Monday, 24 March 2014

बारह देवलोको में कितने जिनमंदिर एवं जिनप्रतिमाएँ हैं देवलोक जिनमंदिर जिन प्रतिमा पहला देवलोक बत्तीस लाख सत्तावन करोड सात लाख दूसरा देवलोक अट्ठावीस लाख पचास करोड चालीस लाख तीसरा देवलोक बारह लाख इक्किस करोड साठ लाख चौथा देवलोक आठ लाख चौदह करोड चालीस लाख पांचवां देवलोक चार लाख सात करोड बीस लाख छट्ठा देवलोक पचास हजार निब्बे लाख सातवां देवलोक चालीस हजार बहत्तर लाख आठवां देवलोक छह हजार एक लाख साठ हजार नौवां-दसवां देवलोक चार सौ बहत्तर हजार ग्यारहवां-बारहवां देवलोक तीन सौ चौपन हजार
मनुष्य की अवगाहना कितनी होती है ? E पांच भरत एवं पांच ऐरावत कर्मभूमियों में अवसर्पिणी काल में उत्कृष्ट अवगाहना । 1. पहले आरे में - 3 गाऊ 2. दूसरे आरे में - 2 गाऊ 3. तीसरे आरे में - 1 गाऊ 4. चौथे आरे में - 500 धनुष्य 5. पांचवें आरे में - 7 हाथ 6. छट्ठे आरे में - 2 हाथ E पांच भरत एवं पांच ऐरावत कर्मभूमियों में उत्सर्पिणी काल में उत्कृष्ट अवगाहना । 1. पहले आरे में - 2 हाथ 2. दूसरे आरे में - 7 हाथ 3. तीसरे आरे में - 500 धनुष्य 4. चौथे आरे में - 1 गाऊ 5. पांचवें आरे में - 2 गाऊ 6. छट्ठे आरे में - 3 गाऊ E पांच महाविदेह क्षेत्र के मनुष्यों की उत्कृष्ट अवगाहना 500 धनुष्य प्रमाण की होती है । E पांच देवकुरु एवं पांच उत्तरकुरु के मनुष्यों की उत्कृष्ट अवगाहना तीन गाऊ की होती है । E पांच हरिवर्ष एवं पांच रम्यक् के मनुष्यों की उत्कृष्ट अवगाहना दो गाऊ की होती है । E पांच हिमवन्त एवं पांच हिरण्यवंत के मनुष्यों की उत्कृष्ट अवगाहना एक गाऊ की होती है । E छप्पन अन्तर्द्वीप के मनुष्यों की उत्कृष्ट अवगाहना 800 धनुष्य की होती है । ये सारी अवगाहना गर्भज पर्याप्ता मनुष्यों की कही गयी है । E गर्भज अपर्याप्ता मनुष्यों की, संमूर्च्छिम मनुष्यो की अवगाहना अंगुल के असंख्यातवें भाग जितनी होती है ।
देवों के कुल कितने भेद होते हैं भवनपति देव - 10 व्यंतर देव - 8 वैमानिक देव - 12 लोकान्तिक देव - 9 ग्रैवेयक देव - 9 अनुत्तर देव - 5 किल्बिषिक देव - 3 वाणव्यंतर देव - 8 तिर्यग्जृंभक देव - 10 चर ज्योतिष्क देव - 5 अचर ज्योतिष्क देव - 5 परमाधामी देव - 15 कुल 99
मनुष्यों के मुख्य तीन भेद होते है तीन भेदः- 1.कर्मभूमिज 2.अकर्मभूमिज 3.अन्तर्द्वीपज । कर्मभूमि किसे कहते है जिस भूमि में असि-मसि और कृषि का कार्य होता है, उसे कर्म भूमि कहते है । 1. असि – अस्त्र, शस्त्रादि का कार्य । 2. मसि – पठन, लेखन का कार्य । 3. कृषि – खेती, व्यापार का कार्य । अकर्मभूमि किसे कहते है ? जिस भूमि में असि-मसि-कृषि का कार्य नहीं होता है, उसे अकर्मभूमि कहते है । अन्तर्द्वीप कहते है जिसके चारो तरफ जल हो, उसे अन्तर्द्वीप कहते है । कर्मभूमियों के पन्द्रह भेदः- पांच भरत, पांच महाविदेह, पांच ऐरावत । अकर्मभूमियों तीस भेदः- पांच हिमवन्त, पांच हिरण्यवंत, पांच हरिवर्ष, पांच रम्यक्, पांच देवकुरु, पांच उत्तरकुरु । अन्तर्द्वीप छप्पन । है छप्पन अन्तर्द्वीप कहाँ पर है ? भरत क्षेत्र की उत्तर दिशा में हिमवन्त नामक पर्वत है और ऐरावत क्षेत्र की उत्तर दिशा में शिखरी नामक पर्वत है । दोनों पर्वत पूर्व एवं पश्चिम दिशा में लवण समुद्र तक फैले हुए हैं । दोनों पूर्व एवं दोनो पश्चिम दिशाओं (प्रत्येक दिशा) में दो-दो दंष्ट्राकार भूमियाँ है । इस प्रकार कुल आठ दंष्ट्राकार भूमियाँ हुई । प्रत्येक दंष्ट्रा में सात-सात अन्तर्द्वीप स्थित हैं । इस प्रकार कुल छप्पन अन्तर्द्वीप हुए । भरत क्षेत्र की उत्तर दिशा में जो अट्ठावीस अन्तर्द्वीप हैं, उसी नाम के अट्ठावीस अन्तर्द्वीप ऐरावत क्षेत्र की उत्तर दिशा में स्थित हैं ।

