जैन धर्म शाश्वत है। (हरिवंश पुराण १/२७-२८) तीर्थंकर ऋषभदेव तथा महावीर जैन धर्म के संस्थापक नहीं, अपितु प्रचारक थे।
सिंधु सभ्यता में जैन धर्म के अस्तित्व के प्रमाण हैं।
सिंधु घाटी सभ्यता की योगी की कायोत्सर्ग मुद्रा अब भी जैनों में प्रचलित है।
जैन धर्म प्रत्येक उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी काल में भरत क्षेत्र में २४ तीर्थंकरों के अस्तित्व को मानता है। (हरिवंश पुराण १/४-२४, पदमचरित ५/१९१-१९५)
जैन पंचपरमेष्ठियों की पूजा करते हैं।
जैन धर्म के अनुसार मनुष्य सर्वत्र हो सकता है। प्रमाण मीमांसा (पृ. २७-३)
जैन धर्म के अनुसार ईश्वर सृष्टिकर्ता नहीं है।
जैनों के मूल ग्रंथों की भाषा प्राकृत है।
जैन वेदों को प्रमाण नहीं मानते हैं।
जैन पूजा में सभी प्रकार की हिंसा वर्जित है।
जैनों के मूल ग्रंथ आचारांग-सूत्र-कृतांग आदि हैं। तत्वार्थसूत्र १/२०, सर्वार्धसिद्धि १/२०)
जैन धर्म वर्ण-व्यवस्था को जन्मना नहीं मानता है।
शूद्र भी धर्मपालन का अधिकारी है। (सागर धर्मामृत २/२२)
मोक्ष हेतु पुत्र आवश्यक नहीं है। (ज्ञानार्ठाव २/८/११)
जैन साधु नवधाभक्ति पूर्वक आहार लेते हैं।
जैन धर्म में मांसाहार पर पूर्णतः प्रतिबंध है। (पुरुषार्थ सिद्धयुपाय ६७-६८)
जैन धर्म में मद्यपान पर पूर्णतः प्रतिबंध है।
आटा, घी, शक्कर आदि की पशुमूर्ति बनाकर उसे खाना जैन धर्म में पूर्णतः वर्जित है। (जसहर चरित्र – २७)
जैनों में श्राद्ध प्रथा नहीं है। (स्याद्वाद मंजरी पृ-९७, भाव संग्रह-५०)
HAVE YOU EVER THOUGHT ? Who Are You ? A Doctor ? An Engineer ? A Businessman ? A Leader ? A Teacher ? A Husband ? A Wife ? A Son ? A Daughter are you one, or so many ? these are temporary roles of life who are you playing all these roles ? think again ...... who are you in reality ? A body ? A intellect ? A mind ? A breath ? you are interpreting the world through these mediums then who are you seeing through these mediums. THINK AGAIN & AGAIN.
