नंदीश्वर द्वीप :-
मध्यलोक का जो मध्यवर्ती एक लाख योजन विस्तार वाला जंबूद्वीप है, उसको क्रमशः वेष्टित किये हुए उत्तरोत्तर दुगुने-दुगुने विस्तार वाले लवणसमुद्र व धातकीखंडद्वीप, कालोदसमुद्र व पुष्करवरद्वीप, पुष्करवर समुद्र व वारुणीवर द्वीप, एवं वारुणीवर समुद्र, तथा उसी प्रकार एक ही नामवाले क्षीरवर, घृतवर व क्षौद्रवर नामक द्वीप-समुद्र हैं। तत्पश्चात् जम्बूद्वीप से आठवां द्वीप नंदीश्वर नामक है, जिसका जैनधर्म में व जैन वास्तु एवं मूर्तिकला की परम्परा में विशेष माहात्म्य पाया जाता हैं। इस वलयाकार द्वीप की पूर्वादि चारों दिशाओं में वलयसीमाओं के मध्यभाग में स्थित चार अंजनगिरि नामक पर्वत हैं। प्रत्येक अंजनगिरि की चारों दिशाओं में एक-एक चौकोण द्रह (वापिका) है, जिनके नाम क्रमशः नंदा, नंदवती, नंदोत्तरा व नंदीघोषा हैं। इनके चारों ओर अशोक, सप्तच्छद, चम्पक व आम्र, इन वृक्षों के चार-चार वन हैं। चारों वापियों के मध्य में एक-एक पर्वत है जो दधि के समान श्वेतवर्ण होने के कारण दधिमुख कहलाता है। वह गोलाकार है, व उसके ऊपरी भाग में तटवेदियां और वन हैं। नंदादि चारों वापियों के दोनों बाहरी कोनों पर एक-एक सुवर्णमय गोलाकार रतिकर नामक पर्वत है। इस प्रकार एक-एक दिशा में एक अंजनगिरि, चार दधिमुख व आठ रतिकर, इस प्रकार कुल मिलाकर तेरह पर्वत हुए। इसी प्रकार के १३-१३ पर्वत चारों दिशाओं में होने से कुल पर्वतों की संख्या ५२ हो जाती है। इनपर एक-एक जिनमंदिर स्थापित है, और ये ही नंदीश्वर द्वीप के ५२ मंदिर या चैत्यालय प्रसिद्ध हैं। जिस प्रकार पूर्व दिशा की चार वापियों के पूर्वोक्त नंदादिक चार नाम हैं, उसी प्रकार दक्षिण दिशा की चार वापिकाओं के नाम अरजा, विरजा, अशोका और वीतशोका; पश्चिम दिशा के विजया, वैजयन्ती, जयन्ती व अपराजिता; तथा उत्तर दिशा के रम्या, रमणीया, सुप्रभा व सर्वतोभद्रा ये नाम हैं। प्रत्येक वापिका के चारों ओर जो अशोकादि वृक्षों के चार-चार वन हैं, उनकी चारों दिशाओं की संख्या ६४ होती है। इन वनों में प्रत्येक के बीच एक-एक प्रासाद स्थित है, जो आकार में चौकोर तथा ऊंचाई में लंबाई से दुगुना कहा गया है। इन प्रासादों में व्यन्तर देव अपने परिवार सहित रहते हैं। (त्रि. प्र. ५, ५२-८२)। वर्तमान जैन मंदिरों में कहीं-कहीं नंदीश्वर पर्वत के ५२ जिनालयों की रचना मूर्तिमान् अथवा चित्रित की हुई पाई जाती है। हाल ही में सम्मेदशिखर (पारसनाथ) की पहाड़ी के समीप पूर्वोक्त प्रकार से ५२ जिन मंदिरों युक्त नन्दीश्वर की रचना की गई है।
HAVE YOU EVER THOUGHT ? Who Are You ? A Doctor ? An Engineer ? A Businessman ? A Leader ? A Teacher ? A Husband ? A Wife ? A Son ? A Daughter are you one, or so many ? these are temporary roles of life who are you playing all these roles ? think again ...... who are you in reality ? A body ? A intellect ? A mind ? A breath ? you are interpreting the world through these mediums then who are you seeing through these mediums. THINK AGAIN & AGAIN.
Friday, 30 September 2011
Thursday, 29 September 2011
ञान व अज्ञान के भेद
ञान व अज्ञान के भेद :-
ज्ञान के 5 व अज्ञान के 3 भेद है ।
ज्ञान के 5 भेद
1. मतिज्ञान :- इन्द्रिय तथा मन के द्वारा जो ज्ञान होता है, उसे मतिज्ञान कहते है ।
2. श्रुतज्ञान :- शास्त्रों के पठन-पाठन द्वारा जो ज्ञान होता है, उसे श्रुतज्ञान कहते हैं ।
3. अवधिज्ञान :- इन्द्रियों तथा मन की सहायता के बिना केवल आत्मा से रुपी द्रव्यों का ज्ञान अवधिज्ञान कहलाता है ।
4. मनःपर्यवज्ञान :- जिस ज्ञान के द्वारा संज्ञी पंचेन्द्रिय जीवों के मनोगत भावों को जाना जाय, उसे मनःपर्यव ज्ञान कहते हैं ।
5. केवलज्ञान :- जो ज्ञान किसी की सहायता के बिना सम्पूर्ण ज्ञेय पदार्थों को विषय करता है अर्थात् इन्द्रियादि की सहायता के बिना मूर्त-अमूर्त सभी सभी ज्ञेय पदार्थों को साक्षात् प्रत्यक्ष करने की शक्ति रखनेवाला ज्ञान केवलज्ञान कहलाता है ।
अज्ञान के 3 भेद
1. मति अज्ञान :- मतिज्ञान का विरोधि अर्थात् मिथ्यात्वी होने को होने वाला ज्ञान मति अज्ञान कहलाता है ।
2. श्रुत अज्ञान :- मिथ्यात्वी को शास्त्रों के पठन-पाठन से तत्व के विपरित जो ज्ञान होता है, उसे श्रु अज्ञान कहते है ।
3. विज्ञंगज्ञान :- मिथ्याद्रष्टि जीव के अवधिज्ञान को विभंगज्ञान कहते है ।
ज्ञान के 5 व अज्ञान के 3 भेद है ।
ज्ञान के 5 भेद
1. मतिज्ञान :- इन्द्रिय तथा मन के द्वारा जो ज्ञान होता है, उसे मतिज्ञान कहते है ।
2. श्रुतज्ञान :- शास्त्रों के पठन-पाठन द्वारा जो ज्ञान होता है, उसे श्रुतज्ञान कहते हैं ।
3. अवधिज्ञान :- इन्द्रियों तथा मन की सहायता के बिना केवल आत्मा से रुपी द्रव्यों का ज्ञान अवधिज्ञान कहलाता है ।
4. मनःपर्यवज्ञान :- जिस ज्ञान के द्वारा संज्ञी पंचेन्द्रिय जीवों के मनोगत भावों को जाना जाय, उसे मनःपर्यव ज्ञान कहते हैं ।
5. केवलज्ञान :- जो ज्ञान किसी की सहायता के बिना सम्पूर्ण ज्ञेय पदार्थों को विषय करता है अर्थात् इन्द्रियादि की सहायता के बिना मूर्त-अमूर्त सभी सभी ज्ञेय पदार्थों को साक्षात् प्रत्यक्ष करने की शक्ति रखनेवाला ज्ञान केवलज्ञान कहलाता है ।
अज्ञान के 3 भेद
1. मति अज्ञान :- मतिज्ञान का विरोधि अर्थात् मिथ्यात्वी होने को होने वाला ज्ञान मति अज्ञान कहलाता है ।
2. श्रुत अज्ञान :- मिथ्यात्वी को शास्त्रों के पठन-पाठन से तत्व के विपरित जो ज्ञान होता है, उसे श्रु अज्ञान कहते है ।
3. विज्ञंगज्ञान :- मिथ्याद्रष्टि जीव के अवधिज्ञान को विभंगज्ञान कहते है ।
Sunday, 11 September 2011
नवतत्त्व प्रकरण प्रश्नोत्तरी
प्रश्न- 501 मोक्ष किसे कहते है ?
जवाब- 501 आत्मा के संपूर्ण प्रदेशों से समस्त कर्म पुद्गलों का सर्वथा क्षय हो जाना, मोक्ष कहलाता है ।
प्रश्न- 502 मोक्ष के मुख्य कितने भेद है ?
जवाब- 502 दो – 1.द्रव्य मोक्ष 2. भाव मोक्ष ।
प्रश्न- 503 द्रव्य मोक्ष किसे कहते है ?
जवाब- 503 आत्मा से कर्मपुद्गलों का विनष्ट होना द्रव्य मोक्ष है ।
प्रश्न- 504 भाव मोक्ष किसे कहते है ?
जवाब- 504 कर्म एवं रागद्वेष रहित आत्मा का शुद्ध उपयोग भाव मोक्ष है ।
प्रश्न- 505 मोक्ष तत्व के प्रकारान्तर से कितने भेद है ?
जवाब- 505 नौ अनुयोग द्वार रुप नौ भेद है- 1.सत्पदप्ररुपणा 2.द्रव्यप्रमाण 3.क्षेत्र 4.स्पर्शना 5.काल 6.अंतर 7.भाग 8.भाव 9.अल्पवहुत्व ।
प्रश्न- 506 सत्पद प्ररुपणा द्वार किसे कहते है ?
जवाब- 506 कोई भी पद वाला पदार्थ सत् (विद्यमान) है या असत् है । अर्थात् उस पदार्थ का अस्तित्व जगत में है या नहीं, उसकी विवक्षा करना, सत्पद प्ररुपणा द्वार है ।
प्रश्न- 507 मोक्षपद सत् है या नहीं, यह कैसे जाना जाता है ?
जवाब- 507 मोक्षपद सत् है क्योंकी यह शुद्ध एक पदवाला नाम है । जो एक पद वाले नाम से वाच्य वस्तु होती है, वह अवश्य विद्यमान होती है, जैसे कुसुम । दो पद से मिलकर बने हुए एक पदवाली वस्तु होती भी है और नहीं भी होती । जैसे उद्यान-कुसुम होता है परंतु आकाश पुष्प नहीं होता है । यह असत्पद है ।
प्रश्न- 508 मोक्ष पद की विचारणा किससे होती है ?
जवाब- 508 मार्गणाओं से ।
प्रश्न- 509 मार्गणा किसे कहते है ?
जवाब- 509 मार्गणा अर्थात् किसी वस्तु को खोजने के मुद्दे । अथवा विवक्षित भाव का अन्वेषण-शोधन मार्गणा कहलाता है ।
प्रश्न- 510 ज्ञान व अज्ञान के भेद कितने है ?
जवाब- 510 ज्ञान के 5 व अज्ञान के 3 भेद है ।
प्रश्न- 511 मतिज्ञान किसे कहते है ?
जवाब- 511 इन्द्रिय तथा मन के द्वारा जो ज्ञान होता है, उसे मतिज्ञान कहते है ।
प्रश्न- 512 श्रुतज्ञान किसे कहते है ?
जवाब- 512 शास्त्रों के पठन-पाठन द्वारा जो ज्ञान होता है, उसे श्रुतज्ञान कहते हैं ।
प्रश्न- 513 अवधिज्ञान किसे कहते है ?
जवाब- 513 इन्द्रियों तथा मन की सहायता के बिना केवल आत्मा से रुपी द्रव्यों का ज्ञान अवधिज्ञान कहलाता है ।
प्रश्न- 514 मनःपर्यवज्ञान किसे कहते है ?
जवाब- 514 जिस ज्ञान के द्वारा संज्ञी पंचेन्द्रिय जीवों के मनोगत भावों को जाना जाय, उसे मनःपर्यव ज्ञान कहते हैं ।
प्रश्न- 515 केवलज्ञान किसे कहते है ?
जवाब- 515 जो ज्ञान किसी की सहायता के बिना सम्पूर्ण ज्ञेय पदार्थों को विषय करता है अर्थात् इन्द्रियादि की सहायता के बिना मूर्त-अमूर्त सभी सभी ज्ञेय पदार्थों को साक्षात् प्रत्यक्ष करने की शक्ति रखनेवाला ज्ञान केवलज्ञान कहलाता है ।
प्रश्न- 516 मति अज्ञान किसे कहते है ?
जवाब- 516 मतिज्ञान का विरोधि अर्थात् मिथ्यात्वी होने को होने वाला ज्ञान मति अज्ञान कहलाता है ।
प्रश्न- 517 श्रुत अज्ञान किसे कहते है ?
जवाब- 517 मिथ्यात्वी को शास्त्रों के पठन-पाठन से तत्व के विपरित जो ज्ञान होता है, उसे श्रु अज्ञान कहते है ।
प्रश्न- 518 विज्ञंगज्ञान किसे कहते है ?
जवाब- 518 मिथ्याद्रष्टि जीव के अवधिज्ञान को विभंगज्ञान कहते है ।
प्रश्न- 519 चक्षुदर्शन किसे कहते है?
जवाब- 519 चक्षु द्वारा जो सामान्य ज्ञान होता है, उसे चक्षुदर्शन कहते है ।
प्रश्न- 520 अचक्षुदर्शन किसे कहते है ?
जवाब- 520 अचक्षु अर्थात् आंख के बिना अन्य चार इन्द्रियों से जो सामान्य ज्ञान होता है, उसे अचक्षुदर्शन कहते है ।
प्रश्न- 521 अवधि दर्शन किसे कहते है ?
जवाब- 521 अवधि अर्थात् सीमा में रुपी तथा अरुपी पदार्थों का सामान्य ज्ञान होना अवधि दर्शन है ।
प्रश्न- 522 केवल दर्शन किसे कहते है ?
जवाब- 522 लोकालोक से रुपी तथा अरुपी समस्त पदार्थों का सामान्य अवबोध केवल दर्शन कहलाता है ।
प्रश्न- 523 लेश्या किसे कहते है ?
जवाब- 523 जिनके द्वारा आत्मा कर्मो से लिप्त होती है, मन के ऐसे शुभाशुभ परिणामों को लेश्या कहते है ।
प्रश्न- 524 लेश्या के कितने भेद है ?
जवाब- 524 छह – 1.कृष्णलेश्या 2.नीललेश्या 3.कपोतलेश्या 4.पीतलेश्या 5.पद्मलेश्या 6.शुक्ललेश्या ।
प्रश्न- 525 कृष्णलेश्या किसे कहते है ?
जवाब- 525 काजल के समान कृष्ण और नीम के अनन्तगुण कटु पुद्गलों के सम्बन्ध के सम्बन्ध से आत्मा में जो परिणाम होता है, वह कृष्ण लेश्या है । इस लेश्या वाला जीव क्रूर, हिंसक, असंयमी तथा रौद्र परिणामवाला होता है ।
प्रश्न- 526 नील लेश्या किसे कहते है ?
जवाब- 526 नीलम से समान नीले तथा सौंठ से अनन्त गुण तीक्ष्ण पुद्गलों के सम्बन्ध से आत्मा में जो परिणाम होता है, वह नील लेश्या है । इस लेश्यावाला जीव कपटी, निर्लज्ज, स्वादलोलुपी, पौद्गलिक सुख में रत रहने वाला होता है ।
प्रश्न- 527 कापोत लेश्या किसे कहते है ?
जवाब- 527 कबुतर के गले के समान वर्ण वाले तथा कच्चे आम के रस से अनन्तगुण कसैले पुद्गलों के सम्बन्ध से आत्मा में जो परिणाम होता है, वह कापोत लेश्या है । इस लेश्यावाला जीव अभिमानी, जड, वक्र तथा कर्कशभाषी होता है ।
प्रश्न- 528 पीत लेश्या किसे कहते है ?
जवाब- 528 हिंगुल के समान रक्त तथा पके आमरस से अनन्तगुण मधुर पुद्गलों के सम्बन्ध से आत्मा में जो परिणाम होता है, वह पीत लेश्या है । इस लेश्यावाला जीव पापभीरु, ममत्वरहित, विनयी तथा धर्म में रुची रखनेवाला होता है ।
प्रश्न- 529 पद्म लेश्या किसे कहते है ?
जवाब- 529 हल्दी के समान पीले तथा मधु से अनन्तगुण मिष्ट पुद्गलों के सम्बन्ध से आत्मा में जो परिणाम होता है, वह पद्म लेश्या है । पद्म लेश्यावाला जीव सरल, सहिष्णु, समभावी, मितभाषी तथा इन्द्रियों पर नियंत्रण करनेवाला होता है ।
प्रश्न- 530 शुक्ल लेश्या किसे कहते है ?
जवाब- 530 शंख के समान श्वेत और मिश्री अनन्तगुण मिष्ट पुद्गलों के सम्बन्ध से आत्मा में जो परिणाम होता है, वह शुक्ल लेश्या है । शुक्ल लेश्यावाला जीव राग-द्वेष रहित, विशुद्ध ध्यानी तथा आत्मलीन होता है ।
प्रश्न- 531 सम्यक्त्व किसे कहते है ?
जवाब- 531 दर्शन मोहनीय कर्म के क्षय, उपशम अथवा क्षयोपशम से जिन प्ररुपित तत्व पर श्रद्धा रुप जो आत्मा का परिणाम है, उसे सम्यक्त्व कहते है ।
प्रश्न- 532 औपशमिक सम्यक्त्व किसे कहते है ?
जवाब- 532 अनन्तानुबंधि कषायचतुष्क तथा सम्यक्त्व मोहनीय, मिश्र नोहनीय, मिथ्यात्व मोहनीय, इन सात कर्म प्रकृतियों की अन्तर्मुहूर्त तक पूर्ण रुप से उपशान्ति होने पर आत्मा में जो विशुद्ध परिणाम उत्पन्न होता है, उसे औपशमिक सम्यक्त्व कहते हैं ।
प्रश्न- 533 क्षायोपशमिक सम्यक्त्व किसे कहते है ?
जवाब- 533 उपरोक्त सातों कर्म प्रकृतियों में से छह का उपशम तथा सम्यक्त्व मोहनीय का उदय होकर क्षय हो रहा होता है, उस समय आत्मा के जो परिणाम होते हैं, उसे क्षायोपशमिक सम्यक्त्व कहते है ।
प्रश्न- 534 क्षायिक सम्यक्त्व किसे कहते है ?
जवाब- 534 उपरोक्त सातों कर्म प्रकृतियों का सर्वथा क्षय होने पर आत्मा में जो अत्यंत विशुद्ध परिणाम उत्पन्न होता है, उसे क्षायिक सम्यक्त्व कहते है ।
प्रश्न- 535 मिश्र सम्यक्त्व किसे कहते है ?
जवाब- 535 उपरोक्त सातों प्रकृतियों में से मात्र मिश्र मोहनीय का उदय हो, बाकि छह प्रकृतियाँ उपशान्त हो, उस समय सम्यग्-मिथ्यारुप जो आत्मा का परिणाम होता है, उसे मिश्र सम्यक्तव कहते हैं । इस सम्यक्त्व से जीव को सुदेव, सुगुरु तथा सुधर्म पर न श्रद्धा होती है, न अश्रद्धा होती है ।
प्रश्न- 536 सास्वादन सम्यक्त्व किसे कहते है ?
जवाब- 536 औपशमिक सम्यक्त्व से पतित होता हुआ जीव अनन्तानुबंधी कषाय के उदय से मिथ्यात्व भाव को प्राप्त करने से पूर्व जघन्य एक समय तथा उत्कृष्ट छह आवलिका पर्यंत सम्यक्त्व का कुछ आस्वाद होने से सास्वादन सम्यक्त्वी कहलाता है । उस जीव के स्वरुप विशेष को सास्वादन सम्यक्त्व कहते हैं । सम्यक्त्व से गिरकर मिथ्यात्व भाव को प्राप्त करनेवाले जीव को ही यह सम्यक्त्व होता है ।
प्रश्न- 537 मिथ्यात्व किसे कहते है ?
जवाब- 537 मिथ्यात्व मोहनीय कर्म के उदय से जीव में जो मिथ्या भाव प्रकट होता है, उसे मिथ्यात्व कहते हैं । इससे जीव को कुदेव-कुगुरु तथा कुधर्म पर श्रद्धा होती है ।
प्रश्न- 538 आहारमार्गणा के कितने भेद है ?
जवाब- 538 दो- 1.आहारक 2. अनाहारक ।
प्रश्न- 539 आहारक व अनाहारक किसे कहते है ?
जवाब- 539 जो जीव आहार ग्रहण करे, वह आहारक कहलाता है । जो जीव आहार रहित है, वह अनाहारक कहलाता है ।
प्रश्न- 540 चौदह मार्गणाओं में से किन-किन मार्गणाओं में जीव मोक्ष पा सकते है ?
जवाब- 540 10 मार्गणाओं मे ही मोक्ष है- 1.मनुष्यगति 2.पंचेन्द्रिय जाति 3.त्रसकाय 4.भव्य 5.संज्ञी 6.यथाख्यात चारित्र 7.क्षायिक सम्यक्त्व 8.अनाहारक 9.केवलज्ञान 10.केवलदर्शन ।
प्रश्न- 541 द्रव्य प्रमाणद्वार किसे कहते है ?
जवाब- 541 सिद्ध के जीव कितने हैं, इसका संख्या संबंधी विचार करना द्रव्य प्रमाण द्वार है । सिद्ध के जीव अनन्त हैं । क्योंकी जघन्य से एक समय के अन्तर में तथा उत्कृष्ट छह मास के अन्तर में अवश्य कोई जीव मोक्ष जाता है, ऐसा नियम है । एक समय में जघन्य एक तथा उत्कृष्ट 108 जीव भी मोक्ष में जाते हैं । इस प्रकार अनन्त काल बीत गया है, अतः उस अनन्तकाल में अनन्त जीवों की सिद्धि स्वतः सिद्ध है ।
प्रश्न- 542 क्षेत्र द्वार किसे कहते है ?
जवाब- 542 सिद्ध के जीव कितने क्षेत्र का अवगाहन करके रहते हैं, यह विचार करना क्षेत्र द्वार है ।
प्रश्न- 543 अनंत सिद्ध कितन् क्षेत्र में रहते है ?
जवाब- 543 अनंत सिद्ध लोकाकाश के असंख्यातवें भाग जितने क्षेत्र में रहते है ।
प्रश्न- 544 एक सिद्ध की जधन्य अवगाहना कितनी है ?
जवाब- 544 एक सिद्ध की जघन्य अवगाहना एक हाथ और आठ अंगुल अधिक है ।
प्रश्न- 545 सिद्धो की उत्कृष्ट अवगाहना कितनी ?
जवाब- 545 एक कोस (दो हजार धनुष) का छट्ठा भाग यानि 333 धनुष 32 अंगुल (1333 हाथ और 8 अंगुल) यह सिद्धों की उत्कृष्ट अवगाहना होती है ।
प्रश्न- 546 सिद्धों की मध्यम अवगाहना कितनी है ?
जवाब- 546 जघन्य अवगाहना से कुछ अधिक तथा उत्कृष्ट अवगाहना से कुछ कम सब मध्यम अवगाहना कहलाती है ।
प्रश्न- 547 सिद्धों को शरीर नहीं होता है फिर अवगाहना कैसी ?
जवाब- 547 शरीर तो नहीं है परंतु चरम शरीर के आत्मप्रदेश का घन दो तिहाई भाग जितना होता है । जघन्य दो हाथ तथा उत्कृष्ट 500 धनुष की अवगाहना वाले मनुष्य मोक्ष प्राप्त कर सकते हैं । इसलिए उनके दो तिहाई भाग जितनी जघन्य और उत्कृष्ट अवगाहना होती है ।
प्रश्न- 548 सिद्धयमान कितनी ऊंचाई वाले सिद्ध होते है ?
जवाब- 548 जघन्य सात हाथ और पांच सौ घनुष की ऊंचाई वाले जीव सिद्ध होते हैं । जघन्य अवगाहना तीर्थंकरो की 7 हाथ, सामान्य केवलियों की दो हाथ की होती है ।
प्रश्न- 549 सिद्ध क्षेत्र कैसा है ?
जवाब- 549 ईषत्प्राग्भारा पृथ्वी (सिद्धशीला) पैंतालीस लाख योजन की लम्बी-चौडी और एक करोड, बयालीस लाख, तीस हजार दो सौ गुण पचास योजन से कुछ अधिक परिधिवाली है । वह ईषत्प्राग्भारा पृथ्वी बहुमध्य देशभाग में आठ योजन जितने क्षेत्र में आठ योजन मोटी है । इसके बाद थोडी थोडी कम होती हुई सबसे अंतिम छोंरो पर मक्खीं की पांख से भी पतली है । उस छोर की मोटाई अंगुल के असंख्येय भाग जितनी है ।
प्रश्न- 550 इतने ही क्षेत्र में सिद्ध होने का क्या कारण ?
जवाब- 550 मनुष्य क्षेत्र (ढाई द्वीप) 45 लाख योजन का है । ढाई द्वीप में से कोई जगह एसी नहीं, जहाँ अनन्त सिद्ध न हुए हो । जिस स्थान से मोक्षगामी जीव शरीर से मुक्त होते हैं, उनके बराबर सीधी लकीर में एक समय मात्र में जीव उपर लोकाग्र में पहुंचकर सदाकाल के लिये स्थिर हो जाते हैं ।
प्रश्न- 551 इतने छोटे क्षेत्र में एनंत सिद्ध कैसे समा जाते है ?
जवाब- 551 जहाँ एक सिद्ध हो, वहाँ अनंत सिद्ध रह सकते है क्योंकि आत्मा अरुपी होने के कारण बाधा नहीं आती । जैसे एक कमरे में एक दिपक का प्रकाश भी समा सकता है और सौ दिपक का प्रकाश भा समा सकता है ।
प्रश्न- 552 किस आयुष्य वाला जीव सिद्ध होता है ?
जवाब- 552 जघन्य आठ वर्ष तथा उत्कृष्ट कोटि पूर्व के आयुष्य में जीव सिद्धत्व को उपलब्ध हो सकता है । इससे कम-ज्यादा आयुष्य वाले जीव सिद्ध नहीं हो सकते ।
प्रश्न- 553 सिद्ध जीव संसारी जीवों की अपेक्षा कितने हैं ?
जवाब- 553 सिद्ध के जीव समस्त संसारी जीवों के अनन्तवें भाग जितने ही हैं ।
प्रश्न- 554 एक निगोदमें कितने कितने जीव होते है ?
जवाब- 554 एक निगोदमें अनंत जीव होते है । 1.संज्ञी मनुष्य संख्यात 2.असंज्ञी मनुष्य असंख्याता 3.नारकी असंख्याता 4.देवता असंख्याता 5.पंचेन्द्रिय निर्यंच असंख्याता 6.बेइन्द्रिय जीव असंख्याता 7.तेइन्द्रिय जीव असंख्याता 8.चउरिन्द्रिय जीव असंख्याता 9.पृथ्वीकाय असंख्यात 10.अप्काय असंख्यात 11.तेउकाय असंख्यात 12.वायुकाय असंख्यात 13.प्रत्येक वनस्पतिकाय असंख्यात । इन समस्त जीवों को इकट्ठा कर जोडने पर उससे भी सिद्ध के जीव अनंतगुणा है । सुई के अग्रभाग पर रहे हुए छोटे से छोटे कण में उससे भी अनंतगुणा अधिक जीव है । यह विचारणा बादर निगोद जीवों की अपेक्षा से है ।
प्रश्न- 555 जगत में निगोद के गोले कितने है ?
जवाब- 555 निगोद के असंख्य गोले है । एक-एक गोले में असंख्य निगोद है तथा एक-एक निगोद में अनन्त-अनन्त जीव है ।
प्रश्न- 556 अब तक मोक्ष में कितने जीव गये है ?
जवाब- 556 एक निगोद का अनन्तवाँ भाग ही मोक्ष में गया है ।
प्रश्न- 557 सूक्ष्म निगोद के जीवों को कितनी –वेदना होती है ?
जवाब- 557 सूक्ष्म निगोदमें रहे हुए जीव प्रति समय अनंत-अनंत वेदना भोगते हैं । उसे एक द्रष्टान्त से इस प्रकार समझ सकते हैं कि सातवी नरक का उत्कृष्ट आयुष्य 33 सागरोपम है । उसमें जितने समय (असंख्यात) होते हैं, उतनी ही बार कोई जीव सातवीं नरक में 33 सागरोपम की आयुष्यवाला नारकी रुप में उत्पन्न हो । वह सब दुःख इकट्ठा करे, उससे भी अनंतगुणा दुःख और वेदना एक समय में एक निगोद के जीव को होती है ।
प्रश्न- 558 जीवादि नवतत्वों को जानने का क्या फल है ?
जवाब- 558 जीवादि नवतत्वों का स्वरुप समझने वाले जीव को सम्यक्त्व प्राप्त होता है ।
प्रश्न- 559 सम्यक्त्व प्राप्त होने का क्या फल है ?
जवाब- 559 जिन जीवों ने अंतर्मुहूर्त मात्र भी सम्यक्त्व का स्पर्श कर लिया है, उनका संसारमें परिभ्रमण केवल अर्द्धपुद्गल परावर्तनकाल जितना ही शेष रहता है । अर्थात् अर्द्धपुद्गल परावर्तनकाल के अन्दर ही वह जीव अवश्यमेव सिद्धत्व को प्राप्त कर लेता है ।
प्रश्न- 560 पुद्गल परावर्तनकाल किसे कहते हैं ?
जवाब- 560 अनन्त उत्सर्पिणी तथा अनन्त अवसर्पिणी बीत जाने पर एक पुद्गल परावर्ततन काल होता है ।
प्रश्न- 561 नवतत्व जानने का सार क्या है ?
जवाब- 561 भव्य जीव इसका स्वाध्याय करके, जिनेश्वर प्ररुपित तत्व पर श्रद्धान करके विशुद्ध चारित्र पालन द्वारा मोक्ष को प्राप्त करें, यही नवतत्व के पठन-पाठन का सार है ।
जवाब- 501 आत्मा के संपूर्ण प्रदेशों से समस्त कर्म पुद्गलों का सर्वथा क्षय हो जाना, मोक्ष कहलाता है ।
प्रश्न- 502 मोक्ष के मुख्य कितने भेद है ?
जवाब- 502 दो – 1.द्रव्य मोक्ष 2. भाव मोक्ष ।
प्रश्न- 503 द्रव्य मोक्ष किसे कहते है ?
जवाब- 503 आत्मा से कर्मपुद्गलों का विनष्ट होना द्रव्य मोक्ष है ।
प्रश्न- 504 भाव मोक्ष किसे कहते है ?
जवाब- 504 कर्म एवं रागद्वेष रहित आत्मा का शुद्ध उपयोग भाव मोक्ष है ।
प्रश्न- 505 मोक्ष तत्व के प्रकारान्तर से कितने भेद है ?
जवाब- 505 नौ अनुयोग द्वार रुप नौ भेद है- 1.सत्पदप्ररुपणा 2.द्रव्यप्रमाण 3.क्षेत्र 4.स्पर्शना 5.काल 6.अंतर 7.भाग 8.भाव 9.अल्पवहुत्व ।
प्रश्न- 506 सत्पद प्ररुपणा द्वार किसे कहते है ?
जवाब- 506 कोई भी पद वाला पदार्थ सत् (विद्यमान) है या असत् है । अर्थात् उस पदार्थ का अस्तित्व जगत में है या नहीं, उसकी विवक्षा करना, सत्पद प्ररुपणा द्वार है ।
प्रश्न- 507 मोक्षपद सत् है या नहीं, यह कैसे जाना जाता है ?
जवाब- 507 मोक्षपद सत् है क्योंकी यह शुद्ध एक पदवाला नाम है । जो एक पद वाले नाम से वाच्य वस्तु होती है, वह अवश्य विद्यमान होती है, जैसे कुसुम । दो पद से मिलकर बने हुए एक पदवाली वस्तु होती भी है और नहीं भी होती । जैसे उद्यान-कुसुम होता है परंतु आकाश पुष्प नहीं होता है । यह असत्पद है ।
प्रश्न- 508 मोक्ष पद की विचारणा किससे होती है ?
जवाब- 508 मार्गणाओं से ।
प्रश्न- 509 मार्गणा किसे कहते है ?
जवाब- 509 मार्गणा अर्थात् किसी वस्तु को खोजने के मुद्दे । अथवा विवक्षित भाव का अन्वेषण-शोधन मार्गणा कहलाता है ।
प्रश्न- 510 ज्ञान व अज्ञान के भेद कितने है ?
जवाब- 510 ज्ञान के 5 व अज्ञान के 3 भेद है ।
प्रश्न- 511 मतिज्ञान किसे कहते है ?
जवाब- 511 इन्द्रिय तथा मन के द्वारा जो ज्ञान होता है, उसे मतिज्ञान कहते है ।
प्रश्न- 512 श्रुतज्ञान किसे कहते है ?
जवाब- 512 शास्त्रों के पठन-पाठन द्वारा जो ज्ञान होता है, उसे श्रुतज्ञान कहते हैं ।
प्रश्न- 513 अवधिज्ञान किसे कहते है ?
जवाब- 513 इन्द्रियों तथा मन की सहायता के बिना केवल आत्मा से रुपी द्रव्यों का ज्ञान अवधिज्ञान कहलाता है ।
प्रश्न- 514 मनःपर्यवज्ञान किसे कहते है ?