जम्बुद्वीप में स्थित 269 शाश्वत पर्वत

1. जम्बुद्वीप में स्थित 269 शाश्वत पर्वत इस प्रकार है । वर्षधर पर्वत - 7 वृत्त वैताढ्य पर्वत - 4 दीर्घ वैताढ्य पर्वत - 34 वक्षस्कार पर्वत - 16 यमक पर्वत - 2 चित्र-विचित्र पर्वत - 2 कंचन पर्वत - 200 गजदन्त पर्वत - 4 कुल शाश्वत पर्वत - 269 2. जम्बुद्वीप में 14,56,000 शाश्वत नदियाँ हैं 3. जम्बुद्वीप में 84 शाश्वत महानदियाँ है 4. जम्बुद्वीप में 162 नदी-समुद्र संगम वाले शाश्वत तीर्थ हैं 5. जम्बुद्वीप में 34 विजय हैं
1. संपूर्ण लोक में सातवीं नरक में स्थित अप्रतिष्ठान नामक नरकावास 2. जम्बूद्वीप 3. सौधर्मेन्द्र का पालकयान नामक विमान 4. सर्वार्थसिद्ध विमन । चार चीजे हैं जो समान रुप से एक लाख योजन विस्तार वाली हैं . 1. सम्पूर्ण लोक में रथम नरक में स्थित सिमन्तक नरकावास 2.अढीद्वीप 3.सौधर्म देवलोक के प्रथम प्रतर का मध्यमवर्ती उड्डुविमान 4.सिद्धशिला । चार चीजें हैं, जो समान रुप से 45 लाख योजन याजन विस्तार वाली है

अनेकांतवाद

जैन धर्म के अनुसार भिन्न-भिन्न दृष्टिकोणों से देखे जाने के कारण प्रत्येक ज्ञान भी भिन्न-भिन्न हो सकता है। ज्ञान की यह विभिन्नता सात प्रकार की हो सकती है- है नहीं है है और नहीं है कहा नहीं जा सकता है किन्तु कहा नहीं जा सकता नहीं है और कहा नहीं जा सकता है, नहीं है और कहा नहीं जा सकता। इसे ही जैन धर्म में स्याद्वाद या अनेकांतवाद कहा जाता है। अनेकात्मवाद जैन धर्म आत्मा में विश्वास करता है। उसके अनुसार भिन्न-भिन्न जीवों में आत्माएँ भी भिन्न-भिन्न होती है।

ढाई द्वीप किस प्रकार 45 लाख योजन का होता है

ढाई द्वीप किस प्रकार 45 लाख योजन का होता है 1. एक लाख योजन का जम्बुद्वीप है । 2. उसके पूर्व-पश्चिम में दो दो लाख योजन के लवणसमुद्र हैं । 3. उसके पूर्व-पश्चिम में चार चार लाख योजन के धातकीखण्ड है । 4. उसके पूर्व-पश्चिम में आठ आठ लाख योजन के कालोदधिसमुद्र हैं । 5. उसके पूर्व-पश्चिम में आठ आठ लाख योजन का अर्धपुष्करावर्त द्वीप हैं.

