शरीर का उपयोग शरीर अस्थि, मांस, रक्त, चर्बी आदि का बना हुआ पुतला है और मल-मूत्रादि अशुचि से भरा हुआ है-इस प्रकार का विवेचन शरीर की ओर वैराग्य उत्पन्न करने के लिये किया जाता है। वैज्ञानिक दृष्टिबिन्दु से देखने पर शरीर तो जिसका बनता हो उसका बने। दूसरी वस्तुओं से बनाने पर वह नहीं बन सकता। हमारी अपेक्षा प्रकृति कहीं अधिक कुशल और समर्थ है। शरीर में जो अशुचि उत्पन्न होती है वह तो शरीर के निर्वाह एवं स्थैर्य के लिये लिए जानेवाले आहार आदि में शरीरपयोगी वस्तुओं के साथ साथ जो निरुपयोगी पदार्थ मिश्रित होते हैं उसके कारण है। शरीर एक ऐसा अद्भुत यन्त्र है जो सारभूत वस्तुओं को अपने उपयोग में लेकर और निरुपयोगी-अशुचि वस्तुओं को बाहर फेंक कर अपने को (शरीर को) कार्यक्षम रखने का स्वतः सतत प्रयत्न करता रहता है। शरीर जबरदस्ती त्याग करने जैसी अथवा जैसे हो वैसे जल्दी नाश करने जैसी वस्तु नहीं है। शरीर को तो कार्यक्षम एवं नीरोग स्थिति में रखने की आवश्यकता है जिससे उसका प्रभाव मन पर पड़े और मन शरीरविषयक दुश्चिन्तन में से विमुक्त रहे। निस्सन्देह, शरीर के भोगोपभोग के लिये अनावश्यक हिंसा न होनी चाहिए तथा झूठ-अनीति-अन्याय का आचरण न करना चाहिए-इतनी ही बात प्रस्तुत विषय में मुद्दे की और खास ध्यान में रखने योग्य तथा आचरण करने योग्य है। यह तो समझ में आ सके ऐसा है कि आत्मा अपने शरीर में ही रह कर अपनी ज्ञानशक्ति और कार्यशक्ति का उपयोग कर के मोक्षकी साधना कर सकता है। आत्मा जबतक अन्तिम शरीर छोड़ कर मोक्ष प्राप्त नहीं करता तब तक उसे शरीर की आवश्यकता है और तब तक उसके साथ शरीर लगा ही रहने का। फिर भी अज्ञानवश शरीर का त्याग करने जैसी प्रवृत्ति यदि की जाय तो वह आत्महत्या जैसी प्रवृत्ति समझी जायगी। ऐसी प्रवृत्ति पापरूप मानी गई है। त्याग शरीर का नहीं, दुर्वृत्ति तथा दुष्प्रवृत्ति का करने का है।
आत्महत्या और ‘संलेखना’ में अन्तर है। आत्महत्या कषाय के आवेग का परिणाम है, जबकि संलेखना त्याग एवं दया का परिणाम है। जहाँ अपने जीवन की कुछ भी उपयोगिता न रही हो और अपने लिये दूसरों को व्यर्थ कष्ट उठाना पड़ता हो वहाँ शरीरत्याग करने में दूसरों पर दयाभाव रहा है। कुछ लोग पानी में डूब मरने का, कोई पर्वत पर से गिर करके मरने का अथवा दूसरे प्रकार से प्राणोत्सर्ग करने का प्रयत्न करते हैं, परन्तु यह अन्धश्रद्धा की बात है। हाँ, कर्त्तव्य की वेदिका पर बलिदान देना स्चचा बलिदान है। जनरक्षा के लिये अपने प्राणों का उत्सर्ग करना अथवा दूसरों की सेवा के लिये यदि अपना शरीर देना पड़े तो वह दे देना सच्चा बलिदान है, परन्तु अमुक जगह पर मरने से अथवा अमुक का नाम ले कर मरने से स्वर्ग या मोक्ष मिलता है इस प्रकार की अन्धश्रद्धा से प्रेरित हो कर प्राणत्याग करना बुरा है। जैनधर्म ने उपवास के अतिरिक्त मृत्यु के अन्य उपायों की मनाही की है। यह एक प्रकार का प्रशस्य संशोधन है। जब किसी असाध्य बीमारी में असह्य कष्ट हो रहा हो और दूसरों से खूब सेवा-शुश्रूषा करानी पड़े तब उपवास करके शरीर का त्याग करना उचित समझा जा सकता है। उपवासचर्या भी कदम नहीं परन्तु प्रारम्भ में नीरस भोजन पर, बाद में छाछ आदि किसी पेय वस्तु पर और उसके पश्चात् शुद्ध जल पर रहकर-इस प्रकार चढ़ते चढ़ते उपवास पर आना चाहिए। इस प्रक्रिया में कितने ही दिन, महीने और शायद अनेक वर्ष भी लग सकते हैं। एकदम प्राणत्याग करने में जो स्व-पर को संक्लेश होता है वह इस प्रक्रिया में नहीं होता। और यह प्रक्रिया मरण का ही नहीं, जीवन का भी उपाय बन सकती है अर्थात् इस प्रकार की प्रक्रिया से कभी कभी बीमारी में से स्वस्थ भी हुआ जा सकता है। इस प्रकार की प्रक्रिया से बीमारी दूर हो जाने पर संलेखना का कारण न रहने से संलेखना बन्द कर देनी चाहिए।
उपवास-चिकित्सा एवं संलेखना में अन्तर है। चिकित्सा में जीवन की पूरी आशा और तदर्थ प्रवृत्ति होती है, परन्तु संलेखना तो तभी की जाती है जब जीवन की कोई आशा ही न हो और न उसके लिये किसी प्रकार का प्रयत्न हो। परन्तु उपर्युक्त संलेखना की प्रक्रिया से यदि शरीर अच्छा हो हो जाय तो फिर ज़बरदस्ती से प्राणत्याग करने की आवश्यकता नहीं है; क्योंकि संलेखना आत्महत्या नहीं किन्तु मृत्यु के सम्मुख वीरतापूर्वक आत्मसमर्पण की प्रक्रिया है। इससे मनुष्य शान्ति एवं आनन्द से अपने प्राणों का त्याग करता है। मृत्यु से पूर्व उसे जो कुछ करना चाहिए वह सब वह कर लेता है। परन्तु मृत्यु यदि टल जाय तो उसे ज़बरदस्ती नहीं बुलाना चाहिए।
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