प्रश्न- 201 सूक्ष्म द्रव्य पुद्गल परावर्त काल किसे कहते है ?
जवाब- 201 उपरोक्त सात वर्गणा के सभी पुद्गलों को औदारिक आदि किसी भी एक वर्गणा के रुप में उपभोग कर छोडने में जितना समय लगता है, उस काल को सूक्ष्म द्रव्य पुद्गल परावर्त काल कहते है ।
प्रश्न- 202 बादर क्षेत्र पुद्गल परावर्त काल किसे कहते है ?
जवाब- 202 चौदह राजलोक के सभी आकाश प्रदेशों का बिना क्रम के मृत्यु द्वारा स्पर्श करते हुए किसी एक जीव को जितना समय लगता है, उस काल को बादर क्षेत्र पुद्गल परावर्त काल कहते है ।
प्रश्न- 203 सूक्ष्म क्षेत्र पुद्गल परावर्त काल किसे कहते है ?
जवाब- 203 चौदह राजलोक के सभी आकाश प्रदेशों को क्रमशः प्रदेश के अनुसार मृत्यु द्वारा स्पर्श करते हुए किसी एक जीव को लगने वाला काल सूक्ष्म क्षेत्र पुद्गल परावर्त काल है ।
प्रश्न- 204 बादर काल पुद्गल परावर्त काल किसे कहते है ?
जवाब- 204 कालचक्र के संपूर्ण समय को बिना क्रम के मृत्यु द्वारा स्पर्श करने में जो समय लगता है, उसे बादर काल पुद्गल परावर्त काल कहते है ।
प्रश्न- 205 सूक्ष्म काल पुद्गल परावर्त काल किसे कहते है ?
जवाब- 205 कालचक्र के संपूर्ण समय को क्रमशः मृत्यु द्वारा स्पर्श करने में जो समय लगता है, उसे सूक्ष्म काल पुद्गल परावर्त काल कहते है ।
प्रश्न- 206 बादर भाव पुद्गल परावर्त काल किसे कहते है ?
जवाब- 206 सभी रसबंध के अध्यवसाय स्थानकों को बिना क्रम के मृत्यु द्वारा स्पर्श करने में जितना समय लगता है, उसे बादर भाव पुद्गल परावर्त काल कहते है ।
प्रश्न- 207 सूक्ष्म भाव पुद्गल परावर्त काल किसे कहते है ?
जवाब- 207 रसबन्ध के एक एक अध्यवसाय को मृत्यु द्वारा क्रमशः स्पर्श करने में लगने वाला समय सूक्ष्म भाव पुद्गल परावर्त काल कहलाता है ।
प्रश्न- 208 पल्योपम के कुल कितने प्रकार है ?
जवाब- 208 पल्योपम कुल छह प्रकार हैः- 1.उद्धार पल्योपम 2.अद्धा पल्योपम 3.क्षेत्र पल्योपम इन तीनों के सूक्ष्म तथा बादर ऐसे दो-दो भेद होने से छह भेद हैं ।
प्रश्न- 209 सूक्ष्म उद्धार पल्योपम किसे कहते है ?
जवाब- 209 बादर उद्धार पल्योपम की भाँति कुएँ में सात दिन के नवजात शिशु के एक बाल के असंख्य टुकडों से इस तरह ठसा-ठस भर दिया जाय कि उसके उपर से चक्रवर्ती की विशाल सेना पसार हो जाय तब भी उसके ठसपण में किंचित् मात्र भी फर्क न आये । उस कूप में से प्रति समय में एक-एक केश का टुकडा निकाले । इस प्रकार करते हुए जब केश राशि से पूरा कुआं खाली हो जाय, उतने समय की अवधि अथवा परिमाण को सूक्ष्म उद्धार पल्योपम कहते है ।
प्रश्न- 210 बादर अद्धा पल्योपम किसे कहते है ?
जवाब- 210 बादर उद्धार पल्योपम की भाँति बाल से भरे कुएँ में से प्रति सौ वर्ष में बाल का टुकडा निकाला जाये और जितने समय में वह खाली हो जाय, उसे बादर अद्धा पल्योपम कहते है ।
प्रश्न- 211 सूक्ष्म अद्धा पल्योपम किसे कहते है ?
जवाब- 211 सूक्ष्म उद्धार पल्योपम की भाँति केश से भरे हुए कुएँ में से प्रती सौ वर्ष में एक टुकडा निकाला जाये और जितने समय में वह खाली हो जाय, उसे सूक्ष्म अद्धा पल्योपम कहते है ।
प्रश्न- 212 बादर क्षेत्र पल्योपम किसे कहते है ?
जवाब- 212 बादर उद्धार पल्योपम को समझाने के लिये कुएँ में जो वालाग्र भरा है, उस वालाग्र को स्पर्श किए हुए आकाश प्रदेश में से एक-एक आकाश प्रदेश को एक-एक समय में बाहर निकालने में जितना समय लगे, उस समय को बादर क्षेत्र पल्योपम कहते है ।
प्रश्न- 213 सूक्ष्म क्षेत्र पल्योपम किसे कहते है ?