Thursday, 20 March 2014

अहिंसा : धर्म की आत्मा

अहिंसा : धर्म की आत्मा :- सदा दूसरे की ओर दौड़ने वाले चित्र का नाम कामना एवं वासना है। क्योंकि कामना दुःख है, वासना दुःख है। महावीर ने उसे वासना, तो बुद्ध ने उसे तृष्णा कहा है। नाम चाहे जो भी दें- वह दूसरे को चाहने की ही दौड़ है। वही दुःख है। मंगल क्या है? सुख क्या है? आनंद क्या है? निश्चित ही वह उस समय मिलेगा, जब हमारी वासना कहीं दौड़ नहीं रही होगी। वासना का दौड़ना आत्मा का खो जाना है। भगवान महावीर कहते हैं, 'अहिंसा संजमो तवो'। इतना छोटा सूत्र शायद ही जगत में किसी ने कहा हो जिसमें सारा धर्म समा जाए। अहिंसा धर्म की आत्मा है। धर्म का सेंटर है। तप धर्म की परिधि है और संयम केंद्र एवं परिधि को जोड़ने वाला बीच का सेतु है। ऐसा समझ ले अहिंसा आत्मा, तप शरीर और संयम प्राण है। वह जो दोनों को जोड़ती है- श्वास है। श्वास टूट जाए तो शरीर भी होगा, आत्मा भी होगी, लेकिन आप न होंगे। संयम टूट जाए तो तप भी हो सकता है, अहिंसा भी हो सकती है, लेकिन धर्म नहीं हो सकता। भगवान महावीर की दृष्टि में अहिंसा आत्मा है। अहिंसा पर क्यों महावीर इतना जोर देते हैं। महावीर कहते हैं अहिंसा, कोई कहता है परमात्मा, कोई कहेगा सेवा, कोई ध्यान, कोई योग, कोई प्रार्थना, कोई कहेगा पूजा। महावीर कहते हैं यह अहिंसा एवं तप दौड़ती हुई ऊर्जा को ठहराने की विधियों के नाम हैं। जब वह रुक जाएगी तो स्वयं में रमेगी, स्वयं में ठहरेगी, स्थिर होगी। जैसे कोई ज्योति वायु के वेग से कंपे नहीं वैसी। कामना व वासना अंदर की महत्वपूर्ण ऊर्जा को बहा ले जाने के कारण हैं व हिंसा के द्वार। जब तक ये द्वार बंद नहीं होंगे, तब तक हमारी ऊर्जा अहिंसा का सार्थक पुरुषार्थ नहीं कर पाती है। इसीलिए महावीर स्वामी कहते हैं, जहां कामना है, वासना (तृष्णा) है, वहां अहिंसा नहीं है और जहां अहिंसा नहीं, वहां धर्म भी नहीं हैं।