Saturday, 22 October 2011
Thursday, 20 October 2011
गिरनार की महिमा
गिरनार की महिमा :-
**************
1. गत चौबीशी में हुए तीर्थकर 1) श्री नमीश्वर भगवान, 2) श्री अनिल भगवान, 3) श्री यशोधर भगवान, 4) श्री कृतार्थ भगवान, 5) श्री जिनेश्वर भगवान, 6) श्री शुद्धमति भगवान, 7) श्री शिवंकर भगवान, 8)श्री स्पंदन भगवान नामक आठ तीर्थकर भगंवतों के दीक्षा, केवलज्ञान और मोक्ष कल्याणक और अन्य दो तीर्थ कर भगंवतों का मात्र मोक्ष कल्याणक गिरनार गिरिवर पर हुए थे ।
2. वर्तमान चौबीशी के बाइसवें तीर्थकर श्री नेमिनाथ भगवान के दीक्षा, केवलज्ञान और मोक्ष कल्याणक गिरनार पर हुए है । उसमें उनकी दीक्षा और केवलज्ञान सहसावन में तथा मोक्ष कल्याणक गिरनार की पाँचवी टूंक पर हुआ है ।
3. आगामी चौबीशी में होनेवाले तीर्थकर 1) श्री पद्मनाभ भगवान, 2) श्री सुरदेव भगवान, 3) श्री सुपार्श्व भगवान, 4) श्री स्वयंप्रभु भगवान, 5) श्री सर्वानुभूति भगवान, 6) श्री देवश्रुत भगवान, 7) श्री उदय भगवान, 8)श्री पेढाल भगवान, 9) श्री पोटील भगवान, 10) श्री सत्कीर्ति भगवान, 11) श्री सुव्रत भगवान, 12) श्री अमम भगवान, 13) श्री निष्कषाय भगवान, 14) श्री निष्कुलाक भगवान, 15) श्री निर्मम भगवान, 16) श्री चित्रगुप्त भगवान, 17) श्री समाधि भगवान, 18) श्री संवर भगवान, 19) श्री यशोधर भगवान, 20) श्री विजय भगवान, 21) श्री मल्लिजिन भगवान, 22) श्री देव भगवान इन बाईस तीर्थकर परमात्मा का मात्र मोक्ष कल्याणक और 23) श्री अनंतवीर्य भगवान, 24) श्री भद्रकृत भगवान इस दोनों तीर्थकर भगवानों का दीक्षा, केवलज्ञान और मोक्ष कल्याणक भविष्य में इस महान गिरनार गिरिराज पर्वत पर होगा ।
4. गिरनार महातीर्थ में विश्व की सब से प्राचीन मूलनायक रुप में विराजमान श्री नेमिनाथ भगवान की मूर्ति लगभग 1,65,735 वर्ष न्यून (कम) ऎसे 20 कोडाकॊडी सागरोपम वर्ष प्राचीन है । जो गत चौबीशी के तीसरे तीर्थकर श्री सागर भगवान के काल में ब्रह्मेन्द्र द्वारा बनाई गई थी । इस प्रतिमाजी को प्रतिष्ठित किये लगभग 84,785 वर्ष हुए है । मूर्ति इसी स्थान पर आगे लगभग 18,435 वर्ष तक पूजी जायेगी । उसके बाद शासन अधिष्ठायिका देवी द्वारा इस प्रतिमाजी को पाताललोक में ले जाकर पूजी जायेगी ।
5. सहसावन में करोडों देवताओं ने श्री नेमिनाथ भगवान के प्रथम और अंतिम समवसरण की रचना की थी । प्रभुजी ने यहाँ प्रथम और अंतिम देशना (प्रवचन) दी थी ।
6. सहसावन की एक गुफा में भूत, भविष्य और वर्तमान ऎसे तीन चौबीसी के बहत्तर तीर्थकरों की प्रतिमाजी विराजमान है ।
7. सहसावन में साध्वी राजीमतीजी तथा श्री रहनेमि ने मोक्ष पद प्राप्त किया था ।