जवाब- 213 सूक्ष्म उद्धार पल्योपम को समझाने के लिये कुएँ में जो वालाग्र भरा है, उस वालाग्र को स्पर्श किए हुए और नहीं स्पर्शे हुए आकाश प्रदेशों में से एक-एक आकाश प्रदेश को एक-एक समय में बाहर निकालने में जितना समय लगे, उस समय को सूक्ष्म क्षेत्र पल्योपम कहते है ।
प्रश्न- 214 सागरोपम के कितने भेद है ?
जवाब- 214 पल्योपम की भाँति ही सागरोपम के भी छह भेद है – 1.उद्धार सागरोपम 2.अद्धा सागरोपम 3.क्षेत्र सागरोपम । सूक्ष्म तथा बादर रुप दो भेदों की अपेक्षा से प्रत्येक के पुनः दो-दो भेद है ।
प्रश्न- 215 बादर उद्धार सागरोपम किसे कहते है ?
जवाब- 215 दस कोडाकोडी बादर उद्धार पल्योपम का एक बादर उद्धार सागरोपम होता है ।
प्रश्न- 216 सूक्ष्म उद्धार सागरोपम किसे कहते है ?
जवाब- 216 दस कोडाकोडी सूक्ष्म उद्धार पल्योपम का एक सूक्ष्म उद्धार सागरोपम होता है ।
प्रश्न- 217 अद्धा सागरोपम के दोनों भेद स्पष्ट कीजिए ?
जवाब- 217 1. दस कोडाकोडी बादर अद्धा पल्योपम का एक बादर अद्धा सागरोपम होता है ।
2. दस कोडाकोडी सूक्ष्म अद्धा पल्योपम का एक सूक्ष्म अद्धा सागरोपम होता है ।
प्रश्न- 218 क्षेत्र सागरोपम के दोनों भेद स्पष्ट कीजिए ?
जवाब- 218 1. दस कोडाकोडी बादर क्षेत्र पल्योपम का एक बादर क्षेत्र सागरोपम होता है ।
2. दस कोडाकोडी सूक्ष्म क्षेत्र पल्योपम का एक सूक्ष्म क्षेत्र सागरोपम होता है ।
प्रश्न- 219 एक काल चक्र में कितने आरे होते है ?
जवाब- 219 एक काल चक्र में छह अवसर्पिणी काल के तथा छह उत्सर्पिणी काल के कुल 12 आरे होते है ।
प्रश्न- 220 अवसर्पिणी काल किसे कहते है ?
जवाब- 220 जिस काल में जीवों के संघयण, संस्थान आयुष्य, अवगाहना, बल, पराक्रम, वीर्य, वर्ण, गंध, रस, स्पर्श उत्तरोत्तर हिन होते जाते हैं, उसे अवसर्पिणी काल कहते है ।
प्रश्न- 221 उत्सर्पिणी काल किसे कहते है ?
जवाब- 221 जिस काल में जीवों के संहनन, संस्थान उत्तरोतत्तर शुभ होते जाय, आयुष्य, अवगाहना, बल, पराक्रम, वीर्य आदि वृद्धि को प्राप्त होते जाय, वर्ण, गंध, रस, स्पर्श भी शुभ होते जाय, उसे उत्सर्पिणी काल कहते है ।
प्रश्न- 222 अवसर्पिणी काल के छह आरों का विस्तृत विवेचन प्रस्तुत करो ।
जवाब- 222 1.सुषम-सुषमः- यह आरा 4 कोडाकोडी सागरोपम का होता है । इस आरे में जन्मे मनुष्य का देहमान 3 कोस, आयुष्य 3 पल्योपम का होता है तथा तीन-तीन दिन के अन्तर से आहार की इच्छा होती है । उन के वज्रऋषभनाराच संघयण एवं समचतुरस्त्र संस्थान होता है । शरीर में 256 पसलियाँ होती है । इनकी इच्छा तथा आकांक्षाएँ दस प्रकार के कल्पवृक्ष पूरी करते है । कल्पवृक्ष इन्हें इतने रसप्रचुर, स्वादिष्ट तथा शक्ति वर्धक फल प्रदान करते हैं कि तुअर के दाने जितना आहार ग्रहण करने मात्र से ही इन्हें संतोष और तृप्ति हो जाती है । स्वयं की आयुष्य के 6 मास शेष रहे हो तब युगलिनी एक युगल (पुत्र-पुत्री) को जन्म देती है तथा 49 दिन तक ही उनका पालन पोषण करती है । तत्पश्चात् वह युगल स्वावलंबी होकर स्वतंत्र घूमता है । युवा होने पर वे ही पति-पत्नी का व्यवहार करते है । इन (युगल रुप जन्म होने के कारण) युगलिक मनुष्यों का आयुष्य पूर्ण होने पर एक छींक और एक जंभाई से मृत्यु हो जाती है । ये अल्प विषयी तथा अल्प कषायी होने से इसे सुषम-सुषम कहा जाता है ।