जवाब- 514 जिस ज्ञान के द्वारा संज्ञी पंचेन्द्रिय जीवों के मनोगत भावों को जाना जाय, उसे मनःपर्यव ज्ञान कहते हैं ।
प्रश्न- 515 केवलज्ञान किसे कहते है ?
जवाब- 515 जो ज्ञान किसी की सहायता के बिना सम्पूर्ण ज्ञेय पदार्थों को विषय करता है अर्थात् इन्द्रियादि की सहायता के बिना मूर्त-अमूर्त सभी सभी ज्ञेय पदार्थों को साक्षात् प्रत्यक्ष करने की शक्ति रखनेवाला ज्ञान केवलज्ञान कहलाता है ।
प्रश्न- 516 मति अज्ञान किसे कहते है ?
जवाब- 516 मतिज्ञान का विरोधि अर्थात् मिथ्यात्वी होने को होने वाला ज्ञान मति अज्ञान कहलाता है ।
प्रश्न- 517 श्रुत अज्ञान किसे कहते है ?
जवाब- 517 मिथ्यात्वी को शास्त्रों के पठन-पाठन से तत्व के विपरित जो ज्ञान होता है, उसे श्रु अज्ञान कहते है ।
प्रश्न- 518 विज्ञंगज्ञान किसे कहते है ?
जवाब- 518 मिथ्याद्रष्टि जीव के अवधिज्ञान को विभंगज्ञान कहते है ।
प्रश्न- 519 चक्षुदर्शन किसे कहते है?
जवाब- 519 चक्षु द्वारा जो सामान्य ज्ञान होता है, उसे चक्षुदर्शन कहते है ।
प्रश्न- 520 अचक्षुदर्शन किसे कहते है ?
जवाब- 520 अचक्षु अर्थात् आंख के बिना अन्य चार इन्द्रियों से जो सामान्य ज्ञान होता है, उसे अचक्षुदर्शन कहते है ।
प्रश्न- 521 अवधि दर्शन किसे कहते है ?
जवाब- 521 अवधि अर्थात् सीमा में रुपी तथा अरुपी पदार्थों का सामान्य ज्ञान होना अवधि दर्शन है ।
प्रश्न- 522 केवल दर्शन किसे कहते है ?
जवाब- 522 लोकालोक से रुपी तथा अरुपी समस्त पदार्थों का सामान्य अवबोध केवल दर्शन कहलाता है ।
प्रश्न- 523 लेश्या किसे कहते है ?
जवाब- 523 जिनके द्वारा आत्मा कर्मो से लिप्त होती है, मन के ऐसे शुभाशुभ परिणामों को लेश्या कहते है ।
प्रश्न- 524 लेश्या के कितने भेद है ?
जवाब- 524 छह – 1.कृष्णलेश्या 2.नीललेश्या 3.कपोतलेश्या 4.पीतलेश्या 5.पद्मलेश्या 6.शुक्ललेश्या ।
प्रश्न- 525 कृष्णलेश्या किसे कहते है ?
जवाब- 525 काजल के समान कृष्ण और नीम के अनन्तगुण कटु पुद्गलों के सम्बन्ध के सम्बन्ध से आत्मा में जो परिणाम होता है, वह कृष्ण लेश्या है । इस लेश्या वाला जीव क्रूर, हिंसक, असंयमी तथा रौद्र परिणामवाला होता है ।
प्रश्न- 526 नील लेश्या किसे कहते है ?
जवाब- 526 नीलम से समान नीले तथा सौंठ से अनन्त गुण तीक्ष्ण पुद्गलों के सम्बन्ध से आत्मा में जो परिणाम होता है, वह नील लेश्या है । इस लेश्यावाला जीव कपटी, निर्लज्ज, स्वादलोलुपी, पौद्गलिक सुख में रत रहने वाला होता है ।
प्रश्न- 527 कापोत लेश्या किसे कहते है ?
जवाब- 527 कबुतर के गले के समान वर्ण वाले तथा कच्चे आम के रस से अनन्तगुण कसैले पुद्गलों के सम्बन्ध से आत्मा में जो परिणाम होता है, वह कापोत लेश्या है । इस लेश्यावाला जीव अभिमानी, जड, वक्र तथा कर्कशभाषी होता है ।
प्रश्न- 528 पीत लेश्या किसे कहते है ?
जवाब- 528 हिंगुल के समान रक्त तथा पके आमरस से अनन्तगुण मधुर पुद्गलों के सम्बन्ध से आत्मा में जो परिणाम होता है, वह पीत लेश्या है । इस लेश्यावाला जीव पापभीरु, ममत्वरहित, विनयी तथा धर्म में रुची रखनेवाला होता है ।
प्रश्न- 529 पद्म लेश्या किसे कहते है ?
जवाब- 529 हल्दी के समान पीले तथा मधु से अनन्तगुण मिष्ट पुद्गलों के सम्बन्ध से आत्मा में जो परिणाम होता है, वह पद्म लेश्या है । पद्म लेश्यावाला जीव सरल, सहिष्णु, समभावी, मितभाषी तथा इन्द्रियों पर नियंत्रण करनेवाला होता है ।
प्रश्न- 530 शुक्ल लेश्या किसे कहते है ?
जवाब- 530 शंख के समान श्वेत और मिश्री अनन्तगुण मिष्ट पुद्गलों के सम्बन्ध से आत्मा में जो परिणाम होता है, वह शुक्ल लेश्या है । शुक्ल लेश्यावाला जीव राग-द्वेष रहित, विशुद्ध ध्यानी तथा आत्मलीन होता है ।
प्रश्न- 531 सम्यक्त्व किसे कहते है ?
जवाब- 531 दर्शन मोहनीय कर्म के क्षय, उपशम अथवा क्षयोपशम से जिन प्ररुपित तत्व पर श्रद्धा रुप जो आत्मा का परिणाम है, उसे सम्यक्त्व कहते है ।
प्रश्न- 532 औपशमिक सम्यक्त्व किसे कहते है ?
जवाब- 532 अनन्तानुबंधि कषायचतुष्क तथा सम्यक्त्व मोहनीय, मिश्र नोहनीय, मिथ्यात्व मोहनीय, इन सात कर्म प्रकृतियों की अन्तर्मुहूर्त तक पूर्ण रुप से उपशान्ति होने पर आत्मा में जो विशुद्ध परिणाम उत्पन्न होता है, उसे औपशमिक सम्यक्त्व कहते हैं ।
प्रश्न- 533 क्षायोपशमिक सम्यक्त्व किसे कहते है ?
जवाब- 533 उपरोक्त सातों कर्म प्रकृतियों में से छह का उपशम तथा सम्यक्त्व मोहनीय का उदय होकर क्षय हो रहा होता है, उस समय आत्मा के जो परिणाम होते हैं, उसे क्षायोपशमिक सम्यक्त्व कहते है ।
प्रश्न- 534 क्षायिक सम्यक्त्व किसे कहते है ?
जवाब- 534 उपरोक्त सातों कर्म प्रकृतियों का सर्वथा क्षय होने पर आत्मा में जो अत्यंत विशुद्ध परिणाम उत्पन्न होता है, उसे क्षायिक सम्यक्त्व कहते है ।
प्रश्न- 535 मिश्र सम्यक्त्व किसे कहते है ?
जवाब- 535 उपरोक्त सातों प्रकृतियों में से मात्र मिश्र मोहनीय का उदय हो, बाकि छह प्रकृतियाँ उपशान्त हो, उस समय सम्यग्-मिथ्यारुप जो आत्मा का परिणाम होता है, उसे मिश्र सम्यक्तव कहते हैं । इस सम्यक्त्व से जीव को सुदेव, सुगुरु तथा सुधर्म पर न श्रद्धा होती है, न अश्रद्धा होती है ।
प्रश्न- 536 सास्वादन सम्यक्त्व किसे कहते है ?
जवाब- 536 औपशमिक सम्यक्त्व से पतित होता हुआ जीव अनन्तानुबंधी कषाय के उदय से मिथ्यात्व भाव को प्राप्त करने से पूर्व जघन्य एक समय तथा उत्कृष्ट छह आवलिका पर्यंत सम्यक्त्व का कुछ आस्वाद होने से सास्वादन सम्यक्त्वी कहलाता है । उस जीव के स्वरुप विशेष को सास्वादन सम्यक्त्व कहते हैं । सम्यक्त्व से गिरकर मिथ्यात्व भाव को प्राप्त करनेवाले जीव को ही यह सम्यक्त्व होता है ।
प्रश्न- 537 मिथ्यात्व किसे कहते है ?
जवाब- 537 मिथ्यात्व मोहनीय कर्म के उदय से जीव में जो मिथ्या भाव प्रकट होता है, उसे मिथ्यात्व कहते हैं । इससे जीव को कुदेव-कुगुरु तथा कुधर्म पर श्रद्धा होती है ।
प्रश्न- 538 आहारमार्गणा के कितने भेद है ?
जवाब- 538 दो- 1.आहारक 2. अनाहारक ।
प्रश्न- 539 आहारक व अनाहारक किसे कहते है ?
जवाब- 539 जो जीव आहार ग्रहण करे, वह आहारक कहलाता है । जो जीव आहार रहित है, वह अनाहारक कहलाता है ।
प्रश्न- 540 चौदह मार्गणाओं में से किन-किन मार्गणाओं में जीव मोक्ष पा सकते है ?
जवाब- 540 10 मार्गणाओं मे ही मोक्ष है- 1.मनुष्यगति 2.पंचेन्द्रिय जाति 3.त्रसकाय 4.भव्य 5.संज्ञी 6.यथाख्यात चारित्र 7.क्षायिक सम्यक्त्व 8.अनाहारक 9.केवलज्ञान 10.केवलदर्शन ।
प्रश्न- 541 द्रव्य प्रमाणद्वार किसे कहते है ?
जवाब- 541 सिद्ध के जीव कितने हैं, इसका संख्या संबंधी विचार करना द्रव्य प्रमाण द्वार है । सिद्ध के जीव अनन्त हैं । क्योंकी जघन्य से एक समय के अन्तर में तथा उत्कृष्ट छह मास के अन्तर में अवश्य कोई जीव मोक्ष जाता है, ऐसा नियम है । एक समय में जघन्य एक तथा उत्कृष्ट 108 जीव भी मोक्ष में जाते हैं । इस प्रकार अनन्त काल बीत गया है, अतः उस अनन्तकाल में अनन्त जीवों की सिद्धि स्वतः सिद्ध है ।
प्रश्न- 542 क्षेत्र द्वार किसे कहते है ?
जवाब- 542 सिद्ध के जीव कितने क्षेत्र का अवगाहन करके रहते हैं, यह विचार करना क्षेत्र द्वार है ।
प्रश्न- 543 अनंत सिद्ध कितन् क्षेत्र में रहते है ?
जवाब- 543 अनंत सिद्ध लोकाकाश के असंख्यातवें भाग जितने क्षेत्र में रहते है ।
प्रश्न- 544 एक सिद्ध की जधन्य अवगाहना कितनी है ?
जवाब- 544 एक सिद्ध की जघन्य अवगाहना एक हाथ और आठ अंगुल अधिक है ।
प्रश्न- 545 सिद्धो की उत्कृष्ट अवगाहना कितनी ?
जवाब- 545 एक कोस (दो हजार धनुष) का छट्ठा भाग यानि 333 धनुष 32 अंगुल (1333 हाथ और 8 अंगुल) यह सिद्धों की उत्कृष्ट अवगाहना होती है ।
प्रश्न- 546 सिद्धों की मध्यम अवगाहना कितनी है ?
जवाब- 546 जघन्य अवगाहना से कुछ अधिक तथा उत्कृष्ट अवगाहना से कुछ कम सब मध्यम अवगाहना कहलाती है ।
प्रश्न- 547 सिद्धों को शरीर नहीं होता है फिर अवगाहना कैसी ?
जवाब- 547 शरीर तो नहीं है परंतु चरम शरीर के आत्मप्रदेश का घन दो तिहाई भाग जितना होता है । जघन्य दो हाथ तथा उत्कृष्ट 500 धनुष की अवगाहना वाले मनुष्य मोक्ष प्राप्त कर सकते हैं । इसलिए उनके दो तिहाई भाग जितनी जघन्य और उत्कृष्ट अवगाहना होती है ।
प्रश्न- 548 सिद्धयमान कितनी ऊंचाई वाले सिद्ध होते है ?
जवाब- 548 जघन्य सात हाथ और पांच सौ घनुष की ऊंचाई वाले जीव सिद्ध होते हैं । जघन्य अवगाहना तीर्थंकरो की 7 हाथ, सामान्य केवलियों की दो हाथ की होती है ।
प्रश्न- 549 सिद्ध क्षेत्र कैसा है ?
जवाब- 549 ईषत्प्राग्भारा पृथ्वी (सिद्धशीला) पैंतालीस लाख योजन की लम्बी-चौडी और एक करोड, बयालीस लाख, तीस हजार दो सौ गुण पचास योजन से कुछ अधिक परिधिवाली है । वह ईषत्प्राग्भारा पृथ्वी बहुमध्य देशभाग में आठ योजन जितने क्षेत्र में आठ योजन मोटी है । इसके बाद थोडी थोडी कम होती हुई सबसे अंतिम छोंरो पर मक्खीं की पांख से भी पतली है । उस छोर की मोटाई अंगुल के असंख्येय भाग जितनी है ।
प्रश्न- 550 इतने ही क्षेत्र में सिद्ध होने का क्या कारण ?
जवाब- 550 मनुष्य क्षेत्र (ढाई द्वीप) 45 लाख योजन का है । ढाई द्वीप में से कोई जगह एसी नहीं, जहाँ अनन्त सिद्ध न हुए हो । जिस स्थान से मोक्षगामी जीव शरीर से मुक्त होते हैं, उनके बराबर सीधी लकीर में एक समय मात्र में जीव उपर लोकाग्र में पहुंचकर सदाकाल के लिये स्थिर हो जाते हैं ।
प्रश्न- 551 इतने छोटे क्षेत्र में एनंत सिद्ध कैसे समा जाते है ?
जवाब- 551 जहाँ एक सिद्ध हो, वहाँ अनंत सिद्ध रह सकते है क्योंकि आत्मा अरुपी होने के कारण बाधा नहीं आती । जैसे एक कमरे में एक दिपक का प्रकाश भी समा सकता है और सौ दिपक का प्रकाश भा समा सकता है ।
प्रश्न- 552 किस आयुष्य वाला जीव सिद्ध होता है ?
जवाब- 552 जघन्य आठ वर्ष तथा उत्कृष्ट कोटि पूर्व के आयुष्य में जीव सिद्धत्व को उपलब्ध हो सकता है । इससे कम-ज्यादा आयुष्य वाले जीव सिद्ध नहीं हो सकते ।
प्रश्न- 553 सिद्ध जीव संसारी जीवों की अपेक्षा कितने हैं ?
जवाब- 553 सिद्ध के जीव समस्त संसारी जीवों के अनन्तवें भाग जितने ही हैं ।
प्रश्न- 554 एक निगोदमें कितने कितने जीव होते है ?
जवाब- 554 एक निगोदमें अनंत जीव होते है । 1.संज्ञी मनुष्य संख्यात 2.असंज्ञी मनुष्य असंख्याता 3.नारकी असंख्याता 4.देवता असंख्याता 5.पंचेन्द्रिय निर्यंच असंख्याता 6.बेइन्द्रिय जीव असंख्याता 7.तेइन्द्रिय जीव असंख्याता 8.चउरिन्द्रिय जीव असंख्याता 9.पृथ्वीकाय असंख्यात 10.अप्काय असंख्यात 11.तेउकाय असंख्यात 12.वायुकाय असंख्यात 13.प्रत्येक वनस्पतिकाय असंख्यात । इन समस्त जीवों को इकट्ठा कर जोडने पर उससे भी सिद्ध के जीव अनंतगुणा है । सुई के अग्रभाग पर रहे हुए छोटे से छोटे कण में उससे भी अनंतगुणा अधिक जीव है । यह विचारणा बादर निगोद जीवों की अपेक्षा से है ।
प्रश्न- 555 जगत में निगोद के गोले कितने है ?
जवाब- 555 निगोद के असंख्य गोले है । एक-एक गोले में असंख्य निगोद है तथा एक-एक निगोद में अनन्त-अनन्त जीव है ।
प्रश्न- 556 अब तक मोक्ष में कितने जीव गये है ?
जवाब- 556 एक निगोद का अनन्तवाँ भाग ही मोक्ष में गया है ।
प्रश्न- 557 सूक्ष्म निगोद के जीवों को कितनी –वेदना होती है ?
जवाब- 557 सूक्ष्म निगोदमें रहे हुए जीव प्रति समय अनंत-अनंत वेदना भोगते हैं । उसे एक द्रष्टान्त से इस प्रकार समझ सकते हैं कि सातवी नरक का उत्कृष्ट आयुष्य 33 सागरोपम है । उसमें जितने समय (असंख्यात) होते हैं, उतनी ही बार कोई जीव सातवीं नरक में 33 सागरोपम की आयुष्यवाला नारकी रुप में उत्पन्न हो । वह सब दुःख इकट्ठा करे, उससे भी अनंतगुणा दुःख और वेदना एक समय में एक निगोद के जीव को होती है ।
प्रश्न- 558 जीवादि नवतत्वों को जानने का क्या फल है ?
जवाब- 558 जीवादि नवतत्वों का स्वरुप समझने वाले जीव को सम्यक्त्व प्राप्त होता है ।
प्रश्न- 559 सम्यक्त्व प्राप्त होने का क्या फल है ?
जवाब- 559 जिन जीवों ने अंतर्मुहूर्त मात्र भी सम्यक्त्व का स्पर्श कर लिया है, उनका संसारमें परिभ्रमण केवल अर्द्धपुद्गल परावर्तनकाल जितना ही शेष रहता है । अर्थात् अर्द्धपुद्गल परावर्तनकाल के अन्दर ही वह जीव अवश्यमेव सिद्धत्व को प्राप्त कर लेता है ।
प्रश्न- 560 पुद्गल परावर्तनकाल किसे कहते हैं ?
जवाब- 560 अनन्त उत्सर्पिणी तथा अनन्त अवसर्पिणी बीत जाने पर एक पुद्गल परावर्ततन काल होता है ।
प्रश्न- 561 नवतत्व जानने का सार क्या है ?
जवाब- 561 भव्य जीव इसका स्वाध्याय करके, जिनेश्वर प्ररुपित तत्व पर श्रद्धान करके विशुद्ध चारित्र पालन द्वारा मोक्ष को प्राप्त करें, यही नवतत्व के पठन-पाठन का सार है ।
नवतत्त्व प्रकरण प्रश्नोत्तरी
प्रश्न- 401 अनित्य भावना किसे कहते है ?
जवाब- 401 तन, धन, योवन, कुटुंब आदि सांसारिक पदार्थ अनित्य व अशाश्वत है । केवळ एक आत्मा ही नित्य है, इस प्रकार का विचार करना, अनित्य भावना है ।
प्रश्न- 402 अशरण भावना किसे कहते है ?
जवाब- 402 बलिष्ठ के पंजे में फंस जाने पर निर्बल का कोई रक्षक नहीं होता, उसी प्रकार आधि- व्याधि, जरा-मरण के घिर आने पर माता-पिता-धन-परिवार कोई रक्षक नहीं होता । केवळ जिनधर्म ही रक्षक होता है, ऐसा चिन्तन करना अशरण भावना है ।
प्रश्न- 403 संसार भावना से क्या अभिप्राय है ?
जवाब- 403 चतुर्गति रुप इस संसार में जन्म-जरा-मृत्यु के भीषण दुःख जीव भोगता है । स्व कर्मानुसार नरक, तिर्यंच, देव, मनुष्यादि गतियों में अपार दुःख झेलता है । जो जीव यहाँ माता के रुप में सम्बन्ध रखता है, वही किसी अन्य जन्म में पत्नी, पुत्री, बहिन आदि के रुप में परिवर्तित हो जाता है । निश्चय ही यह संसार विलक्षण, नश्वर तथा परिवर्तनशील है, इस प्रकारकी अनुप्रेक्षा करना, संसार भवना है ।
प्रश्न- 404 एकत्व भवना से क्या आशय है ?
जवाब- 404 जीव अकेला ही आया है और अकेला ही जायेगा । शुभाशुभ कर्मों का फल भी अकेला ही भोगेगा । दुःख के काल में उसका कोई मित्र-बंधु-बांधव सहयोग नहीं देगा, इसप्रकार अकेलेपन का अनुभव करना एकत्व भवना है ।
प्रश्न- 405 अन्यत्व भावना किसे कहते है ?
जवाब- 405 मैं चैतन्यमय आत्मा हूँ । माता-पिता आदि परिवार मुझसे भिन्न है । यह शरीर भी मुझसे अन्य है । इस प्रकार की विचारणा करना, अन्यत्व भावना है ।
प्रश्न- 406 अशुचित्व भावना किसे कहते है ?
जवाब- 406 यह शरीर औदारिक शरीर है, जिसका निर्माण रज और वीर्य के संयोग से हुआ है । इसमें से सदा अशुचि बहती रहती है । सुगंधित व स्वादिष्ट पदार्थ भी इसके संग से दुर्गंधित मलरुप हो जाता है । उपर से सुन्दर दिखाइ देने वाला यह शरीर केवल मांस पिंड है । किन्तु हे जीव । तु शुद्ध एवं पवित्र है । इस प्रकार की अनुप्रेक्षा अशुचि भावना है ।
प्रश्न- 407 आश्रव भावना किसे कहते है ?
जवाब- 407 आत्मा में मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय तथा अशुभ योग रुप आश्रव द्वारों से निरन्तर नूतन कर्मो का आगमन होता रहता है । इसी कर्मबंध के कारण आत्मा के जन्म-मरण का चक्र चलता रहता है । इस प्रकार का चिंतन करना, आश्रव भावना है ।
प्रश्न- 408 संवर भावना किसे कहते है ?
जवाब- 408 आश्रव मार्ग को रोकना ही संवर है अर्थात् संवृत आत्मा अशुभ कर्मों से संतप्त नहीं होता । संवर क्रियाओं का आचरण करता हुआ जीव सिद्ध पद का अधिकारी होता है, इस प्रकार का चिंतन करना संवर भावना है ।
प्रश्न- 409 निर्जरा भावना किसे कहते है ?
जवाब- 409 आत्मप्रदेशों से कर्माणुओं के एक-एक भाग का पृथक् होना, कर्मो का जीर्ण होकर निर्जरण हो जाना, निर्जरा है । बिना निर्जरा के जीव कर्म सम्बन्ध से मुक्त नहीं होता । निर्जरा ही विशिष्ट ज्ञान एवं आत्मशुद्धि का मुख्य साधन है, ऐसा चिन्तन करना निर्जरा भावना है ।
प्रश्न- 410 लोक स्वभाव भावना किसे कहते है ?
जवाब- 410 लोक क्या है ? उस की आकृति कैसी है ? आदि विचार करना लोकस्वभाव भावना है । दोनों हाथ कमर पर रखकर तथा दोनों पाँव फैलाकर खडे खडे हुए पुरुष की आकृति जैसा लोक है । इसमें जीव, धर्म, अधर्म, आकाश, पुद्गल तथा काल द्रव्य अवस्थित है । यह लोक द्रव्य से शाश्वत तथा पर्याय से अशाश्वत है । इस प्रकार षड्द्रव्यात्मक लोक की विचारणा लोकस्वभाव भावना है ।
प्रश्न- 411 बोधि दुर्लभ भावना किसे कहते है ?
जवाब- 411 अनादिकाल से जीव इस संसारचक्र में परिभ्रमण कर रहा है । इसने आर्य देश, मनुष्यभव, उत्तमकुल, दीर्घायु, स्वस्थ इन्द्रियाँ एवं ऐश्वर्य आदि वस्तुएँ प्राप्त की परंतु बोधि (सम्यक्त्व) को प्राप्त नहीं किया । ऋद्धिसंपन्न पदवियाँ भी प्राप्त हुई पर सम्यग्दर्शन प्राप्त न हुआ । इस प्रकार इस संसार में सबकुछ प्राप्त करना सरल है पर सम्यक्त्व बोधि को प्राप्त करना महादुर्लभ है, ऐसी विचारणा बोधिदुर्लभ भावना है ।
प्रश्न- 412 धर्मसाधक अरिहंत दुर्लभ (धर्म स्वाख्यात) भावना किसे कहते है ?
जवाब- 412 इस संसार में प्रत्येक वस्तु की प्राप्ति सुलभ है परंतु धर्म के साधक-स्थापक-उपदेशक अरिहंत प्रभु की प्राप्ति महादुर्लभ है । ऋद्धि-समृद्धि भवांतर में भी प्राप्त हो सकती है परंतु मोक्ष के साधनभूत श्रुत-चारित्ररुप धर्म के संस्थापक अरिहंत की प्राप्ति अत्यंत दुष्कर है । ऐसा चिन्तन करना धर्मसाधक अरिहंत दुर्लभ भावना है ।
प्रश्न- 413 किसे कौन सी भवना भाते हुए केवलज्ञान हुआ ?
जवाब- 413 1.अनित्य भावना भाते हुए – भरत चक्रवर्ती को ।
2.अशरण भावना भाते हुए – अनाथी मुनिको को ।
3.संसार भावना भाते हुए – जाली कुमार को ।
4.एकत्व भावना भाते हुए – नमि राजर्षि को ।
5.अन्यत्व भावना भाते हुए – मृगापुत्र को ।
6.अशुचि भावना भाते हुए – सनत्कुमार चक्रवर्ती को ।
7.आश्रव भावना भाते हुए – समुद्रपान मुनि को ।
8.संवर भावना भाते हुए – हरिकेशी मुनि को ।
9.निर्जरा भावना भाते हुए – अर्जुनमाली को ।
10.लोकस्वभाव भावना भाते हुए – शिव राजर्षि को ।
11.बोधि दुर्लभ भावना भाते हुए – ऋषभदेव के 98 पुत्रों को ।
12.अनित्य भावना भाते हुए – भरत चक्रवर्ती को ।
प्रश्न- 414 चारित्र किसे कहते है ?
जवाब- 414 चय यानि आठ कर्म का संचय-संग्रह, उसे रित्त अर्थात् रिक्त करे, उसे चारित्र कहते हैं । आत्मिक शुद्ध दशा में स्थिर रहने का प्रयत्न करना ही चारित्र है ।
प्रश्न- 415 चारित्र के कितने भेद है ?
जवाब- 415 पांचः- 1.सामायिक चारित्र 2.छेदोपस्थापनीय चारित्र 3.परिहार विशुद्धि चारित्र 4.सूक्ष्म संपराय चारित्र 5.यथाख्यात चारित्र ।
प्रश्न- 416 सामायिक चारित्र किसे कहते है ?
जवाब- 416 सम् – समता भावों का, आय – लाभ हो जिस में, वह सामायिक है । समभाव में स्थित रहने के लिये संपूर्ण अशुद्ध या सावद्य प्रवृत्तियों का त्याग करना सामीयिक चारित्र है ।
प्रश्न- 417 छोदोपस्थापनिय छारित्र किसे कहते है ?
जवाब- 417 पूर्व चारित्र पर्याय का छेद करके पुनः महाव्रतों का आरोपण जिसमें किया जाता है, उसे छेदोपस्थापनिय चारित्र कहते है ।
प्रश्न- 418 परिहार विशुद्धि चारित्र किसे कहते है ?
जवाब- 418 परिहार – त्याग या तपश्चर्या विशेष । जिस चारित्र में तप विशेष से कर्म निर्जरा रुप शुद्धि होती है, उसे परिहार विशुद्धि चारित्र कहते है ।
प्रश्न- 419 सूक्ष्म संपराय चारित्र किसे कहते है ?
जवाब- 419 सूक्ष्म अर्थात् किट्टि रुप (चूर्ण रुप) अति जघन्य संपराय – बादर लोभ कषाय के क्षयवाला जो चारित्र है, वह सूक्ष्म संपराय चारित्र कहलाता है ।
प्रश्न- 420 यथाख्यात चारित्र किसे कहते है ?
जवाब- 420 कषाय उदय का सर्वथा अभाव होने से अतिचार रहित एवं पारमार्थिक रुप से विशुद्ध एवं प्रसिद्ध चारित्र यथाख्यात चारित्र है ।
प्रश्न- 421 यथाख्यात चारित्र के कितने भेद है ?
जवाब- 421 दो – 1.छद्मस्थ यथाख्यात 2.केवली यथाख्यात ।
प्रश्न- 422 छद्मस्थ यथाख्यात चारित्र के कितने भेद हैं ?
जवाब- 422 दो – 1.उपशांत मोह यथाख्यात 2.क्षीण मोह यथाख्यात ।
प्रश्न- 423 उपशांत मोह यथाख्यात चारित्र किसे कहते है ?
जवाब- 423 ग्यारहवे गुणस्थानक में मोहनीय कर्म के उदय का सर्वथा अभाव हो जाता है और यह कर्म सत्ता में होता है, उस समय का चारित्र उपशांत मोह यथाख्यात चारित्र कहलाता है ।
प्रश्न- 424 क्षीण मोह यथाख्यात चारित्र किसे कहते है ?
जवाब- 424 12वें, 13वें, 14वें गुणस्थानक में मोहनीय कर्म का सर्वथा क्षय हो जाने के कारण उनका चारित्र क्षीण मोह यथाख्यात चारित्र कहलाता है ।
प्रश्न- 425 छद्मस्थ यथाख्यात चारित्र किसे कहते है ?
जवाब- 425 11वें, 12वें गुणस्थानक में उपरोक्त दोनों प्रकार का चारित्र छद्मस्थ यथाख्यात चारित्र कहलाता है ।
प्रश्न- 426 केवली यथाख्यात चारित्र किसे कहते है ?
जवाब- 426 केवलज्ञानी के चारित्र को केवली यथाख्यात चारित्र कहते है ।
प्रश्न- 427 निर्जरा किसे कहते है ?
जवाब- 427 आत्मा पर लगे हुए कर्मरुपी मल का देशतः दूर होना निर्जरा है । अथवा जीव रुपी कपडे पर लगे हुए कर्मरुपी मेल को ज्ञान रुपी पानी, तप संयम रुपी साबुन से धोकर दूर करना भी निर्जरा कहलाता है ।
प्रश्न- 428 निर्जरा के दो भेद कौन से है ?
जवाब- 428 1. सकाम निर्जरा 2. अकाम निर्जरा ।
प्रश्न- 429 अकाम निर्जरा किसे कहते है ?
जवाब- 429 सर्वज्ञ कथित तत्त्वज्ञान के प्रति अल्पांश रुप से भी अप्रतीति वाले जीव-अज्ञानी तपस्वियों की अज्ञानभरी कष्टदायी क्रियाएँ तथा पृथ्वी, वनस्पति पंच स्थावर काय जो सर्दी-गर्मी को सहन करते हैं, उन सबसे जो निर्जरा होती है, वह अकाम निर्जरा कहलाती है ।
प्रश्न- 430 सकाम निर्जरा किसे कहते है ?
जवाब- 430 आत्मिक गुणों को पैदा करने के लक्ष्य से जिस धर्मानुष्ठान का आचरण-सेवन किया जाय अर्थात् अविरत सम्यग्द्रष्टि जीव, देशविरत श्रावक तथा सर्वविरत मुनि महात्मा, जिन्होंने सर्वज्ञोक्त तत्त्व को जाना है और उसके परिणाम स्वरुप जो धर्माचरण किया है, उनके द्वारा होने वाली निर्जरा सकाम निर्जरा है ।
प्रश्न- 431 निर्जरा के सामान्यतः कितने भेद है ?
जवाब- 431 बारह भेद है – 1.छह बाह्य तप तथा 2.छह अभ्यंतर तप ।
प्रश्न- 432 बाह्यतप किसे कहते है ?
जवाब- 432 जिस तप को मिथ्याद्रष्टि भी करते है, जिस तपश्चर्या को करते देख लोग उन्हें तपस्वी कहते हैं, जो दिखने में आता है, शरीर को तपाता है, उसे बाह्य तप कहते है ।
प्रश्न- 433 छह बाह्य तप कौन कौन से है ?
जवाब- 433 1,अनशन 2.ऊनोदरी 3.वृत्तिसंक्षेप 4.रसपरित्याग 5.कायक्लेश 6.प्रतिसंलिनता ।
प्रश्न- 434 अनशन किसे कहते है ?
जवाब- 434 अशन (अन्न), पान (पानी), खादिम (फल,मेवा आदि), स्वादिम (मुखवास), इन चारों प्रकार के आहार का त्याग करना अथवा पानी के सिवाय तीन आहार का त्याग करना अनशन कहलाता है ।
प्रश्न- 435 ऊणोदरी किसे कहते है ?
जवाब- 435 भोजन आदि के परिमाण को थोडा कम करना अर्थात् जितनी इच्छा हो, उससे कुछ कम खाना ऊणोदरी है । ऊन – कम (न्यून), उदरी उदरपूर्ति करना, उणोदरी कहलाता है ।
प्रश्न- 436 वृत्तिसंक्षेप किसे कहते है ?