84 लाख योनियाँ

जैन शास्त्रों तथा दूसरे धर्मग्रंथों में भी जीव की 84 लाख योनियाँ बताई गई हैं। जीव जब तक मोक्ष की प्राप्ति नहीं हो जाती, तब तक इन्हीं 84 लाख योनियों में भटकता रहता है। ये ही 84 लाख योनियाँ 4 गतियों में विभाजित की गई हैं। (1) नरक गति : जीवन में किए गए अपने बुरे कर्मों के कारण जीव नरक गति प्राप्त करता है। इस पृथ्वी के नीचे सात नरक हैं, जिनमें जीव को अपनी आयुपर्यंत घनघोर दुःखों को सहन करना पड़ता है, जहाँ के दारुण दुःखों की एक झलक छहढाला नामक ग्रंथ में कही गई है।' मेरु समान लोह गल जाए ऐसी शीत उष्णता थाय।' अर्थात सुमेरु पर्वत के समान लोहे का पिंड भी जहाँ की शीत एवं उष्णता (गर्मी) में गल जाता है तथा 'सिन्धु नीर ते प्यास न जाए तो पण एक न बूँद लहाय' अर्थात समंदर का जल पीने जैसी प्यास लगती है, पर पानी की एक बूँद भी नसीब नहीं होती। ऐसे नारकीय कष्टों का शास्त्रों में विस्तृत वर्णन दिया गया है। 2.तिर्यन्च गति : जीव को अपने कर्मानुसार जो दूसरी गति प्राप्त होती है वह है तिर्यन्च गति। अत्यधिक आरंभ परिग्रह, चार कषाय अर्थात क्रोध, मान, माया, लोभ एवं पाँच पापों अर्थात हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील एवं परिग्रह में निमग्न रहने वाले जीव को तिर्यन्च गति अर्थात वनस्पति से लेकर समस्त जीव जाति तथा गाय, भैंस, हाथी, घोड़ा, पक्षी आदि गति प्राप्त होती है। निर्यन्च गति के घोर दुःख ऐसे हैं- 'छेदन भेदन, भूख पियास, भारवहन हिम आतप त्रास। वध, बंधन आदिक दुःख घने, कोटि जीभ ते जात न भने।' (3) मनुष्य गति : तीसरी गति मनुष्य गति होती है। जो जीव कम से कम पाप करता हुआ निरंतर धर्म-ध्यान में जीवन व्यतीत करता है। उसे मनुष्य गति प्राप्त होती है। समुद्र में फेंके गए मोती को जैसे प्राप्त करना दुर्लभ है, उसी प्रकार यह मानव जीवन भी महादुर्लभ है, जिसको पाने के लिए देवता भी तरसते हैं। (4) देव गति : चौथी गति देव गति होती है। इस पृथ्वी के ऊपर 16 स्वर्ग हैं। जीव अपने कर्मानुसार उन स्वर्गों में कम या अधिक आयु प्रमाण के लिए जा सकता है। इसको पाना अत्यंत ही दुष्कर है। निरंतर निःस्वार्थ भाव से स्वहित एवं परहित साधने वाला जीव ही देव गति की उच्चतम अवस्था को प्राप्त करता है। इस प्रकार उपरोक्त चारों गतियों से अर्थात 84 लाख योनियों से छुटकारा पाकर ही जीव मोक्ष प्राप्ति कर सकता है अन्यथा नहीं। अतः मानव को इस जीवन में हमेशा पाप कार्यों से निवृत्त रहकर तथा धर्म एवं सद्कर्मों में प्रवृत्त रहकर मोक्ष नहीं तो कम से कम सद्गतियों अर्थात देवगति एवं मनुष्य गति में अगला जन्म हो, ऐसे कार्य करके मानव जीवन को सार्थक करना चाहिए।