2. सुषमः- इस आरे का काल मान 3 कोडाकोडी सागरोपम है । पहले आरे की अपेक्षा इसमें कम सुख होता है पर दुःख का पूर्णतया अभाव होता है । इस आरे के मनुष्य की अवगाहना 2 कोस, आयुष्य 2 पल्योपम शरीर में 128 पसलियाँ तथा 2 दिन के अंतर में बेर प्रमाण आहार होता है । बुद्धि, बल, कांति में पूर्व की अपेक्षा हानि आती है । संतान पालन 64 दिन करते है । शेष प्रथम आरे की तरह है ।
3. सुषम-दुःषमः- इसका कालमान 2 कोडाकोडी सागरोपम है । इसमें सुख अधिक व दुःख कम होता है । इस आरे के मनुष्य की अवगाहना एक कोस, आयुष्य 1 पल्योपम शरीर में 64 पसलियाँ तथा 1 दिन के अंतर में आंवले प्रमाण आहार होता है । संतान पालन 79 दिन करते है । इस आरे के जब 84 लाख पूर्व, 3 वर्ष 81/2 माह शेष रहते है तब प्रथम तीर्थंकर का जन्म होता है । इस आरे के तीसरे भाग में छह संघयण तथा छह संस्थान होते हैं । अवगाहना एक हजार धनुष से कम होती है । जीव स्वकृत कर्मो के अनुसार चारों गतियों में जाते है तथा कर्म क्षय कर मोक्ष में भी जाते है ।
4. दुःषम-सुषमः- इसका काल 42 हजार वर्ष न्यून एक कोडाकोडी सागरोपम का है । इसमें दुःख ज्यादा और सुख कम होता है । इस आरे में मनुष्य का उत्कृष्ट शरीर मान 500 धनुष्य, उत्कृष्ट आयुष्य पूर्व क्रोड वर्ष, आहार अनियमित होता है । शरीर में 32 पसलियाँ होती हैं । छह संघयण व छह संस्थान होते हैं । इस आरे में युगलिकों की उत्पत्ति नहीं होती है । इस आरे में 23 तीर्थंकर, 12 चक्रवर्ती, 9 बलदेव, 9 वासुदेव, 9 प्रतिवासुदेव होते है ।
5. दुःषमः- इसका काल 21 हजार वर्ष का है । इसमें दुःख ज्यादा होता है । इस आरे में जघन्य आयुष्य अन्तर्मुहूर्त का तथा उत्कृष्ट साधिक सौ वर्ष का होता है । उत्कृष्ट अवगाहना 7 हाथ । शरीर में 16 पसलियाँ होती हैं । अंतिम संघयण व अंतिम संस्थान होते हैं । इस आरे में जन्मा जीव मोक्ष प्राप्त नहीं करता है । इस आरे के अन्तिम दिन का तीसरा भाग बितने पर जाति, धर्म, व्यवहार, सदाचार आदि का लोप हो जाता है । वर्तमान में यही आरा चल रहा है ।
6. दुःषम-दुःषमः- इक्कीस हजार वर्ष का यह छट्ठा आरा अत्यन्त दुःखमय होने से इसका नाम दुःषम दुःषम है । इस काल में मानव की देह एक हाथ, पुरुष का आयुष्य 20 वर्ष तथा स्त्री का आयुष्य 16 वर्ष का होता है । पसलियाँ 8 व आहार अमर्यादित होता है । छह वर्ष की कुरुपवान् बाला गर्भधारण कर बच्चे को जन्म देती है । सुअर के सदृश सन्ताने अधिक होती हैं । वर्ण, गंध, रस, स्पर्श, संघयण, संस्थान, रुप आदि सब कुछ अशुभ होते हैं । प्राणी अत्यधिक क्लेशकारी होते है ।
गंगा तथा सिंधु नदियों के किनारे स्थित 72 बिलों में मनुष्य रहते हैं । दिन में सख्त ताप व रात में भयंकर ठण्डक होती है । रात्रि में बिलवासी मानव मछलियाँ व जलचरों को पकडकर रेती में दबा देते हैं । सूर्य के प्रचंड ताप से वे दिन में भून जाने पर रात्रि में उन्हें खाते हैं । इस प्रकार ये हिंसक जीव मांसाहारी होते है, जो मरकर प्रायः नरक व तिर्यंच योनि में उत्पन्न होते है ।
प्रश्न- 223 उत्सर्पिणी काल के स्वरुप का वर्णन करो ।
जवाब- 223 1. दुःषम-दुःषमः- अवसर्पिणी के छट्ठे आरे की भांति यह आरा इक्किस हजार वर्ष का होता है । विशेषता केवल इतनी है कि अवसर्पिणी काल में देह, आयुष्य आदि का उत्तरोत्तर ह्रास होता है, जबकि अवसर्पिणी में उत्तरोत्तर विकास होता है ।