जवाब- 436 द्रव्यादि चार भेदों से मनोवृत्ति का संक्षेप अर्थात् द्रव्य-क्षेत्र-काल तथा भाव से भिक्षा का अभिग्रह करना वृत्ति संक्षेप है । अभिग्रहपूर्वक भिक्षा लेने से वृत्ति का संकोच होता है । इसका अपर नाम भिक्षाचरी भी है ।
प्रश्न- 437 रस त्याग किसे कहते है ?
जवाब- 437 विकार वर्धक दूध, दहीं, घी आदि विगई तथा प्रणीत रस, गरिष्ठ आहार का त्याग करना, रस परित्याग है ।
प्रश्न- 438 रसत्याग के कितने भेद है ?
जवाब- 438 नौ भेद हैं – 1.विगई त्याग – घृत, तेल, दूध-दही आदि विकार वर्धक वस्तुओं का त्याग करना ।
2. प्रणीत रस त्याग – जिसमें घी, दूध आदि की बूंदे टपक रही हो एसे आहार का त्याग करना ।
3. आयंबिल – लूखी रोटी, उबला धान्य तथा भूने चने आदि का आहार करना ।
4. आयाम सिक्थभोजी – चावल आदि के पानी में पडे हुए धान्य आदि का आहार करना ।
5. अरसाहार – नमक, मिर्च आदि मसालों के बिना रस रहित आहार करना ।
6. विरसाहार – जिनका रस चला गया हो, ऐसे पुराने धान्य या भात आदि का आहार करना ।
7. अन्ताहार – जघन्य अर्थात् हलका, जिसे गरिब लोग खाते है, ऐसा आहार लेना ।
8. प्रान्ताहार – बचा हुआ आहार लेना ।
9. रुक्षाहार – रुखा-सुखा, जीभ को अप्रिय लगनेवाला आहार करना ।
प्रश्न- 439 विगई किसे कहते है ?
जवाब- 439 विगई अर्थात् विकृति । जिससे मन में विकार बढे, उस आहार को विगई कहते हैं ।
प्रश्न- 440 विगई के कितने भेद है ?
जवाब- 440 दो – 1.लघु विगई 2.महा विगई ।
प्रश्न- 441 लघु विगई से क्या तात्पर्य है ?
जवाब- 441 दूध-दही, घी-तेल, गुड-कडाई (तली हुई वस्तु) इन छह को लघु विगई कहते हैं । इनका यथा योग्य त्याग करना चाहिए ।
प्रश्न- 442 महा विगई किसे कहते है ?
जवाब- 442 जो सर्वथा त्याज्य हो, उसे महाविगई कहते है । मदिरा, माँस, शहद, मक्खन ये चार महाविगई हैं ।
प्रश्न- 443 कायक्लेश किसे कहते है ?
जवाब- 443 काया को क्लेश-कष्ट पहुँचाना कायक्लेश है । शरीर से कठोर साधना करना, वीरासन, पद्मासन आदि में बैठना, लोच करना, कायक्लेश तप कहलाता है ।
प्रश्न- 444 प्रतिसंलीनता तप किसे कहते है ?
जवाब- 444 प्रतिसंलीनता – संकोचन या गोपन करना । अशुभ मार्ग में प्रवर्तन करती हुई इन्द्रियों का योग आदि के द्वारा संवरण करना प्रतिसंलीनता तप कहलाता है ।
प्रश्न- 445 अभ्यंतर तप किसे कहते है ?
जवाब- 445 जिस तप का सम्बन्ध आत्मभाव से हो, जिससे बाह्य शरीर नहीं तपता परंतु आत्मा तथा मन तपते हैं, जो अंतरंग प्रवृत्तिवाला है, उसे आभ्यंतर तप कहते है ।
प्रश्न- 446 आभ्यंतर तप के कितने भेद है ?
जवाब- 446 छह –1.प्रायश्चित 2.विनय 3.वैयावृत्य 4.स्वाध्याय 5.ध्यान 6.कायोत्सर्ग ।
प्रश्न- 447 प्रायश्चित तप किसे कहते है ?
जवाब- 447 किये हुए अपराध की शुद्धि करना प्रायश्चित तप कहलाता है ।
प्रश्न- 448 विनय तप किसे कहते है ?
जवाब- 448 जिसके द्वारा आत्मा से हुए कर्म रुपी मल को हटाया जा सके, अथवा गुणवान की भक्ति-बहुमान करना, अशातना न करना विनय तप कहलाता है ।
प्रश्न- 449 वैयावृत्य तप किसे कहते है ?
जवाब- 449 गुरुजनों की सेवा-शुश्रूषा करना वैयावृत्य तप है ।
प्रश्न- 450 स्वाध्याय तप किसे कहते है ?
जवाब- 450 अस्वाध्याय काल टालकर मर्यादापूर्वक शास्त्रों का अध्ययन- अध्यापन आदि करना स्वाध्याय तप है ।
प्रश्न- 451 स्वाध्याय तप के कितने भेद हैं ?
जवाब- 451 पांच – 1.वांचना 2.पृछना 3.परावर्तना 4.अनुप्रेक्षा 5.धर्मकथा ।
प्रश्न- 452 वांचना किसे कहते है ?
जवाब- 452 सूत्र-अर्थ पढना तथा शिष्यको पढाना वांचना है ।
प्रश्न- 453 पृछना किसे कहते है ?
जवाब- 453 वांचना ग्रहण करके उसमे शंका होने पर पुनः प्रश्न पूछकर शंका का समाधन करना पृछना है ।
प्रश्न- 454 परावर्तना किसे कहते है ?
जवाब- 454 पढे हुए की पुनरावृत्ति करना, परावर्तना है ।
प्रश्न- 455 अनुप्रेक्षा किसे कहते है ?
जवाब- 455 धारण किये हुए अर्थ पर बार बार मनन करना,विचार करना अनुप्रेक्षा है ।
प्रश्न- 456 धर्मकथा किसे कहते है ?
जवाब- 456 उपरोक्त चारों प्रकार से शास्त्र का अभ्यास करने पर श्रोताओं को धर्मोपदेश देना धर्मकथा है ।
प्रश्न- 457 ध्यान किसे कहते है ?
जवाब- 457 एक लक्ष्य पर चित्त को एकाग्र करना ध्यान है ।
प्रश्न- 458 ध्यान के कितने भेद हैं ?
जवाब- 458 दो – 1.शुभ ध्यान 2.अशुभ ध्यान ।
प्रश्न- 459 शुभ ध्यान किसे कहते है ?
जवाब- 459 जो ध्यान आत्मशुद्धि करने में सहायक बने, वह शुभ ध्यान है । इसके 2 भेद हैं – 1.धर्मध्यान 2.शुक्लध्यान । ये दोनो आभ्यंतर तप होने से इनका समावेश निर्जरा तत्व में किया गया है ।
प्रश्न- 460 अशुभ ध्यान किसे कहते है ?
जवाब- 460 जो रौद्र परिणाम वाला हो, संसार वृद्धिकारक हो, वह अशुभ ध्यान है । इसके भी 2 भेद हैं – 1.आर्तध्यान 2.रौद्रध्यान । ये दोनों निर्जरा तत्व में सम्मिलित नहीं है ।
प्रश्न- 461 आर्तध्यान किसे कहते है ?
जवाब- 461 आर्त-दुःख के निमित्त से या भावी दुःख की आशंका से होने वाला ध्यान आर्तध्यान है ।
प्रश्न- 462 आर्तध्यान के कितने लिंग (चिह्न) हैं ?
जवाब- 462 चार – 1.आक्रन्दन – उंचे स्वर से रोना, चिल्लाना, 2.शोचन – शोकग्रस्त होना, 3.परिवेदन – रोने के साथ मस्तक, छाती, सिर आदि पीटना तथा अनर्थकारी शब्दों का उच्चारण करना, 4.तेपन – टप टप आंसु गिराना ।
प्रश्न- 463 आर्तध्यान में कोनसे आयुष्य का बंध होता है ?
जवाब- 463 तिर्यंचायपष्य ।
प्रश्न- 464 रौद्र ध्यान किसे कहते है ?
जवाब- 464 क्रोध की परिणति या क्रूरता के भाव जिसमें रहे हो, दूसरों को मारने, पीटने, ठगने एवं दुःखी करने की भावना जिसमें हो, वह रौद्र ध्यान है ।
प्रश्न- 465 रौद्र ध्यान के कितने भेद है ?
जवाब- 465 चार – 1.हिंसानुबन्धी- प्राणियों की हिंसा का विचार करना, 2.मृषानुबंधी-झूठ बोलने का चिन्तन करना, 3.स्तेयानुबंधी- चोरी करने का चिन्तन करना, 4.संरक्षणानुबंधी – धनादि परिग्रह के रक्षण के लिये चिंता करना ।
प्रश्न- 466 रौद्र ध्यान के कितने लक्षण है ?
जवाब- 466 चार- 1.ओसन्न दोष- हिंसा आदि दोषों में से किसी एक दोष में अधिक प्रवृत्ति करना, 2.बाहुल्य दोष- हिंसा आदि अनेक दोषों में प्रवृत्ति करना, 3.अज्ञान दोष- अज्ञान से अधर्म स्वरुप हिंसा में धर्म बुद्धि से प्रवृत्ति करना, 4.अमरणान्त दोष- मरणपर्यंत हिंसादि क्रूर कार्यो में प्रवृत्ति करना ।
प्रश्न- 467 रौद्र ध्यान में यदि आयुष्य बंध हो तो कौन सा आयुष्य बंध होता है ?
जवाब- 467 रौद्र परिणाम होने से नरकायुष्य का बंध होता है ।
प्रश्न- 468 धर्मध्यान किसे कहते है ?
जवाब- 468 धर्म-जिनेश्वर परमात्मा की आज्ञा तथा पदार्थ के स्वरुप के पर्यालोचन में मन को एकाग्र करना धर्मध्यान है ।
प्रश्न- 469 धर्मध्यान के कितने भेद है ?
जवाब- 469 चार- 1.आज्ञाविचय- वीतराग की आज्ञा कों सत्य मनाकर उस पर पूर्ण श्रद्धा रखना, 2.अपायविजय- राग-द्वेष संसार में अपाय कष्टभूत है, ऐसा विचार करना, 3.विपाक विचय- सुख दुःख पूर्व कर्म का विपाक है, इस पर कर्म विषयक चिंतन करना, 4.संस्थान विचय- षड् द्रव्यात्मक लोक के स्वरुप का चिंतन करना ।
प्रश्न- 470 धर्मध्यान में किस आयुष्य का बंध होता है ?
जवाब- 470 धर्मध्यान में यदि जीव आयुष्य बांधे तो देवायुष्य का बंध होता है ।
प्रश्न- 471 शुक्ल ध्यान किसे कहते है ?
जवाब- 471 पूर्व विषयक श्रुत के आधार पर घाती कर्मों को नष्ट कर आत्मा को विशेष रुप से शुक्ल-स्वच्छ-धवल-निर्मल करने वाला ध्यान अथवा मनकी अत्यंत स्थिरता और योग का निरोध करने वाला परम ध्यान शुक्लध्यान कहलाता है ।
प्रश्न- 472 शुक्लध्यान के लक्षण कौन कौन से हैं ?
जवाब- 472 शुक्लध्यान के 4 लक्षण निम्न हैं-
1. अव्यथ- देवादि के उपसर्ग से चलित नहीं होना ।
2. असंमोह- देवादि कृत छलना या गहन विषयों में सम्मोह नहीं होना ।
3. विवेक- आत्मा को देह तथा समस्त सांसारिक संयोगो से भिन्न मानना ।
4. व्युत्सर्ग- निःसंगता से देह और उपधि का त्याग करना ।
प्रश्न- 473 शुक्लध्यान से कौन सी गति प्राप्त होती है ?
जवाब- 473 शुक्लध्यान से पंचम सिद्धगति अर्थात् मोक्ष प्राप्त होता है ।
प्रश्न- 474 कायोत्सर्ग तप किसे कहते है ?
जवाब- 474 काया के व्यापार का त्याग करना कायोत्सर्ग तप है । इसका अपर नाम व्युत्सर्ग भी है ।
प्रश्न- 475 बंध किसे कहते है ?
जवाब- 475 कर्म पुद्गलो तथा आत्माका परस्पर नीर-क्षीरवत् सम्बन्ध बन्ध कहलाता है अथवा शुभाशुभ योगों तथा कषाय आदि परिणामों द्वारा कर्मवर्गणाओं का आत्मप्रदेशों से दूध-शक्कर के समान एकमेक हो जाना, बन्ध है ।
प्रश्न- 476 बंध के कितने भेद है ?
जवाब- 476 चार 1.प्रकृति बंध 2.स्थितिबंध 3.रसबंध(अनुभाग बंध) 4.प्रदेशबंध ।
प्रश्न- 477 प्रकृतिबंध किसे कहते है ?
जवाब- 477 प्रकृति अर्थात् स्वभाव । जीव द्वारा ग्रहण किये गए कर्मपुद्गलों में अच्छे-बुरे विभिन्न स्वभावों का उत्पन्न होना, प्रकृतिबंध है ।
प्रश्न- 478 स्थितिबंध किसे कहते है ?
जवाब- 478 स्थिति-कलावधि । आत्मप्रदेशों पर आये हुए कर्मों की वहाँ रहने की कलावधि स्थितिबंध है अथवा जीव द्वारा ग्रहण किये हुए कर्म पुद्गलों का अपने स्वभाव को न छोडते हुए अमुक काल तक जीव के साथ लगे रहने की कालमर्यादा स्थिति बंध है ।
प्रश्न- 479 अनुभाग (रस) बंध किसे कहते है ?
जवाब- 479 जीव के द्वारा ग्रहण किये हुए कर्मपुद्गलों में फल देने की न्यूनाधिक शक्ति को अनुभाग बन्ध कहते है ।
प्रश्न- 480 प्रदेश बंध किसे कहते है ?
जवाब- 480 जीव के साथ न्यूनाधिक परमाणुवाले कर्म-स्कंधों का सम्बन्ध होना प्रदेश बंध है ।
प्रश्न- 481 आठ कर्मों का बन्ध कितने प्रकार के होता है ?
जवाब- 481 चारों प्रकार से ।
प्रश्न- 482 इस लोक में जीव के ग्रहण योग्य कितनी वर्गणाएँ है ?
जवाब- 482 आठ- 1.औदारिक 2.वैक्रिय 3.आहारक 4.तैजस 5.श्वासोच्छवास 6.भाषा 7.मन 8.कार्मण ।
प्रश्न- 483 वर्गणा किसे कहते है ?
जवाब- 483 एक समान संख्यावाले परमाणुओं के बने हुए अनेक स्कंध वर्गणा कहलाते है ।
प्रश्न- 484 जीव एक समय में कितनी वर्गणा ग्रहण करता है ?
जवाब- 484 अनन्त वर्गणाओं के बने हुए अनन्त स्कंधो को जीव एक समय में ग्रहण करता है ।
प्रश्न- 485 औदारिक वर्गणा किसे कहते है ?
जवाब- 485 औदारिक शरीर रुप में परिणमित होनेवाले पुद्गल समूह को औदरिक वर्गणा कहते है ।
प्रश्न- 486 वैक्रिय वर्गणा किसे कहते है ?
जवाब- 486 वैक्रेय शरीर रुप बननेवाला पुद्गल समूह वैक्रिय वर्गणा है ।
प्रश्न- 487 आहारक वर्गणा किसे कहते है ?
जवाब- 487 जो पुद्गल आहारक शरीर रुप में परिणमे, उसे आहारक वर्गणा कहते है ।
प्रश्न- 488 तैजस वर्गणा किसे कहते है ?
जवाब- 488 औदारिक तथा वैक्रिय शरीर को क्रांति देनेवाला और आहार पचानेवाला पुद्गल समूह तैजस वर्गणा कहलाती है ।
प्रश्न- 489 भाषा वर्गणा किसे कहते है ?
जवाब- 489 जो वर्गणा शब्द रुप में परिणमित हो, उसे भाषा वर्गणा कहते है ।
प्रश्न- 490 श्वासोच्छवास, मन तथा कार्मणवर्गणा किसे कहते है ?
जवाब- 490 जो पुद्गल समूह श्वासोच्छवास, मन तथा कर्मरुप में परिणमित होते हैं, उन्हें शवासोच्छवास, मन तथा कार्मण वर्गणा कहते है ।
प्रश्न- 491 रसबन्ध के कितने भेद है ?
जवाब- 491 चार- 1.एक स्थानिक 2.द्विस्थानिक 3.त्रिस्थानिक 4.चतुःस्थानिक ।
प्रश्न- 492 एकस्थानिक रसबन्ध किसे कहते है ?
जवाब- 492 गन्ने या नीम के स्वाभाविक रस के समान कर्म का एकस्थानिक रसबन्ध होता है । उस में फल देने की शक्ति कम होती है ।
प्रश्न- 493 द्विस्थानिक रसबन्ध किसे कहते है ?
जवाब- 493 गन्ने या नीम के रस को उबालकर आधा जलाने पर आधा शेष रहता है, उसके समान द्विस्थानिक रसबन्ध होता है । पहले से इसमें ज्यादा फल देने की शक्ति होती है ।
प्रश्न- 494 त्रिस्थानिक रसबन्ध किसे कहते है ?
जवाब- 494 गन्ने या नीम के रस को उबालकर 2-3 भाग जालाने पर 1-3 भाग शेष रहता है । उसके समान त्रिस्थानिक रसबन्ध होता है । इसमें फल देने की शक्ति दूसरे से ज्यादा होती है ।
प्रश्न- 495 चतुःस्थानिक रसबन्ध किसे कहते है ?
जवाब- 495 गन्ने या नीम के रस को 3-4 जलाने पर 1-4 भाग शेष रहता है । उसेके समान चतुःस्थानिक रसबन्ध होता है । उस में सबसे ज्यादा फल देने की शक्ति होती है ।
प्रश्न- 496 शुभ प्रकृतिओं का रस किसके समान होता है ?
जवाब- 496 शुभ प्रकृतिओं का रस गन्ने के समान मधुर होने से जीव को आह्लादकारी होता है ।
प्रश्न- 497 अशुभ प्रकृतिओं का रस किसके समान होता है ?
जवाब- 497 अशुभ प्रकृतिओं का रस नीम के समान कडवा होता है, जो जीव को पीडाकारी होता है ।
प्रश्न- 498 शुभ (पुण्य) प्रकृति का मंद रस कैसे बंधता है ?
जवाब- 498 संक्लेश के द्वारा ।
प्रश्न- 499 संक्लेश किसे कहते है ?
जवाब- 499 अनुकूल पदार्थो में राग तथा प्रतिकूल पदार्थों में द्वेष के परिणाम स्वरुप जिस तीव्र कषाय का उदय होता है, उसे संक्लेश कहते है ।
प्रश्न- 500 शुभ (पुण्य) प्रकृति में तीव्र रस कैसे बंधता है ?
जवाब- 500 परिणाम की विशुद्धि के द्वारा ।
जवाब- 401 तन, धन, योवन, कुटुंब आदि सांसारिक पदार्थ अनित्य व अशाश्वत है । केवळ एक आत्मा ही नित्य है, इस प्रकार का विचार करना, अनित्य भावना है ।
प्रश्न- 402 अशरण भावना किसे कहते है ?
जवाब- 402 बलिष्ठ के पंजे में फंस जाने पर निर्बल का कोई रक्षक नहीं होता, उसी प्रकार आधि- व्याधि, जरा-मरण के घिर आने पर माता-पिता-धन-परिवार कोई रक्षक नहीं होता । केवळ जिनधर्म ही रक्षक होता है, ऐसा चिन्तन करना अशरण भावना है ।
प्रश्न- 403 संसार भावना से क्या अभिप्राय है ?
जवाब- 403 चतुर्गति रुप इस संसार में जन्म-जरा-मृत्यु के भीषण दुःख जीव भोगता है । स्व कर्मानुसार नरक, तिर्यंच, देव, मनुष्यादि गतियों में अपार दुःख झेलता है । जो जीव यहाँ माता के रुप में सम्बन्ध रखता है, वही किसी अन्य जन्म में पत्नी, पुत्री, बहिन आदि के रुप में परिवर्तित हो जाता है । निश्चय ही यह संसार विलक्षण, नश्वर तथा परिवर्तनशील है, इस प्रकारकी अनुप्रेक्षा करना, संसार भवना है ।
प्रश्न- 404 एकत्व भवना से क्या आशय है ?
जवाब- 404 जीव अकेला ही आया है और अकेला ही जायेगा । शुभाशुभ कर्मों का फल भी अकेला ही भोगेगा । दुःख के काल में उसका कोई मित्र-बंधु-बांधव सहयोग नहीं देगा, इसप्रकार अकेलेपन का अनुभव करना एकत्व भवना है ।
प्रश्न- 405 अन्यत्व भावना किसे कहते है ?
जवाब- 405 मैं चैतन्यमय आत्मा हूँ । माता-पिता आदि परिवार मुझसे भिन्न है । यह शरीर भी मुझसे अन्य है । इस प्रकार की विचारणा करना, अन्यत्व भावना है ।
प्रश्न- 406 अशुचित्व भावना किसे कहते है ?
जवाब- 406 यह शरीर औदारिक शरीर है, जिसका निर्माण रज और वीर्य के संयोग से हुआ है । इसमें से सदा अशुचि बहती रहती है । सुगंधित व स्वादिष्ट पदार्थ भी इसके संग से दुर्गंधित मलरुप हो जाता है । उपर से सुन्दर दिखाइ देने वाला यह शरीर केवल मांस पिंड है । किन्तु हे जीव । तु शुद्ध एवं पवित्र है । इस प्रकार की अनुप्रेक्षा अशुचि भावना है ।
प्रश्न- 407 आश्रव भावना किसे कहते है ?
जवाब- 407 आत्मा में मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय तथा अशुभ योग रुप आश्रव द्वारों से निरन्तर नूतन कर्मो का आगमन होता रहता है । इसी कर्मबंध के कारण आत्मा के जन्म-मरण का चक्र चलता रहता है । इस प्रकार का चिंतन करना, आश्रव भावना है ।
प्रश्न- 408 संवर भावना किसे कहते है ?
जवाब- 408 आश्रव मार्ग को रोकना ही संवर है अर्थात् संवृत आत्मा अशुभ कर्मों से संतप्त नहीं होता । संवर क्रियाओं का आचरण करता हुआ जीव सिद्ध पद का अधिकारी होता है, इस प्रकार का चिंतन करना संवर भावना है ।
प्रश्न- 409 निर्जरा भावना किसे कहते है ?
जवाब- 409 आत्मप्रदेशों से कर्माणुओं के एक-एक भाग का पृथक् होना, कर्मो का जीर्ण होकर निर्जरण हो जाना, निर्जरा है । बिना निर्जरा के जीव कर्म सम्बन्ध से मुक्त नहीं होता । निर्जरा ही विशिष्ट ज्ञान एवं आत्मशुद्धि का मुख्य साधन है, ऐसा चिन्तन करना निर्जरा भावना है ।
प्रश्न- 410 लोक स्वभाव भावना किसे कहते है ?
जवाब- 410 लोक क्या है ? उस की आकृति कैसी है ? आदि विचार करना लोकस्वभाव भावना है । दोनों हाथ कमर पर रखकर तथा दोनों पाँव फैलाकर खडे खडे हुए पुरुष की आकृति जैसा लोक है । इसमें जीव, धर्म, अधर्म, आकाश, पुद्गल तथा काल द्रव्य अवस्थित है । यह लोक द्रव्य से शाश्वत तथा पर्याय से अशाश्वत है । इस प्रकार षड्द्रव्यात्मक लोक की विचारणा लोकस्वभाव भावना है ।
प्रश्न- 411 बोधि दुर्लभ भावना किसे कहते है ?
जवाब- 411 अनादिकाल से जीव इस संसारचक्र में परिभ्रमण कर रहा है । इसने आर्य देश, मनुष्यभव, उत्तमकुल, दीर्घायु, स्वस्थ इन्द्रियाँ एवं ऐश्वर्य आदि वस्तुएँ प्राप्त की परंतु बोधि (सम्यक्त्व) को प्राप्त नहीं किया । ऋद्धिसंपन्न पदवियाँ भी प्राप्त हुई पर सम्यग्दर्शन प्राप्त न हुआ । इस प्रकार इस संसार में सबकुछ प्राप्त करना सरल है पर सम्यक्त्व बोधि को प्राप्त करना महादुर्लभ है, ऐसी विचारणा बोधिदुर्लभ भावना है ।
प्रश्न- 412 धर्मसाधक अरिहंत दुर्लभ (धर्म स्वाख्यात) भावना किसे कहते है ?
जवाब- 412 इस संसार में प्रत्येक वस्तु की प्राप्ति सुलभ है परंतु धर्म के साधक-स्थापक-उपदेशक अरिहंत प्रभु की प्राप्ति महादुर्लभ है । ऋद्धि-समृद्धि भवांतर में भी प्राप्त हो सकती है परंतु मोक्ष के साधनभूत श्रुत-चारित्ररुप धर्म के संस्थापक अरिहंत की प्राप्ति अत्यंत दुष्कर है । ऐसा चिन्तन करना धर्मसाधक अरिहंत दुर्लभ भावना है ।
प्रश्न- 413 किसे कौन सी भवना भाते हुए केवलज्ञान हुआ ?
जवाब- 413 1.अनित्य भावना भाते हुए – भरत चक्रवर्ती को ।
2.अशरण भावना भाते हुए – अनाथी मुनिको को ।
3.संसार भावना भाते हुए – जाली कुमार को ।
4.एकत्व भावना भाते हुए – नमि राजर्षि को ।
5.अन्यत्व भावना भाते हुए – मृगापुत्र को ।
6.अशुचि भावना भाते हुए – सनत्कुमार चक्रवर्ती को ।
7.आश्रव भावना भाते हुए – समुद्रपान मुनि को ।
8.संवर भावना भाते हुए – हरिकेशी मुनि को ।
9.निर्जरा भावना भाते हुए – अर्जुनमाली को ।
10.लोकस्वभाव भावना भाते हुए – शिव राजर्षि को ।
11.बोधि दुर्लभ भावना भाते हुए – ऋषभदेव के 98 पुत्रों को ।
12.अनित्य भावना भाते हुए – भरत चक्रवर्ती को ।
प्रश्न- 414 चारित्र किसे कहते है ?
जवाब- 414 चय यानि आठ कर्म का संचय-संग्रह, उसे रित्त अर्थात् रिक्त करे, उसे चारित्र कहते हैं । आत्मिक शुद्ध दशा में स्थिर रहने का प्रयत्न करना ही चारित्र है ।
प्रश्न- 415 चारित्र के कितने भेद है ?
जवाब- 415 पांचः- 1.सामायिक चारित्र 2.छेदोपस्थापनीय चारित्र 3.परिहार विशुद्धि चारित्र 4.सूक्ष्म संपराय चारित्र 5.यथाख्यात चारित्र ।
प्रश्न- 416 सामायिक चारित्र किसे कहते है ?
जवाब- 416 सम् – समता भावों का, आय – लाभ हो जिस में, वह सामायिक है । समभाव में स्थित रहने के लिये संपूर्ण अशुद्ध या सावद्य प्रवृत्तियों का त्याग करना सामीयिक चारित्र है ।
प्रश्न- 417 छोदोपस्थापनिय छारित्र किसे कहते है ?
जवाब- 417 पूर्व चारित्र पर्याय का छेद करके पुनः महाव्रतों का आरोपण जिसमें किया जाता है, उसे छेदोपस्थापनिय चारित्र कहते है ।
प्रश्न- 418 परिहार विशुद्धि चारित्र किसे कहते है ?
जवाब- 418 परिहार – त्याग या तपश्चर्या विशेष । जिस चारित्र में तप विशेष से कर्म निर्जरा रुप शुद्धि होती है, उसे परिहार विशुद्धि चारित्र कहते है ।
प्रश्न- 419 सूक्ष्म संपराय चारित्र किसे कहते है ?
जवाब- 419 सूक्ष्म अर्थात् किट्टि रुप (चूर्ण रुप) अति जघन्य संपराय – बादर लोभ कषाय के क्षयवाला जो चारित्र है, वह सूक्ष्म संपराय चारित्र कहलाता है ।
प्रश्न- 420 यथाख्यात चारित्र किसे कहते है ?
जवाब- 420 कषाय उदय का सर्वथा अभाव होने से अतिचार रहित एवं पारमार्थिक रुप से विशुद्ध एवं प्रसिद्ध चारित्र यथाख्यात चारित्र है ।
प्रश्न- 421 यथाख्यात चारित्र के कितने भेद है ?
जवाब- 421 दो – 1.छद्मस्थ यथाख्यात 2.केवली यथाख्यात ।
प्रश्न- 422 छद्मस्थ यथाख्यात चारित्र के कितने भेद हैं ?
जवाब- 422 दो – 1.उपशांत मोह यथाख्यात 2.क्षीण मोह यथाख्यात ।
प्रश्न- 423 उपशांत मोह यथाख्यात चारित्र किसे कहते है ?
जवाब- 423 ग्यारहवे गुणस्थानक में मोहनीय कर्म के उदय का सर्वथा अभाव हो जाता है और यह कर्म सत्ता में होता है, उस समय का चारित्र उपशांत मोह यथाख्यात चारित्र कहलाता है ।
प्रश्न- 424 क्षीण मोह यथाख्यात चारित्र किसे कहते है ?
जवाब- 424 12वें, 13वें, 14वें गुणस्थानक में मोहनीय कर्म का सर्वथा क्षय हो जाने के कारण उनका चारित्र क्षीण मोह यथाख्यात चारित्र कहलाता है ।
प्रश्न- 425 छद्मस्थ यथाख्यात चारित्र किसे कहते है ?
जवाब- 425 11वें, 12वें गुणस्थानक में उपरोक्त दोनों प्रकार का चारित्र छद्मस्थ यथाख्यात चारित्र कहलाता है ।
प्रश्न- 426 केवली यथाख्यात चारित्र किसे कहते है ?
जवाब- 426 केवलज्ञानी के चारित्र को केवली यथाख्यात चारित्र कहते है ।
प्रश्न- 427 निर्जरा किसे कहते है ?
जवाब- 427 आत्मा पर लगे हुए कर्मरुपी मल का देशतः दूर होना निर्जरा है । अथवा जीव रुपी कपडे पर लगे हुए कर्मरुपी मेल को ज्ञान रुपी पानी, तप संयम रुपी साबुन से धोकर दूर करना भी निर्जरा कहलाता है ।
प्रश्न- 428 निर्जरा के दो भेद कौन से है ?
जवाब- 428 1. सकाम निर्जरा 2. अकाम निर्जरा ।
प्रश्न- 429 अकाम निर्जरा किसे कहते है ?
जवाब- 429 सर्वज्ञ कथित तत्त्वज्ञान के प्रति अल्पांश रुप से भी अप्रतीति वाले जीव-अज्ञानी तपस्वियों की अज्ञानभरी कष्टदायी क्रियाएँ तथा पृथ्वी, वनस्पति पंच स्थावर काय जो सर्दी-गर्मी को सहन करते हैं, उन सबसे जो निर्जरा होती है, वह अकाम निर्जरा कहलाती है ।
प्रश्न- 430 सकाम निर्जरा किसे कहते है ?
जवाब- 430 आत्मिक गुणों को पैदा करने के लक्ष्य से जिस धर्मानुष्ठान का आचरण-सेवन किया जाय अर्थात् अविरत सम्यग्द्रष्टि जीव, देशविरत श्रावक तथा सर्वविरत मुनि महात्मा, जिन्होंने सर्वज्ञोक्त तत्त्व को जाना है और उसके परिणाम स्वरुप जो धर्माचरण किया है, उनके द्वारा होने वाली निर्जरा सकाम निर्जरा है ।
प्रश्न- 431 निर्जरा के सामान्यतः कितने भेद है ?
जवाब- 431 बारह भेद है – 1.छह बाह्य तप तथा 2.छह अभ्यंतर तप ।
प्रश्न- 432 बाह्यतप किसे कहते है ?
जवाब- 432 जिस तप को मिथ्याद्रष्टि भी करते है, जिस तपश्चर्या को करते देख लोग उन्हें तपस्वी कहते हैं, जो दिखने में आता है, शरीर को तपाता है, उसे बाह्य तप कहते है ।
प्रश्न- 433 छह बाह्य तप कौन कौन से है ?
जवाब- 433 1,अनशन 2.ऊनोदरी 3.वृत्तिसंक्षेप 4.रसपरित्याग 5.कायक्लेश 6.प्रतिसंलिनता ।
प्रश्न- 434 अनशन किसे कहते है ?
जवाब- 434 अशन (अन्न), पान (पानी), खादिम (फल,मेवा आदि), स्वादिम (मुखवास), इन चारों प्रकार के आहार का त्याग करना अथवा पानी के सिवाय तीन आहार का त्याग करना अनशन कहलाता है ।
प्रश्न- 435 ऊणोदरी किसे कहते है ?
जवाब- 435 भोजन आदि के परिमाण को थोडा कम करना अर्थात् जितनी इच्छा हो, उससे कुछ कम खाना ऊणोदरी है । ऊन – कम (न्यून), उदरी उदरपूर्ति करना, उणोदरी कहलाता है ।
प्रश्न- 436 वृत्तिसंक्षेप किसे कहते है ?
