें आए तब ऐसे व्यक्ति की ओर तटस्थभाव अथवा उपेक्षावृत्ति रखने में ही श्रेय है। इसलिये इस भावना का विषय अविनेय (अयोग्य) पात्र है। प्रत्येक प्राणी के साथ आत्मीयता-बुद्धि हो तभी अविनेय (दुर्मति, दुष्ट अथवा मूर्ख) मनुष्य की ओर क्रूरता, द्वेष या क्लिष्टवृत्ति उत्पन्न न हो कर उसकी ओर शुद्ध तटस्थभाव रह सकता है, जैसा कि वैसे ही किसी अपने इष्टजन के बारे में रहता है।
इन भावनाओं में जिस प्रकार दुःखी जन करुणा का विषय है उसी प्रकार दुर्मति, दुष्ट मनुष्य भी दया का-भावदया का विषय है। ऐसों की ओर उत्पन्न होनेवाली अथवा रखी जानेवाली माध्यस्थ्यभावना भावदयागर्भित होती है। छोटे बच्चे, आत्मीय स्नेही-स्वजन अथवा किसी प्रेमीजन की ओर से होनेवाले अनादर अथवा अपमान से जिस प्रकार हमारे मन में स्वमानभंग की कल्पना उत्पन्न नहीं होती उसी प्रकार मैत्री आदि भावनाओं के सबल संस्कार से परिष्कृत तथा प्रकाशित चित्तवाले सुज्ञ महानुभाव के मन में दूसरों के द्वारा किए गए अनादर अथवा अपमान से स्वमानभंग होने की कल्पना उत्पन्न नहीं होती। विश्वबन्धुत्व की भावना में रममाण सज्जन के लिये यदि गुणी मनुष्य प्रमोद का विषय है तो दुर्मति, दुष्ट मनुष्य भावदयागर्भित माध्यस्थ्य-भावना का विषय है। आचार्य हेमचन्द्र अपने योगशास्त्र के प्रारम्भ के मंगलाचरण में कहते हैं कि-
कृतापराधेऽपि जने कृपामन्थरतारयोः। ईषद्वाष्पार्द्रयोर्भद्रं श्रीवीरजिननेत्रयोः! ।।३।।
अर्थात् - अपराधी मनुष्य के ऊपर भी प्रभु महावीर के नेत्र दया से तनिक नीचे झुकी हुई पुतलीवाले तथा करुणावश आए हुए किंचित् आँसुओं से आर्द्र हो गए।

शरीर का उपयोग

शरीर का उपयोग शरीर अस्थि, मांस, रक्त, चर्बी आदि का बना हुआ पुतला है और मल-मूत्रादि अशुचि से भरा हुआ है-इस प्रकार का विवेचन शरीर की ओर वैराग्य उत्पन्न करने के लिये किया जाता है। वैज्ञानिक दृष्टिबिन्दु से देखने पर शरीर तो जिसका बनता हो उसका बने। दूसरी वस्तुओं से बनाने पर वह नहीं बन सकता। हमारी अपेक्षा प्रकृति कहीं अधिक कुशल और समर्थ है। शरीर में जो अशुचि उत्पन्न होती है वह तो शरीर के निर्वाह एवं स्थैर्य के लिये लिए जानेवाले आहार आदि में शरीरपयोगी वस्तुओं के साथ साथ जो निरुपयोगी पदार्थ मिश्रित होते हैं उसके कारण है। शरीर एक ऐसा अद्भुत यन्त्र है जो सारभूत वस्तुओं को अपने उपयोग में लेकर और निरुपयोगी-अशुचि वस्तुओं को बाहर फेंक कर अपने को (शरीर को) कार्यक्षम रखने का स्वतः सतत प्रयत्न करता रहता है। शरीर जबरदस्ती त्याग करने जैसी अथवा जैसे हो वैसे जल्दी नाश करने जैसी वस्तु नहीं है। शरीर को तो कार्यक्षम एवं नीरोग स्थिति में रखने की आवश्यकता है जिससे उसका प्रभाव मन पर पड़े और मन शरीरविषयक दुश्चिन्तन में से विमुक्त रहे। निस्सन्देह, शरीर के भोगोपभोग के लिये अनावश्यक हिंसा न होनी चाहिए तथा झूठ-अनीति-अन्याय का आचरण न करना चाहिए-इतनी ही बात प्रस्तुत विषय में मुद्दे की और खास ध्यान में रखने योग्य तथा आचरण करने योग्य है। यह तो समझ में आ सके ऐसा है कि आत्मा