Thursday, 20 March 2014

परलोक की विशिष्ट विवेचना

परलोक की विशिष्ट विवेचना ****************** सामान्यतः ‘परलोक’ शब्द से ‘मृत्यु के बाद प्राप्त होनेवाली गति’ ऐसा अर्थ समझा जाता है, और उसे सुधारने के लिये हमें कहा जाता है। परन्तु जिस गति में हमें भविष्य में जन्म लेने का है उस गति का समाज यदि सुधरा हुआ न हो तो उस समाज में भविष्य में जन्म लेकर, हम चाहे जैसे हों फिर भी सुखी नहीं हो सकते। देवगति और नरकगति के लोगों के साथ हम तनिक भी सम्पर्क इस जन्म में स्थापित नहीं कर सकते। अतः यदि हम कुछ सुधार का कार्य करना चाहें तो मनुष्यसमाज तथा पशु-समाज के बीच रहकर उनके बारे में ही कर सकते हैं। उस सुधारणा का लाभ हमें इस जन्म में तो मिलेगा ही, परन्तु साथ ही भविष्य के जन्म के समय (मनुष्य अथवा पशुलोक में पुनर्जन्म होने पर) भी मिल सकता है। अतः जहाँ तक हमारा अपना सम्बन्ध है वहाँ तक ‘परलोक’ शब्द का ऐसा विशिष्ट अर्थ भी करना चाहिए जिससे मनुष्यसमाज तथा पशुसमाज के साथ के हमारे कर्त्तव्यों का हमें भान हो और वैसे कर्त्तव्यों का पालन कर के हम इस लोक के साथ साथ हमारे पर लोक (मृत्यु के बाद के जीवन) को भी सुधार सकें। इस दृष्टि को सम्मुख रखकर नीचे की विचारणा प्रस्तुत की जाती है। परलोक अर्थात् दूसरे लोग-हमारे खुद के सिवाय के दूसरे लोग। परलोक का सुधार अर्थात् दूसरे लोगों का सुधार। हमारे अर्थात् प्रत्येक व्यक्ति के सम्मुख परिचित और नित्य सम्पर्क में आनेवाले दो लोक तो स्पष्ट हैं : मनुष्यसमाज और पशुसमाज। इन दो समाजों को सुधारने के प्रयत्न को परलोक की सुधारणा का प्रयत्न कह सकते हैं। प्रत्येक मनुष्य यदि दृढ़रूप से ऐसा समझने लगे कि हमारा दृश्यमान परलोक यह मनुष्यसमाज और पशुसमाज है और परलोक की सुधारणा का अर्थ इस मानवसमाज और पशुसमाज को सुधारने का होता है, तो मानवसमाज का चित्र ही बदल जाय और पशुसमाज की ओर भी सद्भावना जाग्रत् हो उठे जिससे उनके लिये खाने-पीने, रहने आदिका सुयोग्य प्रबन्ध किया जा सके। मानवसमाज के सुख-साधन में पशुसमाज का हिस्सा क्या कम है? अमेरिका आदि देशों की गोशालाएँ कितनी स्वच्छ और व्यवस्थित होती हैं! मनुष्य मरकर कहाँ जन्म लेगा वह निश्चित नहीं है। अतः उसे वह बात ध्यान में रखनी चाहिए कि यदि मानवसमाज और पशुसमाज नानाविध बुराइयों और बीमारियों के कारण दुर्गतिरूप होगा तो मरकर उसमें जन्म लेनेवाला वह (मनुष्य) भी दुर्गति में ही पड़ेगा। इसलिये लोकहित और स्वहित दोनों दृष्टिओं से अपना आचरण और व्यवहार इतने अच्छे रखने की आवश्यकता उपस्थित होती है जिससे कि इन दोनों समाजों के ऊपर बुरा प्रभाव पड़ने के बदले अच्छा प्रभाव पड़ता रहे। नगरपालिका (Municipality) जिस प्रकार नगर के सब नागरिकों के लिये सुख की