जवाब- 436 द्रव्यादि चार भेदों से मनोवृत्ति का संक्षेप अर्थात् द्रव्य-क्षेत्र-काल तथा भाव से भिक्षा का अभिग्रह करना वृत्ति संक्षेप है । अभिग्रहपूर्वक भिक्षा लेने से वृत्ति का संकोच होता है । इसका अपर नाम भिक्षाचरी भी है ।
प्रश्न- 437 रस त्याग किसे कहते है ?
जवाब- 437 विकार वर्धक दूध, दहीं, घी आदि विगई तथा प्रणीत रस, गरिष्ठ आहार का त्याग करना, रस परित्याग है ।
प्रश्न- 438 रसत्याग के कितने भेद है ?
जवाब- 438 नौ भेद हैं – 1.विगई त्याग – घृत, तेल, दूध-दही आदि विकार वर्धक वस्तुओं का त्याग करना ।
2. प्रणीत रस त्याग – जिसमें घी, दूध आदि की बूंदे टपक रही हो एसे आहार का त्याग करना ।
3. आयंबिल – लूखी रोटी, उबला धान्य तथा भूने चने आदि का आहार करना ।
4. आयाम सिक्थभोजी – चावल आदि के पानी में पडे हुए धान्य आदि का आहार करना ।
5. अरसाहार – नमक, मिर्च आदि मसालों के बिना रस रहित आहार करना ।
6. विरसाहार – जिनका रस चला गया हो, ऐसे पुराने धान्य या भात आदि का आहार करना ।
7. अन्ताहार – जघन्य अर्थात् हलका, जिसे गरिब लोग खाते है, ऐसा आहार लेना ।
8. प्रान्ताहार – बचा हुआ आहार लेना ।
9. रुक्षाहार – रुखा-सुखा, जीभ को अप्रिय लगनेवाला आहार करना ।
प्रश्न- 439 विगई किसे कहते है ?
जवाब- 439 विगई अर्थात् विकृति । जिससे मन में विकार बढे, उस आहार को विगई कहते हैं ।
प्रश्न- 440 विगई के कितने भेद है ?
जवाब- 440 दो – 1.लघु विगई 2.महा विगई ।
प्रश्न- 441 लघु विगई से क्या तात्पर्य है ?
जवाब- 441 दूध-दही, घी-तेल, गुड-कडाई (तली हुई वस्तु) इन छह को लघु विगई कहते हैं । इनका यथा योग्य त्याग करना चाहिए ।
प्रश्न- 442 महा विगई किसे कहते है ?
जवाब- 442 जो सर्वथा त्याज्य हो, उसे महाविगई कहते है । मदिरा, माँस, शहद, मक्खन ये चार महाविगई हैं ।
प्रश्न- 443 कायक्लेश किसे कहते है ?
जवाब- 443 काया को क्लेश-कष्ट पहुँचाना कायक्लेश है । शरीर से कठोर साधना करना, वीरासन, पद्मासन आदि में बैठना, लोच करना, कायक्लेश तप कहलाता है ।
प्रश्न- 444 प्रतिसंलीनता तप किसे कहते है ?
जवाब- 444 प्रतिसंलीनता – संकोचन या गोपन करना । अशुभ मार्ग में प्रवर्तन करती हुई इन्द्रियों का योग आदि के द्वारा संवरण करना प्रतिसंलीनता तप कहलाता है ।
प्रश्न- 445 अभ्यंतर तप किसे कहते है ?
जवाब- 445 जिस तप का सम्बन्ध आत्मभाव से हो, जिससे बाह्य शरीर नहीं तपता परंतु आत्मा तथा मन तपते हैं, जो अंतरंग प्रवृत्तिवाला है, उसे आभ्यंतर तप कहते है ।
प्रश्न- 446 आभ्यंतर तप के कितने भेद है ?
जवाब- 446 छह –1.प्रायश्चित 2.विनय 3.वैयावृत्य 4.स्वाध्याय 5.ध्यान 6.कायोत्सर्ग ।
प्रश्न- 447 प्रायश्चित तप किसे कहते है ?
जवाब- 447 किये हुए अपराध की शुद्धि करना प्रायश्चित तप कहलाता है ।
प्रश्न- 448 विनय तप किसे कहते है ?
जवाब- 448 जिसके द्वारा आत्मा से हुए कर्म रुपी मल को हटाया जा सके, अथवा गुणवान की भक्ति-बहुमान करना, अशातना न करना विनय तप कहलाता है ।
प्रश्न- 449 वैयावृत्य तप किसे कहते है ?
जवाब- 449 गुरुजनों की सेवा-शुश्रूषा करना वैयावृत्य तप है ।
प्रश्न- 450 स्वाध्याय तप किसे कहते है ?
जवाब- 450 अस्वाध्याय काल टालकर मर्यादापूर्वक शास्त्रों का अध्ययन- अध्यापन आदि करना स्वाध्याय तप है ।
प्रश्न- 451 स्वाध्याय तप के कितने भेद हैं ?
जवाब- 451 पांच – 1.वांचना 2.पृछना 3.परावर्तना 4.अनुप्रेक्षा 5.धर्मकथा ।
प्रश्न- 452 वांचना किसे कहते है ?
जवाब- 452 सूत्र-अर्थ पढना तथा शिष्यको पढाना वांचना है ।
प्रश्न- 453 पृछना किसे कहते है ?
जवाब- 453 वांचना ग्रहण करके उसमे शंका होने पर पुनः प्रश्न पूछकर शंका का समाधन करना पृछना है ।
प्रश्न- 454 परावर्तना किसे कहते है ?
जवाब- 454 पढे हुए की पुनरावृत्ति करना, परावर्तना है ।
प्रश्न- 455 अनुप्रेक्षा किसे कहते है ?
जवाब- 455 धारण किये हुए अर्थ पर बार बार मनन करना,विचार करना अनुप्रेक्षा है ।
प्रश्न- 456 धर्मकथा किसे कहते है ?
जवाब- 456 उपरोक्त चारों प्रकार से शास्त्र का अभ्यास करने पर श्रोताओं को धर्मोपदेश देना धर्मकथा है ।
प्रश्न- 457 ध्यान किसे कहते है ?
जवाब- 457 एक लक्ष्य पर चित्त को एकाग्र करना ध्यान है ।
प्रश्न- 458 ध्यान के कितने भेद हैं ?
जवाब- 458 दो – 1.शुभ ध्यान 2.अशुभ ध्यान ।
प्रश्न- 459 शुभ ध्यान किसे कहते है ?
जवाब- 459 जो ध्यान आत्मशुद्धि करने में सहायक बने, वह शुभ ध्यान है । इसके 2 भेद हैं – 1.धर्मध्यान 2.शुक्लध्यान । ये दोनो आभ्यंतर तप होने से इनका समावेश निर्जरा तत्व में किया गया है ।
प्रश्न- 460 अशुभ ध्यान किसे कहते है ?
जवाब- 460 जो रौद्र परिणाम वाला हो, संसार वृद्धिकारक हो, वह अशुभ ध्यान है । इसके भी 2 भेद हैं – 1.आर्तध्यान 2.रौद्रध्यान । ये दोनों निर्जरा तत्व में सम्मिलित नहीं है ।
प्रश्न- 461 आर्तध्यान किसे कहते है ?
जवाब- 461 आर्त-दुःख के निमित्त से या भावी दुःख की आशंका से होने वाला ध्यान आर्तध्यान है ।
प्रश्न- 462 आर्तध्यान के कितने लिंग (चिह्न) हैं ?
जवाब- 462 चार – 1.आक्रन्दन – उंचे स्वर से रोना, चिल्लाना, 2.शोचन – शोकग्रस्त होना, 3.परिवेदन – रोने के साथ मस्तक, छाती, सिर आदि पीटना तथा अनर्थकारी शब्दों का उच्चारण करना, 4.तेपन – टप टप आंसु गिराना ।
प्रश्न- 463 आर्तध्यान में कोनसे आयुष्य का बंध होता है ?
जवाब- 463 तिर्यंचायपष्य ।
प्रश्न- 464 रौद्र ध्यान किसे कहते है ?
जवाब- 464 क्रोध की परिणति या क्रूरता के भाव जिसमें रहे हो, दूसरों को मारने, पीटने, ठगने एवं दुःखी करने की भावना जिसमें हो, वह रौद्र ध्यान है ।
प्रश्न- 465 रौद्र ध्यान के कितने भेद है ?
जवाब- 465 चार – 1.हिंसानुबन्धी- प्राणियों की हिंसा का विचार करना, 2.मृषानुबंधी-झूठ बोलने का चिन्तन करना, 3.स्तेयानुबंधी- चोरी करने का चिन्तन करना, 4.संरक्षणानुबंधी – धनादि परिग्रह के रक्षण के लिये चिंता करना ।
प्रश्न- 466 रौद्र ध्यान के कितने लक्षण है ?
जवाब- 466 चार- 1.ओसन्न दोष- हिंसा आदि दोषों में से किसी एक दोष में अधिक प्रवृत्ति करना, 2.बाहुल्य दोष- हिंसा आदि अनेक दोषों में प्रवृत्ति करना, 3.अज्ञान दोष- अज्ञान से अधर्म स्वरुप हिंसा में धर्म बुद्धि से प्रवृत्ति करना, 4.अमरणान्त दोष- मरणपर्यंत हिंसादि क्रूर कार्यो में प्रवृत्ति करना ।
प्रश्न- 467 रौद्र ध्यान में यदि आयुष्य बंध हो तो कौन सा आयुष्य बंध होता है ?
जवाब- 467 रौद्र परिणाम होने से नरकायुष्य का बंध होता है ।
प्रश्न- 468 धर्मध्यान किसे कहते है ?
जवाब- 468 धर्म-जिनेश्वर परमात्मा की आज्ञा तथा पदार्थ के स्वरुप के पर्यालोचन में मन को एकाग्र करना धर्मध्यान है ।
प्रश्न- 469 धर्मध्यान के कितने भेद है ?
जवाब- 469 चार- 1.आज्ञाविचय- वीतराग की आज्ञा कों सत्य मनाकर उस पर पूर्ण श्रद्धा रखना, 2.अपायविजय- राग-द्वेष संसार में अपाय कष्टभूत है, ऐसा विचार करना, 3.विपाक विचय- सुख दुःख पूर्व कर्म का विपाक है, इस पर कर्म विषयक चिंतन करना, 4.संस्थान विचय- षड् द्रव्यात्मक लोक के स्वरुप का चिंतन करना ।
प्रश्न- 470 धर्मध्यान में किस आयुष्य का बंध होता है ?
जवाब- 470 धर्मध्यान में यदि जीव आयुष्य बांधे तो देवायुष्य का बंध होता है ।
प्रश्न- 471 शुक्ल ध्यान किसे कहते है ?
जवाब- 471 पूर्व विषयक श्रुत के आधार पर घाती कर्मों को नष्ट कर आत्मा को विशेष रुप से शुक्ल-स्वच्छ-धवल-निर्मल करने वाला ध्यान अथवा मनकी अत्यंत स्थिरता और योग का निरोध करने वाला परम ध्यान शुक्लध्यान कहलाता है ।
प्रश्न- 472 शुक्लध्यान के लक्षण कौन कौन से हैं ?
जवाब- 472 शुक्लध्यान के 4 लक्षण निम्न हैं-
1. अव्यथ- देवादि के उपसर्ग से चलित नहीं होना ।
2. असंमोह- देवादि कृत छलना या गहन विषयों में सम्मोह नहीं होना ।
3. विवेक- आत्मा को देह तथा समस्त सांसारिक संयोगो से भिन्न मानना ।
4. व्युत्सर्ग- निःसंगता से देह और उपधि का त्याग करना ।
प्रश्न- 473 शुक्लध्यान से कौन सी गति प्राप्त होती है ?
जवाब- 473 शुक्लध्यान से पंचम सिद्धगति अर्थात् मोक्ष प्राप्त होता है ।
प्रश्न- 474 कायोत्सर्ग तप किसे कहते है ?
जवाब- 474 काया के व्यापार का त्याग करना कायोत्सर्ग तप है । इसका अपर नाम व्युत्सर्ग भी है ।
प्रश्न- 475 बंध किसे कहते है ?
जवाब- 475 कर्म पुद्गलो तथा आत्माका परस्पर नीर-क्षीरवत् सम्बन्ध बन्ध कहलाता है अथवा शुभाशुभ योगों तथा कषाय आदि परिणामों द्वारा कर्मवर्गणाओं का आत्मप्रदेशों से दूध-शक्कर के समान एकमेक हो जाना, बन्ध है ।
प्रश्न- 476 बंध के कितने भेद है ?
जवाब- 476 चार 1.प्रकृति बंध 2.स्थितिबंध 3.रसबंध(अनुभाग बंध) 4.प्रदेशबंध ।
प्रश्न- 477 प्रकृतिबंध किसे कहते है ?
जवाब- 477 प्रकृति अर्थात् स्वभाव । जीव द्वारा ग्रहण किये गए कर्मपुद्गलों में अच्छे-बुरे विभिन्न स्वभावों का उत्पन्न होना, प्रकृतिबंध है ।
प्रश्न- 478 स्थितिबंध किसे कहते है ?
जवाब- 478 स्थिति-कलावधि । आत्मप्रदेशों पर आये हुए कर्मों की वहाँ रहने की कलावधि स्थितिबंध है अथवा जीव द्वारा ग्रहण किये हुए कर्म पुद्गलों का अपने स्वभाव को न छोडते हुए अमुक काल तक जीव के साथ लगे रहने की कालमर्यादा स्थिति बंध है ।
प्रश्न- 479 अनुभाग (रस) बंध किसे कहते है ?
जवाब- 479 जीव के द्वारा ग्रहण किये हुए कर्मपुद्गलों में फल देने की न्यूनाधिक शक्ति को अनुभाग बन्ध कहते है ।
प्रश्न- 480 प्रदेश बंध किसे कहते है ?
जवाब- 480 जीव के साथ न्यूनाधिक परमाणुवाले कर्म-स्कंधों का सम्बन्ध होना प्रदेश बंध है ।
प्रश्न- 481 आठ कर्मों का बन्ध कितने प्रकार के होता है ?
जवाब- 481 चारों प्रकार से ।
प्रश्न- 482 इस लोक में जीव के ग्रहण योग्य कितनी वर्गणाएँ है ?
जवाब- 482 आठ- 1.औदारिक 2.वैक्रिय 3.आहारक 4.तैजस 5.श्वासोच्छवास 6.भाषा 7.मन 8.कार्मण ।
प्रश्न- 483 वर्गणा किसे कहते है ?
जवाब- 483 एक समान संख्यावाले परमाणुओं के बने हुए अनेक स्कंध वर्गणा कहलाते है ।
प्रश्न- 484 जीव एक समय में कितनी वर्गणा ग्रहण करता है ?
जवाब- 484 अनन्त वर्गणाओं के बने हुए अनन्त स्कंधो को जीव एक समय में ग्रहण करता है ।
प्रश्न- 485 औदारिक वर्गणा किसे कहते है ?
जवाब- 485 औदारिक शरीर रुप में परिणमित होनेवाले पुद्गल समूह को औदरिक वर्गणा कहते है ।
प्रश्न- 486 वैक्रिय वर्गणा किसे कहते है ?
जवाब- 486 वैक्रेय शरीर रुप बननेवाला पुद्गल समूह वैक्रिय वर्गणा है ।
प्रश्न- 487 आहारक वर्गणा किसे कहते है ?
जवाब- 487 जो पुद्गल आहारक शरीर रुप में परिणमे, उसे आहारक वर्गणा कहते है ।
प्रश्न- 488 तैजस वर्गणा किसे कहते है ?
जवाब- 488 औदारिक तथा वैक्रिय शरीर को क्रांति देनेवाला और आहार पचानेवाला पुद्गल समूह तैजस वर्गणा कहलाती है ।
प्रश्न- 489 भाषा वर्गणा किसे कहते है ?
जवाब- 489 जो वर्गणा शब्द रुप में परिणमित हो, उसे भाषा वर्गणा कहते है ।
प्रश्न- 490 श्वासोच्छवास, मन तथा कार्मणवर्गणा किसे कहते है ?
जवाब- 490 जो पुद्गल समूह श्वासोच्छवास, मन तथा कर्मरुप में परिणमित होते हैं, उन्हें शवासोच्छवास, मन तथा कार्मण वर्गणा कहते है ।
प्रश्न- 491 रसबन्ध के कितने भेद है ?
जवाब- 491 चार- 1.एक स्थानिक 2.द्विस्थानिक 3.त्रिस्थानिक 4.चतुःस्थानिक ।
प्रश्न- 492 एकस्थानिक रसबन्ध किसे कहते है ?
जवाब- 492 गन्ने या नीम के स्वाभाविक रस के समान कर्म का एकस्थानिक रसबन्ध होता है । उस में फल देने की शक्ति कम होती है ।
प्रश्न- 493 द्विस्थानिक रसबन्ध किसे कहते है ?
जवाब- 493 गन्ने या नीम के रस को उबालकर आधा जलाने पर आधा शेष रहता है, उसके समान द्विस्थानिक रसबन्ध होता है । पहले से इसमें ज्यादा फल देने की शक्ति होती है ।
प्रश्न- 494 त्रिस्थानिक रसबन्ध किसे कहते है ?
जवाब- 494 गन्ने या नीम के रस को उबालकर 2-3 भाग जालाने पर 1-3 भाग शेष रहता है । उसके समान त्रिस्थानिक रसबन्ध होता है । इसमें फल देने की शक्ति दूसरे से ज्यादा होती है ।
प्रश्न- 495 चतुःस्थानिक रसबन्ध किसे कहते है ?
जवाब- 495 गन्ने या नीम के रस को 3-4 जलाने पर 1-4 भाग शेष रहता है । उसेके समान चतुःस्थानिक रसबन्ध होता है । उस में सबसे ज्यादा फल देने की शक्ति होती है ।
प्रश्न- 496 शुभ प्रकृतिओं का रस किसके समान होता है ?
जवाब- 496 शुभ प्रकृतिओं का रस गन्ने के समान मधुर होने से जीव को आह्लादकारी होता है ।
प्रश्न- 497 अशुभ प्रकृतिओं का रस किसके समान होता है ?
जवाब- 497 अशुभ प्रकृतिओं का रस नीम के समान कडवा होता है, जो जीव को पीडाकारी होता है ।
प्रश्न- 498 शुभ (पुण्य) प्रकृति का मंद रस कैसे बंधता है ?
जवाब- 498 संक्लेश के द्वारा ।
प्रश्न- 499 संक्लेश किसे कहते है ?
जवाब- 499 अनुकूल पदार्थो में राग तथा प्रतिकूल पदार्थों में द्वेष के परिणाम स्वरुप जिस तीव्र कषाय का उदय होता है, उसे संक्लेश कहते है ।
प्रश्न- 500 शुभ (पुण्य) प्रकृति में तीव्र रस कैसे बंधता है ?
जवाब- 500 परिणाम की विशुद्धि के द्वारा ।
नवतत्त्व प्रकरण प्रश्नोत्तरी
प्रश्न- 301 पारिग्रहिकी क्रिया किसे कहते है ?
जवाब- 301 परिग्रह से लगने वाली क्रिया पारिग्रहिकी है ।
प्रश्न- 302 माया प्रत्ययिकी क्रिया किसे कहते है ? इसके भेद लीखो ?
जवाब- 302 छल-प्रपंच करके दूसरों को ठगना माया प्रतिययिकी क्रिया है । स्वयं में कपट होते हुए भी शुद्ध भाव दिखाना स्वभाव वंचन तथा झूठी साक्षी, झूठा लेख लिखना परभाव वंचन माया प्रत्ययिकी क्रिया है ।
प्रश्न- 303 मिथ्यादर्शन प्रत्ययिकी क्रिया किसे कहते है ?
जवाब- 303 जिनेश्वर प्ररुपित तत्व के प्रति अश्रद्धान तथा विपरीत मार्ग के प्रति श्रद्धान करनें से लगने वाली मिथ्यादर्शन प्रत्ययिकी क्रिया है ।
प्रश्न- 304 अप्रत्याख्यानिकी क्रिया किसे कहते है ?
जवाब- 304 हेय वस्तु का त्याग प्रत्याख्यान नहीं करने से लगने वाली क्रिया अप्रत्याख्यानिकी है ।
प्रश्न- 305 द्रष्टिकी क्रिया किसे कहते है ?
जवाब- 305 जीव तथा अजीव को रागादि से देखना द्रष्टिकी क्रिया है ।
प्रश्न- 306 स्पृष्टिकी क्रिया किसे कहते है ?
जवाब- 306 जीव तथा अजीव को रागादि से स्पर्श करना स्पृष्टिकी क्रिया है अथवा रागादि भाव से प्रश्न करना प्राश्निकी क्रिया है ।
प्रश्न- 307 प्रातित्यकी क्रिया किसे कहते है ?
जवाब- 307 जीव तथा अजीव वस्तु (बाह्य वस्तु) के निमित्त से राग-द्वेष करन् पर जो क्रिया लगति है, उसे प्रातित्यकी क्रिया कहते है ।
प्रश्न- 308 सामंतोपनिपातिकी क्रिया किसे कहते है ?
जवाब- 308 अपने वैभव, ऐश्वर्य आदि की लोगों द्वारा की जाती प्रशंसा को सुनकर प्रसन्न होना अथवा घी, तेल आदि के पात्र खुले रहन् पर उसमें संपातिम जीवों का गिरकर विनाश होना, सामंतोपनिपातिकी क्रिया है ।
प्रश्न- 309 नैशस्त्रिकी क्रिया किसे कहते है ?
जवाब- 309 राजा आदि की आज्ञा से यंत्रो द्वारा कुँए, तालाब आदि का पानी निकाल कर बाहर फेंकने से, स्वार्थवश योग्य शिष्य या पुत्र को बाहर निकाल देने से, शुद्ध एषनीय भिक्षा होने पर भी निष्कारण परठ देने से जो तथा राजादि की आज्ञा से शस्त्रादि बनवाने पर जो क्रिया लगती है, उसे नैशस्त्रिकी क्रिया कहते है ।
प्रश्न- 310 स्वहस्तिकी क्रिया किसे कहते है ?
जवाब- 310 किसी भी जीव को अपने हाथ में लेकर फेंकने, पटकने, ताडना करने या मारने से जो क्रिया लगती है, उसे स्वहस्तिकी क्रिया कहते है ।
प्रश्न- 311 आज्ञापनिकी क्रिया किसे कहते है ?
जवाब- 311 जीव को आज्ञा करके उससे जीव (व्यक्ति)- अजीव(वस्तु) मंगवाना आज्ञापनिकी क्रिया है ।
प्रश्न- 312 वैदारणिकी क्रिया किसे कहते है ?
जवाब- 312 जीव तथा अजीव का विदारण (चिरना-फाडना) करने से या वितारण (वंचना-ठगाई) करने से लगने वाली क्रिया वैदारणिकी है ।
प्रश्न- 313 अनाभोगिकि क्रिया किसे कहते है ?
जवाब- 313 अनुपयोग (अजयणा-अविवेक) पूर्वक चलने-फिरने से तथा चीजों को रखने-उठाने से लगने वाली क्रिया अनाभोगिकी है ।
प्रश्न- 314 अनवकांक्षप्रत्ययिकी क्रिया किसे कहते है ?
जवाब- 314 स्व-पर के हिताहित का विचार नहीं करते हुए तथा इस लोक व परलोक की परवाह न करते हुए जो क्रिया की जाती है,उसे अनवकांक्षप्रत्ययिकी क्रिया कहते है।
प्रश्न- 315 प्रायोगिकी क्रिया किसे कहते है ?
जवाब- 315 मन-वचन-काया के अशुभ-सावद्य व्यापार से लगने वाली क्रिया को प्रायोगिकी क्रिया है ।
प्रश्न- 316 सामुदानिकी क्रिया किसे कहते है ?
जवाब- 316 जिस पाप कर्म के द्वारा समुदाय रुप में आठों कर्मों का बंध हो तथा सामुदायिक रुप से अनेक जीवों के एक साथ कर्मबंध हो, उसे सामुदानिकी क्रिया कहते है ।
प्रश्न- 317 प्रैमिकी क्रिया किसे कहते है ?
जवाब- 317 स्वयं प्रेम या राग करना अथवा दूसरे को प्रेम पैदा हो ऐसा बोलना, प्रैमिकी क्रिया है ।
प्रश्न- 318 द्वैषिकी क्रिया किसे कहते है ?
जवाब- 318 स्वयं द्वेष करना तथा दूसरे को द्वेष पैदा हो ऐसी क्रिया करना, द्वैषिकी क्रिया है ।
प्रश्न- 319 ईर्यापथिकी क्रिया किसे कहते है ?
जवाब- 319 कर्मबंध के 5 हेतुओं में से केवल योग रुप एक ही हेतु द्वारा बन्ध होता है, वह ईर्यापथिकी क्रिया है । यह 11वें, 12वें, 13वें गुणस्थानक में रहे हुए वीतरागी आत्मा की ही होती है ।
प्रश्न- 320 आश्रव तत्व जानने का उद्देश्य लिखो ?
जवाब- 320 आश्रव यानि कर्मो का आना । आश्रव के 42 भेदों का ज्ञान कर स्व-स्वभाव में आने के लिए इनका त्याग करें, परंतु गृहस्थावस्था में पुण्याश्रव भव-अटवी से पार उतारने में सहायभूत हो सकता है, अतः इस का उपयोगपूर्वक स्वीकार कर आत्मस्वरुप की प्राप्ति करना, इस तत्व को जानने का उद्देश्य है ।
प्रश्न- 321 संवर किसे कहते है ?
जवाब- 321 आश्रव का निरोध ही संवर है । अर्थात् जिन क्रियाओं से आते हुए कर्म रुक बंद हो जाये, वह क्रिया संवर कहलाती है ।
प्रश्न- 322 संवर के 20 भेद कौन कौन से है ?
जवाब- 322 1.सम्यक्त्व संवरः- सुदेव, सुगुरु, सुधर्म पर श्रद्धा रखना ।
2.व्रत संवरः- पच्चक्खाण करना ।
3.अप्रमाद संवरः- 5 प्रकार का प्रमाद नहीं करना ।
4.अकषाय संवरः- 25 कषायों का सेवन नहीं करना ।
5.योग संवरः- मन, वचन, काया की शुभप्रवृत्ति ।
6.दया संवरः- जीवों की हिंसा नहीं करना ।
7.सत्य संवरः- झूठ नहीं बोलना ।
8.अचौर्य संवरः- चोरी नहीं करना ।
9.शील संवरः- ब्रह्मचर्य का सेवन करना ।
10.अपरिग्रह संवरः- परिग्रह नहीं करना ।
11.श्रोत्रेन्द्रिय संवरः- कान को वश में रखना ।
12.चक्षुरिन्द्रिय संवरः- आँख को वश में रखना ।
13.घ्राणेन्द्रिय संवरः- नाक को वश में रखना ।
14.रसनेन्द्रिय संवरः- जीभ को वश में रखना ।
15.स्पर्शेन्द्रिय संवरः- शरीर को वश में रखना ।
16.मन संवरः- मन को वश में रखना ।
17.वचन संवरः- वचन को वश में रखना ।
18.काय संवरः- काया को वश में रखना ।
19.भंडोपकरण संवरः- वस्त्र-पात्र आदि उपकरण जयणा से रखना ।
20.सुसंग संवरः- खराब संगति से दूर रहना ।
प्रश्न- 323 सुदेव, सुगुरु और सुधर्म पर आस्था रखने से कौनसा संवर होता है ?
जवाब- 323 सुदेव, ,गुगुरु और सुधर्म पर श्रद्धा रखने से सम्यक्त्व (समकित) संवर की आराधना होती है ।
प्रश्न- 324 व्रत, नियम, त्याग, प्रत्याख्यान ग्रहण करना कौनसा संवर है ?
जवाब- 324 व्रत, नियम, त्याग, प्रत्याख्यान ग्रहण करना दूसरा व्रत संवर है ।
प्रश्न- 325 क्रोध नहीं करने से क्या होता है ?
जवाब- 325 क्रोध नहीं करने से अकषाय रुप संवर की आराधना होती है ।
प्रश्न- 326 मन पसंद मिष्ठान्न का त्याग, स्वाद के लिए ऊपर से नमक लेने का त्याग करने से कौनसे संवर की आराधना होती है ?
जवाब- 326 उपरोक्तानुसार त्याग करने से रसनेन्द्रिय को वश में रखने रुप संवर की आराधना होती है ।
प्रश्न- 327 पुस्तक, आसन आदि वस्तुओं को यतना पूर्वक लेने और रखने से कौनसे संवर की आराधना होती है ?
जवाब- 327 पुस्तक, आसन आदि वस्तुओं को यतना पूर्वक लेने और रखने में संवर के उन्नीसवें भेद की आराधना होती है ।
प्रश्न- 328 संवर के मुख्य कितने भेद होते है ?
जवाब- 328 पांच – 1.सम्यक्त्व 2.विरति 3.अप्रमाद 4.अकषाय 5.शुभयोग ।
प्रश्न- 329 सम्यक्त्व किसे कहते है ?
जवाब- 329 सुदेव-सुगुरु-सुधर्म पर या जीवादि नव तत्वों पर द्रढ श्रद्धान सम्यक्त्व है ।
प्रश्न- 330 सम्यक्त्व कैसे जाना जाता है ?
जवाब- 330 पांच लिंगो अथवा लक्षणो से सम्यक्त्व जाना जाता है ।
प्रश्न- 331 सम्यक्त्व के पांच लक्षण कौन से है ?
जवाब- 331 1.शम 2.संवेग 3.निर्वेद 4.अनुकंपा 5.आस्तिक्य ।
प्रश्न- 332 शम किसे कहते है ?
जवाब- 332 मिथ्यात्व का शमन करना, शत्रु-मित्र पर समभाव रखना, शम है ।
प्रश्न- 333 संवेग किसे कहते है ?
जवाब- 333 धर्म में रुचि, वैराग्यभाव व मोक्ष की अभिलाषा संवेग है ।
प्रश्न- 334 निर्वेद किसे कहते है ?
जवाब- 334 भोग व संसार में अरुचि रखना, संसार को कैदखाना समझना, आरंभ परिग्रह से निवृत होना, निर्वेद है ।
प्रश्न- 335 अनुकंपा किसे कहते है ?
जवाब- 335 दुःखी जीवों पर दया करना, उनके दुःख को दूर करने का प्रयास करना अनुकंपा है ।
प्रश्न- 336 आस्तिक्य किसे कहते है ?
जवाब- 336 धर्म, पुण्य, पाप, आत्मा, लोक, परलोक, स्वर्ग-नरक में आस्था रखना अर्थात् उनके अस्तित्व को स्वीकारना, आस्तिक्य है ।
प्रश्न- 337 विरति किसे कहते है ?
जवाब- 337 प्रणातिपात, मृषावाद, अदत्तादान, मैथुन, परिग्रह, रात्रिभोजन आदि पाप क्रियाओं का देशतः या सर्वतः त्याग करना, विरति कहलाता है ।
प्रश्न- 338 विरति के कितने भेद है ?
जवाब- 338 दो – 1.देशविरति 2.सर्वविरति ।
प्रश्न- 339 देशविरति किसे कहते है ?
जवाब- 339 अपनी शक्ति के अनुसार व्रत पच्चक्खाण करना, अथवा देशतः (आंशिक) अशुभाश्रवों का त्याग करना, देशविरति कहलाता है ।
प्रश्न- 340 सर्वविरति किसे कहते है ?
जवाब- 340 सभी पापो का सर्वथा त्याग करना सर्वविरति कहलाता है ।
प्रश्न- 341 अप्रमाद किसे कहते है ?
जवाब- 341 पांचो प्रमाद छोडना अप्रमाद है । अप्रमाद से प्रमादरुप आश्रव द्वार बंद हो जाते है ।
प्रश्न- 342 अकषाय किसे कहते है ?
जवाब- 342 कषायों का शमन करना, समभाव रखना अकषाय है ।
प्रश्न- 343 नवतत्व में संवर के कितने भेदों का उल्लेख है ?
जवाब- 343 नवतत्व में संवर के 57 भेद इस प्रकार उल्लिखित है ।
समिति-5, गुप्ति-3, परिषह-22, यतिधर्म-10, भावना-12, चारित्र-5 ।
प्रश्न- 344 समिति किसे कहते है ?
जवाब- 344 आवश्क कार्य के लिये यतनापूर्वक सम्यक् चेष्टा या प्रवृत्ति को समिति कहते है ।
प्रश्न- 345 समिति के कितने भेद हैं ?
जवाब- 345 पांच- 1.ईर्या समिति. 2.भाषा समिति 3.एषणा समिति 4.आदान समिति 5.पारिष्ठापनिका समिति ।
प्रश्न- 346 ईर्या समिति किसे कहते है ?
जवाब- 346 ईर्या अर्थात् मार्ग में उपयोग पूर्वक चलना । ज्ञान, दर्शन, चारित्र के निमित्त से मार्ग में युगमात्र (3 1/2 हाथ) भूमि को एकाग्र चित्त से देखते हुए और सजीव मार्ग का त्याग करते हुए यतनापूर्वक गमनागमन करना, ईर्या समिति है ।
प्रश्न- 347 भाषा समिति किसे कहते है ?
जवाब- 347 आवश्यकता होने पर सत्य, हित, मित, प्रिय, निर्दोष और असंदिग्ध भाषा बोलना, भाषा समिति है ।
प्रश्न- 348 एषणा समिति किसे कहते हे ?