2. दुःषमः- कालमान 21 हजार वर्ष । इसमें सात-सात दिन तक पांच प्रकार की वृष्टियाँ होती है ।
1.पुष्कर संवर्तक मेघः- इससे अशुभ भाव, रुक्षता, उष्णता नष्ट होती है ।
2. क्षीर मेघः- शुभ वर्ण, गंध, रस, स्पर्श की उत्पत्ति होती है ।
3. घृत मेघः- भूमि में स्नेह (स्निग्धता) का प्रादुर्भाव होता है ।
4. अमृत मेघः- वृक्ष, गुच्छ, गुल्म, लता आदि के अंकुर प्रस्फुटित होते है ।
5. रस मेघः- इससे वनस्पतियों में फल, फूल, पत्ते आदि की वृद्धि होती है । पृथ्वी हरी भरी और रमणीय हो जाती है । बिलवासी बाहर निकलकर आनंद मनाते है । मांसाहार का त्याग व बुद्धि में दया का आविर्भाव होता है । यह अवसर्पिणी के पांचवे आरे जैसा है ।
3. दुःषम-सुषमः- यह आरा बयालीस हजार वर्ष न्यून एक कोडाकोडी सागरोपम का होता है । अवसर्पिणी के 4थे आरे के समान ही समझना चाहिये ।
4. सुषम-दुःषमः- अवसर्पिणी के तीसरे आरे के समान ही समझना चाहिये ।
5. सुषमः- अवसर्पिणी के दुसरे आरे के समान ही समझना चाहिये ।
6. सुषम-सुषमः- अवसर्पिणी के पहले आरे के समान ही समझना चाहिये ।
प्रश्न- 224 परिणाम किसे कहते है ?
जवाब- 224 एक अवस्था छोडकर दूसरी अवस्था में जाना परिणाम कहलाता है ।
प्रश्न- 225 छह द्रव्य में से कितने द्रव्य परिणामी तथा कितने अपरिणामी ?
जवाब- 225 छह द्रव्य में से जीव तथा पुद्गल, ये दो द्रव्य परिणामी है । शेष 4 द्रव्य अपरिणामी है ।
प्रश्न- 226 क्या छहों द्रव्य शाश्वत है ?
जवाब- 226 हां – छहों द्रव्य शाश्वत अर्थात् अनादि-अनंत हैं ।
प्रश्न- 227 छह द्रव्यों में कितने द्रव्य जीव तथा कितने अजीव है ?
जवाब- 227 केवल जीवास्तिकाय ही जीव है । शेष पाँच अजीव है ।
प्रश्न- 228 छह द्रव्यों में कितने द्रव्य सर्वव्यापी तथा कितने देशव्यापी है ?
जवाब- 228 एक आकाश द्रव्य लोक-अलोक प्रमाण व्याप्त होने से सर्वव्यापी है तथा शेष 5 द्रव्य केवल लोकाकाश में ही होने से देशव्यापी है ।
प्रश्न- 229 सर्वव्यापी तथा देशव्यापी किसे कहते है ?
जवाब- 229 लोक तथा अलोक में, सर्वत्र व्याप्त होकर रहता है, वह सर्व व्यापी कहलाता है । जो केवल लोक में ही रहता है, वह देशव्यापी कहलाता है ।
प्रश्न- 230 लोकाकाश में अन्य कोइ भी द्रव्य नहीं है फिर उसमें अवकाश देने की क्रिया कैसे घट सकेगी ?
जवाब- 230 अलोकाकाश में भी लोकाकाश के समान ही अवकाश देने की शक्ति है । वहाँ कोइ अवकाश लेने वाला द्रव्य नहीं है, इसीसे वह क्रिया नहीं करता ।
प्रश्न- 231 एक द्रव्य कहाँ पाया जाता है ?
जवाब- 231 अलोक में एक द्रव्य (आकाशास्तिकाय) पाया जाता है ।
प्रश्न- 232 अजीव तत्व के कुल कितने भेद है ?
जवाब- 232 अजीव तत्व के मुख्य भेद 14 है ।
प्रश्न- 233 पुण्य किसे कहते है ?
जवाब- 233 जो आत्मा को पवित्र करें, जिसकी शुभ प्रकृति हो, जिसका परिणाम मधुर हो, जो सुख-संपदा प्रदान करें, उसे पुण्य कहते है ।
प्रश्न- 234 पात्र कितने प्रकार के होते है ?
जवाब- 234 पात्र तीन प्रकार के होते है 1. सुपात्र 2. पात्र 3. अनुकंपादि पात्र ।
प्रश्न- 235 सुपात्र किसे कहते है ?
जवाब- 235 मोक्ष मार्ग की ओर अभिमुख हुए तीर्थंकर भगवान से लेकर मुनि महाराज आदि महापुरुष सुपात्र है ।
प्रश्न- 236 पात्र किसे कहते है ?