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1. गत चौबीशी में हुए तीर्थकर 1) श्री नमीश्वर भगवान, 2) श्री अनिल भगवान, 3) श्री यशोधर भगवान, 4) श्री कृतार्थ भगवान, 5) श्री जिनेश्वर भगवान, 6) श्री शुद्धमति भगवान, 7) श्री शिवंकर भगवान, 8)श्री स्पंदन भगवान नामक आठ तीर्थकर भगंवतों के दीक्षा, केवलज्ञान और मोक्ष कल्याणक और अन्य दो तीर्थ कर भगंवतों का मात्र मोक्ष कल्याणक गिरनार गिरिवर पर हुए थे ।
2. वर्तमान चौबीशी के बाइसवें तीर्थकर श्री नेमिनाथ भगवान के दीक्षा, केवलज्ञान और मोक्ष कल्याणक गिरनार पर हुए है । उसमें उनकी दीक्षा और केवलज्ञान सहसावन में तथा मोक्ष कल्याणक गिरनार की पाँचवी टूंक पर हुआ है ।
3. आगामी चौबीशी में होनेवाले तीर्थकर 1) श्री पद्मनाभ भगवान, 2) श्री सुरदेव भगवान, 3) श्री सुपार्श्व भगवान, 4) श्री स्वयंप्रभु भगवान, 5) श्री सर्वानुभूति भगवान, 6) श्री देवश्रुत भगवान, 7) श्री उदय भगवान, 8)श्री पेढाल भगवान, 9) श्री पोटील भगवान, 10) श्री सत्कीर्ति भगवान, 11) श्री सुव्रत भगवान, 12) श्री अमम भगवान, 13) श्री निष्कषाय भगवान, 14) श्री निष्कुलाक भगवान, 15) श्री निर्मम भगवान, 16) श्री चित्रगुप्त भगवान, 17) श्री समाधि भगवान, 18) श्री संवर भगवान, 19) श्री यशोधर भगवान, 20) श्री विजय भगवान, 21) श्री मल्लिजिन भगवान, 22) श्री देव भगवान इन बाईस तीर्थकर परमात्मा का मात्र मोक्ष कल्याणक और 23) श्री अनंतवीर्य भगवान, 24) श्री भद्रकृत भगवान इस दोनों तीर्थकर भगवानों का दीक्षा, केवलज्ञान और मोक्ष कल्याणक भविष्य में इस महान गिरनार गिरिराज पर्वत पर होगा ।
4. गिरनार महातीर्थ में विश्व की सब से प्राचीन मूलनायक रुप में विराजमान श्री नेमिनाथ भगवान की मूर्ति लगभग 1,65,735 वर्ष न्यून (कम) ऎसे 20 कोडाकॊडी सागरोपम वर्ष प्राचीन है । जो गत चौबीशी के तीसरे तीर्थकर श्री सागर भगवान के काल में ब्रह्मेन्द्र द्वारा बनाई गई थी । इस प्रतिमाजी को प्रतिष्ठित किये लगभग 84,785 वर्ष हुए है । मूर्ति इसी स्थान पर आगे लगभग 18,435 वर्ष तक पूजी जायेगी । उसके बाद शासन अधिष्ठायिका देवी द्वारा इस प्रतिमाजी को पाताललोक में ले जाकर पूजी जायेगी ।
5. सहसावन में करोडों देवताओं ने श्री नेमिनाथ भगवान के प्रथम और अंतिम समवसरण की रचना की थी । प्रभुजी ने यहाँ प्रथम और अंतिम देशना (प्रवचन) दी थी ।
6. सहसावन की एक गुफा में भूत, भविष्य और वर्तमान ऎसे तीन चौबीसी के बहत्तर तीर्थकरों की प्रतिमाजी विराजमान है ।
7. सहसावन में साध्वी राजीमतीजी तथा श्री रहनेमि ने मोक्ष पद प्राप्त किया था ।
Thursday, 13 October 2011
वनस्पतिकाय जीव के संदर्भ में जैनधर्म का मन्तव्य :-
वनस्पतिकाय जीव के संदर्भ में जैनधर्म का मन्तव्य :-