जवाब- 348 सिद्धन्त में कही गयी विघि के अनुसार दोष रहित आहार-पानी आदि ग्रहण करना एषणा समिति है । यह समिति मुख्य रुप से साधु के तथा गौण रुप से पौषधव्रधारी श्रावक के होती है ।
प्रश्न- 349 गवेषणा किसे कहते है ?
जवाब- 349 गवेषणा का अर्थ है – खोजना, ढूंढना । श्रमण वृत्ति के अनुसार 16 उत्पादना दोषों से रहित निर्दोष आहार खोजना, गवेषणा कहलाता है ।
प्रश्न- 350 आहार के कितने दोष है ?
जवाब- 350 सैंतालीस – 16 उद्गम (गृहस्थ के द्वारा लगने वाले दोष), 16 उत्पादना – (साधु से लगने वाले दोष), 10 एषणा (साधु तथा दाता दोनों की ओर से लगने वाले दोष), 5 मांडली (आहार करते समय) ।
प्रश्न- 351 आदान समिति किसे कहते है ?
जवाब- 351 वस्त्र, पात्र, आसन, शच्या, संस्तारक आदि संयम के उपकरण तथा ज्ञानोपकरणों को उपयोगपूर्वक प्रमार्जना करके उठाना और रखना आदान समिति है । इसका अपर नाम आदान-भंड-मत्त-निक्षेपणा समिति है । आदान अर्थात् ग्रहण करना । भंड- मत्त – पात्र-मात्रक आदि को जयाणापूर्वक । निक्षेपणा – रखना ।
प्रश्न- 352 पारिष्ठापनिका समिति किसे कहते है ?
जवाब- 352 परिष्ठापना (त्याग करना) के 10 दोषों का त्याग करते हुए लघुनीति, बडीनीति, थूंक, कफ, अशुद्धआहार, निरुपयोगी उपकरणों का विधि तथा जयणापूर्वक त्याग करना पारिष्ठापनिका समिति है । इसका दूसरा नाम उच्चार प्रस्त्रवण खेल जल्ल सिंघाण पारिष्ठापनिका समिति हैं ।
उच्चार – बडीनीत (मल)
प्रस्त्रवण – मूत्र
खेल – श्लेष्म (कफ)
जल्ल – शरीर का मैल
सिंघाण – नाक का मैल
पारिष्ठापनिका – परठना, उत्सर्ग करना या त्याग करना ।
प्रश्न- 353 गुप्ति किसे कहते हैं ?
जवाब- 353 " गुप्यते रक्ष्यते त्रायते वा गुप्तिः " गोपन या रक्षण करे, वह गुप्ति है । संसार में संसरण करते प्राणी की जो रक्षा करे, वह गुप्ति है । अथवा मन, वाणी तथा शरीर को हिंसा आदि सर्व अशुभ प्रवृत्तियों से निग्रह (वश) करके रखना, सम्यक् प्रकार से उपयोग पूर्वक निवृत्ति रखना गुप्ति है ।
प्रश्न- 354 मनोगुप्ति किसे कहते है ?
जवाब- 354 आर्तध्यान, रौद्रध्यान, संरम्भ, समारंभ तथा आरंभ संबंधी संकल्प न करना, शुभाशुभ योगों को रोककर योगनिरोध अवस्था को प्राप्त करना मनोगुप्ति है ।
प्रश्न- 355 वचनगुप्ति किसे कहते है ?
जवाब- 355 वचन के अशुभ व्यापार अर्थात् संरम्भ-समाररंभ तथा आरंभ संबंधी वचन का त्याग करना, विकथा नहीं करना, मौन रहना वचन गुप्ति है ।
प्रश्न- 356 भाषा समिति और वचनगुप्ति में क्या अन्तर है ?
जवाब- 356 भाषा समिति निरवद्य वचन बोलने रुप एक ही प्रकार की है जबकी वचनगुप्ति सर्वथा वचन निरोध व निरवद्य (निर्दोष) वचन बोलने रुप दो प्रकार की है ।
प्रश्न- 357 कायगुप्ति किसे कहते है ?
जवाब- 357 खडा होना, उठना, बैठना, सोना आदि कायिक प्रवृत्ति न करना अर्थात् काया को सावद्य प्रवृत्ति से रोकना तथा निरवद्य प्रवृत्ति में जोडना कायगुप्ति है ।
प्रश्न- 358 समिति तथा गुप्ति में क्या अंतर है ?
जवाब- 358 समिति में सत्क्रिया का प्रवर्तन मुख्य है और गुप्ति में असत्क्रिया का निषेध मुख्य है ।
प्रश्न- 359 अष्टप्रवचनमाता किसे और क्यों कहा गया है ?
जवाब- 359 5 समिति तथा 3 गुप्ति, ये आठ प्रवचन माता कही जाती है । इन आठों से ही संवर धर्म रुपी पुत्र का पालनपोषण होता है । इसलिये इन्हें प्रवचनमाता कहा गया है ।
प्रश्न- 360 परिषह किसे कहते है ?
जवाब- 360 'परिषह' शब्द परि+सह के संयोग से बना है । अर्थात् परिसमन्तात् – सब तरफ से, सम्यक् प्रकार से, सह-सहना, समभावपूर्वक सहन करना परिषह कहलाता है ।
प्रश्न- 361 क्षुधा परिसह किसे कहते है ?
जवाब- 361 संयम की मर्यादा के अनुसार भिक्षा न मिलने पर भूख को समभाव पूर्वक सहन करना परंतु सावद्य या अशुद्ध आहार ग्रहण न करना व आर्तध्यान भी नहीं करना, क्षुधा परिषह कहलाता है ।
प्रश्न- 362 पिपासा परिसह किसे कहते है ?
जवाब- 362 जब तक निर्दोष – अचित्त जल न मिले तब तक प्यास सहन करना पर सचित्त अथवा सचित्त – अचित्त मिश्रित जल नहीं पीना, पिपासा परीषह कहलाता है ।
प्रश्न- 363 शीत परिषह किसे कहते है ?
जवाब- 363 अतिशय ठंड पडने से अंगोपांग अकड जाने पर भी अपने पास जो मर्यादित एवं परिमित वस्त्र हो, उन्हीं से निर्वाह करना एवं आग आदि से ताप न लेना, शीत परिषह है ।
प्रश्न- 364 उष्ण परिषह किसे कहते है ?
जवाब- 364 गर्मी के मौसम में तपी हुई शिला, रेत आदि पर पदत्राण के बिना चलना, भीषण गर्मी में भी स्नान-विलेपन की इच्छा न करना, मरणान्त कष्ट आने पर भी छत्र-छत्री की छाया, वस्त्रादि अथवा पंखे की हवा न लेना, उष्ण परिषह है ।
प्रश्न- 365 दंश परिषह किसे कहते है ?
जवाब- 365 वर्षाकाल में डांस, मच्छर, खटमल आदि का उपद्रव होने पर भी धुएँ, औषध आदि का प्रयोग न करना, न उन जीवों पर द्वेष करना बल्कि उनके डंक की वेदना को समभावपूर्वक सहन करना, दंश परिषह कहलाता है ।
प्रश्न- 366 अचेल परिषह किसे कहते है ?
जवाब- 366 अपने पास रहे हुए अल्प तथा जीर्ण-शीर्ण वस्त्रों में संयम निर्वाह करना, बहुमूल्य वस्त्रादि लेने की इच्छा न करना, अत्यल्प मिले तो भी दीनता का विचार न करना, अचेल परीषह है ।
प्रश्न- 367 अरति परिषह किसे कहते है ?
जवाब- 367 मन के अनुकूल साधनों के न मिलने पर आकुल-व्याकुल न होना, उदास न होना, संयम पालन में अरुचि पैदा न होना, धर्म क्रिया को करते हुए उल्लासभाव रहना, अरति परिषह है ।
प्रश्न- 368 स्त्री परिषह किसे कहते है ?
जवाब- 368 स्त्रियों को संयम मार्ग में विघ्न का कारण समझकर सराग द्रष्टि से न देखना, उनके अंग-उपांग, कटाक्ष, हाव-भाव पर ध्यान न देना, विकार भरी द्रष्टि से न देखना, ब्रह्मचर्य में द्रढ रहना, स्त्री परिषह हैं ।
प्रश्न- 369 चर्या परिषह किसे कहते है ?
जवाब- 369 चर्या अर्थात् चलना, विहार करना । चलने में जो श्रान्ति- थकावट होती है तथा विहार के समस्त कष्टों को समभावपूर्वक सहन करना तथा मासकल्प की मर्यादानुसार विहार करना, चर्या परिषह है ।
प्रश्न- 370 निषद्या परिषह किसे कहते है ?
जवाब- 370 श्मशान, शून्य गृह, गुफा आदि में ध्यान अवश्था में मनुष्य – पशु – देव द्वारा किसी भी प्रकार का अनुकूल अथवा प्रतिकूल उपसर्ग आने पर उससे बचने के लिये उस स्थान को छडकर न जाना बल्कि उन उपसर्गों को द्रढतापूर्वक सहन करना, निषद्या परिसह है ।
प्रश्न- 371 शच्या परिषह किसे कहते हैं ?
जवाब- 371 सोने के लिये उंची-नीची, कठोर जमीन मिलने पर भी मन में किसी प्रकार का द्वेष भाव न लाकर सहजतापूर्वक स्वीकार कर लेना, शच्या परिसह है ।
प्रश्न- 372 आक्रोश परिषह किसे कहते हैं ?
जवाब- 372 कोइ अज्ञानी गाली दे, कटुवचन कहे, तिरस्कार या अपमान करें तब भी उससे द्वेष न करना, आक्रोश परिषह हैं ।
प्रश्न- 373 वध परिषह किसे कहते हैं ?
जवाब- 373 कोइ अज्ञानी पुरुष साधु को डंडे से, लाठी या चाबुक से मारे-पीटे अथवा हत्या भी कर दे तब भी मन में किञ्चित रोष न लाना, वध परिषह हैं ।
प्रश्न- 374 याचना परिषह किसे कहते है ?
जवाब- 374 साधु कोई भी वस्तु मांगे बिना ग्रहण नहीं करता । उसकी प्राप्ति के लिये 'में राजा हूँ, धनाढ्य हूँ' इत्यादि मान एवं अहं का त्याग करके घर-घर से भिक्षा मांगकर लाना, याचना करते समय अपमान व लज्जा आदि को जीतना, याचना परिषह है ।
प्रश्न- 375 अलाभ परिषह किसे कहते है ?
जवाब- 375 मान तथा लज्जा का त्याग कर घर घर भिक्षा मांगने पर भी न मिले तो लाभान्तराय कर्म का उदय जानकर शान्त रहना, दुःखी अथवा उत्तेजित न होना, अलाभ परिषह है ।
प्रश्न- 376 रोग परिषह किसे कहे है ?
जवाब- 376 शरीर में ज्वर आदि रोग आने पर 'शरीर व्याधियों का घर है' ऐसा मानकर चिकित्सा न कराना, रोगावस्था में भी मन को शान्त तथा स्वस्थ रखना रोग परिषह है ।
प्रश्न- 377 तृण स्पर्श परिषह किसे कहते है ?
जवाब- 377 दर्भ, घास आदि पर सोने से घास के तृणों के कठोर स्पर्श के चुभने से अथवा खुजली आदि होने पर भी उद्विग्न न होना, तृणस्पर्श परिषह है ।
प्रश्न- 378 मल परिषह किसे कहते है ?
जवाब- 378 साधु के लिये स्नान श्रुंगार का कारण है और श्रुंगार विषय का कारण रुप है, अतः शरीर पर स्वेद-पसीने के कारण मैलादि जमने पर दुर्गंध आती हो तब भी उसे दूर करने के लिये स्नानादि की इच्छा न करना, मल परिसह है ।
प्रश्न- 379 सत्कार परिषह किसे कहते है ?
जवाब- 379 समायिक, धार्मिक, राष्ट्रिय सत्कार प्राप्त होने पर भी मनमें हर्ष तथा गर्व न करना, सत्कार परीसह है ।
प्रश्न- 380 प्रज्ञा परिषह किसे कहते है ?
जवाब- 380 बहुश्रुत गीतार्थ होने पर बहुत से लोग प्रश्न पूछते हैं, तो कोई विवाद भी करते हैं । इससे खिन्न होकर ज्ञान को दुःखदायक और अज्ञान को सुखदायक नहीं मानकर समभाव से लोगों की शंका व जिज्ञासाओं को समाहित करना, प्रज्ञा परिषह है ।
प्रश्न- 381 अज्ञान परिसह किसे कहते है ?
जवाब- 381 ज्ञान प्राप्ति के लिये अथक प्रयास, तपस्या तथा ज्ञानाभ्यास करने पर भी ज्ञान की प्राप्ति न होने पर अपने आप को पुण्यहीन, निर्भाग मनाकर खिन्न न होना अपितु ज्ञनावरणीय कर्म का उदय समझकर चित्त को शांत रखना, अज्ञान परिसह है ।
प्रश्न- 382 सम्यक्त्व परिसह किसे कहते है ?
जवाब- 382 नाना प्रकार के प्रलोभन अथवा अनेक कष्ट व उपसर्ग आने पर भी अन्य पाखंडियों के आडम्बर पर मोहित न होकर सर्वज्ञ प्रणित धर्म तत्व पर अटल श्रद्धा रखना, शास्त्रीय सूक्ष्म
प्रश्न- 383 अनुकूल परिषह किसे कहते है ?
जवाब- 383 जिसे आत्मा को सुखका अनुभव हो, वे अनुकूल परीसह कहलाते हैं । स्त्री, प्रज्ञा तथा सत्कार ये तीन अनुकूस परिषह हैं ।
प्रश्न- 384 प्रतिकूल परिषह किसे कहते है ?
जवाब- 384 जिससे आत्मा को दुःख या कष्ट का अनुभव हो, वे प्रतिकुल परिसह है । अनुकूल तीन परिषहों को छोडकर बाकीके 19 परिषह प्रतिकूल है ।
प्रश्न- 385 यतिधर्म किसे कहते है ?
जवाब- 385 यति अर्थात् साधु । साधु के द्वारा पालन किया जानेवाला धर्म यतिधर्म है अथवा मोक्ष मार्ग में जो यत्न करे, वह यति है । उसका धर्म यति धर्म है ।
प्रश्न- 386 यति धर्म के कितने भेद है ?
जवाब- 386 दस- 1.क्षमा 2.मार्दव 3.आर्जव 4.मुक्ति 5.तप 6.संयम 7.सत्य 8.शौच. 9.आकिंचन्य 10.ब्रह्मचर्य ।
प्रश्न- 387 क्षमाधर्म से क्या तात्पर्य है ?
जवाब- 387 प्राणीमात्र के प्रति मैत्री भाव का सम्बन्ध रखते हुए किसी पर क्रोध न करना, शक्ति के होने पर भी उसका उपयोग न करना क्षमाधर्म हैं ।
प्रश्न- 388 मार्दव धर्म किसे कहते हैं ?
जवाब- 388 नम्रता रखना अथवा मान का त्याग करना । जाति, कुल, रुप, ऐश्वर्य, तप, ज्ञान, लाभ और बल, इन आठों मद में से किसी भी प्रकारका मद न करना, मार्दव धर्म कहलाता है ।
प्रश्न- 389 आर्जव धर्म किसे कहते है ?
जवाब- 389 आर्जव अर्थात् सरलता। कपट रहित होना, या माया, दम्भ, ठगी आदि का सर्वथा त्याग करना, आर्जव धर्म है ।
प्रश्न- 390 मुक्ति धर्म किसे कहते है ?
जवाब- 390 निर्लोभता । लोभ को जीतना व पौद्गलिक पदार्थो पर आसक्ति न रखना मुक्ति धर्म है ।
प्रश्न- 391 तप धर्म किसे कहते है ?
जवाब- 391 इच्छाओं का रोध (रोकना) करना ही तप है । तप को संवर तथा निर्जरा, दोनों तत्वों के भेद में गिना गया है क्योंकि इससे संवर तथा निर्जरा, दोनों होते है ।
प्रश्न- 392 संयम धर्म किसे कहते है ?
जवाब- 392 हिंसादि अशुभ प्रवृत्तियों से निवृत्त होकर सं-सम्यक् प्रकार से, यम- पंच महाव्रतों या अणुव्रतों का पालन करना, संयम धर्म है ।
प्रश्न- 393 सत्य घर्म किसे कहते है ?
जवाब- 393 सत्य, हित, मित, निर्दोष, मधुर वचन बोलना सत्यधर्म है ।
प्रश्न- 394 शौच धर्म किसे कहते है ?
जवाब- 394 शौच अर्थात् पवित्रता । मन, वचन, काया तथा आत्मा की पवित्रता । द्रव्य तथा भाव से पवित्र रहना शौचकर्म है ।
प्रश्न- 395 आकिंचन्य धर्म किसे कहते है ?
जवाब- 395 अ अर्थात् नहीं, किंचन-कोइभी । किसी भी प्रकार का परिग्रह या ममत्व न रखना, अकिंचन धर्म है ।
प्रश्न- 396 ब्रह्मचर्य धर्म किसे कहते है ?
जवाब- 396 नववाड सहित मन, वचन, काया से पूर्ण ब्रह्मचर्य का पालन करना ब्रह्मचर्य है ।
प्रश्न- 397 ब्रह्मचर्य की नववाड कौनसी है ?
जवाब- 397 वाड से जैसे क्षेत्र का रक्षण होता है, उसी प्रकार नववाड से ब्रह्मचर्य का रक्षण होता है । उसके नौ प्रकार है –
1. संसक्त वसतित्यागः- जहाँ पर स्त्री, पशु व नपुंसक रहते हो, ऐसे स्थान का त्याग करना ।
2. स्त्रीकथा त्यागः- स्त्री के रुप, लावण्य की चर्चा न करना ।
3. जिस स्थान पर स्त्री बैठी हो, उस पर 48 मिनिट तक न बैठना ।
4. अंगोपांग निरीक्षण त्यागः- स्त्री के अंगोपांग न देखना ।
5. संलग्न दीवार त्यागः- संलग्न दीवार में जहाँ दम्पति रहते हो, ऐसे स्थान का त्याग करना ।
6. पूर्वक्रीडित भोगों का विस्मरणः– पूर्वकाल में भोगे हुए भोगों को याद न करना ।
7. प्रणीत आहार त्यागः- गरिष्ठ-मादक, घी से झरते हुआ आहार न करना ।
8. अति आहार त्यागः- प्रमाण से अधिक भोजन न करना ।
9. विभूषा त्याग – स्नान, इत्र, तैल आदि से मालिश आदि शरीर का शोभा बढानेवाली प्रवृत्तियों का त्याग करना ।
प्रश्न- 398 क्या यतिधर्म केवळ साधु द्वारा ही आचरणीय है ?
जवाब- 398 यद्यपि इसका नाम श्रमणधर्म है तथापि श्रावक भी देशविरति रुप चारित्र धर्म का पालन करता है, अतः उसके लिये एवं सभी के लिये दशविध धर्म आचरणीय है ।
प्रश्न- 399 भावना किसे कहते है ?
जवाब- 399 चित्त को स्थिर करने के लिये किसी तत्व पर पुनः पुनः चिंतन करना भावना है । अथवा भावना का सामान्य अर्थ तो मन के विचार, आत्मा के शुभाशुभ परिणाम है । इसका दूसरा नाम अनुप्रेक्षा भी है । मोक्षमार्ग के प्रति भाव की वृद्धि हो, ऐसा चिंतन करना भावना है ।
प्रश्न- 400 भावनाएँ कितनी व कौन कौन सी है ?
जवाब- 400 भावनाएँ बारह हैं – 1.अनित्य 2.अशरण 3.संसार 4.एकत्व 5.अन्यत्व 6.अशुचित्व 7.आश्रव 8.संवर 9.निर्जरा 10.लोकस्वभाव 11.बोधिदुर्लभ 12.धर्म साधक अरिहंत दुर्लभ ।
जवाब- 301 परिग्रह से लगने वाली क्रिया पारिग्रहिकी है ।
प्रश्न- 302 माया प्रत्ययिकी क्रिया किसे कहते है ? इसके भेद लीखो ?
जवाब- 302 छल-प्रपंच करके दूसरों को ठगना माया प्रतिययिकी क्रिया है । स्वयं में कपट होते हुए भी शुद्ध भाव दिखाना स्वभाव वंचन तथा झूठी साक्षी, झूठा लेख लिखना परभाव वंचन माया प्रत्ययिकी क्रिया है ।
प्रश्न- 303 मिथ्यादर्शन प्रत्ययिकी क्रिया किसे कहते है ?
जवाब- 303 जिनेश्वर प्ररुपित तत्व के प्रति अश्रद्धान तथा विपरीत मार्ग के प्रति श्रद्धान करनें से लगने वाली मिथ्यादर्शन प्रत्ययिकी क्रिया है ।
प्रश्न- 304 अप्रत्याख्यानिकी क्रिया किसे कहते है ?
जवाब- 304 हेय वस्तु का त्याग प्रत्याख्यान नहीं करने से लगने वाली क्रिया अप्रत्याख्यानिकी है ।
प्रश्न- 305 द्रष्टिकी क्रिया किसे कहते है ?
जवाब- 305 जीव तथा अजीव को रागादि से देखना द्रष्टिकी क्रिया है ।
प्रश्न- 306 स्पृष्टिकी क्रिया किसे कहते है ?
जवाब- 306 जीव तथा अजीव को रागादि से स्पर्श करना स्पृष्टिकी क्रिया है अथवा रागादि भाव से प्रश्न करना प्राश्निकी क्रिया है ।
प्रश्न- 307 प्रातित्यकी क्रिया किसे कहते है ?
जवाब- 307 जीव तथा अजीव वस्तु (बाह्य वस्तु) के निमित्त से राग-द्वेष करन् पर जो क्रिया लगति है, उसे प्रातित्यकी क्रिया कहते है ।
प्रश्न- 308 सामंतोपनिपातिकी क्रिया किसे कहते है ?
जवाब- 308 अपने वैभव, ऐश्वर्य आदि की लोगों द्वारा की जाती प्रशंसा को सुनकर प्रसन्न होना अथवा घी, तेल आदि के पात्र खुले रहन् पर उसमें संपातिम जीवों का गिरकर विनाश होना, सामंतोपनिपातिकी क्रिया है ।
प्रश्न- 309 नैशस्त्रिकी क्रिया किसे कहते है ?
जवाब- 309 राजा आदि की आज्ञा से यंत्रो द्वारा कुँए, तालाब आदि का पानी निकाल कर बाहर फेंकने से, स्वार्थवश योग्य शिष्य या पुत्र को बाहर निकाल देने से, शुद्ध एषनीय भिक्षा होने पर भी निष्कारण परठ देने से जो तथा राजादि की आज्ञा से शस्त्रादि बनवाने पर जो क्रिया लगती है, उसे नैशस्त्रिकी क्रिया कहते है ।
प्रश्न- 310 स्वहस्तिकी क्रिया किसे कहते है ?
जवाब- 310 किसी भी जीव को अपने हाथ में लेकर फेंकने, पटकने, ताडना करने या मारने से जो क्रिया लगती है, उसे स्वहस्तिकी क्रिया कहते है ।
प्रश्न- 311 आज्ञापनिकी क्रिया किसे कहते है ?
जवाब- 311 जीव को आज्ञा करके उससे जीव (व्यक्ति)- अजीव(वस्तु) मंगवाना आज्ञापनिकी क्रिया है ।
प्रश्न- 312 वैदारणिकी क्रिया किसे कहते है ?
जवाब- 312 जीव तथा अजीव का विदारण (चिरना-फाडना) करने से या वितारण (वंचना-ठगाई) करने से लगने वाली क्रिया वैदारणिकी है ।
प्रश्न- 313 अनाभोगिकि क्रिया किसे कहते है ?
जवाब- 313 अनुपयोग (अजयणा-अविवेक) पूर्वक चलने-फिरने से तथा चीजों को रखने-उठाने से लगने वाली क्रिया अनाभोगिकी है ।
प्रश्न- 314 अनवकांक्षप्रत्ययिकी क्रिया किसे कहते है ?
जवाब- 314 स्व-पर के हिताहित का विचार नहीं करते हुए तथा इस लोक व परलोक की परवाह न करते हुए जो क्रिया की जाती है,उसे अनवकांक्षप्रत्ययिकी क्रिया कहते है।
प्रश्न- 315 प्रायोगिकी क्रिया किसे कहते है ?
जवाब- 315 मन-वचन-काया के अशुभ-सावद्य व्यापार से लगने वाली क्रिया को प्रायोगिकी क्रिया है ।
प्रश्न- 316 सामुदानिकी क्रिया किसे कहते है ?
जवाब- 316 जिस पाप कर्म के द्वारा समुदाय रुप में आठों कर्मों का बंध हो तथा सामुदायिक रुप से अनेक जीवों के एक साथ कर्मबंध हो, उसे सामुदानिकी क्रिया कहते है ।
प्रश्न- 317 प्रैमिकी क्रिया किसे कहते है ?
जवाब- 317 स्वयं प्रेम या राग करना अथवा दूसरे को प्रेम पैदा हो ऐसा बोलना, प्रैमिकी क्रिया है ।
प्रश्न- 318 द्वैषिकी क्रिया किसे कहते है ?
जवाब- 318 स्वयं द्वेष करना तथा दूसरे को द्वेष पैदा हो ऐसी क्रिया करना, द्वैषिकी क्रिया है ।
प्रश्न- 319 ईर्यापथिकी क्रिया किसे कहते है ?
जवाब- 319 कर्मबंध के 5 हेतुओं में से केवल योग रुप एक ही हेतु द्वारा बन्ध होता है, वह ईर्यापथिकी क्रिया है । यह 11वें, 12वें, 13वें गुणस्थानक में रहे हुए वीतरागी आत्मा की ही होती है ।
प्रश्न- 320 आश्रव तत्व जानने का उद्देश्य लिखो ?
जवाब- 320 आश्रव यानि कर्मो का आना । आश्रव के 42 भेदों का ज्ञान कर स्व-स्वभाव में आने के लिए इनका त्याग करें, परंतु गृहस्थावस्था में पुण्याश्रव भव-अटवी से पार उतारने में सहायभूत हो सकता है, अतः इस का उपयोगपूर्वक स्वीकार कर आत्मस्वरुप की प्राप्ति करना, इस तत्व को जानने का उद्देश्य है ।
प्रश्न- 321 संवर किसे कहते है ?
जवाब- 321 आश्रव का निरोध ही संवर है । अर्थात् जिन क्रियाओं से आते हुए कर्म रुक बंद हो जाये, वह क्रिया संवर कहलाती है ।
प्रश्न- 322 संवर के 20 भेद कौन कौन से है ?
जवाब- 322 1.सम्यक्त्व संवरः- सुदेव, सुगुरु, सुधर्म पर श्रद्धा रखना ।
2.व्रत संवरः- पच्चक्खाण करना ।
3.अप्रमाद संवरः- 5 प्रकार का प्रमाद नहीं करना ।
4.अकषाय संवरः- 25 कषायों का सेवन नहीं करना ।
5.योग संवरः- मन, वचन, काया की शुभप्रवृत्ति ।
6.दया संवरः- जीवों की हिंसा नहीं करना ।
7.सत्य संवरः- झूठ नहीं बोलना ।
8.अचौर्य संवरः- चोरी नहीं करना ।
9.शील संवरः- ब्रह्मचर्य का सेवन करना ।
10.अपरिग्रह संवरः- परिग्रह नहीं करना ।
11.श्रोत्रेन्द्रिय संवरः- कान को वश में रखना ।
12.चक्षुरिन्द्रिय संवरः- आँख को वश में रखना ।
13.घ्राणेन्द्रिय संवरः- नाक को वश में रखना ।
14.रसनेन्द्रिय संवरः- जीभ को वश में रखना ।
15.स्पर्शेन्द्रिय संवरः- शरीर को वश में रखना ।
16.मन संवरः- मन को वश में रखना ।
17.वचन संवरः- वचन को वश में रखना ।
18.काय संवरः- काया को वश में रखना ।
19.भंडोपकरण संवरः- वस्त्र-पात्र आदि उपकरण जयणा से रखना ।
20.सुसंग संवरः- खराब संगति से दूर रहना ।
प्रश्न- 323 सुदेव, सुगुरु और सुधर्म पर आस्था रखने से कौनसा संवर होता है ?
जवाब- 323 सुदेव, ,गुगुरु और सुधर्म पर श्रद्धा रखने से सम्यक्त्व (समकित) संवर की आराधना होती है ।
प्रश्न- 324 व्रत, नियम, त्याग, प्रत्याख्यान ग्रहण करना कौनसा संवर है ?
जवाब- 324 व्रत, नियम, त्याग, प्रत्याख्यान ग्रहण करना दूसरा व्रत संवर है ।
प्रश्न- 325 क्रोध नहीं करने से क्या होता है ?
जवाब- 325 क्रोध नहीं करने से अकषाय रुप संवर की आराधना होती है ।
प्रश्न- 326 मन पसंद मिष्ठान्न का त्याग, स्वाद के लिए ऊपर से नमक लेने का त्याग करने से कौनसे संवर की आराधना होती है ?
जवाब- 326 उपरोक्तानुसार त्याग करने से रसनेन्द्रिय को वश में रखने रुप संवर की आराधना होती है ।
प्रश्न- 327 पुस्तक, आसन आदि वस्तुओं को यतना पूर्वक लेने और रखने से कौनसे संवर की आराधना होती है ?
जवाब- 327 पुस्तक, आसन आदि वस्तुओं को यतना पूर्वक लेने और रखने में संवर के उन्नीसवें भेद की आराधना होती है ।
प्रश्न- 328 संवर के मुख्य कितने भेद होते है ?
जवाब- 328 पांच – 1.सम्यक्त्व 2.विरति 3.अप्रमाद 4.अकषाय 5.शुभयोग ।
प्रश्न- 329 सम्यक्त्व किसे कहते है ?
जवाब- 329 सुदेव-सुगुरु-सुधर्म पर या जीवादि नव तत्वों पर द्रढ श्रद्धान सम्यक्त्व है ।
प्रश्न- 330 सम्यक्त्व कैसे जाना जाता है ?
जवाब- 330 पांच लिंगो अथवा लक्षणो से सम्यक्त्व जाना जाता है ।
प्रश्न- 331 सम्यक्त्व के पांच लक्षण कौन से है ?
जवाब- 331 1.शम 2.संवेग 3.निर्वेद 4.अनुकंपा 5.आस्तिक्य ।
प्रश्न- 332 शम किसे कहते है ?
जवाब- 332 मिथ्यात्व का शमन करना, शत्रु-मित्र पर समभाव रखना, शम है ।
प्रश्न- 333 संवेग किसे कहते है ?
जवाब- 333 धर्म में रुचि, वैराग्यभाव व मोक्ष की अभिलाषा संवेग है ।
प्रश्न- 334 निर्वेद किसे कहते है ?
जवाब- 334 भोग व संसार में अरुचि रखना, संसार को कैदखाना समझना, आरंभ परिग्रह से निवृत होना, निर्वेद है ।
प्रश्न- 335 अनुकंपा किसे कहते है ?
जवाब- 335 दुःखी जीवों पर दया करना, उनके दुःख को दूर करने का प्रयास करना अनुकंपा है ।
प्रश्न- 336 आस्तिक्य किसे कहते है ?
जवाब- 336 धर्म, पुण्य, पाप, आत्मा, लोक, परलोक, स्वर्ग-नरक में आस्था रखना अर्थात् उनके अस्तित्व को स्वीकारना, आस्तिक्य है ।
प्रश्न- 337 विरति किसे कहते है ?
जवाब- 337 प्रणातिपात, मृषावाद, अदत्तादान, मैथुन, परिग्रह, रात्रिभोजन आदि पाप क्रियाओं का देशतः या सर्वतः त्याग करना, विरति कहलाता है ।
प्रश्न- 338 विरति के कितने भेद है ?
जवाब- 338 दो – 1.देशविरति 2.सर्वविरति ।
प्रश्न- 339 देशविरति किसे कहते है ?
जवाब- 339 अपनी शक्ति के अनुसार व्रत पच्चक्खाण करना, अथवा देशतः (आंशिक) अशुभाश्रवों का त्याग करना, देशविरति कहलाता है ।
प्रश्न- 340 सर्वविरति किसे कहते है ?
जवाब- 340 सभी पापो का सर्वथा त्याग करना सर्वविरति कहलाता है ।
प्रश्न- 341 अप्रमाद किसे कहते है ?
जवाब- 341 पांचो प्रमाद छोडना अप्रमाद है । अप्रमाद से प्रमादरुप आश्रव द्वार बंद हो जाते है ।
प्रश्न- 342 अकषाय किसे कहते है ?
जवाब- 342 कषायों का शमन करना, समभाव रखना अकषाय है ।
प्रश्न- 343 नवतत्व में संवर के कितने भेदों का उल्लेख है ?
जवाब- 343 नवतत्व में संवर के 57 भेद इस प्रकार उल्लिखित है ।
समिति-5, गुप्ति-3, परिषह-22, यतिधर्म-10, भावना-12, चारित्र-5 ।
प्रश्न- 344 समिति किसे कहते है ?