अपने शरीर में ही रह कर अपनी ज्ञानशक्ति और कार्यशक्ति का उपयोग कर के मोक्षकी साधना कर सकता है। आत्मा जबतक अन्तिम शरीर छोड़ कर मोक्ष प्राप्त नहीं करता तब तक उसे शरीर की आवश्यकता है और तब तक उसके साथ शरीर लगा ही रहने का। फिर भी अज्ञानवश शरीर का त्याग करने जैसी प्रवृत्ति यदि की जाय तो वह आत्महत्या जैसी प्रवृत्ति समझी जायगी। ऐसी प्रवृत्ति पापरूप मानी गई है। त्याग शरीर का नहीं, दुर्वृत्ति तथा दुष्प्रवृत्ति का करने का है।
आत्महत्या और ‘संलेखना’ में अन्तर है। आत्महत्या कषाय के आवेग का परिणाम है, जबकि संलेखना त्याग एवं दया का परिणाम है। जहाँ अपने जीवन की कुछ भी उपयोगिता न रही हो और अपने लिये दूसरों को व्यर्थ कष्ट उठाना पड़ता हो वहाँ शरीरत्याग करने में दूसरों पर दयाभाव रहा है। कुछ लोग पानी में डूब मरने का, कोई पर्वत पर से गिर करके मरने का अथवा दूसरे प्रकार से प्राणोत्सर्ग करने का प्रयत्न करते हैं, परन्तु यह अन्धश्रद्धा की बात है। हाँ, कर्त्तव्य की वेदिका पर बलिदान देना स्चचा बलिदान है। जनरक्षा के लिये अपने प्राणों का उत्सर्ग करना अथवा दूसरों की सेवा के लिये यदि अपना शरीर देना पड़े तो वह दे देना सच्चा बलिदान है, परन्तु अमुक जगह पर मरने से अथवा अमुक का नाम ले कर मरने से स्वर्ग या मोक्ष मिलता है इस प्रकार की अन्धश्रद्धा से प्रेरित हो कर प्राणत्याग करना बुरा है। जैनधर्म ने उपवास के अतिरिक्त मृत्यु के अन्य उपायों की मनाही की है। यह एक प्रकार का प्रशस्य संशोधन है। जब किसी असाध्य बीमारी में असह्य कष्ट हो रहा हो और दूसरों से खूब सेवा-शुश्रूषा करानी पड़े तब उपवास करके शरीर का त्याग करना उचित समझा जा सकता है। उपवासचर्या भी कदम नहीं परन्तु प्रारम्भ में नीरस भोजन पर, बाद में छाछ आदि किसी पेय वस्तु पर और उसके पश्चात् शुद्ध जल पर रहकर-इस प्रकार चढ़ते चढ़ते उपवास पर आना चाहिए। इस प्रक्रिया में कितने ही दिन, महीने और शायद अनेक वर्ष भी लग सकते हैं। एकदम प्राणत्याग करने में जो स्व-पर को संक्लेश होता है वह इस प्रक्रिया में नहीं होता। और यह प्रक्रिया मरण का ही नहीं, जीवन का भी उपाय बन सकती है अर्थात् इस प्रकार की प्रक्रिया से कभी कभी बीमारी में से स्वस्थ भी हुआ जा सकता है। इस प्रकार की प्रक्रिया से बीमारी दूर हो जाने पर संलेखना का कारण न रहने से संलेखना बन्द कर देनी चाहिए।
उपवास-चिकित्सा एवं संलेखना में अन्तर है। चिकित्सा में जीवन की पूरी आशा और तदर्थ प्रवृत्ति होती है, परन्तु संलेखना तो तभी की जाती है जब जीवन की कोई आशा ही न हो और न उसके लिये किसी प्रकार का प्रयत्न हो। परन्तु उपर्युक्त संलेखना की प्रक्रिया से यदि शरीर अच्छा हो हो जाय तो फिर ज़बरदस्ती से प्राणत्याग करने की आवश्यकता नहीं है; क्योंकि संलेखना आत्महत्या नहीं किन्तु मृत्यु के सम्मुख वीरतापूर्वक आत्मसमर्पण की प्रक्रिया है। इससे मनुष्य शान्ति एवं आनन्द से अपने प्राणों का त्याग करता है। मृत्यु से पूर्व उसे जो कुछ करना चाहिए वह सब वह कर लेता है। परन्तु मृत्यु यदि टल जाय तो उसे ज़बरदस्ती नहीं बुलाना चाहिए।