1.शब्द ग्रहण शक्ति – कंदल, कुंडल आदि वनस्पतियाँ मेघ गर्जनासे पल्लवित होती है ।
2.आश्रय ग्रहण शक्ति – बेल, लताएँ, दीवार वृक्ष आदिका सहारा लेकर वृद्धिको प्राप्त करती है ।
3.सुगंध ग्रहण शक्ति – कुछ वनस्पतियाँ सुगंध पाकर जल्दी पल्लवित होती है । 4.रस ग्रहण शक्ति – उख आदि वनस्पतियाँ भूमि से रस ग्रहण करती है ।
5.स्पर्श ग्रहण शक्ति – कुछ वनस्पतियाँ स्पर्श पाकर फैलती है एवं कुछ वनस्पतियाँ संकुचित्त होती है ।
6.निद्रा एवं जागृति – चंद्रमुखी फुल चंद्र खिलने के साथ खिलते है उसके अभाव में संकुचित हो जाते है सुर्यमुखी फुल सुर्य खिलने के साथ खिलते है सुर्यास्त के बाद सिमट जाते है ।
7.राग – पायल की रुनझुन की मधुर अवाज सुनकर रागात्मक दशामें अशोक, बकुल, कटहल, आदि वृक्षो के फुल खिल उठते है ।
8.संगीत – मधुर सुरावलीयाँ सुनकर कई वृक्षो के फुल जल्दी पल्लवित पुष्टित और सुरभित होते है ।
9.लोभ – सफेद आक, पलास, बिल्लि, आदिकी जडे भूमि में दबे हुए धनपर फैल कर रहती है ।
10.लाज - छुईमुई आदी कई वनस्पतियाँ स्पर्श पाकर लाज भय से संकुचित हो जाती है ।
11.मैथुन – अनेक वनस्पतियाँ आलिंगन, चुम्बन, कामुक हाव भाव एवं कटाक्ष से जल्दी फलीभूत होती है, पपीते आदी के वृक्ष नर और मादा साथ साथ हो तो ही पल्लवित होते हैं ।
12.क्रोध – कोकनद का वृक्ष क्रोध में हुंकार की आवाज करता है ।
13.मान – अनेक वृक्षों में अभिमान का भाव भी पाया जाता है ।
14.आहार संज्ञा – वृक्षों,पौधो को जब तक आहार पानी मिलता है तब तक जीवीत रहते है आहार पानी के अभाव में सूखकर मर जाते है ।
15.शाकाहारी, मांसाहारी – वनस्पतिकायिक जीवों में कुछ वनस्पतियाँ पानी, खाद आदि का आहार करती हैं और कुछ वनस्पतियाँ मनुष्य, जलचर, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय के मांस, रुधिर का भक्षण करती है । सनड्रयू और वीनस फ्लाइट्रेप आदि वनस्पतियाँ संपातिम ( उडने वाले ) जीवो का भक्षण करती हैं ।
16.आकर्षण – कई वनस्पतियाँ फैल कर पास में गुजरते हुए मनुष्य, तिर्यंच आदि को अपने कसे हुए शिंकजेमें फंसा देती है ।
17.माया – कई लताएँ अपने फलों को पत्तों के नीचे दबाकर रखती हैं और फल रहित होनेका दिखावा करती हैं ।
18.जन्म – वनस्पतिकाय बोने पर जन्म को प्राप्त करती है वर्षाकाल में चारो तरफ वनस्पति उग आती है ।
19.मृत्यु – वनस्पतियाँ हिमपाल, शीत एवं उष्ण की अधिकता, आहार पानी की कमी, रोग, भय, अन्य जीवो के प्रहार, आयुष्य समाप्ति पर मृत्यु को प्राप्त करती हैं ।
20.वृद्धि – वनस्पति वृद्धि को भी प्राप्त करती है बीज धीरे-धीरे वृद्धि को प्राप्त होता है वटवृक्ष का स्वरुप धारण करने में कई वर्ष व्यतीत हो जाते है ।