जवाब- 236 धर्मी गृहस्थ तथा सद्गृहस्थ पात्र कहलाते है ।
प्रश्न- 237 अनुकंपादि पात्र किसे कहते है ?
जवाब- 237 करुणा, दया करने योग्य अपंग, अंध आदि जीव अनुकंपादि पात्र कहलाते हैं ।
प्रश्न- 238 सुपात्र को दान देने से क्या लाभ होता है ?
जवाब- 238 सुपात्र को धर्म की बुद्धि से दान देने पर अशुभ कर्मो की महानिर्जरा होती है तथा महान् पुण्यानुबंधी पुण्य का उपार्जन होता है ।
प्रश्न- 239 पात्र को दान देने से क्या लाभ होता है ?
जवाब- 239 धर्मी गृहस्थादि पात्र को दान देने से भी पुण्य उपार्जन होता है पर मुनि की अपेक्षा अल्प पुण्य का बन्ध होता है ।
प्रश्न- 240 अंध, अपंगादि जीवों को दान देने से क्या होता है ?
जवाब- 240 अपंगादि दुःखी जीवों को अन्नादि का दान देने से उन्हें सुख और शांति मिलती है, अतः उससे भी पुण्य का उपार्जन होता है ।
प्रश्न- 241 अपात्र को दान देने से क्या पुण्य बंधता है ?
जवाब- 241 जो जीव सुपात्र, पात्र या अनुकंपा पात्र नहीं है, अगर वह हमारे घर आंगण में आ जाय कुछ मांगने के लिये तो उसे निरस्कृत या अपमानित नहीं करना चाहिए । उस अपात्र को यदि हम दुत्कार कर निकाल देते है तो हमारे धर्म की निंदा होती है, इस विचार से यदि हम दान करते है तो पुण्योपार्जन होता है अथवा लक्ष्मी की निस्सारता और निर्मोहता से प्रत्येक जीव को दान दिया जाय तब भी पुण्य का ही बंध होता है ।
प्रश्न- 242 पाप किसे कहते है ?
जवाब- 242 जो आत्मा को मलिन करे, जो बांधते समय सुखकारी किंतु भोगते समय दुःखकारी हो, उसे पाप कहते है ।
प्रश्न- 243 पाप बंध के कितने कारण है ?
जवाब- 243 पाप बंध के 18 कारण हैः- 1.प्राणातिपात 2.मृषावाद 3.अदत्तादान 4.मैथुन 5.परिग्रह 6.क्रोध 7.मान 8.माया 9.लोभ 10.राग 11.द्वेष 12.कलह 13.अभ्याख्यान 14.पैशुन्य 15.रति-अरति 16.परपरिवाद 17.मायामृषावाद 18.मिथ्यात्वशल्य ।
प्रश्न- 244 प्राणातिपात किसे कहते है ?
जवाब- 244 जीव के प्राणों को नष्ट करना, प्राणातिपात कहलाता है ।
प्रश्न- 245 मृषावाद किसे कहते है ?
जवाब- 245 असत्य या झूठ बोलना, मृषावाद कहलाता है ।
प्रश्न- 246 अदत्तादान किसे कहते है ?
जवाब- 246 ग्राम, नगर, खेत आदि में रही हुई सचित्त या अचित्त वस्तु को मालिक की आज्ञा के बिना ग्रहण करना, चोरी करना, अदत्तादान कहलाता है ।
प्रश्न- 247 मैथुन किसे कहते है ?
जवाब- 247 अब्रह्म का सेवन करना, मैथुन कहलाता है ।
प्रश्न- 248 परिग्रह किसे कहते है ?
जवाब- 248 आवश्यकता से अधिक वस्तुओं का संग्रह करना तथा उन पर ममत्व रखना, परिग्रह है ।
प्रश्न- 249 क्रोध किसे कहते है ?
जवाब- 249 जीव या अजीव पर गुस्सा करने को क्रोध कहते है ।
प्रश्न- 250 मान किसे कहते है ?
जवाब- 250 घमंड या अहंकार करने को मान कहते है ।
प्रश्न- 251 माया किसे कहते है ?
जवाब- 251 कपट या प्रपंच करना माया है ।
प्रश्न- 252 लोभ किसे कहते है ?
जवाब- 252 लालच या तृष्णा रखने को लोभ कहते है ।
प्रश्न- 253 राग किसे कहते है ?
जवाब- 253 माया तथा लोभ जिसमें अप्रकट रुप से विद्यमान हो. ऐसा आसक्ति रुप जीव का परिणाम राग कहलाता है ।
प्रश्न- 254 द्वेष किसे कहते है ?
जवाब- 254 क्रोध तथा मान जिसमें अप्रकट रुप से विद्यमान हो, ऐसा अप्रीति रुप जीव का परिणाम द्वेष कहलाता है ।
प्रश्न- 255 कलह किसे कहते है ?