जीवननिर्वाह के लिये हिंसा की तरतमता का विचार

जीवननिर्वाह के लिये हिंसा की तरतमता का विचार
हिंसा के बिना जीवन अशक्य है इस बात का स्वीकार किए बिना कोई चारा नहीं है, परन्तु इसके साथ ही कम से कम हिंसा से अच्छे से अच्छा-श्रेष्ठ जीवन जीने का नियम मनुष्य को पालना चाहिए। परन्तु कम से कम हिंसा किसे कहना?-यह प्रश्न बहुतों को होता है। किसी सम्प्रदाय के अनुयायी ऐसा मानते हैं कि ‘बड़े और स्थूलकाय प्राणी का वध करने से बहुत से मनुष्यों का बहुत दिनों तक निर्वाह हो सकता है, जबकि वनस्पति में रहे हुए असंख्य जीवों को मारने पर भी एक मनुष्य का एक दिन का भी निर्वाह नहीं होता। इसलिये बहुत से जीवों की हिंसा की अपेक्षा एक बड़े प्राणी को मारने में कम हिंसा है।’ ऐसे मन्तव्यवाले मनुष्य जीवों की संख्या के नाश पर से हिंसा की तरतमता का अंदाज लगाते हैं। परन्तु यह बात ठीक नहीं। जैनदृष्टि जीवों की संख्या पर से नहीं किन्तु हिंस्य जीव के चैतन्यविकास पर से हिंसा की तरतमता का प्रतिपादन करती है। अल्प विकासवाले अनेक जीवों की हिंसा की अपेक्षा अधिक विकासवाले एक जीव की हिंसा में अधिक दोष रहा हुआ है ऐसा जैनधर्म का मन्तव्य है। इसीलिये वह वनस्पतिकाय को आहार के लिये योग्य मानता है, क्योंकि वनस्पति के जीव कम से कम इन्द्रियवाले अर्थात् एक ही इन्द्रियवाले माने जाते हैं और इनसे आगे के उत्तरोत्तर अधिक इन्द्रियवाले जीवों को आहार के लिये वह निषिद्ध बतलाता है। यही कारण है कि पानी में जलकाय के संख्यातीत जीव होने पर भी उनकी-इतने अधिक जीवों की विराधना [हिंसा] कर के भी-हिंसा होने पर भी एक प्यासे मनुष्य अथवा पशु को पानी पिलाने में अनुकम्पा है, दया है, पुण्य है, धर्म है-ऐसा सब कोई मानते हैं। इसका कारण यही है कि जलकाय के जीवों का समूह एक मनुष्य अथवा पशु की अपेक्षा बहुत अल्प चैतन्यविकासवाला होता है। इस पर से ज्ञात होगा कि मनुष्यसृष्टि के बलिदान पर तिर्यंचसृष्टि के जीवों को बचाना जैन धर्म को मान्य नहीं है। परन्तु कोई व्यक्ति, जहाँ तक उसका अपना सम्बन्ध है वहाँ तक, स्वयं अपना बलिदान देने जैसी अपनी अहिंसावृत्ति को यदि जागरित कर तो उस पर किसी प्रकार का प्रतिबन्ध नहीं है, जैसे कि भगवान् श्री शान्तिनाथ ने अपने पूर्वभव में शरणागत कबूतर को तथा राजा दिलीप ने गाय को बचाने के लिये अपने शरीर का बलिदान देने की तत्परता दिखलाई थी। परन्तु निरर्थक हिंसा के समय फूल की एक पत्ती को भी दुःखित करने जितनी भी हिंसा की जैन धर्म में मनाही है।
वनस्पति जीवों के दो भेद हैं-प्रत्येक और साधारण। एक शरीर में एक जीव हो वह ‘प्रत्येक’ और एक शरीर में अनन्त जीव हों वह ‘साधारण’ वनस्पति है। कन्दमूल आदि ‘साधारण’ [स्थूल साधारण ] हैं। इन्हें अनन्तकाय भी कहते हैं। ‘साधारण’ की अपेक्षा ‘प्रत्येक’ की चैतन्यमात्रा अत्यधिक विकसित है।

Wednesday, 13 July 2011

શ્રી રત્નાકર પચ્ચિશીનું વિવેચન

મંદિર છો, મુક્તિ તણા, માંગલ્ય ક્રીડાના પ્રભુ!