परलोक की विशिष्ट विवेचना

परलोक की विशिष्ट विवेचना ****************** सामान्यतः ‘परलोक’ शब्द से ‘मृत्यु के बाद प्राप्त होनेवाली गति’ ऐसा अर्थ समझा जाता है, और उसे सुधारने के लिये हमें कहा जाता है। परन्तु जिस गति में हमें भविष्य में जन्म लेने का है उस गति का समाज यदि सुधरा हुआ न हो तो उस समाज में भविष्य में जन्म लेकर, हम चाहे जैसे हों फिर भी सुखी नहीं हो सकते। देवगति और नरकगति के लोगों के साथ हम तनिक भी सम्पर्क इस जन्म में स्थापित नहीं कर सकते। अतः यदि हम कुछ सुधार का कार्य करना चाहें तो मनुष्यसमाज तथा पशु-समाज के बीच रहकर उनके बारे में ही कर सकते हैं। उस सुधारणा का लाभ हमें इस जन्म में तो मिलेगा ही, परन्तु साथ ही भविष्य के जन्म के समय (मनुष्य अथवा पशुलोक में पुनर्जन्म होने पर) भी मिल सकता है। अतः जहाँ तक हमारा अपना सम्बन्ध है वहाँ तक ‘परलोक’ शब्द का ऐसा विशिष्ट अर्थ भी करना चाहिए जिससे मनुष्यसमाज तथा पशुसमाज के साथ के हमारे कर्त्तव्यों का हमें भान हो और वैसे कर्त्तव्यों का पालन कर के हम इस लोक के साथ साथ हमारे पर लोक (मृत्यु के बाद के जीवन) को भी सुधार सकें। इस दृष्टि को सम्मुख रखकर नीचे की विचारणा प्रस्तुत की जाती है। परलोक अर्थात् दूसरे लोग-हमारे खुद के सिवाय के दूसरे लोग। परलोक का सुधार अर्थात् दूसरे लोगों का सुधार। हमारे अर्थात् प्रत्येक व्यक्ति के सम्मुख परिचित और नित्य सम्पर्क में आनेवाले दो लोक तो स्पष्ट हैं : मनुष्यसमाज और पशुसमाज। इन दो समाजों को सुधारने के प्रयत्न को परलोक की सुधारणा का प्रयत्न कह सकते हैं। प्रत्येक मनुष्य यदि दृढ़रूप से ऐसा समझने लगे कि हमारा दृश्यमान परलोक यह मनुष्यसमाज और पशुसमाज है और परलोक की सुधारणा का अर्थ इस मानवसमाज और पशुसमाज को सुधारने का होता है, तो मानवसमाज का चित्र ही बदल जाय और पशुसमाज की ओर भी सद्भावना जाग्रत् हो उठे जिससे उनके लिये खाने-पीने, रहने आदिका सुयोग्य प्रबन्ध किया जा सके। मानवसमाज के सुख-साधन में पशुसमाज का हिस्सा क्या कम है? अमेरिका आदि देशों की गोशालाएँ कितनी स्वच्छ और व्यवस्थित होती हैं! मनुष्य मरकर कहाँ जन्म लेगा वह निश्चित नहीं है। अतः उसे वह बात ध्यान में रखनी चाहिए कि यदि मानवसमाज और पशुसमाज नानाविध बुराइयों और बीमारियों के कारण दुर्गतिरूप होगा तो मरकर उसमें जन्म लेनेवाला वह (मनुष्य) भी दुर्गति में ही पड़ेगा। इसलिये लोकहित और स्वहित दोनों दृष्टिओं से अपना आचरण और व्यवहार इतने अच्छे रखने की आवश्यकता उपस्थित होती है जिससे कि इन दोनों समाजों के ऊपर बुरा प्रभाव पड़ने के बदले अच्छा प्रभाव पड़ता रहे। नगरपालिका (Municipality) जिस प्रकार नगर के सब नागरिकों के