जवाब- 255 लडाई-झगडा या क्लेश करने को कलह कहते है ।
प्रश्न- 256 अभ्याख्यान किसे कहते है ?
जवाब- 256 दोषारोपण करना या झूठा कलंक लगाने को अभ्याख्यान कहते है ।
प्रश्न- 257 पैशुन्य किसे कहते है ?
जवाब- 257 पीठ पीछे किसी के दोष (उसमें हो या न हो) प्रकट करना या चुगली करना, पैशुन्य कहलाता है ।
प्रश्न- 258 रति - अरति किसे कहते है ?
जवाब- 258 इन्द्रियों के अनुकूल विषय प्राप्त होने पर राग करना रति है । प्रतिकूल विषयों के प्रति अरुचि, उद्वेग करना, अरति है ।
प्रश्न- 259 परपरिवाद किसे कहते है ?
जवाब- 259 दूसरों की निन्दा करना, विकथा करना, उसे परपरिवाद कहते है ।
प्रश्न- 260 मायामृषावाद किसे कहते है ?
जवाब- 260 माया (कपट) पूर्वक झूठ बोलना ।
प्रश्न- 261 मिथ्यात्वशल्य किसे कहते है ?
जवाब- 261 कुदेव-कुगुरु-कुघर्म पर श्रद्धा होना ।
प्रश्न- 262 आश्रव किसे कहते है ?
जवाब- 262 जीव की शुभाशुभ प्रवृत्ति से आकृष्ट होकर कर्म वर्गणा का आत्मा में आना आश्रव कहलाता है ।
प्रश्न- 263 आश्रव के कितने भेद है ?
जवाब- 263 आश्रव के दो भेद हैं – 1. शुभाश्रव 2. अशुभाश्रव ।
प्रश्न- 264 शुभाश्रव किसे कहते है ?
जवाब- 264 शुभयोग अथवा शुभ प्रकृत्ति से जिस कर्म का आत्मा में आगमन होता है , उसे पुण्य या शुभाश्रव कहते है ।
प्रश्न- 265 अशुभाश्रव किसे कहते है ?
जवाब- 265 अशुभयोग तथा अशुभ प्रकृत्ति से अशुभ कर्म का आत्मा में आगमन होता है, उसे अशुभाश्रव (पाप) कहते है ।
प्रश्न- 266 आश्रव के अन्य अपेक्षा से कितने भेद हैं ?
जवाब- 266 20 भेद हैं –
1. मिथ्यात्व – मिथ्यात्व का सेवन करना ।
2. अव्रत – प्रत्याख्यान नहीं करना ।
3. प्रमाद – 5 प्रकार के प्रमाद का सेवन करना ।
4. कषाय – 24 कषायों का सेवन करना ।
5. अशुभयोग – मन-वचन-कायाको अशुभ में प्रवृत्ति ।
6. प्राणातिपात – हिंसा करना ।
7. मृषावाद – झूठ बोलना ।
8. अदत्तादान – चोरी करना ।
9. मैथुन – अब्रह्म का सेवन करना ।
10. परिग्रह – परिग्रह रखना ।
11. श्रोत्रेन्द्रिय – कान को वश में न रखना ।
12. चक्षुरिन्द्रिय – आँख को वश में न रखना ।
13. घ्राणेन्द्रिय – नाक को वश में रखना ।
14. रसनेन्द्रिय – जिह्वा को वश में न रखना ।
15. स्पर्शेन्द्रिय – शरीर को वश में न रखना ।
16. मन – मन को वश में न रखना ।
17. वचन – वचन को वश में न रखना ।
18. काया – काया को वश में न रखना ।
19. भंडोपकरणाश्रव – वस्त्र, पात्र आदि की जयणा न करना ।
20. कुसंगाश्रव – कुसंगति करना ।
प्रश्न- 267 आश्रव द्वार कितने है ?
जवाब- 267 आश्रव द्वार पांच है ।1.मिथ्यात्व 2.अविरति. 3.प्रमाद 4.कषाय 5.योग ।
प्रश्न- 268 मिथ्यात्व किसे कहते है ?
जवाब- 268 जीव को तत्व और जिनमार्ग पर अश्रद्धा तथा विपरित मार्ग पर श्रद्धा होना मिथ्यात्व है ।
प्रश्न- 269 मिथ्यात्व के कितने भेद है ?
जवाब- 269 स्थानांग सूत्र में मिथ्यात्व के 10 भेद प्रतिपादित हैं –
1. धर्म को अधर्म कहना ।
2. अधर्म को धर्म कहना ।
3. कुमार्ग को सन्मार्ग कहना ।
4. सन्मार्ग को कुमार्ग कहना ।
5. अजीव को जीव कहना ।
6. जीव को अजीव कहना ।
7. असाधु को साधु कहना ।
8. साघु को असाधु कहना ।
9. अमुक्त को मुक्त कहना ।
10. मुक्त को अमुक्त कहना ।
जो जैसा है, उसे वैसा न कहकर विपरित कहना या मानना मिथ्यात्व का लक्षण है ।
प्रश्न- 270 मिथ्यात्व के अन्य भेद कौन से है ?
