HAVE YOU EVER THOUGHT ? Who Are You ? A Doctor ? An Engineer ? A Businessman ? A Leader ? A Teacher ? A Husband ? A Wife ? A Son ? A Daughter are you one, or so many ? these are temporary roles of life who are you playing all these roles ? think again ...... who are you in reality ? A body ? A intellect ? A mind ? A breath ? you are interpreting the world through these mediums then who are you seeing through these mediums. THINK AGAIN & AGAIN.
Thursday, 20 March 2014
84 लाख योनियाँ
जैन शास्त्रों तथा दूसरे धर्मग्रंथों में भी जीव की 84 लाख योनियाँ बताई गई हैं। जीव जब तक मोक्ष की प्राप्ति नहीं हो जाती, तब तक इन्हीं 84 लाख योनियों में भटकता रहता है। ये ही 84 लाख योनियाँ 4 गतियों में विभाजित की गई हैं।
(1) नरक गति : जीवन में किए गए अपने बुरे कर्मों के कारण जीव नरक गति प्राप्त करता है। इस पृथ्वी के नीचे सात नरक हैं, जिनमें जीव को अपनी आयुपर्यंत घनघोर दुःखों को सहन करना पड़ता है, जहाँ के दारुण दुःखों की एक झलक छहढाला नामक ग्रंथ में कही गई है।'
मेरु समान लोह गल जाए ऐसी शीत उष्णता थाय।' अर्थात सुमेरु पर्वत के समान लोहे का पिंड भी जहाँ की शीत एवं उष्णता (गर्मी) में गल जाता है तथा 'सिन्धु नीर ते प्यास न जाए तो पण एक न बूँद लहाय' अर्थात समंदर का जल पीने जैसी प्यास लगती है, पर पानी की एक बूँद भी नसीब नहीं होती। ऐसे नारकीय कष्टों का शास्त्रों में विस्तृत वर्णन दिया गया है।
2.तिर्यन्च गति : जीव को अपने कर्मानुसार जो दूसरी गति प्राप्त होती है वह है तिर्यन्च गति। अत्यधिक आरंभ परिग्रह, चार कषाय अर्थात क्रोध, मान, माया, लोभ एवं पाँच पापों अर्थात हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील एवं परिग्रह में निमग्न रहने वाले जीव को तिर्यन्च गति अर्थात वनस्पति से लेकर समस्त जीव जाति तथा गाय, भैंस, हाथी, घोड़ा, पक्षी आदि गति प्राप्त होती है।
निर्यन्च गति के घोर दुःख ऐसे हैं- 'छेदन भेदन, भूख पियास, भारवहन हिम आतप त्रास। वध, बंधन आदिक दुःख घने, कोटि जीभ ते जात न भने।'
(3) मनुष्य गति : तीसरी गति मनुष्य गति होती है। जो जीव कम से कम पाप करता हुआ निरंतर धर्म-ध्यान में जीवन व्यतीत करता है। उसे मनुष्य गति प्राप्त होती है। समुद्र में फेंके गए मोती को जैसे प्राप्त करना दुर्लभ है, उसी प्रकार यह मानव जीवन भी महादुर्लभ है, जिसको पाने के लिए देवता भी तरसते हैं।
(4) देव गति : चौथी गति देव गति होती है। इस पृथ्वी के ऊपर 16 स्वर्ग हैं। जीव अपने कर्मानुसार उन स्वर्गों में कम या अधिक आयु प्रमाण के लिए जा सकता है। इसको पाना अत्यंत ही दुष्कर है। निरंतर निःस्वार्थ भाव से स्वहित एवं परहित साधने वाला जीव ही देव गति की उच्चतम अवस्था को प्राप्त करता है।
इस प्रकार उपरोक्त चारों गतियों से अर्थात 84 लाख योनियों से छुटकारा पाकर ही जीव मोक्ष प्राप्ति कर सकता है अन्यथा नहीं। अतः मानव को इस जीवन में हमेशा पाप कार्यों से निवृत्त रहकर तथा धर्म एवं सद्कर्मों में प्रवृत्त रहकर मोक्ष नहीं तो कम से कम सद्गतियों अर्थात देवगति एवं मनुष्य गति में अगला जन्म हो, ऐसे कार्य करके मानव जीवन को सार्थक करना चाहिए।
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