लिये सुख की वस्तु बनती है उसी प्रकार हमारे मनुष्य तथा पशु संसाररूपी नगर की म्युनिसिपैलिटी उसे नगर के सब नागरिकों के सुख की वस्तु बन सकती है। अतः इन दोनों वर्गों को सुधारने के लिये यदि प्रयत्न किया जाय-तत्परता रखी जाय तो वह वस्तुतः हमारे अपने परलोक को सुधारने का प्रयत्न होगा। दूसरा एक परलोक है मनुष्यों की प्रजा-सन्तति। मानव-शरीर द्वारा होनेवाले सत्कर्म अथवा दुष्कर्म के जीवित संस्कार रक्तवीर्य द्वारा उसकी सन्तीति में आते हैं। मनुष्य में यदि कोढ़, क्षय, प्रमेह, केन्सर जैसे संक्रामक रोग हों तो उसका फल उसकी सन्तति को भुगतना पड़ता है। मनुष्य के अनाचार, शराबखोरी आदि दुर्व्यसनों के कारण होनेवाले पापसंस्कार रक्तवीर्य द्वारा उसकी सन्तति में आएँगे और वे मानवजाति की घोर दुर्दशा करेंगे। अतः परलोक को सुधारने का अर्थ है संतति को सुधारना, और सन्तति को सुधारने का अर्थ है अपने आप को सुधारना। जिस प्रकार मनुष्य का पुन्रजन्म रक्तवीर्य द्वारा उसकी सन्तति में होता है उसी प्रकार विचारों द्वारा मनुष्य का पुनर्जन्म उसके शिष्यों में तथा आसपास के मनुष्य में होता है। हमारे जैसे आचार-विचार होंगे उनका वैसा ही प्रभाव शिष्यों तथा निकटवर्ती लोगों पर पड़ेगा। मनुष्य एक ऐसा सामाजिक प्राणी है कि जान में अथवा अनजान में उसका प्रभाव दूसरों पर और दूसरों का प्रभाव उस पर पड़ने का ही। मनुष्य के ऊपर अपने आप को सुधारने का अथवा बिगाड़ने का उत्तरदायित्व तो है ही, परन्तु साथ ही साथ मानवसमाज के उत्थान अथवा पतन में भी उसका हिस्सा साक्षात् अथवा परम्परया रहता ही है। रक्तवीर्यजन्य सन्तति अपने पुरुषार्थ द्वारा पितृजन्य कुसंस्कारों से शायद मुक्त हो सके, परन्तु यदि विचारसन्तति में विष का संचार हो तो उसे पुनः स्वस्थ करना प्रायः दुष्कर ही हो जाता है। आज के प्रत्येक व्यक्ति की नजर इस नई पीढ़ी पर लग हुई है। कोई इसे मजहब की शराब पिला रहा है तो कोई हिन्दुत्व की; कोई जाति की तो कोई कुलपरम्परा की। न मालूम कित-कितने प्रकार की विचारधाराओं की चित्र-विचित्र शराब मनुष्य की दुर्बुद्धि ने तैयार की है? और अपने वर्ग की उच्चता, अपने अधिकार के स्थायित्व तथा स्थिर स्वार्थों की रक्षा के लिये धार्मिक, सांस्कृतिक, सामाजिक और राष्ट्रीय आदि अनेकविध सुन्दर व मोहक पात्रों में भर भर कर भोलीभाली नूतन पीढ़ी को पिला कर उसे स्वरूपच्युत किया जाता है। वे इसके नशे में चूर हो कर और मनुष्य की समानता के अधिकार को भूलकर अपने भाइयों के साथ क्रूरता एवं नृशंसतापूर्ण व्यवहार करने में झिझकते नहीं हैं। आज के ऐसे विचित्र और कलुषित युग में जहाँ मनुष्यों की यह दशा है वहाँ पशुरक्षा तथा पशुसुधार की बात ही क्या करना?