जवाब- 270 मिथ्यात्व के अन्य भेद 5 है – 1.आभिग्रहिक मिथ्यात्व 2.अनाभिग्रहिक मिथ्यात्व 3.आभिनिवेशिक मिथ्यात्व 4.सांशयिक मिथ्यात्व 5. अनाभोगिक मिथ्यात्व ।
प्रश्न- 271 आभिग्रहिक मिथ्यात्व किसे कहते है ?
जवाब- 271 तत्व की या सत्व की परीक्षा किये बिना ही पक्षपातपूर्वक किसी तत्व को पकडे रहना तथा अन्य पक्ष का खंडन करना, आभिग्रहिक मिथ्यात्व है ।
प्रश्न- 272 अनाभिग्रहिक मिथ्यात्व किसे कहते है ?
जवाब- 272 गुण – दोष की परीक्षा किये बिना ही सभी पक्षों को समान कहना, अनाभिग्रहिक मिथ्यात्व है ।
प्रश्न- 273 आभिनिवेशिक मिथ्यात्म किसे कहते है ?
जवाब- 273 अपने पक्ष को असत्य समजते हुए भी दुराग्रह पूर्वक उसकी स्थापना, समर्थन करना, आभिनिवेशिक मिथ्यात्व है ।
प्रश्न- 274 सांशयिक मिथ्यात्व किसे कहते है ?
जवाब- 274 देव, गुरु तथा धर्म के विषय या स्वरुप में संदेहशील होना, सांशयिक मिथ्यात्व है ।
प्रश्न- 275 अनाभोगिक मिथ्यात्व किसे कहते है ?
जवाब- 275 विचार-शून्यता, मोहमूढता । एकेन्द्रियादि असंज्ञी तथा ज्ञानविकल जीवों को अनाभोगिक मिथ्यात्व होता है ।
प्रश्न- 276 अविरति किसे कहते है ?
जवाब- 276 प्राणातिपात आदि पापो से निवृत्त न होना, व्रत, प्रत्याख्यान आदि स्वीकार न करना अविरति है ।
प्रश्न- 277 प्रमाद किसे कहते है ?
जवाब- 277 शुभ कार्य या धर्मानुष्ठान में उद्यम न करना, आलस करना प्रमाद कहलाता है ।
प्रश्न- 278 पांच प्रमाद कौन से है ?
जवाब- 278 1.मद्य 2.विषय 3.कषाय 4.निद्रा 5.विकथा ।
प्रश्न- 279 कषाय किसे कहते है ?
जवाब- 279 जो आत्मा का संसार बढाये, उसे कषाय कहते है । इसका विस्तृत वर्णन पाप तत्व में किया जा चुका है ।
प्रश्न- 280 योग किसे कहते है ?
जवाब- 280 मन, वचन तथा काया के शुभाशुभ व्यापार को योग कहते है ।
प्रश्न- 281 किन किन कारणों से आत्मा में आश्रव होता है तथा आश्रव के भेद कितने हैं ?
जवाब- 281 आश्रव के 42 भेद है । इन 42 द्वारों से आत्मा में कर्म का आगमन होता है – इन्द्रियाँ-5, कषाय-16, अव्रत-5, योग-3, क्रियाएं-25 ।
प्रश्न- 282 इन्द्रियाश्रव किसे कहते है ?
जवाब- 282 5 इन्द्रियों के 23 विषय आत्मा के अनुकूल अथवा प्रतिकूल होने पर सुख-दुःख का अनुभव होता है, उससे आत्मा में कर्म का जो आश्रव होता है, उसे इन्द्रियाश्रव कहते है ।
प्रश्न- 283 कषायाश्रव किसे कहते है ?
जवाब- 283 क्रोधादि 4 कषायों के अनंतानुबंधी क्रोधादि आदि 16 भेदों से आत्मा में जो कर्म का आगमन होता है, उसे कषायाश्रव कहते है ।
प्रश्न- 284 अव्रताश्रव किसे कहते है ?
जवाब- 284 प्राणातिपात, मृषावाद, अदत्तादान, मैथुन तथा परिग्रह, इन पांच व्रतों का देशतः या सर्वतः अनियम या अत्याग अव्रताश्रव कहलाता है ।
प्रश्न- 285 प्रणातिपात अव्रताश्रव किसे कहते है ?
जवाब- 285 प्रमाद से जीवों के द्रव्य प्राणों का विनाश करना या जीव-हिंसा करना प्राणातिपात अव्रताश्रव है ।
प्रश्न- 286 मृषावाद अव्रताश्रव किसे कहते है ?
जवाब- 286 स्वार्थ की सिद्धि के लिये अथवा अहित के लिये जो सत्य अथवा असत्य बोला जाता है, उसे मृषावाद अव्रताश्रव कहते है ।
प्रश्न- 287 अदत्तादान अव्रताश्रव किसे कहते है ?