ને ઈદ્ર નર ને દેવતા, સેવા કરે તારી વિભુ!
સર્વજ્ઞ છો સ્વામી વળી, શિરદાર અતિશય સર્વના,
ઘણું જીવ તું, ઘણું જીવ તું, ભંડાર જ્ઞાન કળા તણા.

`મંદિર' આ શબ્દ સંભળાય, લખેલો વંચાય તો તરત જ આપણી કલ્પનામાં સંગેમરમરના દૂધ જેવા ધવલ પત્થરોથી નિર્મિત, ગગનચુંબી ગોળ, ઘુમ્મટવાળું, જેના પર સોનાના કળશો ચમકતા હોય, ધ્વજાઓ ફરકતી હોય, દીપકોથી ]ળહળતું, ઘંટાવરથી ગુંજતું, ધૂપથી મધમધતું ભાવિકભક્તજનોથી ઊભરાતું તથા દૂરથી સૌને આકર્ષણ કરતું એક પવિત્ર સ્થાન આવી જાય છે.
પરંતુ અહીં શિલ્પ અને સ્થાપત્યના અજોડ નમૂના રૂપ કોઇ સ્થાવર મંદિરની વાત નથી. સૂરિજી તો ચૈતન્યવંતા, મહામના એક જંગમ મંદિરને સ્મરણપટમાં લાવે છે. ``મંદિર છો મુક્તિતણાં'' હે પ્રભુ! આપ સાક્ષાત્ મુક્તિના મંદિર છો - મોક્ષના ધામ છો.
પરમાત્મા મુક્તિના મંદિર કઇ રીતે બની શક્યા? વિશ્વના સર્વ દર્શનોની આત્મા અને પરમાત્માવિષયક ભિન્ન ભિન્ન માન્યતાઓ છે. ઇશ્વરકર્તૃત્વવાદ અને એકેશ્વરવાદમાં માનનારા દર્શનો એમ જ કહે કે ઇશ્વર એક જ છે અને તેજ સૃષ્ટિના સર્જક છે, અન્ય સર્વજીવો એ ઇશ્વરના અંશ છે. જ્યારે જૈનદર્શનની માન્યતા છે કે ``અપ્પા સો પરમપ્પા'' આત્મા જ પરમાત્મા બની શકે. ક્યો આત્મા પરમાત્મા બની શકે? જે માનવ આકૃતિને પામ્યા પછી માનવપ્રકૃતિને પામે. પરમાત્મા બનવું એટલે મુક્તિમંદિર બનવું-મુક્તિના ધામને મેળવવું.
જેવી રીતે શુદ્ધ ઘીની પર્યાયને પ્રાપ્ત કરવા માટે દૂધને અનેક પ્રોસેસમાંથી પસાર થવું પડે તેમ માનવે મહામાનવ બનવા માટે અનેક પ્રોસેસમાંથી (પ્રક્રિયામાંથી) પસાર થવું પડે.
શ્રી રત્નાકરસૂરિ આગળ કહે છે કે.. માંગલ્યક્રીડાના પ્રભુ! ક્રીડા હંમેશા આનંદદાયક હોય, ક્રીડાના અનેક પ્રકારો છે. પણ અહીં પ્રભુને કહ્યું છે કે આપ માંગલ્યક્રીડાના ધામ છો - સ્થાન છો જે આત્માને આનંદ આપે.