जवाब- 344 आवश्क कार्य के लिये यतनापूर्वक सम्यक् चेष्टा या प्रवृत्ति को समिति कहते है ।
प्रश्न- 345 समिति के कितने भेद हैं ?
जवाब- 345 पांच- 1.ईर्या समिति. 2.भाषा समिति 3.एषणा समिति 4.आदान समिति 5.पारिष्ठापनिका समिति ।
प्रश्न- 346 ईर्या समिति किसे कहते है ?
जवाब- 346 ईर्या अर्थात् मार्ग में उपयोग पूर्वक चलना । ज्ञान, दर्शन, चारित्र के निमित्त से मार्ग में युगमात्र (3 1/2 हाथ) भूमि को एकाग्र चित्त से देखते हुए और सजीव मार्ग का त्याग करते हुए यतनापूर्वक गमनागमन करना, ईर्या समिति है ।
प्रश्न- 347 भाषा समिति किसे कहते है ?
जवाब- 347 आवश्यकता होने पर सत्य, हित, मित, प्रिय, निर्दोष और असंदिग्ध भाषा बोलना, भाषा समिति है ।
प्रश्न- 348 एषणा समिति किसे कहते हे ?
जवाब- 348 सिद्धन्त में कही गयी विघि के अनुसार दोष रहित आहार-पानी आदि ग्रहण करना एषणा समिति है । यह समिति मुख्य रुप से साधु के तथा गौण रुप से पौषधव्रधारी श्रावक के होती है ।
प्रश्न- 349 गवेषणा किसे कहते है ?
जवाब- 349 गवेषणा का अर्थ है – खोजना, ढूंढना । श्रमण वृत्ति के अनुसार 16 उत्पादना दोषों से रहित निर्दोष आहार खोजना, गवेषणा कहलाता है ।
प्रश्न- 350 आहार के कितने दोष है ?
जवाब- 350 सैंतालीस – 16 उद्गम (गृहस्थ के द्वारा लगने वाले दोष), 16 उत्पादना – (साधु से लगने वाले दोष), 10 एषणा (साधु तथा दाता दोनों की ओर से लगने वाले दोष), 5 मांडली (आहार करते समय) ।
प्रश्न- 351 आदान समिति किसे कहते है ?
जवाब- 351 वस्त्र, पात्र, आसन, शच्या, संस्तारक आदि संयम के उपकरण तथा ज्ञानोपकरणों को उपयोगपूर्वक प्रमार्जना करके उठाना और रखना आदान समिति है । इसका अपर नाम आदान-भंड-मत्त-निक्षेपणा समिति है । आदान अर्थात् ग्रहण करना । भंड- मत्त – पात्र-मात्रक आदि को जयाणापूर्वक । निक्षेपणा – रखना ।
प्रश्न- 352 पारिष्ठापनिका समिति किसे कहते है ?
जवाब- 352 परिष्ठापना (त्याग करना) के 10 दोषों का त्याग करते हुए लघुनीति, बडीनीति, थूंक, कफ, अशुद्धआहार, निरुपयोगी उपकरणों का विधि तथा जयणापूर्वक त्याग करना पारिष्ठापनिका समिति है । इसका दूसरा नाम उच्चार प्रस्त्रवण खेल जल्ल सिंघाण पारिष्ठापनिका समिति हैं ।
उच्चार – बडीनीत (मल)
प्रस्त्रवण – मूत्र
खेल – श्लेष्म (कफ)
जल्ल – शरीर का मैल
सिंघाण – नाक का मैल
पारिष्ठापनिका – परठना, उत्सर्ग करना या त्याग करना ।
प्रश्न- 353 गुप्ति किसे कहते हैं ?
जवाब- 353 " गुप्यते रक्ष्यते त्रायते वा गुप्तिः " गोपन या रक्षण करे, वह गुप्ति है । संसार में संसरण करते प्राणी की जो रक्षा करे, वह गुप्ति है । अथवा मन, वाणी तथा शरीर को हिंसा आदि सर्व अशुभ प्रवृत्तियों से निग्रह (वश) करके रखना, सम्यक् प्रकार से उपयोग पूर्वक निवृत्ति रखना गुप्ति है ।
प्रश्न- 354 मनोगुप्ति किसे कहते है ?
जवाब- 354 आर्तध्यान, रौद्रध्यान, संरम्भ, समारंभ तथा आरंभ संबंधी संकल्प न करना, शुभाशुभ योगों को रोककर योगनिरोध अवस्था को प्राप्त करना मनोगुप्ति है ।
प्रश्न- 355 वचनगुप्ति किसे कहते है ?
जवाब- 355 वचन के अशुभ व्यापार अर्थात् संरम्भ-समाररंभ तथा आरंभ संबंधी वचन का त्याग करना, विकथा नहीं करना, मौन रहना वचन गुप्ति है ।
प्रश्न- 356 भाषा समिति और वचनगुप्ति में क्या अन्तर है ?
जवाब- 356 भाषा समिति निरवद्य वचन बोलने रुप एक ही प्रकार की है जबकी वचनगुप्ति सर्वथा वचन निरोध व निरवद्य (निर्दोष) वचन बोलने रुप दो प्रकार की है ।
प्रश्न- 357 कायगुप्ति किसे कहते है ?
जवाब- 357 खडा होना, उठना, बैठना, सोना आदि कायिक प्रवृत्ति न करना अर्थात् काया को सावद्य प्रवृत्ति से रोकना तथा निरवद्य प्रवृत्ति में जोडना कायगुप्ति है ।
प्रश्न- 358 समिति तथा गुप्ति में क्या अंतर है ?
जवाब- 358 समिति में सत्क्रिया का प्रवर्तन मुख्य है और गुप्ति में असत्क्रिया का निषेध मुख्य है ।
प्रश्न- 359 अष्टप्रवचनमाता किसे और क्यों कहा गया है ?
जवाब- 359 5 समिति तथा 3 गुप्ति, ये आठ प्रवचन माता कही जाती है । इन आठों से ही संवर धर्म रुपी पुत्र का पालनपोषण होता है । इसलिये इन्हें प्रवचनमाता कहा गया है ।
प्रश्न- 360 परिषह किसे कहते है ?
जवाब- 360 'परिषह' शब्द परि+सह के संयोग से बना है । अर्थात् परिसमन्तात् – सब तरफ से, सम्यक् प्रकार से, सह-सहना, समभावपूर्वक सहन करना परिषह कहलाता है ।
प्रश्न- 361 क्षुधा परिसह किसे कहते है ?
जवाब- 361 संयम की मर्यादा के अनुसार भिक्षा न मिलने पर भूख को समभाव पूर्वक सहन करना परंतु सावद्य या अशुद्ध आहार ग्रहण न करना व आर्तध्यान भी नहीं करना, क्षुधा परिषह कहलाता है ।
प्रश्न- 362 पिपासा परिसह किसे कहते है ?
जवाब- 362 जब तक निर्दोष – अचित्त जल न मिले तब तक प्यास सहन करना पर सचित्त अथवा सचित्त – अचित्त मिश्रित जल नहीं पीना, पिपासा परीषह कहलाता है ।
प्रश्न- 363 शीत परिषह किसे कहते है ?
जवाब- 363 अतिशय ठंड पडने से अंगोपांग अकड जाने पर भी अपने पास जो मर्यादित एवं परिमित वस्त्र हो, उन्हीं से निर्वाह करना एवं आग आदि से ताप न लेना, शीत परिषह है ।
प्रश्न- 364 उष्ण परिषह किसे कहते है ?
जवाब- 364 गर्मी के मौसम में तपी हुई शिला, रेत आदि पर पदत्राण के बिना चलना, भीषण गर्मी में भी स्नान-विलेपन की इच्छा न करना, मरणान्त कष्ट आने पर भी छत्र-छत्री की छाया, वस्त्रादि अथवा पंखे की हवा न लेना, उष्ण परिषह है ।
प्रश्न- 365 दंश परिषह किसे कहते है ?
जवाब- 365 वर्षाकाल में डांस, मच्छर, खटमल आदि का उपद्रव होने पर भी धुएँ, औषध आदि का प्रयोग न करना, न उन जीवों पर द्वेष करना बल्कि उनके डंक की वेदना को समभावपूर्वक सहन करना, दंश परिषह कहलाता है ।
प्रश्न- 366 अचेल परिषह किसे कहते है ?
जवाब- 366 अपने पास रहे हुए अल्प तथा जीर्ण-शीर्ण वस्त्रों में संयम निर्वाह करना, बहुमूल्य वस्त्रादि लेने की इच्छा न करना, अत्यल्प मिले तो भी दीनता का विचार न करना, अचेल परीषह है ।
प्रश्न- 367 अरति परिषह किसे कहते है ?
जवाब- 367 मन के अनुकूल साधनों के न मिलने पर आकुल-व्याकुल न होना, उदास न होना, संयम पालन में अरुचि पैदा न होना, धर्म क्रिया को करते हुए उल्लासभाव रहना, अरति परिषह है ।
प्रश्न- 368 स्त्री परिषह किसे कहते है ?
जवाब- 368 स्त्रियों को संयम मार्ग में विघ्न का कारण समझकर सराग द्रष्टि से न देखना, उनके अंग-उपांग, कटाक्ष, हाव-भाव पर ध्यान न देना, विकार भरी द्रष्टि से न देखना, ब्रह्मचर्य में द्रढ रहना, स्त्री परिषह हैं ।
प्रश्न- 369 चर्या परिषह किसे कहते है ?
जवाब- 369 चर्या अर्थात् चलना, विहार करना । चलने में जो श्रान्ति- थकावट होती है तथा विहार के समस्त कष्टों को समभावपूर्वक सहन करना तथा मासकल्प की मर्यादानुसार विहार करना, चर्या परिषह है ।
प्रश्न- 370 निषद्या परिषह किसे कहते है ?
जवाब- 370 श्मशान, शून्य गृह, गुफा आदि में ध्यान अवश्था में मनुष्य – पशु – देव द्वारा किसी भी प्रकार का अनुकूल अथवा प्रतिकूल उपसर्ग आने पर उससे बचने के लिये उस स्थान को छडकर न जाना बल्कि उन उपसर्गों को द्रढतापूर्वक सहन करना, निषद्या परिसह है ।
प्रश्न- 371 शच्या परिषह किसे कहते हैं ?
जवाब- 371 सोने के लिये उंची-नीची, कठोर जमीन मिलने पर भी मन में किसी प्रकार का द्वेष भाव न लाकर सहजतापूर्वक स्वीकार कर लेना, शच्या परिसह है ।
प्रश्न- 372 आक्रोश परिषह किसे कहते हैं ?
जवाब- 372 कोइ अज्ञानी गाली दे, कटुवचन कहे, तिरस्कार या अपमान करें तब भी उससे द्वेष न करना, आक्रोश परिषह हैं ।
प्रश्न- 373 वध परिषह किसे कहते हैं ?
जवाब- 373 कोइ अज्ञानी पुरुष साधु को डंडे से, लाठी या चाबुक से मारे-पीटे अथवा हत्या भी कर दे तब भी मन में किञ्चित रोष न लाना, वध परिषह हैं ।
प्रश्न- 374 याचना परिषह किसे कहते है ?
जवाब- 374 साधु कोई भी वस्तु मांगे बिना ग्रहण नहीं करता । उसकी प्राप्ति के लिये 'में राजा हूँ, धनाढ्य हूँ' इत्यादि मान एवं अहं का त्याग करके घर-घर से भिक्षा मांगकर लाना, याचना करते समय अपमान व लज्जा आदि को जीतना, याचना परिषह है ।
प्रश्न- 375 अलाभ परिषह किसे कहते है ?
जवाब- 375 मान तथा लज्जा का त्याग कर घर घर भिक्षा मांगने पर भी न मिले तो लाभान्तराय कर्म का उदय जानकर शान्त रहना, दुःखी अथवा उत्तेजित न होना, अलाभ परिषह है ।
प्रश्न- 376 रोग परिषह किसे कहे है ?
जवाब- 376 शरीर में ज्वर आदि रोग आने पर 'शरीर व्याधियों का घर है' ऐसा मानकर चिकित्सा न कराना, रोगावस्था में भी मन को शान्त तथा स्वस्थ रखना रोग परिषह है ।
प्रश्न- 377 तृण स्पर्श परिषह किसे कहते है ?
जवाब- 377 दर्भ, घास आदि पर सोने से घास के तृणों के कठोर स्पर्श के चुभने से अथवा खुजली आदि होने पर भी उद्विग्न न होना, तृणस्पर्श परिषह है ।
प्रश्न- 378 मल परिषह किसे कहते है ?
जवाब- 378 साधु के लिये स्नान श्रुंगार का कारण है और श्रुंगार विषय का कारण रुप है, अतः शरीर पर स्वेद-पसीने के कारण मैलादि जमने पर दुर्गंध आती हो तब भी उसे दूर करने के लिये स्नानादि की इच्छा न करना, मल परिसह है ।
प्रश्न- 379 सत्कार परिषह किसे कहते है ?
जवाब- 379 समायिक, धार्मिक, राष्ट्रिय सत्कार प्राप्त होने पर भी मनमें हर्ष तथा गर्व न करना, सत्कार परीसह है ।
प्रश्न- 380 प्रज्ञा परिषह किसे कहते है ?
जवाब- 380 बहुश्रुत गीतार्थ होने पर बहुत से लोग प्रश्न पूछते हैं, तो कोई विवाद भी करते हैं । इससे खिन्न होकर ज्ञान को दुःखदायक और अज्ञान को सुखदायक नहीं मानकर समभाव से लोगों की शंका व जिज्ञासाओं को समाहित करना, प्रज्ञा परिषह है ।
प्रश्न- 381 अज्ञान परिसह किसे कहते है ?
जवाब- 381 ज्ञान प्राप्ति के लिये अथक प्रयास, तपस्या तथा ज्ञानाभ्यास करने पर भी ज्ञान की प्राप्ति न होने पर अपने आप को पुण्यहीन, निर्भाग मनाकर खिन्न न होना अपितु ज्ञनावरणीय कर्म का उदय समझकर चित्त को शांत रखना, अज्ञान परिसह है ।
प्रश्न- 382 सम्यक्त्व परिसह किसे कहते है ?
जवाब- 382 नाना प्रकार के प्रलोभन अथवा अनेक कष्ट व उपसर्ग आने पर भी अन्य पाखंडियों के आडम्बर पर मोहित न होकर सर्वज्ञ प्रणित धर्म तत्व पर अटल श्रद्धा रखना, शास्त्रीय सूक्ष्म
प्रश्न- 383 अनुकूल परिषह किसे कहते है ?
जवाब- 383 जिसे आत्मा को सुखका अनुभव हो, वे अनुकूल परीसह कहलाते हैं । स्त्री, प्रज्ञा तथा सत्कार ये तीन अनुकूस परिषह हैं ।
प्रश्न- 384 प्रतिकूल परिषह किसे कहते है ?
जवाब- 384 जिससे आत्मा को दुःख या कष्ट का अनुभव हो, वे प्रतिकुल परिसह है । अनुकूल तीन परिषहों को छोडकर बाकीके 19 परिषह प्रतिकूल है ।
प्रश्न- 385 यतिधर्म किसे कहते है ?
जवाब- 385 यति अर्थात् साधु । साधु के द्वारा पालन किया जानेवाला धर्म यतिधर्म है अथवा मोक्ष मार्ग में जो यत्न करे, वह यति है । उसका धर्म यति धर्म है ।
प्रश्न- 386 यति धर्म के कितने भेद है ?
जवाब- 386 दस- 1.क्षमा 2.मार्दव 3.आर्जव 4.मुक्ति 5.तप 6.संयम 7.सत्य 8.शौच. 9.आकिंचन्य 10.ब्रह्मचर्य ।
प्रश्न- 387 क्षमाधर्म से क्या तात्पर्य है ?
जवाब- 387 प्राणीमात्र के प्रति मैत्री भाव का सम्बन्ध रखते हुए किसी पर क्रोध न करना, शक्ति के होने पर भी उसका उपयोग न करना क्षमाधर्म हैं ।
प्रश्न- 388 मार्दव धर्म किसे कहते हैं ?
जवाब- 388 नम्रता रखना अथवा मान का त्याग करना । जाति, कुल, रुप, ऐश्वर्य, तप, ज्ञान, लाभ और बल, इन आठों मद में से किसी भी प्रकारका मद न करना, मार्दव धर्म कहलाता है ।
प्रश्न- 389 आर्जव धर्म किसे कहते है ?
जवाब- 389 आर्जव अर्थात् सरलता। कपट रहित होना, या माया, दम्भ, ठगी आदि का सर्वथा त्याग करना, आर्जव धर्म है ।
प्रश्न- 390 मुक्ति धर्म किसे कहते है ?
जवाब- 390 निर्लोभता । लोभ को जीतना व पौद्गलिक पदार्थो पर आसक्ति न रखना मुक्ति धर्म है ।
प्रश्न- 391 तप धर्म किसे कहते है ?
जवाब- 391 इच्छाओं का रोध (रोकना) करना ही तप है । तप को संवर तथा निर्जरा, दोनों तत्वों के भेद में गिना गया है क्योंकि इससे संवर तथा निर्जरा, दोनों होते है ।
प्रश्न- 392 संयम धर्म किसे कहते है ?
जवाब- 392 हिंसादि अशुभ प्रवृत्तियों से निवृत्त होकर सं-सम्यक् प्रकार से, यम- पंच महाव्रतों या अणुव्रतों का पालन करना, संयम धर्म है ।
प्रश्न- 393 सत्य घर्म किसे कहते है ?
जवाब- 393 सत्य, हित, मित, निर्दोष, मधुर वचन बोलना सत्यधर्म है ।
प्रश्न- 394 शौच धर्म किसे कहते है ?
जवाब- 394 शौच अर्थात् पवित्रता । मन, वचन, काया तथा आत्मा की पवित्रता । द्रव्य तथा भाव से पवित्र रहना शौचकर्म है ।
प्रश्न- 395 आकिंचन्य धर्म किसे कहते है ?
जवाब- 395 अ अर्थात् नहीं, किंचन-कोइभी । किसी भी प्रकार का परिग्रह या ममत्व न रखना, अकिंचन धर्म है ।
प्रश्न- 396 ब्रह्मचर्य धर्म किसे कहते है ?
जवाब- 396 नववाड सहित मन, वचन, काया से पूर्ण ब्रह्मचर्य का पालन करना ब्रह्मचर्य है ।
प्रश्न- 397 ब्रह्मचर्य की नववाड कौनसी है ?
जवाब- 397 वाड से जैसे क्षेत्र का रक्षण होता है, उसी प्रकार नववाड से ब्रह्मचर्य का रक्षण होता है । उसके नौ प्रकार है –
1. संसक्त वसतित्यागः- जहाँ पर स्त्री, पशु व नपुंसक रहते हो, ऐसे स्थान का त्याग करना ।
2. स्त्रीकथा त्यागः- स्त्री के रुप, लावण्य की चर्चा न करना ।
3. जिस स्थान पर स्त्री बैठी हो, उस पर 48 मिनिट तक न बैठना ।
4. अंगोपांग निरीक्षण त्यागः- स्त्री के अंगोपांग न देखना ।
5. संलग्न दीवार त्यागः- संलग्न दीवार में जहाँ दम्पति रहते हो, ऐसे स्थान का त्याग करना ।
6. पूर्वक्रीडित भोगों का विस्मरणः– पूर्वकाल में भोगे हुए भोगों को याद न करना ।
7. प्रणीत आहार त्यागः- गरिष्ठ-मादक, घी से झरते हुआ आहार न करना ।
8. अति आहार त्यागः- प्रमाण से अधिक भोजन न करना ।
9. विभूषा त्याग – स्नान, इत्र, तैल आदि से मालिश आदि शरीर का शोभा बढानेवाली प्रवृत्तियों का त्याग करना ।
प्रश्न- 398 क्या यतिधर्म केवळ साधु द्वारा ही आचरणीय है ?
जवाब- 398 यद्यपि इसका नाम श्रमणधर्म है तथापि श्रावक भी देशविरति रुप चारित्र धर्म का पालन करता है, अतः उसके लिये एवं सभी के लिये दशविध धर्म आचरणीय है ।
प्रश्न- 399 भावना किसे कहते है ?
जवाब- 399 चित्त को स्थिर करने के लिये किसी तत्व पर पुनः पुनः चिंतन करना भावना है । अथवा भावना का सामान्य अर्थ तो मन के विचार, आत्मा के शुभाशुभ परिणाम है । इसका दूसरा नाम अनुप्रेक्षा भी है । मोक्षमार्ग के प्रति भाव की वृद्धि हो, ऐसा चिंतन करना भावना है ।
प्रश्न- 400 भावनाएँ कितनी व कौन कौन सी है ?
जवाब- 400 भावनाएँ बारह हैं – 1.अनित्य 2.अशरण 3.संसार 4.एकत्व 5.अन्यत्व 6.अशुचित्व 7.आश्रव 8.संवर 9.निर्जरा 10.लोकस्वभाव 11.बोधिदुर्लभ 12.धर्म साधक अरिहंत दुर्लभ ।
नवतत्त्व प्रकरण प्रश्नोत्तरी
प्रश्न- 201 सूक्ष्म द्रव्य पुद्गल परावर्त काल किसे कहते है ?
जवाब- 201 उपरोक्त सात वर्गणा के सभी पुद्गलों को औदारिक आदि किसी भी एक वर्गणा के रुप में उपभोग कर छोडने में जितना समय लगता है, उस काल को सूक्ष्म द्रव्य पुद्गल परावर्त काल कहते है ।
प्रश्न- 202 बादर क्षेत्र पुद्गल परावर्त काल किसे कहते है ?
जवाब- 202 चौदह राजलोक के सभी आकाश प्रदेशों का बिना क्रम के मृत्यु द्वारा स्पर्श करते हुए किसी एक जीव को जितना समय लगता है, उस काल को बादर क्षेत्र पुद्गल परावर्त काल कहते है ।
प्रश्न- 203 सूक्ष्म क्षेत्र पुद्गल परावर्त काल किसे कहते है ?
जवाब- 203 चौदह राजलोक के सभी आकाश प्रदेशों को क्रमशः प्रदेश के अनुसार मृत्यु द्वारा स्पर्श करते हुए किसी एक जीव को लगने वाला काल सूक्ष्म क्षेत्र पुद्गल परावर्त काल है ।
प्रश्न- 204 बादर काल पुद्गल परावर्त काल किसे कहते है ?
जवाब- 204 कालचक्र के संपूर्ण समय को बिना क्रम के मृत्यु द्वारा स्पर्श करने में जो समय लगता है, उसे बादर काल पुद्गल परावर्त काल कहते है ।
प्रश्न- 205 सूक्ष्म काल पुद्गल परावर्त काल किसे कहते है ?
जवाब- 205 कालचक्र के संपूर्ण समय को क्रमशः मृत्यु द्वारा स्पर्श करने में जो समय लगता है, उसे सूक्ष्म काल पुद्गल परावर्त काल कहते है ।
प्रश्न- 206 बादर भाव पुद्गल परावर्त काल किसे कहते है ?
जवाब- 206 सभी रसबंध के अध्यवसाय स्थानकों को बिना क्रम के मृत्यु द्वारा स्पर्श करने में जितना समय लगता है, उसे बादर भाव पुद्गल परावर्त काल कहते है ।
प्रश्न- 207 सूक्ष्म भाव पुद्गल परावर्त काल किसे कहते है ?
जवाब- 207 रसबन्ध के एक एक अध्यवसाय को मृत्यु द्वारा क्रमशः स्पर्श करने में लगने वाला समय सूक्ष्म भाव पुद्गल परावर्त काल कहलाता है ।
प्रश्न- 208 पल्योपम के कुल कितने प्रकार है ?
जवाब- 208 पल्योपम कुल छह प्रकार हैः- 1.उद्धार पल्योपम 2.अद्धा पल्योपम 3.क्षेत्र पल्योपम इन तीनों के सूक्ष्म तथा बादर ऐसे दो-दो भेद होने से छह भेद हैं ।
प्रश्न- 209 सूक्ष्म उद्धार पल्योपम किसे कहते है ?
जवाब- 209 बादर उद्धार पल्योपम की भाँति कुएँ में सात दिन के नवजात शिशु के एक बाल के असंख्य टुकडों से इस तरह ठसा-ठस भर दिया जाय कि उसके उपर से चक्रवर्ती की विशाल सेना पसार हो जाय तब भी उसके ठसपण में किंचित् मात्र भी फर्क न आये । उस कूप में से प्रति समय में एक-एक केश का टुकडा निकाले । इस प्रकार करते हुए जब केश राशि से पूरा कुआं खाली हो जाय, उतने समय की अवधि अथवा परिमाण को सूक्ष्म उद्धार पल्योपम कहते है ।
प्रश्न- 210 बादर अद्धा पल्योपम किसे कहते है ?
जवाब- 210 बादर उद्धार पल्योपम की भाँति बाल से भरे कुएँ में से प्रति सौ वर्ष में बाल का टुकडा निकाला जाये और जितने समय में वह खाली हो जाय, उसे बादर अद्धा पल्योपम कहते है ।
प्रश्न- 211 सूक्ष्म अद्धा पल्योपम किसे कहते है ?
जवाब- 211 सूक्ष्म उद्धार पल्योपम की भाँति केश से भरे हुए कुएँ में से प्रती सौ वर्ष में एक टुकडा निकाला जाये और जितने समय में वह खाली हो जाय, उसे सूक्ष्म अद्धा पल्योपम कहते है ।
प्रश्न- 212 बादर क्षेत्र पल्योपम किसे कहते है ?
जवाब- 212 बादर उद्धार पल्योपम को समझाने के लिये कुएँ में जो वालाग्र भरा है, उस वालाग्र को स्पर्श किए हुए आकाश प्रदेश में से एक-एक आकाश प्रदेश को एक-एक समय में बाहर निकालने में जितना समय लगे, उस समय को बादर क्षेत्र पल्योपम कहते है ।
प्रश्न- 213 सूक्ष्म क्षेत्र पल्योपम किसे कहते है ?
जवाब- 213 सूक्ष्म उद्धार पल्योपम को समझाने के लिये कुएँ में जो वालाग्र भरा है, उस वालाग्र को स्पर्श किए हुए और नहीं स्पर्शे हुए आकाश प्रदेशों में से एक-एक आकाश प्रदेश को एक-एक समय में बाहर निकालने में जितना समय लगे, उस समय को सूक्ष्म क्षेत्र पल्योपम कहते है ।
प्रश्न- 214 सागरोपम के कितने भेद है ?
जवाब- 214 पल्योपम की भाँति ही सागरोपम के भी छह भेद है – 1.उद्धार सागरोपम 2.अद्धा सागरोपम 3.क्षेत्र सागरोपम । सूक्ष्म तथा बादर रुप दो भेदों की अपेक्षा से प्रत्येक के पुनः दो-दो भेद है ।
प्रश्न- 215 बादर उद्धार सागरोपम किसे कहते है ?
जवाब- 215 दस कोडाकोडी बादर उद्धार पल्योपम का एक बादर उद्धार सागरोपम होता है ।
प्रश्न- 216 सूक्ष्म उद्धार सागरोपम किसे कहते है ?
जवाब- 216 दस कोडाकोडी सूक्ष्म उद्धार पल्योपम का एक सूक्ष्म उद्धार सागरोपम होता है ।
प्रश्न- 217 अद्धा सागरोपम के दोनों भेद स्पष्ट कीजिए ?
जवाब- 217 1. दस कोडाकोडी बादर अद्धा पल्योपम का एक बादर अद्धा सागरोपम होता है ।
2. दस कोडाकोडी सूक्ष्म अद्धा पल्योपम का एक सूक्ष्म अद्धा सागरोपम होता है ।
प्रश्न- 218 क्षेत्र सागरोपम के दोनों भेद स्पष्ट कीजिए ?
जवाब- 218 1. दस कोडाकोडी बादर क्षेत्र पल्योपम का एक बादर क्षेत्र सागरोपम होता है ।
2. दस कोडाकोडी सूक्ष्म क्षेत्र पल्योपम का एक सूक्ष्म क्षेत्र सागरोपम होता है ।
प्रश्न- 219 एक काल चक्र में कितने आरे होते है ?
जवाब- 219 एक काल चक्र में छह अवसर्पिणी काल के तथा छह उत्सर्पिणी काल के कुल 12 आरे होते है ।
प्रश्न- 220 अवसर्पिणी काल किसे कहते है ?
जवाब- 220 जिस काल में जीवों के संघयण, संस्थान आयुष्य, अवगाहना, बल, पराक्रम, वीर्य, वर्ण, गंध, रस, स्पर्श उत्तरोत्तर हिन होते जाते हैं, उसे अवसर्पिणी काल कहते है ।
प्रश्न- 221 उत्सर्पिणी काल किसे कहते है ?
जवाब- 221 जिस काल में जीवों के संहनन, संस्थान उत्तरोतत्तर शुभ होते जाय, आयुष्य, अवगाहना, बल, पराक्रम, वीर्य आदि वृद्धि को प्राप्त होते जाय, वर्ण, गंध, रस, स्पर्श भी शुभ होते जाय, उसे उत्सर्पिणी काल कहते है ।
प्रश्न- 222 अवसर्पिणी काल के छह आरों का विस्तृत विवेचन प्रस्तुत करो ।
जवाब- 222 1.सुषम-सुषमः- यह आरा 4 कोडाकोडी सागरोपम का होता है । इस आरे में जन्मे मनुष्य का देहमान 3 कोस, आयुष्य 3 पल्योपम का होता है तथा तीन-तीन दिन के अन्तर से आहार की इच्छा होती है । उन के वज्रऋषभनाराच संघयण एवं समचतुरस्त्र संस्थान होता है । शरीर में 256 पसलियाँ होती है । इनकी इच्छा तथा आकांक्षाएँ दस प्रकार के कल्पवृक्ष पूरी करते है । कल्पवृक्ष इन्हें इतने रसप्रचुर, स्वादिष्ट तथा शक्ति वर्धक फल प्रदान करते हैं कि तुअर के दाने जितना आहार ग्रहण करने मात्र से ही इन्हें संतोष और तृप्ति हो जाती है । स्वयं की आयुष्य के 6 मास शेष रहे हो तब युगलिनी एक युगल (पुत्र-पुत्री) को जन्म देती है तथा 49 दिन तक ही उनका पालन पोषण करती है । तत्पश्चात् वह युगल स्वावलंबी होकर स्वतंत्र घूमता है । युवा होने पर वे ही पति-पत्नी का व्यवहार करते है । इन (युगल रुप जन्म होने के कारण) युगलिक मनुष्यों का आयुष्य पूर्ण होने पर एक छींक और एक जंभाई से मृत्यु हो जाती है । ये अल्प विषयी तथा अल्प कषायी होने से इसे सुषम-सुषम कहा जाता है ।
2. सुषमः- इस आरे का काल मान 3 कोडाकोडी सागरोपम है । पहले आरे की अपेक्षा इसमें कम सुख होता है पर दुःख का पूर्णतया अभाव होता है । इस आरे के मनुष्य की अवगाहना 2 कोस, आयुष्य 2 पल्योपम शरीर में 128 पसलियाँ तथा 2 दिन के अंतर में बेर प्रमाण आहार होता है । बुद्धि, बल, कांति में पूर्व की अपेक्षा हानि आती है । संतान पालन 64 दिन करते है । शेष प्रथम आरे की तरह है ।
3. सुषम-दुःषमः- इसका कालमान 2 कोडाकोडी सागरोपम है । इसमें सुख अधिक व दुःख कम होता है । इस आरे के मनुष्य की अवगाहना एक कोस, आयुष्य 1 पल्योपम शरीर में 64 पसलियाँ तथा 1 दिन के अंतर में आंवले प्रमाण आहार होता है । संतान पालन 79 दिन करते है । इस आरे के जब 84 लाख पूर्व, 3 वर्ष 81/2 माह शेष रहते है तब प्रथम तीर्थंकर का जन्म होता है । इस आरे के तीसरे भाग में छह संघयण तथा छह संस्थान होते हैं । अवगाहना एक हजार धनुष से कम होती है । जीव स्वकृत कर्मो के अनुसार चारों गतियों में जाते है तथा कर्म क्षय कर मोक्ष में भी जाते है ।
4. दुःषम-सुषमः- इसका काल 42 हजार वर्ष न्यून एक कोडाकोडी सागरोपम का है । इसमें दुःख ज्यादा और सुख कम होता है । इस आरे में मनुष्य का उत्कृष्ट शरीर मान 500 धनुष्य, उत्कृष्ट आयुष्य पूर्व क्रोड वर्ष, आहार अनियमित होता है । शरीर में 32 पसलियाँ होती हैं । छह संघयण व छह संस्थान होते हैं । इस आरे में युगलिकों की उत्पत्ति नहीं होती है । इस आरे में 23 तीर्थंकर, 12 चक्रवर्ती, 9 बलदेव, 9 वासुदेव, 9 प्रतिवासुदेव होते है ।
5. दुःषमः- इसका काल 21 हजार वर्ष का है । इसमें दुःख ज्यादा होता है । इस आरे में जघन्य आयुष्य अन्तर्मुहूर्त का तथा उत्कृष्ट साधिक सौ वर्ष का होता है । उत्कृष्ट अवगाहना 7 हाथ । शरीर में 16 पसलियाँ होती हैं । अंतिम संघयण व अंतिम संस्थान होते हैं । इस आरे में जन्मा जीव मोक्ष प्राप्त नहीं करता है । इस आरे के अन्तिम दिन का तीसरा भाग बितने पर जाति, धर्म, व्यवहार, सदाचार आदि का लोप हो जाता है । वर्तमान में यही आरा चल रहा है ।
6. दुःषम-दुःषमः- इक्कीस हजार वर्ष का यह छट्ठा आरा अत्यन्त दुःखमय होने से इसका नाम दुःषम दुःषम है । इस काल में मानव की देह एक हाथ, पुरुष का आयुष्य 20 वर्ष तथा स्त्री का आयुष्य 16 वर्ष का होता है । पसलियाँ 8 व आहार अमर्यादित होता है । छह वर्ष की कुरुपवान् बाला गर्भधारण कर बच्चे को जन्म देती है । सुअर के सदृश सन्ताने अधिक होती हैं । वर्ण, गंध, रस, स्पर्श, संघयण, संस्थान, रुप आदि सब कुछ अशुभ होते हैं । प्राणी अत्यधिक क्लेशकारी होते है ।
गंगा तथा सिंधु नदियों के किनारे स्थित 72 बिलों में मनुष्य रहते हैं । दिन में सख्त ताप व रात में भयंकर ठण्डक होती है । रात्रि में बिलवासी मानव मछलियाँ व जलचरों को पकडकर रेती में दबा देते हैं । सूर्य के प्रचंड ताप से वे दिन में भून जाने पर रात्रि में उन्हें खाते हैं । इस प्रकार ये हिंसक जीव मांसाहारी होते है, जो मरकर प्रायः नरक व तिर्यंच योनि में उत्पन्न होते है ।
प्रश्न- 223 उत्सर्पिणी काल के स्वरुप का वर्णन करो ।
जवाब- 223 1. दुःषम-दुःषमः- अवसर्पिणी के छट्ठे आरे की भांति यह आरा इक्किस हजार वर्ष का होता है । विशेषता केवल इतनी है कि अवसर्पिणी काल में देह, आयुष्य आदि का उत्तरोत्तर ह्रास होता है, जबकि अवसर्पिणी में उत्तरोत्तर विकास होता है ।
2. दुःषमः- कालमान 21 हजार वर्ष । इसमें सात-सात दिन तक पांच प्रकार की वृष्टियाँ होती है ।
1.पुष्कर संवर्तक मेघः- इससे अशुभ भाव, रुक्षता, उष्णता नष्ट होती है ।
2. क्षीर मेघः- शुभ वर्ण, गंध, रस, स्पर्श की उत्पत्ति होती है ।
3. घृत मेघः- भूमि में स्नेह (स्निग्धता) का प्रादुर्भाव होता है ।
4. अमृत मेघः- वृक्ष, गुच्छ, गुल्म, लता आदि के अंकुर प्रस्फुटित होते है ।
5. रस मेघः- इससे वनस्पतियों में फल, फूल, पत्ते आदि की वृद्धि होती है । पृथ्वी हरी भरी और रमणीय हो जाती है । बिलवासी बाहर निकलकर आनंद मनाते है । मांसाहार का त्याग व बुद्धि में दया का आविर्भाव होता है । यह अवसर्पिणी के पांचवे आरे जैसा है ।
3. दुःषम-सुषमः- यह आरा बयालीस हजार वर्ष न्यून एक कोडाकोडी सागरोपम का होता है । अवसर्पिणी के 4थे आरे के समान ही समझना चाहिये ।
4. सुषम-दुःषमः- अवसर्पिणी के तीसरे आरे के समान ही समझना चाहिये ।
5. सुषमः- अवसर्पिणी के दुसरे आरे के समान ही समझना चाहिये ।
6. सुषम-सुषमः- अवसर्पिणी के पहले आरे के समान ही समझना चाहिये ।
प्रश्न- 224 परिणाम किसे कहते है ?