सत्य का खोजी भ्रान्त धारणाओं का शिकार न बने.

सत्य का खोजी भ्रान्त धारणाओं का शिकार न बने. ********************************** विषय : भ्रान्त धारणाओं की ओर अंगुलिनिर्देश 1. चारित्र का ठेका किसी समुदाय विशेष का नहीं है. ‘हम नहीं होंगे तो’ संस्कृति, संस्कार, सभ्यता, धर्म, शासन, साधु-संस्था, समाज, सदाचार, सन्मार्ग, चारित्र, दूसरे लोगों का सम्यक्त्व, युवाओं का चरित्र वगैरह रसातल जाएंगे इस भ्रमणा में से जल्दी बाहर आएं. एक बढ़िया कहावत है कि “हमारे बिना दुनिया नहीं चलेगी ऐसा मानने वाले लोगों से हजारों कब्रिस्तान भरे पड़े हैं.” 2. अपने आपको, अपने आप, परम सुविहित घोषित करने वाले समुदाय में भी शिथिल और अति शिथिल साधु हो सकते हैं. इससे विपरीत जिन्हें शिथिल साधुओं के गुट का लेबल लगा दिया गया हो उसमें भी चारित्रधर साधु हो सकते है. 3. किसी एक समुदाय में (ही) चारित्र है, दूसरे में नहीं इस भ्रमणा को जल्द से जल्द दिल से निकाल दें. 4. मैला या उजला कपड़ा किसी के चारित्र का प्रमाणपत्र नहीं बन सकता. मैला मन या उजला मन ही उसके चारित्र का प्रमाणपत्र है. और किसी का मन मैला है या नहीं उसका प्रमाणपत्र देने की जल्दबाजी कभी न करें. क्यों कि बारह साल तक साथ में रहने वाले परम विनयी (नकली) शिष्य को उस जमाने के तीव्र मेधावी आचार्य भी नहीं पहचान पाए थे तो हमारा तो क्या हिसाब है. 5. चारित्र का दिखावा करने में नहीं, चारित्र की शिथिलता के स्वीकार में बड़े पराक्रम की जरूरत होती है. दिखावा महज एक धोखा है. शिथिलता के स्वीकार में प्रतिष्ठा दांव पर लगानी पड़ती है. बड़े बड़े शिथिल आचार्य अपनी प्रतिष्ठा को सुरक्षित बनाए रखने के लिए जीवनभर उत्तम चारित्र का मुखौटा पहन कर और उत्तम चारित्र का ढिंढोरा पीटकर भोले लोगों को उल्लू बनाने में सफल रहे थे और रहते हैं. 6. किसी के चारित्र की ऊंची छाप होने से कुछ साबित नहीं होता. चारित्र छाप का नहीं, आचरण का मोहताज होता है. 7. जो साधु-साध्वी-श्रावक-श्राविका जैसे दीखते हैं वैसे ही होंगे यह मानने का कोई कारण नहीं है. साधुवेषधारी अभव्य बड़ा ही ऊंचा साधु दीखता है, मगर होता नहीं है. 8. बड़ा व्याख्यानकार बड़ा ज्ञानी होगा ऐसा मानना भोलापन है. ज्ञान के साथ साथ व्याख्यान की शक्ति भी हो तो सोने में सुहागा जरूर मान सकते हैं, बाकी व्याख्यान एक कला है. कभी कभी बड़ा ज्ञानी एक शब्द का भी प्रवचन नहीं कर सकता. मगर इसका मतलब ये नहीं कि वह किसी जोरदार व्याख्यानकर्ता से कम है. 9. बड़ा व्याख्यानकार बड़ा चारित्रशील होगा ऐसा मानना भी भोलापन ही है. वह चारित्रशील न भी हो. कई उदाहरण हैं जिससे पता चलता है कि उत्तम चारित्र वाले साधु पांच मिनट का प्रवचन भी नहीं कर सकते. प्रवचनशक्ति से किसी के चारित्र का माप निकालना जल्दबाजी होगी. 10. जहां बहोत सारे लोगों की भीड़ रहती हो वह बड़ा ही उत्तम साधु होगा यह भी नहीं कह सकते, उससे विपरीत जहां कोई नहीं आता है वह छोटा या साधारण साधु होगा ऐसा भी नहीं मान सकते. भीड़भाड़ पुन्योदय की निशानी हो सकती है. अच्छाई की नहीं. भीड़ से कुछ साबित नहीं होता. 11. जिसका शिष्य-परिवार बड़ा होगा वह बहोत ही ऊंचा चारित्रशील होगा यह मानना तो सबसे बड़ा भोलापन है ! शिष्य-संपदा पुन्य की निशानी है, उत्तम चारित्र की नहीं. सूरिपुरंदर श्री हरिभद्रसूरि महाराज का शिष्य-परिवार नहीं था फिर भी सेंकड़ों शिष्य़ों वाले आचार्य उनके मुकाबले कुछ नहीं थे. हरिभद्रसूरि महाराज का नाम आज भी जनजन के मनमन में गूंज रहा है और बड़े परिवार वालों के नाम का अतापता तक नहीं है. 12. यहां और भी कड़ियां जोड़ी जा सकतीं हैं. परंतु इतनी काफी हैं, क्यों कि कहने का मकसद इतना ही है कि हम और हमारा समाज बहुत सारी भ्रान्त धारणाओं का शिकार बने हुए हैं. उन धारणाओं से मुक्त हो कर अपनी विचारशीलता का विकास करें इसी से ज्ञानप्राप्ति के द्वार खुलते हैं. जब किसीसे प्रभावित हुए बिना देखने की दृष्टि विकसित होगी तभी हम सत्य के अन्वेषण की दिशा में कदम बढ़ा पाएंगे. चिंतक : मुनि मित्रानंदसागर प्रकाशक : ‘जय जिनेन्द्र’, अमदावाद

