Raag Aur Virragta.
राग और वीतरागता
संसारवर्ती जीव के लिये अतिनिबिड़ बन्धन यदि कोई हो तो वह वस्तुतः राग-द्वेष का है। इनमें भी राग मुख्य है। द्वेष के मूल में भी राग ही है। प्रत्येक दोष के मूल में राग का बल काम करता है। राग जड़ एवं चेतन दोनों प्रकार के पदार्थों के बारे में होता है। जैसे मनुष्यादि चेतन प्राणियों पर वैसे घड़ी, फाउण्टेन पेन, स्टेशनरी, फर्निचर, वस्त्र-आभूषण आदि अच्छी लगनेवाली चीजो पर भी रागभाव फैला हुआ है, जबकि द्वेष तो सामान्यतः सचेतन प्राणी के बारे में ही होता है। जड़ वस्तु उसका विषय नहीं है । खम्भे के साथ टकराने पर यदि लग जाय तो खम्भे की ओर द्वेष-जैसा विकार उत्पन्न होता है, परन्तु वास्तविक रूप में वह द्वेष नहीं है, वह तो मोह का (अज्ञान का, बेवकुफी का) पागल आवेश मात्र है।
राग मोह का प्रबलतम रूप है और समग्र संसारचक्र में उसका निर्द्वन्द्व साम्राज्य फैला हुआ है। सब दोष उसके साथ चिपके हुए है और उसके हटते ही सब दोष तितर-बितर हो जाते हैं। इसीलिये वीतराग शब्द में केवल एक ‘राग’ शब्द ही रख कर राग के अभाव की सूचना के बल पर ही दूसरे सभी दोषों का अभाव भी सूचित हो जाता है।
सचेतनप्राणिविषयक राग धार्मिक, साम्प्रदायिक और लौकिक इस तरह तीन प्रकार का है। ज्ञानी, महात्मा, सन्त, सत्पुरुष, सद्गरु के ऊपर कल्याणी भक्ति का राग तथा सद्गुणों के कारण उत्पन्न होनेवाला पवित्र राग धार्मिकराग है। यह भक्तिरूप होने से कल्याणरूप है। महर्षि गौतम इन्द्रभूति का भगवान् महावीर पर ऐसा ही धार्मिक अनुराग था। अपने सम्प्रदाय पर का संकुचित राग साम्प्रदायिकराग है और यह त्याज्य है। स्वजन-कुटुम्ब, सगे-सम्बन्धी तथा मित्रादि की तरफ जो रागभाव होता है वह लौकिक राग है। इस लौकिक-राग के भी दो भेद किए जा सकते हैं : स्नेहरूप और स्मरवासनारूप। स्नेहरूप राग यदि कलुषित न हो और निर्मल हो तो वह आदरणीय है। स्मरवासनारूप राग भी निषिद्ध और अनिषिद्ध ऐसा दो प्रकार का गिनाया जा सकता है : स्वपत्नी अथवा स्वपतिविषयक औचित्ययुक्त अनिषिद्ध, और परस्त्री आदि निषिद्धस्थानविषयक निषिद्ध।
हमें यह जान लेना चाहिए कि व्यक्तिविषयक राग की अपेक्षा उसके गुणों का राग उत्तम है, फिर चाहे ऐसे व्यक्ति की ओर राग-बुद्धि उसके सद्गुणों के कारण ही क्यों न उत्पन्न हुई हो? यह बात सच है कि ऐसे व्यक्ति की ओर होनेवाला रागभाव आत्मा के ऊर्ध्वीकरण में बहुत अंशों में सहायभूत होता है, परन्तु ऐसा राग उस व्यक्ति का वियोग होने पर निराधारता की भावना पैदा कर के रुदन कराता है और अन्तिम विकास का अवरोधक बनता है। इस बारे में महर्षि गौतम इन्द्रभूति का उदाहरण स्पष्ट है।
वीतरागता अर्थात् राग और द्वेष का आत्यन्तिक अभाव। इसमें रागद्वेषजन्य सभी वृत्तियों का अभाव सूचित हो जाता है। वीतरागता विश्वबन्धुत्व, विश्वप्रेम अथवा विश्ववात्सल्य की विरोधी नहीं है। जितने अंशों में राग-द्वेष कम होते जाते हैं उतने अंशों में प्राणि-वात्सल्य का विकास होता जाता है और जब वीतरागता पूर्णरूप से प्रकट होती है तब यह वात्सल्यभाव भी पूर्णरूप से विकसित हो कर समग्र लोक के प्राणियों में अभिव्याप्त हो जाता है। जहाँ निर्भ्रान्त ज्ञान देदीप्यमान हो रहा हो, जहाँ संकुचित स्वार्थ और पौद्गलिक सुखोपभोग में आसक्ति न हो, जहाँ कषायादि दोष न हो, जहाँ शुभ कर्मों से प्राप्त विशेषताओं के कारण गर्व अथवा अहंकार न हो, जहाँ पक्षपात अथवा अन्यायवृत्ति न हो, जहाँ उच्च नीचभाव न हो और जहाँ पूर्ण समदर्शिता तथा सर्वप्राणिहितपरायणता हो वहाँ वीतरागता है। वह विश्वक्षेमंकर, पूर्णपवित्र, पूर्णज्योति जीवन का नाम है।
जिस राग के पक्ष में द्वेष, स्वार्थ, पक्षपात आदि दोष हों अथवा जो राग साक्षात् या परम्परा से द्वेषादि दोषों के साथ सम्बद्ध हो वह कलुषित राग है। जगत् इस कलुषित राग के जुल्मी आक्रमण से व्यथित है। परन्तु यह राग द्वेष, स्वार्थ और मूढता आदि मैल से जितना दूर होता जाता है उतना ही वह निर्मल बनने लगता है। इस निर्मलता के कारण वह (राग) निर्मल वात्सल्य अथवा निर्मल प्रेमभाव जैसे सु-नाम से व्यवहृत होता है। विधेयात्मक अहिंसारूप शुद्ध वात्सल्यभाव प्राणिवर्ग में जितना व्यापक बनता है, आत्मा उतना ही महान् बनता है। ‘सम्यक्त्व’ के निर्मल पुद्गल विशीर्ण होने पर जिस प्रकार श्रेष्ठतर और श्रेष्ठतम (आत्मिक) सम्यक्त्व प्रकट होता है उसी प्रकार अत्युन्नत भूमिका पर आरूढ़ होने पर राग के निर्मल पुद्गल भी जब बिखर जाते हैं तब पूर्ण वीतराग दशा प्राप्त होती है और तब परम विशुद्ध आत्मिक वात्सल्य (Divine or spiritual love), जो कि अहिंसा की परम ज्योत है, सर्वभूतव्यापी बनता है और इसका सद्व्यवहार वीतराग प्रभु जबतक इस जगत् में (शरीरधारी अवस्था में) रहते हैं तब तक करते हैं। इसीलिये वे लोकबन्धु, जगन्मित्र, विश्ववत्सल कहलाते हैं। इसी रूप में उनकी स्तुति-प्रार्थना की जाती है।
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