जवाब- 224 एक अवस्था छोडकर दूसरी अवस्था में जाना परिणाम कहलाता है ।
प्रश्न- 225 छह द्रव्य में से कितने द्रव्य परिणामी तथा कितने अपरिणामी ?
जवाब- 225 छह द्रव्य में से जीव तथा पुद्गल, ये दो द्रव्य परिणामी है । शेष 4 द्रव्य अपरिणामी है ।
प्रश्न- 226 क्या छहों द्रव्य शाश्वत है ?
जवाब- 226 हां – छहों द्रव्य शाश्वत अर्थात् अनादि-अनंत हैं ।
प्रश्न- 227 छह द्रव्यों में कितने द्रव्य जीव तथा कितने अजीव है ?
जवाब- 227 केवल जीवास्तिकाय ही जीव है । शेष पाँच अजीव है ।
प्रश्न- 228 छह द्रव्यों में कितने द्रव्य सर्वव्यापी तथा कितने देशव्यापी है ?
जवाब- 228 एक आकाश द्रव्य लोक-अलोक प्रमाण व्याप्त होने से सर्वव्यापी है तथा शेष 5 द्रव्य केवल लोकाकाश में ही होने से देशव्यापी है ।
प्रश्न- 229 सर्वव्यापी तथा देशव्यापी किसे कहते है ?
जवाब- 229 लोक तथा अलोक में, सर्वत्र व्याप्त होकर रहता है, वह सर्व व्यापी कहलाता है । जो केवल लोक में ही रहता है, वह देशव्यापी कहलाता है ।
प्रश्न- 230 लोकाकाश में अन्य कोइ भी द्रव्य नहीं है फिर उसमें अवकाश देने की क्रिया कैसे घट सकेगी ?
जवाब- 230 अलोकाकाश में भी लोकाकाश के समान ही अवकाश देने की शक्ति है । वहाँ कोइ अवकाश लेने वाला द्रव्य नहीं है, इसीसे वह क्रिया नहीं करता ।
प्रश्न- 231 एक द्रव्य कहाँ पाया जाता है ?
जवाब- 231 अलोक में एक द्रव्य (आकाशास्तिकाय) पाया जाता है ।
प्रश्न- 232 अजीव तत्व के कुल कितने भेद है ?
जवाब- 232 अजीव तत्व के मुख्य भेद 14 है ।
प्रश्न- 233 पुण्य किसे कहते है ?
जवाब- 233 जो आत्मा को पवित्र करें, जिसकी शुभ प्रकृति हो, जिसका परिणाम मधुर हो, जो सुख-संपदा प्रदान करें, उसे पुण्य कहते है ।
प्रश्न- 234 पात्र कितने प्रकार के होते है ?
जवाब- 234 पात्र तीन प्रकार के होते है 1. सुपात्र 2. पात्र 3. अनुकंपादि पात्र ।
प्रश्न- 235 सुपात्र किसे कहते है ?
जवाब- 235 मोक्ष मार्ग की ओर अभिमुख हुए तीर्थंकर भगवान से लेकर मुनि महाराज आदि महापुरुष सुपात्र है ।
प्रश्न- 236 पात्र किसे कहते है ?
जवाब- 236 धर्मी गृहस्थ तथा सद्गृहस्थ पात्र कहलाते है ।
प्रश्न- 237 अनुकंपादि पात्र किसे कहते है ?
जवाब- 237 करुणा, दया करने योग्य अपंग, अंध आदि जीव अनुकंपादि पात्र कहलाते हैं ।
प्रश्न- 238 सुपात्र को दान देने से क्या लाभ होता है ?
जवाब- 238 सुपात्र को धर्म की बुद्धि से दान देने पर अशुभ कर्मो की महानिर्जरा होती है तथा महान् पुण्यानुबंधी पुण्य का उपार्जन होता है ।
प्रश्न- 239 पात्र को दान देने से क्या लाभ होता है ?
जवाब- 239 धर्मी गृहस्थादि पात्र को दान देने से भी पुण्य उपार्जन होता है पर मुनि की अपेक्षा अल्प पुण्य का बन्ध होता है ।
प्रश्न- 240 अंध, अपंगादि जीवों को दान देने से क्या होता है ?
जवाब- 240 अपंगादि दुःखी जीवों को अन्नादि का दान देने से उन्हें सुख और शांति मिलती है, अतः उससे भी पुण्य का उपार्जन होता है ।
प्रश्न- 241 अपात्र को दान देने से क्या पुण्य बंधता है ?
जवाब- 241 जो जीव सुपात्र, पात्र या अनुकंपा पात्र नहीं है, अगर वह हमारे घर आंगण में आ जाय कुछ मांगने के लिये तो उसे निरस्कृत या अपमानित नहीं करना चाहिए । उस अपात्र को यदि हम दुत्कार कर निकाल देते है तो हमारे धर्म की निंदा होती है, इस विचार से यदि हम दान करते है तो पुण्योपार्जन होता है अथवा लक्ष्मी की निस्सारता और निर्मोहता से प्रत्येक जीव को दान दिया जाय तब भी पुण्य का ही बंध होता है ।
प्रश्न- 242 पाप किसे कहते है ?
जवाब- 242 जो आत्मा को मलिन करे, जो बांधते समय सुखकारी किंतु भोगते समय दुःखकारी हो, उसे पाप कहते है ।
प्रश्न- 243 पाप बंध के कितने कारण है ?
जवाब- 243 पाप बंध के 18 कारण हैः- 1.प्राणातिपात 2.मृषावाद 3.अदत्तादान 4.मैथुन 5.परिग्रह 6.क्रोध 7.मान 8.माया 9.लोभ 10.राग 11.द्वेष 12.कलह 13.अभ्याख्यान 14.पैशुन्य 15.रति-अरति 16.परपरिवाद 17.मायामृषावाद 18.मिथ्यात्वशल्य ।
प्रश्न- 244 प्राणातिपात किसे कहते है ?
जवाब- 244 जीव के प्राणों को नष्ट करना, प्राणातिपात कहलाता है ।
प्रश्न- 245 मृषावाद किसे कहते है ?
जवाब- 245 असत्य या झूठ बोलना, मृषावाद कहलाता है ।
प्रश्न- 246 अदत्तादान किसे कहते है ?
जवाब- 246 ग्राम, नगर, खेत आदि में रही हुई सचित्त या अचित्त वस्तु को मालिक की आज्ञा के बिना ग्रहण करना, चोरी करना, अदत्तादान कहलाता है ।
प्रश्न- 247 मैथुन किसे कहते है ?
जवाब- 247 अब्रह्म का सेवन करना, मैथुन कहलाता है ।
प्रश्न- 248 परिग्रह किसे कहते है ?
जवाब- 248 आवश्यकता से अधिक वस्तुओं का संग्रह करना तथा उन पर ममत्व रखना, परिग्रह है ।
प्रश्न- 249 क्रोध किसे कहते है ?
जवाब- 249 जीव या अजीव पर गुस्सा करने को क्रोध कहते है ।
प्रश्न- 250 मान किसे कहते है ?
जवाब- 250 घमंड या अहंकार करने को मान कहते है ।
प्रश्न- 251 माया किसे कहते है ?
जवाब- 251 कपट या प्रपंच करना माया है ।
प्रश्न- 252 लोभ किसे कहते है ?
जवाब- 252 लालच या तृष्णा रखने को लोभ कहते है ।
प्रश्न- 253 राग किसे कहते है ?
जवाब- 253 माया तथा लोभ जिसमें अप्रकट रुप से विद्यमान हो. ऐसा आसक्ति रुप जीव का परिणाम राग कहलाता है ।
प्रश्न- 254 द्वेष किसे कहते है ?
जवाब- 254 क्रोध तथा मान जिसमें अप्रकट रुप से विद्यमान हो, ऐसा अप्रीति रुप जीव का परिणाम द्वेष कहलाता है ।
प्रश्न- 255 कलह किसे कहते है ?
जवाब- 255 लडाई-झगडा या क्लेश करने को कलह कहते है ।
प्रश्न- 256 अभ्याख्यान किसे कहते है ?
जवाब- 256 दोषारोपण करना या झूठा कलंक लगाने को अभ्याख्यान कहते है ।
प्रश्न- 257 पैशुन्य किसे कहते है ?
जवाब- 257 पीठ पीछे किसी के दोष (उसमें हो या न हो) प्रकट करना या चुगली करना, पैशुन्य कहलाता है ।
प्रश्न- 258 रति - अरति किसे कहते है ?
जवाब- 258 इन्द्रियों के अनुकूल विषय प्राप्त होने पर राग करना रति है । प्रतिकूल विषयों के प्रति अरुचि, उद्वेग करना, अरति है ।
प्रश्न- 259 परपरिवाद किसे कहते है ?
जवाब- 259 दूसरों की निन्दा करना, विकथा करना, उसे परपरिवाद कहते है ।
प्रश्न- 260 मायामृषावाद किसे कहते है ?
जवाब- 260 माया (कपट) पूर्वक झूठ बोलना ।
प्रश्न- 261 मिथ्यात्वशल्य किसे कहते है ?
जवाब- 261 कुदेव-कुगुरु-कुघर्म पर श्रद्धा होना ।
प्रश्न- 262 आश्रव किसे कहते है ?
जवाब- 262 जीव की शुभाशुभ प्रवृत्ति से आकृष्ट होकर कर्म वर्गणा का आत्मा में आना आश्रव कहलाता है ।
प्रश्न- 263 आश्रव के कितने भेद है ?
जवाब- 263 आश्रव के दो भेद हैं – 1. शुभाश्रव 2. अशुभाश्रव ।
प्रश्न- 264 शुभाश्रव किसे कहते है ?
जवाब- 264 शुभयोग अथवा शुभ प्रकृत्ति से जिस कर्म का आत्मा में आगमन होता है , उसे पुण्य या शुभाश्रव कहते है ।
प्रश्न- 265 अशुभाश्रव किसे कहते है ?
जवाब- 265 अशुभयोग तथा अशुभ प्रकृत्ति से अशुभ कर्म का आत्मा में आगमन होता है, उसे अशुभाश्रव (पाप) कहते है ।
प्रश्न- 266 आश्रव के अन्य अपेक्षा से कितने भेद हैं ?
जवाब- 266 20 भेद हैं –
1. मिथ्यात्व – मिथ्यात्व का सेवन करना ।
2. अव्रत – प्रत्याख्यान नहीं करना ।
3. प्रमाद – 5 प्रकार के प्रमाद का सेवन करना ।
4. कषाय – 24 कषायों का सेवन करना ।
5. अशुभयोग – मन-वचन-कायाको अशुभ में प्रवृत्ति ।
6. प्राणातिपात – हिंसा करना ।
7. मृषावाद – झूठ बोलना ।
8. अदत्तादान – चोरी करना ।
9. मैथुन – अब्रह्म का सेवन करना ।
10. परिग्रह – परिग्रह रखना ।
11. श्रोत्रेन्द्रिय – कान को वश में न रखना ।
12. चक्षुरिन्द्रिय – आँख को वश में न रखना ।
13. घ्राणेन्द्रिय – नाक को वश में रखना ।
14. रसनेन्द्रिय – जिह्वा को वश में न रखना ।
15. स्पर्शेन्द्रिय – शरीर को वश में न रखना ।
16. मन – मन को वश में न रखना ।
17. वचन – वचन को वश में न रखना ।
18. काया – काया को वश में न रखना ।
19. भंडोपकरणाश्रव – वस्त्र, पात्र आदि की जयणा न करना ।
20. कुसंगाश्रव – कुसंगति करना ।
प्रश्न- 267 आश्रव द्वार कितने है ?
जवाब- 267 आश्रव द्वार पांच है ।1.मिथ्यात्व 2.अविरति. 3.प्रमाद 4.कषाय 5.योग ।
प्रश्न- 268 मिथ्यात्व किसे कहते है ?
जवाब- 268 जीव को तत्व और जिनमार्ग पर अश्रद्धा तथा विपरित मार्ग पर श्रद्धा होना मिथ्यात्व है ।
प्रश्न- 269 मिथ्यात्व के कितने भेद है ?
जवाब- 269 स्थानांग सूत्र में मिथ्यात्व के 10 भेद प्रतिपादित हैं –
1. धर्म को अधर्म कहना ।
2. अधर्म को धर्म कहना ।
3. कुमार्ग को सन्मार्ग कहना ।
4. सन्मार्ग को कुमार्ग कहना ।
5. अजीव को जीव कहना ।
6. जीव को अजीव कहना ।
7. असाधु को साधु कहना ।
8. साघु को असाधु कहना ।
9. अमुक्त को मुक्त कहना ।
10. मुक्त को अमुक्त कहना ।
जो जैसा है, उसे वैसा न कहकर विपरित कहना या मानना मिथ्यात्व का लक्षण है ।
प्रश्न- 270 मिथ्यात्व के अन्य भेद कौन से है ?
जवाब- 270 मिथ्यात्व के अन्य भेद 5 है – 1.आभिग्रहिक मिथ्यात्व 2.अनाभिग्रहिक मिथ्यात्व 3.आभिनिवेशिक मिथ्यात्व 4.सांशयिक मिथ्यात्व 5. अनाभोगिक मिथ्यात्व ।
प्रश्न- 271 आभिग्रहिक मिथ्यात्व किसे कहते है ?
जवाब- 271 तत्व की या सत्व की परीक्षा किये बिना ही पक्षपातपूर्वक किसी तत्व को पकडे रहना तथा अन्य पक्ष का खंडन करना, आभिग्रहिक मिथ्यात्व है ।
प्रश्न- 272 अनाभिग्रहिक मिथ्यात्व किसे कहते है ?
जवाब- 272 गुण – दोष की परीक्षा किये बिना ही सभी पक्षों को समान कहना, अनाभिग्रहिक मिथ्यात्व है ।
प्रश्न- 273 आभिनिवेशिक मिथ्यात्म किसे कहते है ?
जवाब- 273 अपने पक्ष को असत्य समजते हुए भी दुराग्रह पूर्वक उसकी स्थापना, समर्थन करना, आभिनिवेशिक मिथ्यात्व है ।
प्रश्न- 274 सांशयिक मिथ्यात्व किसे कहते है ?
जवाब- 274 देव, गुरु तथा धर्म के विषय या स्वरुप में संदेहशील होना, सांशयिक मिथ्यात्व है ।
प्रश्न- 275 अनाभोगिक मिथ्यात्व किसे कहते है ?
जवाब- 275 विचार-शून्यता, मोहमूढता । एकेन्द्रियादि असंज्ञी तथा ज्ञानविकल जीवों को अनाभोगिक मिथ्यात्व होता है ।
प्रश्न- 276 अविरति किसे कहते है ?
जवाब- 276 प्राणातिपात आदि पापो से निवृत्त न होना, व्रत, प्रत्याख्यान आदि स्वीकार न करना अविरति है ।
प्रश्न- 277 प्रमाद किसे कहते है ?
जवाब- 277 शुभ कार्य या धर्मानुष्ठान में उद्यम न करना, आलस करना प्रमाद कहलाता है ।
प्रश्न- 278 पांच प्रमाद कौन से है ?
जवाब- 278 1.मद्य 2.विषय 3.कषाय 4.निद्रा 5.विकथा ।
प्रश्न- 279 कषाय किसे कहते है ?
जवाब- 279 जो आत्मा का संसार बढाये, उसे कषाय कहते है । इसका विस्तृत वर्णन पाप तत्व में किया जा चुका है ।
प्रश्न- 280 योग किसे कहते है ?
जवाब- 280 मन, वचन तथा काया के शुभाशुभ व्यापार को योग कहते है ।
प्रश्न- 281 किन किन कारणों से आत्मा में आश्रव होता है तथा आश्रव के भेद कितने हैं ?
जवाब- 281 आश्रव के 42 भेद है । इन 42 द्वारों से आत्मा में कर्म का आगमन होता है – इन्द्रियाँ-5, कषाय-16, अव्रत-5, योग-3, क्रियाएं-25 ।
प्रश्न- 282 इन्द्रियाश्रव किसे कहते है ?
जवाब- 282 5 इन्द्रियों के 23 विषय आत्मा के अनुकूल अथवा प्रतिकूल होने पर सुख-दुःख का अनुभव होता है, उससे आत्मा में कर्म का जो आश्रव होता है, उसे इन्द्रियाश्रव कहते है ।
प्रश्न- 283 कषायाश्रव किसे कहते है ?
जवाब- 283 क्रोधादि 4 कषायों के अनंतानुबंधी क्रोधादि आदि 16 भेदों से आत्मा में जो कर्म का आगमन होता है, उसे कषायाश्रव कहते है ।
प्रश्न- 284 अव्रताश्रव किसे कहते है ?
जवाब- 284 प्राणातिपात, मृषावाद, अदत्तादान, मैथुन तथा परिग्रह, इन पांच व्रतों का देशतः या सर्वतः अनियम या अत्याग अव्रताश्रव कहलाता है ।
प्रश्न- 285 प्रणातिपात अव्रताश्रव किसे कहते है ?
जवाब- 285 प्रमाद से जीवों के द्रव्य प्राणों का विनाश करना या जीव-हिंसा करना प्राणातिपात अव्रताश्रव है ।
प्रश्न- 286 मृषावाद अव्रताश्रव किसे कहते है ?
जवाब- 286 स्वार्थ की सिद्धि के लिये अथवा अहित के लिये जो सत्य अथवा असत्य बोला जाता है, उसे मृषावाद अव्रताश्रव कहते है ।
प्रश्न- 287 अदत्तादान अव्रताश्रव किसे कहते है ?
जवाब- 287 अदत्त-नही दी हुई (वस्तुका), आदान-ग्रहण करना अदत्तादान है । निषेध की गई वस्तु अथवा बिना पूछे वस्तु को लेना, चोरी करना, अदत्तादान अव्रताश्रव कहलाता है ।
प्रश्न- 288 अदत्तादान कितने प्रकार का है ?
जवाब- 288 अदत्तादान 4 प्रकार का है-
1. स्वामी अदत्त- स्वामी (मालिक) को पूछे बिना ली गयी वस्तु ।
2. जीव अदत्त- जीव को पूछे बिना ली गयी वस्तु ।
3. तीर्थेकर अदत्त- तीर्थंकरो के द्वारा निषिद्ध की गयी वस्तु ।
4. गुरु अदत्त- गुरु आज्ञा प्राप्त किये बिना ली गयी वस्तु ।
प्रश्न- 289 अब्रह्म अव्रताश्रव किसे कहते है ?
जवाब- 289 अनाचार का सेवन करना अब्रह्म आश्रव है ।
प्रश्न- 290 परिग्रह अव्रताश्रव किसे कहते है ?
जवाब- 290 पदार्थो का संग्रह करना, उन पर ममत्व बुद्धि रखना परिग्रह आश्रव है ।
प्रश्न- 291 योगाश्रव किसे कहते है ?
जवाब- 291 मन, वचन, काया के व्यापार से जो कर्म का आत्मा में आगमन होता है, उसे योगाश्रव कहते है ।
प्रश्न- 292 योगाश्रव के तीनों भेद स्पष्ट करो ?
जवाब- 292 1.मनोयोग आश्रवः- मन के द्वारा शुभ विचार करने पर शुभ मनोयोग आश्रव तथा अप्रशस्त विचार करने पर अशुभ मनोयोगाश्रव होता है ।
2. वचनयोगाश्रवः- वचन से सत्य, मधुर तथा हितकारी वचन बोलने पर शुभ वचन योगाश्रव तथा असत्य, कटु व हिंसक वचन बोलने पर अशुभ वचनयोगाश्रव होता है ।
3. काययोगाश्रवः- काया से शुभ प्रवृत्ति करने पर शुभकाय योगाश्रव तथा अशुभ प्रवृत्ति करने पर अशुभ काययोगाश्रव होता है ।
प्रश्न- 293 क्रिया किसे कहते है ? इसके कितने भेद है ?
जवाब- 293 आत्मा जिस व्यापार के द्वारा शुभाशुभ कर्म को ग्रहण करती है, उसे क्रिया कहते है । इसके पच्चीस भेद हैं ।
प्रश्न- 294 कायिकी क्रिया किसे कहते है ?
जवाब- 294 अविरति, अजयणा या प्रमादपूर्वक शरीर के हलन-चलन की क्रिया कायिकी क्रिया कहलाती है ।
प्रश्न- 295 अधिकरणिकी क्रिया किसे कहते है ?
जवाब- 295 अधिकरण अथवा तलवार, चाकू, छूरी, बंदूक आदि । इन शस्त्रो (अधिकरण) से आत्मा पाप करके नरक का अधिकारी बनता है, इन शस्त्रों से होने वाली क्रिया को अधिकरणिकी क्रिया कहते है ।
प्रश्न- 296 अधिकरणिकी क्रिया के भेद लखो ?
जवाब- 296 अधिकरणिकी क्रिया के दो भेद है ।
1. संयोजनाधिकरणिकी क्रियाः- शस्त्रादि के अवयवों को परस्पर जोडना ।
2. निर्वर्तनाधिकरणिकी क्रियाः- नये शस्त्रादि का निर्माण करना ।
प्रश्न- 297 प्रादेषिकी क्रिया किसे कहते है ?
जवाब- 297 जीव या अजीव प द्वेष करने से लगने वाली क्रिया प्रादेषिकी क्रिया है ।
प्रश्न- 298 पारितापनिकी क्रिया किसे कहते है ?
जवाब- 298 दूसरे जीवों को पीडा पहुँचाने से तथा अपने ही हाथ से अपना सिर, छाती आदि पीटने से लगने वाली क्रिया पारितापनिकी क्रिया है ।
प्रश्न- 299 प्राणातिपातिकी क्रिया किसे कहते है ?
जवाब- 299 दूसरें प्राणियों के प्राणों का विनाश करने से तथा स्त्री आदि के वियोग से आत्मघात करने से लगने वाली क्रिया प्राणातिपातिकी है ।
प्रश्न- 300 आरंभिकी क्रिया किसे कहते है ?
जवाब- 300 आरंभ (खेती, घर आदि के कार्य में हल, कुदाल आदि चलाने) से लगने वाली क्रिया आरंभिकी क्रिया है । इसमें उद्देश्य पूर्वक जीव का हनन नहीं किया जाता ।
जवाब- 201 उपरोक्त सात वर्गणा के सभी पुद्गलों को औदारिक आदि किसी भी एक वर्गणा के रुप में उपभोग कर छोडने में जितना समय लगता है, उस काल को सूक्ष्म द्रव्य पुद्गल परावर्त काल कहते है ।
प्रश्न- 202 बादर क्षेत्र पुद्गल परावर्त काल किसे कहते है ?
जवाब- 202 चौदह राजलोक के सभी आकाश प्रदेशों का बिना क्रम के मृत्यु द्वारा स्पर्श करते हुए किसी एक जीव को जितना समय लगता है, उस काल को बादर क्षेत्र पुद्गल परावर्त काल कहते है ।
प्रश्न- 203 सूक्ष्म क्षेत्र पुद्गल परावर्त काल किसे कहते है ?
जवाब- 203 चौदह राजलोक के सभी आकाश प्रदेशों को क्रमशः प्रदेश के अनुसार मृत्यु द्वारा स्पर्श करते हुए किसी एक जीव को लगने वाला काल सूक्ष्म क्षेत्र पुद्गल परावर्त काल है ।
प्रश्न- 204 बादर काल पुद्गल परावर्त काल किसे कहते है ?
जवाब- 204 कालचक्र के संपूर्ण समय को बिना क्रम के मृत्यु द्वारा स्पर्श करने में जो समय लगता है, उसे बादर काल पुद्गल परावर्त काल कहते है ।
प्रश्न- 205 सूक्ष्म काल पुद्गल परावर्त काल किसे कहते है ?
जवाब- 205 कालचक्र के संपूर्ण समय को क्रमशः मृत्यु द्वारा स्पर्श करने में जो समय लगता है, उसे सूक्ष्म काल पुद्गल परावर्त काल कहते है ।
प्रश्न- 206 बादर भाव पुद्गल परावर्त काल किसे कहते है ?
जवाब- 206 सभी रसबंध के अध्यवसाय स्थानकों को बिना क्रम के मृत्यु द्वारा स्पर्श करने में जितना समय लगता है, उसे बादर भाव पुद्गल परावर्त काल कहते है ।
प्रश्न- 207 सूक्ष्म भाव पुद्गल परावर्त काल किसे कहते है ?
जवाब- 207 रसबन्ध के एक एक अध्यवसाय को मृत्यु द्वारा क्रमशः स्पर्श करने में लगने वाला समय सूक्ष्म भाव पुद्गल परावर्त काल कहलाता है ।
प्रश्न- 208 पल्योपम के कुल कितने प्रकार है ?
जवाब- 208 पल्योपम कुल छह प्रकार हैः- 1.उद्धार पल्योपम 2.अद्धा पल्योपम 3.क्षेत्र पल्योपम इन तीनों के सूक्ष्म तथा बादर ऐसे दो-दो भेद होने से छह भेद हैं ।
प्रश्न- 209 सूक्ष्म उद्धार पल्योपम किसे कहते है ?
जवाब- 209 बादर उद्धार पल्योपम की भाँति कुएँ में सात दिन के नवजात शिशु के एक बाल के असंख्य टुकडों से इस तरह ठसा-ठस भर दिया जाय कि उसके उपर से चक्रवर्ती की विशाल सेना पसार हो जाय तब भी उसके ठसपण में किंचित् मात्र भी फर्क न आये । उस कूप में से प्रति समय में एक-एक केश का टुकडा निकाले । इस प्रकार करते हुए जब केश राशि से पूरा कुआं खाली हो जाय, उतने समय की अवधि अथवा परिमाण को सूक्ष्म उद्धार पल्योपम कहते है ।
प्रश्न- 210 बादर अद्धा पल्योपम किसे कहते है ?
जवाब- 210 बादर उद्धार पल्योपम की भाँति बाल से भरे कुएँ में से प्रति सौ वर्ष में बाल का टुकडा निकाला जाये और जितने समय में वह खाली हो जाय, उसे बादर अद्धा पल्योपम कहते है ।
प्रश्न- 211 सूक्ष्म अद्धा पल्योपम किसे कहते है ?
जवाब- 211 सूक्ष्म उद्धार पल्योपम की भाँति केश से भरे हुए कुएँ में से प्रती सौ वर्ष में एक टुकडा निकाला जाये और जितने समय में वह खाली हो जाय, उसे सूक्ष्म अद्धा पल्योपम कहते है ।
प्रश्न- 212 बादर क्षेत्र पल्योपम किसे कहते है ?
जवाब- 212 बादर उद्धार पल्योपम को समझाने के लिये कुएँ में जो वालाग्र भरा है, उस वालाग्र को स्पर्श किए हुए आकाश प्रदेश में से एक-एक आकाश प्रदेश को एक-एक समय में बाहर निकालने में जितना समय लगे, उस समय को बादर क्षेत्र पल्योपम कहते है ।
प्रश्न- 213 सूक्ष्म क्षेत्र पल्योपम किसे कहते है ?
जवाब- 213 सूक्ष्म उद्धार पल्योपम को समझाने के लिये कुएँ में जो वालाग्र भरा है, उस वालाग्र को स्पर्श किए हुए और नहीं स्पर्शे हुए आकाश प्रदेशों में से एक-एक आकाश प्रदेश को एक-एक समय में बाहर निकालने में जितना समय लगे, उस समय को सूक्ष्म क्षेत्र पल्योपम कहते है ।
प्रश्न- 214 सागरोपम के कितने भेद है ?
जवाब- 214 पल्योपम की भाँति ही सागरोपम के भी छह भेद है – 1.उद्धार सागरोपम 2.अद्धा सागरोपम 3.क्षेत्र सागरोपम । सूक्ष्म तथा बादर रुप दो भेदों की अपेक्षा से प्रत्येक के पुनः दो-दो भेद है ।
प्रश्न- 215 बादर उद्धार सागरोपम किसे कहते है ?
जवाब- 215 दस कोडाकोडी बादर उद्धार पल्योपम का एक बादर उद्धार सागरोपम होता है ।
प्रश्न- 216 सूक्ष्म उद्धार सागरोपम किसे कहते है ?
जवाब- 216 दस कोडाकोडी सूक्ष्म उद्धार पल्योपम का एक सूक्ष्म उद्धार सागरोपम होता है ।
प्रश्न- 217 अद्धा सागरोपम के दोनों भेद स्पष्ट कीजिए ?
जवाब- 217 1. दस कोडाकोडी बादर अद्धा पल्योपम का एक बादर अद्धा सागरोपम होता है ।
2. दस कोडाकोडी सूक्ष्म अद्धा पल्योपम का एक सूक्ष्म अद्धा सागरोपम होता है ।
प्रश्न- 218 क्षेत्र सागरोपम के दोनों भेद स्पष्ट कीजिए ?
जवाब- 218 1. दस कोडाकोडी बादर क्षेत्र पल्योपम का एक बादर क्षेत्र सागरोपम होता है ।
2. दस कोडाकोडी सूक्ष्म क्षेत्र पल्योपम का एक सूक्ष्म क्षेत्र सागरोपम होता है ।
प्रश्न- 219 एक काल चक्र में कितने आरे होते है ?
जवाब- 219 एक काल चक्र में छह अवसर्पिणी काल के तथा छह उत्सर्पिणी काल के कुल 12 आरे होते है ।
प्रश्न- 220 अवसर्पिणी काल किसे कहते है ?