21.रोग – अन्य जीवों की भाँति वनस्पति भी रोगग्रस्त होती है । पानी, हवा, धूप, आहार आदि की अल्पता-अधिकता कारण रोग होते है और पुनःस्वयं औषधोपचार प्राप्त कर स्वास्थ्य लाभ प्राप्त कर लेती है ।
1.शब्द ग्रहण शक्ति – कंदल, कुंडल आदि वनस्पतियाँ मेघ गर्जनासे पल्लवित होती है ।
2.आश्रय ग्रहण शक्ति – बेल, लताएँ, दीवार वृक्ष आदिका सहारा लेकर वृद्धिको प्राप्त करती है ।
3.सुगंध ग्रहण शक्ति – कुछ वनस्पतियाँ सुगंध पाकर जल्दी पल्लवित होती है । 4.रस ग्रहण शक्ति – उख आदि वनस्पतियाँ भूमि से रस ग्रहण करती है ।
5.स्पर्श ग्रहण शक्ति – कुछ वनस्पतियाँ स्पर्श पाकर फैलती है एवं कुछ वनस्पतियाँ संकुचित्त होती है ।
6.निद्रा एवं जागृति – चंद्रमुखी फुल चंद्र खिलने के साथ खिलते है उसके अभाव में संकुचित हो जाते है सुर्यमुखी फुल सुर्य खिलने के साथ खिलते है सुर्यास्त के बाद सिमट जाते है ।
7.राग – पायल की रुनझुन की मधुर अवाज सुनकर रागात्मक दशामें अशोक, बकुल, कटहल, आदि वृक्षो के फुल खिल उठते है ।
8.संगीत – मधुर सुरावलीयाँ सुनकर कई वृक्षो के फुल जल्दी पल्लवित पुष्टित और सुरभित होते है ।
9.लोभ – सफेद आक, पलास, बिल्लि, आदिकी जडे भूमि में दबे हुए धनपर फैल कर रहती है ।
10.लाज - छुईमुई आदी कई वनस्पतियाँ स्पर्श पाकर लाज भय से संकुचित हो जाती है ।
11.मैथुन – अनेक वनस्पतियाँ आलिंगन, चुम्बन, कामुक हाव भाव एवं कटाक्ष से जल्दी फलीभूत होती है, पपीते आदी के वृक्ष नर और मादा साथ साथ हो तो ही पल्लवित होते हैं ।
12.क्रोध – कोकनद का वृक्ष क्रोध में हुंकार की आवाज करता है ।
13.मान – अनेक वृक्षों में अभिमान का भाव भी पाया जाता है ।
14.आहार संज्ञा – वृक्षों,पौधो को जब तक आहार पानी मिलता है तब तक जीवीत रहते है आहार पानी के अभाव में सूखकर मर जाते है ।
15.शाकाहारी, मांसाहारी – वनस्पतिकायिक जीवों में कुछ वनस्पतियाँ पानी, खाद आदि का आहार करती हैं और कुछ वनस्पतियाँ मनुष्य, जलचर, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय के मांस, रुधिर का भक्षण करती है । सनड्रयू और वीनस फ्लाइट्रेप आदि वनस्पतियाँ संपातिम ( उडने वाले ) जीवो का भक्षण करती हैं ।
16.आकर्षण – कई वनस्पतियाँ फैल कर पास में गुजरते हुए मनुष्य, तिर्यंच आदि को अपने कसे हुए शिंकजेमें फंसा देती है ।
17.माया – कई लताएँ अपने फलों को पत्तों के नीचे दबाकर रखती हैं और फल रहित होनेका दिखावा करती हैं ।
18.जन्म – वनस्पतिकाय बोने पर जन्म को प्राप्त करती है वर्षाकाल में चारो तरफ वनस्पति उग आती है ।
19.मृत्यु – वनस्पतियाँ हिमपाल, शीत एवं उष्ण की अधिकता, आहार पानी की कमी, रोग, भय, अन्य जीवो के प्रहार, आयुष्य समाप्ति पर मृत्यु को प्राप्त करती हैं ।