जवाब- 287 अदत्त-नही दी हुई (वस्तुका), आदान-ग्रहण करना अदत्तादान है । निषेध की गई वस्तु अथवा बिना पूछे वस्तु को लेना, चोरी करना, अदत्तादान अव्रताश्रव कहलाता है ।
प्रश्न- 288 अदत्तादान कितने प्रकार का है ?
जवाब- 288 अदत्तादान 4 प्रकार का है-
1. स्वामी अदत्त- स्वामी (मालिक) को पूछे बिना ली गयी वस्तु ।
2. जीव अदत्त- जीव को पूछे बिना ली गयी वस्तु ।
3. तीर्थेकर अदत्त- तीर्थंकरो के द्वारा निषिद्ध की गयी वस्तु ।
4. गुरु अदत्त- गुरु आज्ञा प्राप्त किये बिना ली गयी वस्तु ।
प्रश्न- 289 अब्रह्म अव्रताश्रव किसे कहते है ?
जवाब- 289 अनाचार का सेवन करना अब्रह्म आश्रव है ।
प्रश्न- 290 परिग्रह अव्रताश्रव किसे कहते है ?
जवाब- 290 पदार्थो का संग्रह करना, उन पर ममत्व बुद्धि रखना परिग्रह आश्रव है ।
प्रश्न- 291 योगाश्रव किसे कहते है ?
जवाब- 291 मन, वचन, काया के व्यापार से जो कर्म का आत्मा में आगमन होता है, उसे योगाश्रव कहते है ।
प्रश्न- 292 योगाश्रव के तीनों भेद स्पष्ट करो ?
जवाब- 292 1.मनोयोग आश्रवः- मन के द्वारा शुभ विचार करने पर शुभ मनोयोग आश्रव तथा अप्रशस्त विचार करने पर अशुभ मनोयोगाश्रव होता है ।
2. वचनयोगाश्रवः- वचन से सत्य, मधुर तथा हितकारी वचन बोलने पर शुभ वचन योगाश्रव तथा असत्य, कटु व हिंसक वचन बोलने पर अशुभ वचनयोगाश्रव होता है ।
3. काययोगाश्रवः- काया से शुभ प्रवृत्ति करने पर शुभकाय योगाश्रव तथा अशुभ प्रवृत्ति करने पर अशुभ काययोगाश्रव होता है ।
प्रश्न- 293 क्रिया किसे कहते है ? इसके कितने भेद है ?
जवाब- 293 आत्मा जिस व्यापार के द्वारा शुभाशुभ कर्म को ग्रहण करती है, उसे क्रिया कहते है । इसके पच्चीस भेद हैं ।
प्रश्न- 294 कायिकी क्रिया किसे कहते है ?
जवाब- 294 अविरति, अजयणा या प्रमादपूर्वक शरीर के हलन-चलन की क्रिया कायिकी क्रिया कहलाती है ।
प्रश्न- 295 अधिकरणिकी क्रिया किसे कहते है ?
जवाब- 295 अधिकरण अथवा तलवार, चाकू, छूरी, बंदूक आदि । इन शस्त्रो (अधिकरण) से आत्मा पाप करके नरक का अधिकारी बनता है, इन शस्त्रों से होने वाली क्रिया को अधिकरणिकी क्रिया कहते है ।
प्रश्न- 296 अधिकरणिकी क्रिया के भेद लखो ?
जवाब- 296 अधिकरणिकी क्रिया के दो भेद है ।
1. संयोजनाधिकरणिकी क्रियाः- शस्त्रादि के अवयवों को परस्पर जोडना ।
2. निर्वर्तनाधिकरणिकी क्रियाः- नये शस्त्रादि का निर्माण करना ।
प्रश्न- 297 प्रादेषिकी क्रिया किसे कहते है ?
जवाब- 297 जीव या अजीव प द्वेष करने से लगने वाली क्रिया प्रादेषिकी क्रिया है ।
प्रश्न- 298 पारितापनिकी क्रिया किसे कहते है ?
जवाब- 298 दूसरे जीवों को पीडा पहुँचाने से तथा अपने ही हाथ से अपना सिर, छाती आदि पीटने से लगने वाली क्रिया पारितापनिकी क्रिया है ।
प्रश्न- 299 प्राणातिपातिकी क्रिया किसे कहते है ?
जवाब- 299 दूसरें प्राणियों के प्राणों का विनाश करने से तथा स्त्री आदि के वियोग से आत्मघात करने से लगने वाली क्रिया प्राणातिपातिकी है ।
प्रश्न- 300 आरंभिकी क्रिया किसे कहते है ?
जवाब- 300 आरंभ (खेती, घर आदि के कार्य में हल, कुदाल आदि चलाने) से लगने वाली क्रिया आरंभिकी क्रिया है । इसमें उद्देश्य पूर्वक जीव का हनन नहीं किया जाता ।
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