અજ્ઞાનીઓની ક્રીડામાં માંગલ્યના ભાવો ન હોય. મંગલ કોને કહેવાય? `મમ્ પાપમ્ ગાલયતિ ઇતિ મંગલમ્' - જે પાપને ગાળે તે મંગલ. `મંગમ્ સુખમ્ લાતિ ઇતિ મંગલમ્' જે સુખને લાવે તે મંગલ.
જગતના જીવોના પાપોને ગાળી, સુખ પમાડનાર મંગલકારી ક્રીડાના આપ ધામ છો. શુદ્ધ આત્મા સત્, ચિત્, આનંદમય હોય. પરમાત્મા આ ત્રણે ગુણયુક્ત હોવાથી માંગલ્યક્રીડાના ધામ છે.
અનેક દેવતાઓ પ્રભુની સેવા માટે તત્પર રહેતા હોવાથી આચાર્ય એ કહ્યું કે `ને ઇદ્ર નર ને દેવતા સેવા કરે તારી વિભુ!' શ્રી ભક્તામર સ્તોત્રમાં માનતુંગસૂરિજી કહે છે કે ભક્તિથી દેવલોકના દેવો, ઇદ્રો આપના ચરણોમાં નમે છે. શ્રી કલ્યાણમંદિર સ્તોત્રમાં સિદ્ધસેન દિવાકરસૂરિ કહે છે કે, દેવેદ્રવન્દ્યવિદિતાખિલવસ્તુસાર​ઃ વિશ્વની સર્વ વસ્તુઓ સારતત્ત્વને જાણનાર હે પ્રભુ પાર્શ્વનાથ! આપ દેવેદ્રોથી વંદ્ય છો. નરેદ્રો અને દેવેદ્રો તેમની વિશિષ્ટ સંપત્તિના અહમ્ને ત્યાગી, ત્યાગધર્મની સાક્ષાત્મૂર્તિ સમા આપના ચરણોમાં નતમસ્તકે તત્પર રહે છે.
વિશ્વના પ્રત્યેક ક્ષેત્રમાં બે વર્ગ જોવા મળે. 1) સેવ્ય વર્ગ ઃ- જેની સેવા કરાય તે. 2) સેવક વર્ગ ઃ- જે સેવા કરે તે.
નોકર શેઠની સેવા કરે, અનુયાયીવર્ગ ગુરુજનોની સેવા કરે તેમ જ ભક્તજનો ભગવાનની સેવા કરે. તિર્થંકરનામ કર્મની પ્રકૃતિના ઉદયને કારણે તીર્થંકરોની સેવામાં કરોડો દેવતાઓ હાજર રહે છે. અવધીજ્ઞાનથી જાણી તિર્થંકર પ્રભુ જ્યાં દેશના પ્રકાશવાના હોય છે ત્યાં સમવસરણની રચના કરે છે, તિર્થંકર ચરણ ધરે ત્યાં લાખ પાંખડીઓનું પદ્મકમળ થઇ આવે, બારગણું અશોકવૃક્ષ, છત્ર, ચામર, દેવદુદુંભિ, પુષ્પવૃષ્ટિ આદિ સર્વ દેવો કરે. આગળ કહે છે કે..
સર્વજ્ઞ છો સ્વામિ! વળી, શિરદાર અતિશય સર્વનાઃ જે સર્વને જાણે તે સર્વજ્ઞ. હે પ્રભુ આપ સર્વજ્ઞ છો! ઊર્ધ્વલોક, અધોલોક અને તિર્છાલોક આ ત્રણે લોકમાં રહેલા સર્વદ્રવ્યો અને તેની ભૂતકાલીન, વર્તમાનકાલીન, ભવિષ્યકાલીન સર્વ પર્યાયોને અંજલિજલ પ્રમાણે સ્પષ્ટ અને પ્રત્યક્ષ જાણી શકે તે સર્વજ્ઞ. ચાર ઘનઘાતી કર્મ ખપાવે તે સર્વજ્ઞ. વળી, આપ સર્વ અતિશયોથી વિશિષ્ટતાએ શોભી રહ્યા છો. `અતિશય' એટલે જે સર્વસામાન્ય જીવોમાં ન હોય, પરંતુ માત્ર તિર્થંકરોમાં જ હોય તે અતિશય.