Wednesday, 19 March 2014

सत्य का खोजी भ्रान्त धारणाओं का शिकार न बने :-

हम और हमारा समाज बहुत सारी भ्रान्त धारणाओं का शिकार बने हुए हैं चारित्र का ठेका किसी समुदाय विशेष का नहीं है. ‘हम नहीं होंगे तो’ संस्कृति, संस्कार, सभ्यता, धर्म, शासन, साधु-संस्था, समाज, सदाचार, सन्मार्ग, चारित्र, दूसरे लोगों का सम्यक्त्व, युवाओं का चरित्र वगैरह रसातल जाएंगे इस भ्रमणा में से जल्दी बाहर आएं. एक बढ़िया कहावत है कि “हमारे बिना दुनिया नहीं चलेगी ऐसा मानने वाले लोगों से हजारों कब्रिस्तान भरे पड़े हैं.” अपने आपको, अपने आप, परम सुविहित घोषित करने वाले समुदाय में भी शिथिल और अति शिथिल साधु हो सकते हैं. इससे विपरीत जिन्हें शिथिल साधुओं के गुट का लेबल लगा दिया गया हो उसमें भी चारित्रधर साधु हो सकते है. किसी एक समुदाय में (ही) चारित्र है, दूसरे में नहीं इस भ्रमणा को जल्द से जल्द दिल से निकाल दें. मैला या उजला कपड़ा किसी के चारित्र का प्रमाणपत्र नहीं बन सकता. मैला मन या उजला मन ही उसके चारित्र का प्रमाणपत्र है. और किसी का मन मैला है या नहीं उसका प्रमाणपत्र देने की जल्दबाजी कभी न करें. क्यों कि बारह साल तक साथ में रहने वाले परम विनयी (नकली) शिष्य को उस जमाने के तीव्र मेधावी आचार्य भी नहीं पहचान पाए थे तो हमारा तो क्या हिसाब है. चारित्र का दिखावा करने में नहीं, चारित्र की शिथिलता के स्वीकार में बड़े पराक्रम की जरूरत होती है. दिखावा महज एक धोखा है. शिथिलता के स्वीकार में प्रतिष्ठा दांव पर लगानी पड़ती है. बड़े बड़े शिथिल आचार्य अपनी प्रतिष्ठा को सुरक्षित बनाए रखने के लिए जीवनभर उत्तम चारित्र का मुखौटा पहन कर और उत्तम चारित्र का ढिंढोरा पीटकर भोले लोगों को उल्लू बनाने में सफल रहे थे और रहते हैं. किसी के चारित्र की ऊंची छाप होने से कुछ साबित नहीं होता. चारित्र छाप का नहीं, आचरण का मोहताज होता है. जो साधु-साध्वी-श्रावक-श्राविका जैसे दीखते हैं वैसे ही होंगे यह मानने का कोई कारण नहीं है. साधुवेषधारी अभव्य बड़ा ही ऊंचा साधु दीखता है, मगर होता नहीं है. बड़ा व्याख्यानकार बड़ा ज्ञानी होगा ऐसा मानना भोलापन है. ज्ञान के साथ साथ व्याख्यान की शक्ति भी हो तो सोने में सुहागा जरूर मान सकते हैं, बाकी व्याख्यान एक कला है. कभी कभी बड़ा ज्ञानी एक शब्द का भी प्रवचन नहीं कर सकता. मगर इसका मतलब ये नहीं कि वह किसी जोरदार व्याख्यानकर्ता से कम है. बड़ा व्याख्यानकार बड़ा चारित्रशील होगा ऐसा मानना भी भोलापन ही है. वह चारित्रशील न भी हो. कई उदाहरण हैं जिससे पता चलता है कि उत्तम चारित्र वाले साधु पांच मिनट का प्रवचन भी नहीं कर सकते. प्रवचनशक्ति से किसी के चारित्र का माप निकालना जल्दबाजी होगी. जहां बहोत सारे लोगों की भीड़ रहती हो वह बड़ा ही उत्तम साधु होगा यह भी नहीं कह सकते, उससे विपरीत जहां कोई नहीं आता है वह छोटा या साधारण साधु होगा ऐसा भी नहीं मान सकते. भीड़भाड़ पुन्योदय की निशानी हो सकती है. अच्छाई की नहीं. भीड़ से कुछ साबित नहीं होता. जिसका शिष्य-परिवार बड़ा होगा वह बहोत ही ऊंचा चारित्रशील होगा यह मानना तो सबसे बड़ा भोलापन है ! शिष्य-संपदा पुन्य की निशानी है, उत्तम चारित्र की नहीं. सूरिपुरंदर श्री हरिभद्रसूरि महाराज का शिष्य-परिवार नहीं था फिर भी सेंकड़ों शिष्य़ों वाले आचार्य उनके मुकाबले कुछ नहीं थे. हरिभद्रसूरि महाराज का नाम आज भी जनजन के मनमन में गूंज रहा है और बड़े परिवार वालों के नाम का अतापता तक नहीं है. यहां और भी कड़ियां जोड़ी जा सकतीं हैं. परंतु इतनी काफी हैं, क्यों कि कहने का मकसद इतना ही है कि हम और हमारा समाज बहुत सारी भ्रान्त धारणाओं का शिकार बने हुए हैं. उन धारणाओं से मुक्त हो कर अपनी विचारशीलता का विकास करें इसी से ज्ञानप्राप्ति के द्वार खुलते हैं. जब किसीसे प्रभावित हुए बिना देखने की दृष्टि विकसित होगी तभी हम सत्य के अन्वेषण की दिशा में कदम बढ़ा पाएंगे. — लेखक : मुनि मित्रानंदसागर, अमदावाद