20.वृद्धि – वनस्पति वृद्धि को भी प्राप्त करती है बीज धीरे-धीरे वृद्धि को प्राप्त होता है वटवृक्ष का स्वरुप धारण करने में कई वर्ष व्यतीत हो जाते है ।
21.रोग – अन्य जीवों की भाँति वनस्पति भी रोगग्रस्त होती है । पानी, हवा, धूप, आहार आदि की अल्पता-अधिकता कारण रोग होते है और पुनःस्वयं औषधोपचार प्राप्त कर स्वास्थ्य लाभ प्राप्त कर लेती है ।
Monday, 10 October 2011
निर्वाण के पश्चात् तीर्थंकर के शरीर-संस्कार
निर्वाण के पश्चात् तीर्थंकर के शरीर-संस्कार :-
"तीर्थंकर का निर्वाण होने पर देवेन्द्र ने आज्ञा दी कि गोशीर्ष व चंदन काष्ठ एकत्र कर चितिका बनाओ, क्षीरोदधि से क्षीरोदक लाओ, तीर्थंकर के शरीर को स्नान कराओ, और उसका गोशीर्षचंदन से लेप करो। तत्पश्चात् शक्र ने हंसचिन्ह-युक्त वस्त्रशाटिका तथा सर्व अलंकारों से शरीर को भूषित किया, व शिविका द्वारा लाकर चिता पर स्थापित किया। अग्निकुमार देव ने चिता को प्रज्वलित किया, और पश्चात् मेघ कुमार देव ने क्षीरोदक से अग्नि को उपशांत किया। शक्र देवेन्द्र ने भगवान् की ऊपर की दाहिनी व ईशान देव ने बांयी सक्थि (अस्थि) ग्रहण की, तथा नीचे की दाहिनी चमर असुरेन्द्र ने, व बांयी बलि ने ग्रहण की। शेष देवों ने यथायोग्य अवशिष्ट अंग-प्रत्यंगों को ग्रहण किया। फिर शक्र देवेन्द्र ने आज्ञा दी कि एक अतिमहान् चैत्य स्तूप भगवान् तीर्थंकर की चिता पर निर्माण किया जाय; एक गणधर की चिता पर और एक शेष अनगारों की चिता पर। देवों ने तदनुसार ही परिनिर्वाण महिमा की। फिर वे सब अपने-अपने विमानों व भवनों को लौट आये, और अपने-अपने चैत्य-स्तंभों के समीप आकर उन जिन-अस्थियों को वज्रमय, गोल वृत्ताकार समुद्गकों (पेटिकाओं) में स्थापित कर उत्तम मालाओं व गंधों से उनकी पूजा-अर्चा की।"
"तीर्थंकर का निर्वाण होने पर देवेन्द्र ने आज्ञा दी कि गोशीर्ष व चंदन काष्ठ एकत्र कर चितिका बनाओ, क्षीरोदधि से क्षीरोदक लाओ, तीर्थंकर के शरीर को स्नान कराओ, और उसका गोशीर्षचंदन से लेप करो। तत्पश्चात् शक्र ने हंसचिन्ह-युक्त वस्त्रशाटिका तथा सर्व अलंकारों से शरीर को भूषित किया, व शिविका द्वारा लाकर चिता पर स्थापित किया। अग्निकुमार देव ने चिता को प्रज्वलित किया, और पश्चात् मेघ कुमार देव ने क्षीरोदक से अग्नि को उपशांत किया। शक्र देवेन्द्र ने भगवान् की ऊपर की दाहिनी व ईशान देव ने बांयी सक्थि (अस्थि) ग्रहण की, तथा नीचे की दाहिनी चमर असुरेन्द्र ने, व बांयी बलि ने ग्रहण की। शेष देवों ने यथायोग्य अवशिष्ट अंग-प्रत्यंगों को ग्रहण किया। फिर शक्र देवेन्द्र ने आज्ञा दी कि एक अतिमहान् चैत्य स्तूप भगवान् तीर्थंकर की चिता पर निर्माण किया जाय; एक गणधर की चिता पर और एक शेष अनगारों की चिता पर। देवों ने तदनुसार ही परिनिर्वाण महिमा की। फिर वे सब अपने-अपने विमानों व भवनों को लौट आये, और अपने-अपने चैत्य-स्तंभों के समीप आकर उन जिन-अस्थियों को वज्रमय, गोल वृत्ताकार समुद्गकों (पेटिकाओं) में स्थापित कर उत्तम मालाओं व गंधों से उनकी पूजा-अर्चा की।"