તીર્થંકર પરમાત્મા ઋષભદેવના દેહવૈભવનું વર્ણન કરતા શ્રીમદ્ માનતુંગસૂરિ કહે છે હે નાથ! શાંતરસ જે પરમાણુઓમાંથી ત્રણભુવનમાં અદ્વિતીય એવાં આપના શરીરનું નિર્માણ થયું, તે પરમાણુઓ આ લોકમાં એટલાં જહતા, તેથી આપના સમાન અન્ય કોઇનું રૂપ નથી. જેમ તિર્થંકરની દેહવિભૂતિ અદ્વિતીય છે, તેમ પરમાત્માના અતિશયો પણ અદ્વિતીય હોય છે. તીર્થંકરો 34 અતિશયયુક્ત હોય છે. 4 અતિશયો જન્મથી હોય. 1. તિર્થંકરના કેશ, નખ ન વધે, 2. શરીર નિરોગી રહે. 3. લોહી માંસ ગોક્ષીર જેવા હોય. 4. શ્વાસોચ્છ્વાસ પદ્મકમળ જેવો સુગંધી હોય. 11 અતિશયો કેવળજ્ઞાન થયા પછી ઃ 1) આહારનિહાર અદૃશ્ય 2) આકાશમાં ધર્મચક્ર ચાલે 3) આકાશમાં ત્રણ છત્ર, બે ચામર ધરાય. 4) આકાશમાં પાદપીઠ (બાજોઠ) સહિત સિંહાસન ચાલે. 5) આકાશમાં ઇદ્રધ્વજ ચાલે. 6) અશોકવૃક્ષ 7) ભામંડળ 8) વિષમભૂમિ સમ થાય. 9) કાંડા ઊંધા થઇ જાય. 10) છ એ ઋતુ અનુકૂળ થાય. 11) અનુકુળ વાયુ વાય.
19 અતિશયો દેવકૃત હોય ઃ 1) પંચવર્ણના ફૂલ પ્રગટે. 2) અશુભપુદ્ગલોનો નાશ 3) ભૂમિ પર સુગંધી વર્ષા 4) શુભપુદ્ગલ પ્રગટે 5) યોજનગામી વાણીની ધ્વની 6) અર્ધમાગધીમાં દેશના દે 7) સૌ પોતપોતાની ભાષામાં સમજે. 8) જન્મવેર શાંત થાય. 9) અન્યમતિ પણ દેશના સાંભળે. 10) પ્રતિવાદી નિરુત્તર બને 11) પચ્ચીશ યોજન સુધી કોઇ રોગ ન થાય. 12) મહામારિ ન થાય. 13) ઉપદ્રવ ન થાય. 14-15) સ્વચક્ર-પરચક્રનો ભય ન રહે. 16) અતિવૃષ્ટિ ન થાય 17) અનાવૃષ્ટિ ન થાય. 18) વૃષ્ટિથી થતા ઉપદ્રવો ન થાય, 19) પહેલાના ઉપદ્રવો શાંત થાય. ઉપરોક્ત 34 અતિશયોથી તિર્થંકર પરમાત્મા યુક્ત હોય છે. મુખ્ય ચાર અતિશયોમાં 1) અનંતજ્ઞાનદ્વારા જ્ઞાનાતિશય 2) રાગદ્વેષરૂપી દોષો જવાથી અપાયાપગમ અતિશય. 3) અબાધ્ય સિદ્ધાંતોના કારણે વચનાતિશય અને 4) અમર્ત્ય (દેવો) દ્વારા પૂજાતા હોવાથી પૂજાતિશયયુક્ત, આપ્તપુરુષોમાં મુખ્ય. આચાર્ય શ્રી કહે છે કે હે પ્રભુ! આપ સર્વ અતિશયોથી શિરમોર સ્થાને શોભી રહ્યા છો.