Friday, 15 July 2011

अन्तर्युद्ध

अन्तर्युद्ध
मानसिक मन्दता की क्या बात करनी? बहुत से मनुष्य ऐसे कमजोर मन के होते हैं कि वे स्वयं ही अपना पतन करानेवाले प्रलोभन के संसर्ग के स्वप्न सेवते रहते हैं और उसकी प्राप्ति के लिये इधर-उधर के मिथ्या प्रयत्न करते हैं।
बाहर की परिस्थिति मनुष्य के पतन के लिये कारणभूत होती है, परन्तु सच्ची बात तो यह है कि जिस प्रकार वातावरण में रहे हुए रोग के जन्तु दुर्बल जीवनशक्तिवाले मनुष्य पर आक्रमण करके उसे आक्रान्त करते हैं और समर्थ प्राणशक्तिवाले पर उनका प्रभाव बिलकुल नहीं पड़ता, उसी प्रकार बाहर के प्रलोभन, वासना से भरे हुए दुर्बल मन के मनुष्य का अधःपतन करते हैं, न कि सत्त्वपूर्ण मन के मनुष्य का।
मनुष्य अपनी दुर्बलताओं के लिये परिस्थिति को दोष देता है और ऐसा मनाता है कि ‘क्या करूँ? लालच सामने आई, इसलिये मैं टिक न सका।’ परन्तु परिस्थिति को दोष देने की अपेक्षा अपनी मानसिक निर्बलता का दोष निकालना ही अधिक सङ्गत और यथार्थ है। मनुष्य का मन लालच की खोज में रहता है, उसमें उसे रस पड़ता है, अतः लालच सामने आते ही वह गिरता है या स्वयं हर्षावेश से उसका स्वागत करता है! अतएव विकास की इच्छा रखनेवाले मनुष्य को चाहिए कि अपनी निर्बलता समझ करके अपने समग्र दोषों का उत्तरदायित्व अपने पर लेकर उन्हें दूर करने के लिये कटिबद्ध हो। सत्त्वशील मनोबल के आगे बाहर का भौतिक बल किस विसात में?
सामान्यतः बाहर की प्रलोभक परिस्थितियों से दूर रहने में ही सुरक्षितता है, परन्तु इसमें भी (दूर रहने में अथवा दूर हट जाने में भी) मनोबल की आवश्यकता पड़ेगी ही। इतना भी मनोबल जिसमें न हो वह तो कदम कदम पर मरने का। प्रलोभनों के सामने टिक रहने की शक्ति प्राप्त करने का राजमार्ग प्रलोभक परिस्थितियों से हो सके वहाँ तक दूर रहने में और इस प्रकार दूर रह कर मनोबल को विकसित करने में है। ऐसी शक्ति सर्वप्रथम कल्पना में सिद्ध करने की होती है। इसी प्रकार प्रारम्भ करना इष्ट है और सुरक्षा भी इसमें है। तालीम ले रहा हो उस हालत में अर्थात् साधक दशा में सिद्धि का अभिमान करनेवाला व्यक्ति अपने अधःपतन को आमन्त्रित करता है। अविचारी साहस करने में खतरा है, और प्रलोभनों से दूर रह कर प्राप्त की हुई सिद्धि भ्रामक न हो यह भी देखने का है। प्रलोभन विद्यमान हों फिर भी उनके सम्मुख अचलभाव से टिक रहने में ही सच्ची कसौटी है। इसलिये समय समय पर अपनी मोह-वासना का संशोधन और निरीक्षण खूब बारीकी के साथ करते रहना बहुत जरूरी है।
बाह्य परिस्थिति की ओर मनुष्य को असावधान न रहना चाहिए। क्या कोई जान-बूझकर रोग के कीटाणुओं का भक्षण करता है अथवा उनके पास जाता है? परन्तु बाह्य परिस्थिति पर मनुष्य का अधिकार बहुत कम होता है और किस समय मनुष्य कहाँ जाकर पड़ेगा इसकी खबर किसी को नहीं होती। अतः प्रलोभनों से बचने के लिये मनुष्य को प्रतिक्षण सतर्क, जाग्रत् और शक्तिशाली बने रहने की आवश्यकता है। हमेशा अपने मन को स्वच्छ वासना, अथवा मालिन्य से रहित और धैर्यपूर्ण रखना यही पतन से बचने का सच्चा मार्ग है। ऐसा होने पर ही प्रलोभक अथवा संक्षोभक परिस्थति के समय मन पतित अथवा पराजित न होकर स्थिर एवं तेजस्वी रह सकेगा।
अच्छे अच्छे मनुष्यों के मन प्रलोभक अथवा संक्षोभक परिस्थिति उपस्थित होने पर विचलित हो जाते हैं। ऐसे समय सुज्ञ मनुष्य को अपने मन के साथ युद्ध करना पड़ता है। इस युद्ध में-ऐसे आन्तर विग्रह में महामना महानुभाव मानव खिल उठता है, खिलता जाता है और उसका संयमबल इतना अधिक बढ़ जाता है कि किसी भी लालच के सामने वह अविचल खड़ा रह कर विजेता के आनन्द का संवेदन कर सकता है।

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