Monday, 3 October 2011
आठ कर्म
आठ कर्म :-
1. ज्ञानावरणीय कर्म- वह कर्म, जिससे आत्मा के ज्ञान-गुण पर परदा पड़ जाए। जैसे, सूर्य का बादल में ढँक जाना।
2. दर्शनावरणीय कर्म- वह कर्म, जिससे आत्मा की दर्शन शक्ति पर परदा पड़ जाए। जैसे, चपरासी बड़े साहब से मिलने पर रोक लगा दे।
3. वेदनीय कर्म- वह कर्म जिससे आत्मा को साताका- सुख का और असाताका-दुःख का अनुभव हो। जैसे, गुड़भरा हँसिया- मीठा भी, काटने वाला भी।
4. मोहनीय कर्म- वह कर्म, जिससे आत्मा के श्रद्धा और चारित्र गुणों पर परदा पड़ जाता है। जैसे, शराब पीकर मनुष्य नहीं समझ पाता कि वह क्या कर रहा है।
5. आयु कर्म- वह कर्म, जिससे आत्मा को एक शरीर में नियत समय तक रहना पड़े। जैसे, कैदी को जेल में।
6. नाम कर्म- वह कर्म, जिससे आत्मा मूर्त होकर शुभ और अशुभ शरीर धारण करे। जैसे, चित्रकार की रंग-बिरंगी तसवीरें।
7. गोत्र कर्म- वह कर्म, जिससे आत्मा को ऊँची-नीची अवस्था मिले। जैसे कुम्हार के छोटे-बड़े बर्तन।
8. अन्तराय कर्म- वह कर्म, जिससे आत्मा की लब्धि में विघ्न पड़े। जैसे, राजा का भण्डारी। बिना उसकी मर्जी के राजा की आज्ञा से भी काम नहीं बनता।
1. ज्ञानावरणीय कर्म- वह कर्म, जिससे आत्मा के ज्ञान-गुण पर परदा पड़ जाए। जैसे, सूर्य का बादल में ढँक जाना।
2. दर्शनावरणीय कर्म- वह कर्म, जिससे आत्मा की दर्शन शक्ति पर परदा पड़ जाए। जैसे, चपरासी बड़े साहब से मिलने पर रोक लगा दे।
3. वेदनीय कर्म- वह कर्म जिससे आत्मा को साताका- सुख का और असाताका-दुःख का अनुभव हो। जैसे, गुड़भरा हँसिया- मीठा भी, काटने वाला भी।
4. मोहनीय कर्म- वह कर्म, जिससे आत्मा के श्रद्धा और चारित्र गुणों पर परदा पड़ जाता है। जैसे, शराब पीकर मनुष्य नहीं समझ पाता कि वह क्या कर रहा है।
5. आयु कर्म- वह कर्म, जिससे आत्मा को एक शरीर में नियत समय तक रहना पड़े। जैसे, कैदी को जेल में।
6. नाम कर्म- वह कर्म, जिससे आत्मा मूर्त होकर शुभ और अशुभ शरीर धारण करे। जैसे, चित्रकार की रंग-बिरंगी तसवीरें।
7. गोत्र कर्म- वह कर्म, जिससे आत्मा को ऊँची-नीची अवस्था मिले। जैसे कुम्हार के छोटे-बड़े बर्तन।
8. अन्तराय कर्म- वह कर्म, जिससे आत्मा की लब्धि में विघ्न पड़े। जैसे, राजा का भण्डारी। बिना उसकी मर्जी के राजा की आज्ञा से भी काम नहीं बनता।
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