वस्तु बनती है उसी प्रकार हमारे मनुष्य तथा पशु संसाररूपी नगर की म्युनिसिपैलिटी उसे नगर के सब नागरिकों के सुख की वस्तु बन सकती है। अतः इन दोनों वर्गों को सुधारने के लिये यदि प्रयत्न किया जाय-तत्परता रखी जाय तो वह वस्तुतः हमारे अपने परलोक को सुधारने का प्रयत्न होगा। दूसरा एक परलोक है मनुष्यों की प्रजा-सन्तति। मानव-शरीर द्वारा होनेवाले सत्कर्म अथवा दुष्कर्म के जीवित संस्कार रक्तवीर्य द्वारा उसकी सन्तीति में आते हैं। मनुष्य में यदि कोढ़, क्षय, प्रमेह, केन्सर जैसे संक्रामक रोग हों तो उसका फल उसकी सन्तति को भुगतना पड़ता है। मनुष्य के अनाचार, शराबखोरी आदि दुर्व्यसनों के कारण होनेवाले पापसंस्कार रक्तवीर्य द्वारा उसकी सन्तति में आएँगे और वे मानवजाति की घोर दुर्दशा करेंगे। अतः परलोक को सुधारने का अर्थ है संतति को सुधारना, और सन्तति को सुधारने का अर्थ है अपने आप को सुधारना। जिस प्रकार मनुष्य का पुन्रजन्म रक्तवीर्य द्वारा उसकी सन्तति में होता है उसी प्रकार विचारों द्वारा मनुष्य का पुनर्जन्म उसके शिष्यों में तथा आसपास के मनुष्य में होता है। हमारे जैसे आचार-विचार होंगे उनका वैसा ही प्रभाव शिष्यों तथा निकटवर्ती लोगों पर पड़ेगा। मनुष्य एक ऐसा सामाजिक प्राणी है कि जान में अथवा अनजान में उसका प्रभाव दूसरों पर और दूसरों का प्रभाव उस पर पड़ने का ही। मनुष्य के ऊपर अपने आप को सुधारने का अथवा बिगाड़ने का उत्तरदायित्व तो है ही, परन्तु साथ ही साथ मानवसमाज के उत्थान अथवा पतन में भी उसका हिस्सा साक्षात् अथवा परम्परया रहता ही है। रक्तवीर्यजन्य सन्तति अपने पुरुषार्थ द्वारा पितृजन्य कुसंस्कारों से शायद मुक्त हो सके, परन्तु यदि विचारसन्तति में विष का संचार हो तो उसे पुनः स्वस्थ करना प्रायः दुष्कर ही हो जाता है। आज के प्रत्येक व्यक्ति की नजर इस नई पीढ़ी पर लग हुई है। कोई इसे मजहब की शराब पिला रहा है तो कोई हिन्दुत्व की; कोई जाति की तो कोई कुलपरम्परा की। न मालूम कित-कितने प्रकार की विचारधाराओं की चित्र-विचित्र शराब मनुष्य की दुर्बुद्धि ने तैयार की है? और अपने वर्ग की उच्चता, अपने अधिकार के स्थायित्व तथा स्थिर स्वार्थों की रक्षा के लिये धार्मिक, सांस्कृतिक, सामाजिक और राष्ट्रीय आदि अनेकविध सुन्दर व मोहक पात्रों में भर भर कर भोलीभाली नूतन पीढ़ी को पिला कर उसे स्वरूपच्युत किया जाता है। वे इसके नशे में चूर हो कर और मनुष्य की समानता के अधिकार को भूलकर अपने भाइयों के साथ क्रूरता एवं नृशंसतापूर्ण व्यवहार करने में झिझकते नहीं हैं। आज के ऐसे विचित्र और कलुषित युग में जहाँ मनुष्यों की यह दशा है वहाँ पशुरक्षा तथा पशुसुधार की बात ही क्या करना?

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