जवाब- 220 जिस काल में जीवों के संघयण, संस्थान आयुष्य, अवगाहना, बल, पराक्रम, वीर्य, वर्ण, गंध, रस, स्पर्श उत्तरोत्तर हिन होते जाते हैं, उसे अवसर्पिणी काल कहते है ।
प्रश्न- 221 उत्सर्पिणी काल किसे कहते है ?
जवाब- 221 जिस काल में जीवों के संहनन, संस्थान उत्तरोतत्तर शुभ होते जाय, आयुष्य, अवगाहना, बल, पराक्रम, वीर्य आदि वृद्धि को प्राप्त होते जाय, वर्ण, गंध, रस, स्पर्श भी शुभ होते जाय, उसे उत्सर्पिणी काल कहते है ।
प्रश्न- 222 अवसर्पिणी काल के छह आरों का विस्तृत विवेचन प्रस्तुत करो ।
जवाब- 222 1.सुषम-सुषमः- यह आरा 4 कोडाकोडी सागरोपम का होता है । इस आरे में जन्मे मनुष्य का देहमान 3 कोस, आयुष्य 3 पल्योपम का होता है तथा तीन-तीन दिन के अन्तर से आहार की इच्छा होती है । उन के वज्रऋषभनाराच संघयण एवं समचतुरस्त्र संस्थान होता है । शरीर में 256 पसलियाँ होती है । इनकी इच्छा तथा आकांक्षाएँ दस प्रकार के कल्पवृक्ष पूरी करते है । कल्पवृक्ष इन्हें इतने रसप्रचुर, स्वादिष्ट तथा शक्ति वर्धक फल प्रदान करते हैं कि तुअर के दाने जितना आहार ग्रहण करने मात्र से ही इन्हें संतोष और तृप्ति हो जाती है । स्वयं की आयुष्य के 6 मास शेष रहे हो तब युगलिनी एक युगल (पुत्र-पुत्री) को जन्म देती है तथा 49 दिन तक ही उनका पालन पोषण करती है । तत्पश्चात् वह युगल स्वावलंबी होकर स्वतंत्र घूमता है । युवा होने पर वे ही पति-पत्नी का व्यवहार करते है । इन (युगल रुप जन्म होने के कारण) युगलिक मनुष्यों का आयुष्य पूर्ण होने पर एक छींक और एक जंभाई से मृत्यु हो जाती है । ये अल्प विषयी तथा अल्प कषायी होने से इसे सुषम-सुषम कहा जाता है ।
2. सुषमः- इस आरे का काल मान 3 कोडाकोडी सागरोपम है । पहले आरे की अपेक्षा इसमें कम सुख होता है पर दुःख का पूर्णतया अभाव होता है । इस आरे के मनुष्य की अवगाहना 2 कोस, आयुष्य 2 पल्योपम शरीर में 128 पसलियाँ तथा 2 दिन के अंतर में बेर प्रमाण आहार होता है । बुद्धि, बल, कांति में पूर्व की अपेक्षा हानि आती है । संतान पालन 64 दिन करते है । शेष प्रथम आरे की तरह है ।
3. सुषम-दुःषमः- इसका कालमान 2 कोडाकोडी सागरोपम है । इसमें सुख अधिक व दुःख कम होता है । इस आरे के मनुष्य की अवगाहना एक कोस, आयुष्य 1 पल्योपम शरीर में 64 पसलियाँ तथा 1 दिन के अंतर में आंवले प्रमाण आहार होता है । संतान पालन 79 दिन करते है । इस आरे के जब 84 लाख पूर्व, 3 वर्ष 81/2 माह शेष रहते है तब प्रथम तीर्थंकर का जन्म होता है । इस आरे के तीसरे भाग में छह संघयण तथा छह संस्थान होते हैं । अवगाहना एक हजार धनुष से कम होती है । जीव स्वकृत कर्मो के अनुसार चारों गतियों में जाते है तथा कर्म क्षय कर मोक्ष में भी जाते है ।
4. दुःषम-सुषमः- इसका काल 42 हजार वर्ष न्यून एक कोडाकोडी सागरोपम का है । इसमें दुःख ज्यादा और सुख कम होता है । इस आरे में मनुष्य का उत्कृष्ट शरीर मान 500 धनुष्य, उत्कृष्ट आयुष्य पूर्व क्रोड वर्ष, आहार अनियमित होता है । शरीर में 32 पसलियाँ होती हैं । छह संघयण व छह संस्थान होते हैं । इस आरे में युगलिकों की उत्पत्ति नहीं होती है । इस आरे में 23 तीर्थंकर, 12 चक्रवर्ती, 9 बलदेव, 9 वासुदेव, 9 प्रतिवासुदेव होते है ।
5. दुःषमः- इसका काल 21 हजार वर्ष का है । इसमें दुःख ज्यादा होता है । इस आरे में जघन्य आयुष्य अन्तर्मुहूर्त का तथा उत्कृष्ट साधिक सौ वर्ष का होता है । उत्कृष्ट अवगाहना 7 हाथ । शरीर में 16 पसलियाँ होती हैं । अंतिम संघयण व अंतिम संस्थान होते हैं । इस आरे में जन्मा जीव मोक्ष प्राप्त नहीं करता है । इस आरे के अन्तिम दिन का तीसरा भाग बितने पर जाति, धर्म, व्यवहार, सदाचार आदि का लोप हो जाता है । वर्तमान में यही आरा चल रहा है ।
6. दुःषम-दुःषमः- इक्कीस हजार वर्ष का यह छट्ठा आरा अत्यन्त दुःखमय होने से इसका नाम दुःषम दुःषम है । इस काल में मानव की देह एक हाथ, पुरुष का आयुष्य 20 वर्ष तथा स्त्री का आयुष्य 16 वर्ष का होता है । पसलियाँ 8 व आहार अमर्यादित होता है । छह वर्ष की कुरुपवान् बाला गर्भधारण कर बच्चे को जन्म देती है । सुअर के सदृश सन्ताने अधिक होती हैं । वर्ण, गंध, रस, स्पर्श, संघयण, संस्थान, रुप आदि सब कुछ अशुभ होते हैं । प्राणी अत्यधिक क्लेशकारी होते है ।
गंगा तथा सिंधु नदियों के किनारे स्थित 72 बिलों में मनुष्य रहते हैं । दिन में सख्त ताप व रात में भयंकर ठण्डक होती है । रात्रि में बिलवासी मानव मछलियाँ व जलचरों को पकडकर रेती में दबा देते हैं । सूर्य के प्रचंड ताप से वे दिन में भून जाने पर रात्रि में उन्हें खाते हैं । इस प्रकार ये हिंसक जीव मांसाहारी होते है, जो मरकर प्रायः नरक व तिर्यंच योनि में उत्पन्न होते है ।
प्रश्न- 223 उत्सर्पिणी काल के स्वरुप का वर्णन करो ।
जवाब- 223 1. दुःषम-दुःषमः- अवसर्पिणी के छट्ठे आरे की भांति यह आरा इक्किस हजार वर्ष का होता है । विशेषता केवल इतनी है कि अवसर्पिणी काल में देह, आयुष्य आदि का उत्तरोत्तर ह्रास होता है, जबकि अवसर्पिणी में उत्तरोत्तर विकास होता है ।
2. दुःषमः- कालमान 21 हजार वर्ष । इसमें सात-सात दिन तक पांच प्रकार की वृष्टियाँ होती है ।
1.पुष्कर संवर्तक मेघः- इससे अशुभ भाव, रुक्षता, उष्णता नष्ट होती है ।
2. क्षीर मेघः- शुभ वर्ण, गंध, रस, स्पर्श की उत्पत्ति होती है ।
3. घृत मेघः- भूमि में स्नेह (स्निग्धता) का प्रादुर्भाव होता है ।
4. अमृत मेघः- वृक्ष, गुच्छ, गुल्म, लता आदि के अंकुर प्रस्फुटित होते है ।
5. रस मेघः- इससे वनस्पतियों में फल, फूल, पत्ते आदि की वृद्धि होती है । पृथ्वी हरी भरी और रमणीय हो जाती है । बिलवासी बाहर निकलकर आनंद मनाते है । मांसाहार का त्याग व बुद्धि में दया का आविर्भाव होता है । यह अवसर्पिणी के पांचवे आरे जैसा है ।
3. दुःषम-सुषमः- यह आरा बयालीस हजार वर्ष न्यून एक कोडाकोडी सागरोपम का होता है । अवसर्पिणी के 4थे आरे के समान ही समझना चाहिये ।
4. सुषम-दुःषमः- अवसर्पिणी के तीसरे आरे के समान ही समझना चाहिये ।
5. सुषमः- अवसर्पिणी के दुसरे आरे के समान ही समझना चाहिये ।
6. सुषम-सुषमः- अवसर्पिणी के पहले आरे के समान ही समझना चाहिये ।
प्रश्न- 224 परिणाम किसे कहते है ?
जवाब- 224 एक अवस्था छोडकर दूसरी अवस्था में जाना परिणाम कहलाता है ।
प्रश्न- 225 छह द्रव्य में से कितने द्रव्य परिणामी तथा कितने अपरिणामी ?
जवाब- 225 छह द्रव्य में से जीव तथा पुद्गल, ये दो द्रव्य परिणामी है । शेष 4 द्रव्य अपरिणामी है ।
प्रश्न- 226 क्या छहों द्रव्य शाश्वत है ?
जवाब- 226 हां – छहों द्रव्य शाश्वत अर्थात् अनादि-अनंत हैं ।
प्रश्न- 227 छह द्रव्यों में कितने द्रव्य जीव तथा कितने अजीव है ?
जवाब- 227 केवल जीवास्तिकाय ही जीव है । शेष पाँच अजीव है ।
प्रश्न- 228 छह द्रव्यों में कितने द्रव्य सर्वव्यापी तथा कितने देशव्यापी है ?
जवाब- 228 एक आकाश द्रव्य लोक-अलोक प्रमाण व्याप्त होने से सर्वव्यापी है तथा शेष 5 द्रव्य केवल लोकाकाश में ही होने से देशव्यापी है ।
प्रश्न- 229 सर्वव्यापी तथा देशव्यापी किसे कहते है ?
जवाब- 229 लोक तथा अलोक में, सर्वत्र व्याप्त होकर रहता है, वह सर्व व्यापी कहलाता है । जो केवल लोक में ही रहता है, वह देशव्यापी कहलाता है ।
प्रश्न- 230 लोकाकाश में अन्य कोइ भी द्रव्य नहीं है फिर उसमें अवकाश देने की क्रिया कैसे घट सकेगी ?
जवाब- 230 अलोकाकाश में भी लोकाकाश के समान ही अवकाश देने की शक्ति है । वहाँ कोइ अवकाश लेने वाला द्रव्य नहीं है, इसीसे वह क्रिया नहीं करता ।
प्रश्न- 231 एक द्रव्य कहाँ पाया जाता है ?
जवाब- 231 अलोक में एक द्रव्य (आकाशास्तिकाय) पाया जाता है ।
प्रश्न- 232 अजीव तत्व के कुल कितने भेद है ?
जवाब- 232 अजीव तत्व के मुख्य भेद 14 है ।
प्रश्न- 233 पुण्य किसे कहते है ?
जवाब- 233 जो आत्मा को पवित्र करें, जिसकी शुभ प्रकृति हो, जिसका परिणाम मधुर हो, जो सुख-संपदा प्रदान करें, उसे पुण्य कहते है ।
प्रश्न- 234 पात्र कितने प्रकार के होते है ?
जवाब- 234 पात्र तीन प्रकार के होते है 1. सुपात्र 2. पात्र 3. अनुकंपादि पात्र ।
प्रश्न- 235 सुपात्र किसे कहते है ?
जवाब- 235 मोक्ष मार्ग की ओर अभिमुख हुए तीर्थंकर भगवान से लेकर मुनि महाराज आदि महापुरुष सुपात्र है ।
प्रश्न- 236 पात्र किसे कहते है ?
जवाब- 236 धर्मी गृहस्थ तथा सद्गृहस्थ पात्र कहलाते है ।
प्रश्न- 237 अनुकंपादि पात्र किसे कहते है ?
जवाब- 237 करुणा, दया करने योग्य अपंग, अंध आदि जीव अनुकंपादि पात्र कहलाते हैं ।
प्रश्न- 238 सुपात्र को दान देने से क्या लाभ होता है ?
जवाब- 238 सुपात्र को धर्म की बुद्धि से दान देने पर अशुभ कर्मो की महानिर्जरा होती है तथा महान् पुण्यानुबंधी पुण्य का उपार्जन होता है ।
प्रश्न- 239 पात्र को दान देने से क्या लाभ होता है ?
जवाब- 239 धर्मी गृहस्थादि पात्र को दान देने से भी पुण्य उपार्जन होता है पर मुनि की अपेक्षा अल्प पुण्य का बन्ध होता है ।
प्रश्न- 240 अंध, अपंगादि जीवों को दान देने से क्या होता है ?
जवाब- 240 अपंगादि दुःखी जीवों को अन्नादि का दान देने से उन्हें सुख और शांति मिलती है, अतः उससे भी पुण्य का उपार्जन होता है ।
प्रश्न- 241 अपात्र को दान देने से क्या पुण्य बंधता है ?
जवाब- 241 जो जीव सुपात्र, पात्र या अनुकंपा पात्र नहीं है, अगर वह हमारे घर आंगण में आ जाय कुछ मांगने के लिये तो उसे निरस्कृत या अपमानित नहीं करना चाहिए । उस अपात्र को यदि हम दुत्कार कर निकाल देते है तो हमारे धर्म की निंदा होती है, इस विचार से यदि हम दान करते है तो पुण्योपार्जन होता है अथवा लक्ष्मी की निस्सारता और निर्मोहता से प्रत्येक जीव को दान दिया जाय तब भी पुण्य का ही बंध होता है ।
प्रश्न- 242 पाप किसे कहते है ?
जवाब- 242 जो आत्मा को मलिन करे, जो बांधते समय सुखकारी किंतु भोगते समय दुःखकारी हो, उसे पाप कहते है ।
प्रश्न- 243 पाप बंध के कितने कारण है ?
जवाब- 243 पाप बंध के 18 कारण हैः- 1.प्राणातिपात 2.मृषावाद 3.अदत्तादान 4.मैथुन 5.परिग्रह 6.क्रोध 7.मान 8.माया 9.लोभ 10.राग 11.द्वेष 12.कलह 13.अभ्याख्यान 14.पैशुन्य 15.रति-अरति 16.परपरिवाद 17.मायामृषावाद 18.मिथ्यात्वशल्य ।
प्रश्न- 244 प्राणातिपात किसे कहते है ?
जवाब- 244 जीव के प्राणों को नष्ट करना, प्राणातिपात कहलाता है ।
प्रश्न- 245 मृषावाद किसे कहते है ?
जवाब- 245 असत्य या झूठ बोलना, मृषावाद कहलाता है ।
प्रश्न- 246 अदत्तादान किसे कहते है ?
जवाब- 246 ग्राम, नगर, खेत आदि में रही हुई सचित्त या अचित्त वस्तु को मालिक की आज्ञा के बिना ग्रहण करना, चोरी करना, अदत्तादान कहलाता है ।
प्रश्न- 247 मैथुन किसे कहते है ?
जवाब- 247 अब्रह्म का सेवन करना, मैथुन कहलाता है ।
प्रश्न- 248 परिग्रह किसे कहते है ?
जवाब- 248 आवश्यकता से अधिक वस्तुओं का संग्रह करना तथा उन पर ममत्व रखना, परिग्रह है ।
प्रश्न- 249 क्रोध किसे कहते है ?
जवाब- 249 जीव या अजीव पर गुस्सा करने को क्रोध कहते है ।
प्रश्न- 250 मान किसे कहते है ?
जवाब- 250 घमंड या अहंकार करने को मान कहते है ।
प्रश्न- 251 माया किसे कहते है ?
जवाब- 251 कपट या प्रपंच करना माया है ।
प्रश्न- 252 लोभ किसे कहते है ?
जवाब- 252 लालच या तृष्णा रखने को लोभ कहते है ।
प्रश्न- 253 राग किसे कहते है ?
जवाब- 253 माया तथा लोभ जिसमें अप्रकट रुप से विद्यमान हो. ऐसा आसक्ति रुप जीव का परिणाम राग कहलाता है ।
प्रश्न- 254 द्वेष किसे कहते है ?
जवाब- 254 क्रोध तथा मान जिसमें अप्रकट रुप से विद्यमान हो, ऐसा अप्रीति रुप जीव का परिणाम द्वेष कहलाता है ।
प्रश्न- 255 कलह किसे कहते है ?
जवाब- 255 लडाई-झगडा या क्लेश करने को कलह कहते है ।
प्रश्न- 256 अभ्याख्यान किसे कहते है ?
जवाब- 256 दोषारोपण करना या झूठा कलंक लगाने को अभ्याख्यान कहते है ।
प्रश्न- 257 पैशुन्य किसे कहते है ?
जवाब- 257 पीठ पीछे किसी के दोष (उसमें हो या न हो) प्रकट करना या चुगली करना, पैशुन्य कहलाता है ।
प्रश्न- 258 रति - अरति किसे कहते है ?
जवाब- 258 इन्द्रियों के अनुकूल विषय प्राप्त होने पर राग करना रति है । प्रतिकूल विषयों के प्रति अरुचि, उद्वेग करना, अरति है ।
प्रश्न- 259 परपरिवाद किसे कहते है ?
जवाब- 259 दूसरों की निन्दा करना, विकथा करना, उसे परपरिवाद कहते है ।
प्रश्न- 260 मायामृषावाद किसे कहते है ?
जवाब- 260 माया (कपट) पूर्वक झूठ बोलना ।
प्रश्न- 261 मिथ्यात्वशल्य किसे कहते है ?
जवाब- 261 कुदेव-कुगुरु-कुघर्म पर श्रद्धा होना ।
प्रश्न- 262 आश्रव किसे कहते है ?
जवाब- 262 जीव की शुभाशुभ प्रवृत्ति से आकृष्ट होकर कर्म वर्गणा का आत्मा में आना आश्रव कहलाता है ।
प्रश्न- 263 आश्रव के कितने भेद है ?
जवाब- 263 आश्रव के दो भेद हैं – 1. शुभाश्रव 2. अशुभाश्रव ।
प्रश्न- 264 शुभाश्रव किसे कहते है ?
जवाब- 264 शुभयोग अथवा शुभ प्रकृत्ति से जिस कर्म का आत्मा में आगमन होता है , उसे पुण्य या शुभाश्रव कहते है ।
प्रश्न- 265 अशुभाश्रव किसे कहते है ?
जवाब- 265 अशुभयोग तथा अशुभ प्रकृत्ति से अशुभ कर्म का आत्मा में आगमन होता है, उसे अशुभाश्रव (पाप) कहते है ।
प्रश्न- 266 आश्रव के अन्य अपेक्षा से कितने भेद हैं ?
जवाब- 266 20 भेद हैं –
1. मिथ्यात्व – मिथ्यात्व का सेवन करना ।
2. अव्रत – प्रत्याख्यान नहीं करना ।
3. प्रमाद – 5 प्रकार के प्रमाद का सेवन करना ।
4. कषाय – 24 कषायों का सेवन करना ।
5. अशुभयोग – मन-वचन-कायाको अशुभ में प्रवृत्ति ।
6. प्राणातिपात – हिंसा करना ।
7. मृषावाद – झूठ बोलना ।
8. अदत्तादान – चोरी करना ।
9. मैथुन – अब्रह्म का सेवन करना ।
10. परिग्रह – परिग्रह रखना ।
11. श्रोत्रेन्द्रिय – कान को वश में न रखना ।
12. चक्षुरिन्द्रिय – आँख को वश में न रखना ।
13. घ्राणेन्द्रिय – नाक को वश में रखना ।
14. रसनेन्द्रिय – जिह्वा को वश में न रखना ।
15. स्पर्शेन्द्रिय – शरीर को वश में न रखना ।
16. मन – मन को वश में न रखना ।
17. वचन – वचन को वश में न रखना ।
18. काया – काया को वश में न रखना ।
19. भंडोपकरणाश्रव – वस्त्र, पात्र आदि की जयणा न करना ।
20. कुसंगाश्रव – कुसंगति करना ।
प्रश्न- 267 आश्रव द्वार कितने है ?
जवाब- 267 आश्रव द्वार पांच है ।1.मिथ्यात्व 2.अविरति. 3.प्रमाद 4.कषाय 5.योग ।
प्रश्न- 268 मिथ्यात्व किसे कहते है ?
जवाब- 268 जीव को तत्व और जिनमार्ग पर अश्रद्धा तथा विपरित मार्ग पर श्रद्धा होना मिथ्यात्व है ।
प्रश्न- 269 मिथ्यात्व के कितने भेद है ?
जवाब- 269 स्थानांग सूत्र में मिथ्यात्व के 10 भेद प्रतिपादित हैं –
1. धर्म को अधर्म कहना ।
2. अधर्म को धर्म कहना ।
3. कुमार्ग को सन्मार्ग कहना ।
4. सन्मार्ग को कुमार्ग कहना ।
5. अजीव को जीव कहना ।
6. जीव को अजीव कहना ।
7. असाधु को साधु कहना ।
8. साघु को असाधु कहना ।
9. अमुक्त को मुक्त कहना ।
10. मुक्त को अमुक्त कहना ।
जो जैसा है, उसे वैसा न कहकर विपरित कहना या मानना मिथ्यात्व का लक्षण है ।
प्रश्न- 270 मिथ्यात्व के अन्य भेद कौन से है ?
जवाब- 270 मिथ्यात्व के अन्य भेद 5 है – 1.आभिग्रहिक मिथ्यात्व 2.अनाभिग्रहिक मिथ्यात्व 3.आभिनिवेशिक मिथ्यात्व 4.सांशयिक मिथ्यात्व 5. अनाभोगिक मिथ्यात्व ।
प्रश्न- 271 आभिग्रहिक मिथ्यात्व किसे कहते है ?
जवाब- 271 तत्व की या सत्व की परीक्षा किये बिना ही पक्षपातपूर्वक किसी तत्व को पकडे रहना तथा अन्य पक्ष का खंडन करना, आभिग्रहिक मिथ्यात्व है ।
प्रश्न- 272 अनाभिग्रहिक मिथ्यात्व किसे कहते है ?
जवाब- 272 गुण – दोष की परीक्षा किये बिना ही सभी पक्षों को समान कहना, अनाभिग्रहिक मिथ्यात्व है ।
प्रश्न- 273 आभिनिवेशिक मिथ्यात्म किसे कहते है ?
जवाब- 273 अपने पक्ष को असत्य समजते हुए भी दुराग्रह पूर्वक उसकी स्थापना, समर्थन करना, आभिनिवेशिक मिथ्यात्व है ।
प्रश्न- 274 सांशयिक मिथ्यात्व किसे कहते है ?
जवाब- 274 देव, गुरु तथा धर्म के विषय या स्वरुप में संदेहशील होना, सांशयिक मिथ्यात्व है ।
प्रश्न- 275 अनाभोगिक मिथ्यात्व किसे कहते है ?
जवाब- 275 विचार-शून्यता, मोहमूढता । एकेन्द्रियादि असंज्ञी तथा ज्ञानविकल जीवों को अनाभोगिक मिथ्यात्व होता है ।
प्रश्न- 276 अविरति किसे कहते है ?
जवाब- 276 प्राणातिपात आदि पापो से निवृत्त न होना, व्रत, प्रत्याख्यान आदि स्वीकार न करना अविरति है ।
प्रश्न- 277 प्रमाद किसे कहते है ?
जवाब- 277 शुभ कार्य या धर्मानुष्ठान में उद्यम न करना, आलस करना प्रमाद कहलाता है ।
प्रश्न- 278 पांच प्रमाद कौन से है ?
जवाब- 278 1.मद्य 2.विषय 3.कषाय 4.निद्रा 5.विकथा ।
प्रश्न- 279 कषाय किसे कहते है ?
जवाब- 279 जो आत्मा का संसार बढाये, उसे कषाय कहते है । इसका विस्तृत वर्णन पाप तत्व में किया जा चुका है ।
प्रश्न- 280 योग किसे कहते है ?
जवाब- 280 मन, वचन तथा काया के शुभाशुभ व्यापार को योग कहते है ।
प्रश्न- 281 किन किन कारणों से आत्मा में आश्रव होता है तथा आश्रव के भेद कितने हैं ?
जवाब- 281 आश्रव के 42 भेद है । इन 42 द्वारों से आत्मा में कर्म का आगमन होता है – इन्द्रियाँ-5, कषाय-16, अव्रत-5, योग-3, क्रियाएं-25 ।
प्रश्न- 282 इन्द्रियाश्रव किसे कहते है ?
जवाब- 282 5 इन्द्रियों के 23 विषय आत्मा के अनुकूल अथवा प्रतिकूल होने पर सुख-दुःख का अनुभव होता है, उससे आत्मा में कर्म का जो आश्रव होता है, उसे इन्द्रियाश्रव कहते है ।
प्रश्न- 283 कषायाश्रव किसे कहते है ?
जवाब- 283 क्रोधादि 4 कषायों के अनंतानुबंधी क्रोधादि आदि 16 भेदों से आत्मा में जो कर्म का आगमन होता है, उसे कषायाश्रव कहते है ।
प्रश्न- 284 अव्रताश्रव किसे कहते है ?
जवाब- 284 प्राणातिपात, मृषावाद, अदत्तादान, मैथुन तथा परिग्रह, इन पांच व्रतों का देशतः या सर्वतः अनियम या अत्याग अव्रताश्रव कहलाता है ।
प्रश्न- 285 प्रणातिपात अव्रताश्रव किसे कहते है ?
जवाब- 285 प्रमाद से जीवों के द्रव्य प्राणों का विनाश करना या जीव-हिंसा करना प्राणातिपात अव्रताश्रव है ।
प्रश्न- 286 मृषावाद अव्रताश्रव किसे कहते है ?
जवाब- 286 स्वार्थ की सिद्धि के लिये अथवा अहित के लिये जो सत्य अथवा असत्य बोला जाता है, उसे मृषावाद अव्रताश्रव कहते है ।
प्रश्न- 287 अदत्तादान अव्रताश्रव किसे कहते है ?
जवाब- 287 अदत्त-नही दी हुई (वस्तुका), आदान-ग्रहण करना अदत्तादान है । निषेध की गई वस्तु अथवा बिना पूछे वस्तु को लेना, चोरी करना, अदत्तादान अव्रताश्रव कहलाता है ।
प्रश्न- 288 अदत्तादान कितने प्रकार का है ?
जवाब- 288 अदत्तादान 4 प्रकार का है-
1. स्वामी अदत्त- स्वामी (मालिक) को पूछे बिना ली गयी वस्तु ।
2. जीव अदत्त- जीव को पूछे बिना ली गयी वस्तु ।
3. तीर्थेकर अदत्त- तीर्थंकरो के द्वारा निषिद्ध की गयी वस्तु ।
4. गुरु अदत्त- गुरु आज्ञा प्राप्त किये बिना ली गयी वस्तु ।
प्रश्न- 289 अब्रह्म अव्रताश्रव किसे कहते है ?
जवाब- 289 अनाचार का सेवन करना अब्रह्म आश्रव है ।
प्रश्न- 290 परिग्रह अव्रताश्रव किसे कहते है ?
जवाब- 290 पदार्थो का संग्रह करना, उन पर ममत्व बुद्धि रखना परिग्रह आश्रव है ।
प्रश्न- 291 योगाश्रव किसे कहते है ?
जवाब- 291 मन, वचन, काया के व्यापार से जो कर्म का आत्मा में आगमन होता है, उसे योगाश्रव कहते है ।
प्रश्न- 292 योगाश्रव के तीनों भेद स्पष्ट करो ?
जवाब- 292 1.मनोयोग आश्रवः- मन के द्वारा शुभ विचार करने पर शुभ मनोयोग आश्रव तथा अप्रशस्त विचार करने पर अशुभ मनोयोगाश्रव होता है ।
2. वचनयोगाश्रवः- वचन से सत्य, मधुर तथा हितकारी वचन बोलने पर शुभ वचन योगाश्रव तथा असत्य, कटु व हिंसक वचन बोलने पर अशुभ वचनयोगाश्रव होता है ।
3. काययोगाश्रवः- काया से शुभ प्रवृत्ति करने पर शुभकाय योगाश्रव तथा अशुभ प्रवृत्ति करने पर अशुभ काययोगाश्रव होता है ।
प्रश्न- 293 क्रिया किसे कहते है ? इसके कितने भेद है ?
जवाब- 293 आत्मा जिस व्यापार के द्वारा शुभाशुभ कर्म को ग्रहण करती है, उसे क्रिया कहते है । इसके पच्चीस भेद हैं ।
प्रश्न- 294 कायिकी क्रिया किसे कहते है ?
जवाब- 294 अविरति, अजयणा या प्रमादपूर्वक शरीर के हलन-चलन की क्रिया कायिकी क्रिया कहलाती है ।
प्रश्न- 295 अधिकरणिकी क्रिया किसे कहते है ?
जवाब- 295 अधिकरण अथवा तलवार, चाकू, छूरी, बंदूक आदि । इन शस्त्रो (अधिकरण) से आत्मा पाप करके नरक का अधिकारी बनता है, इन शस्त्रों से होने वाली क्रिया को अधिकरणिकी क्रिया कहते है ।
प्रश्न- 296 अधिकरणिकी क्रिया के भेद लखो ?
जवाब- 296 अधिकरणिकी क्रिया के दो भेद है ।
1. संयोजनाधिकरणिकी क्रियाः- शस्त्रादि के अवयवों को परस्पर जोडना ।
2. निर्वर्तनाधिकरणिकी क्रियाः- नये शस्त्रादि का निर्माण करना ।
प्रश्न- 297 प्रादेषिकी क्रिया किसे कहते है ?
जवाब- 297 जीव या अजीव प द्वेष करने से लगने वाली क्रिया प्रादेषिकी क्रिया है ।
प्रश्न- 298 पारितापनिकी क्रिया किसे कहते है ?
जवाब- 298 दूसरे जीवों को पीडा पहुँचाने से तथा अपने ही हाथ से अपना सिर, छाती आदि पीटने से लगने वाली क्रिया पारितापनिकी क्रिया है ।
प्रश्न- 299 प्राणातिपातिकी क्रिया किसे कहते है ?
जवाब- 299 दूसरें प्राणियों के प्राणों का विनाश करने से तथा स्त्री आदि के वियोग से आत्मघात करने से लगने वाली क्रिया प्राणातिपातिकी है ।
प्रश्न- 300 आरंभिकी क्रिया किसे कहते है ?
जवाब- 300 आरंभ (खेती, घर आदि के कार्य में हल, कुदाल आदि चलाने) से लगने वाली क्रिया आरंभिकी क्रिया है । इसमें उद्देश्य पूर्वक जीव का हनन नहीं किया जाता ।
नवतत्त्व प्रकरण प्रश्नोत्तरी
प्रश्न- 101 साकारोपयोग के कितने भेद होते है ?
जवाब- 101 साकारोपयोग के निम्न आठ भेद है- 1.मतिज्ञान 2.श्रुतज्ञान 3.अवधिज्ञान 4.मनःपर्यवज्ञान 5.केवलज्ञान 6.मतिअज्ञान 7.श्रुतअज्ञान 8.विभंगज्ञान ।
प्रश्न- 102 निराकारोपयोग किसे कहते है ?
जवाब- 102 जिसके द्वारा वस्तु के सामान्य धर्म को जाना जाय, वह निराकारोपयोग हैं ।
प्रश्न- 103 निराकारोपयोग के कितने भेद होते है ? नाम लीखो ।
जवाब- 103 निराकारोपयोग के 4 भेद निम्नोक्त हैं – 1.चक्षुदर्शन 2.अचक्षुदर्शन 3.अवधिदर्शन 4.केवलदर्शन ।
प्रश्न- 104 चारित्र किसे कहते है ?
जवाब- 104 ज्ञानादि गुणो में रमणता प्राप्त करना अथवा आठ कर्मो को नष्ट करने के लिये यम-नियमादि शुभ आचरण का पालन करना चारित्र है ।
प्रश्न- 105 चारित्र के कितने भेद है ?
जवाब- 105 चारित्र के दो भेद है- 1.द्रव्य चारित्र 2.भाव चारित्र ।
प्रश्न- 106 द्रव्य चारित्र किसे कहते है ?
जवाब- 106 व्यवहार में समस्त अशुभ तथा हिंसाजनक क्रियाओं का त्याग द्रव्य चारित्र है ।
प्रश्न- 107 भाव चारित्र किसे कहते है ?
जवाब- 107 हिंसादिक अशुभ तथा रौद्र परिणामो से अपने मन को पीछे हटाना या संयत करना भाव चारित्र है ।
प्रश्न- 108 तप किसे कहते है ?
जवाब- 108 इच्छाओं का अभाव होना अथवा अनशनादि शुभाशुभ क्रियाओं के द्वारा आठ कर्मो का क्षय करना तप है ।
प्रश्न- 109 वीर्य किसे कहते है ?
जवाब- 109 आत्मा की शक्ति या पराक्रम को वीर्य कहते है ।
प्रश्न- 110 उपयोग किसे कहते है ?
जवाब- 110 जिसके द्वारा ज्ञान तथा दर्शन गुण की प्रवृत्ति होती है, उसे उपयोग कहते हैं ।
प्रश्न- 111 जीव के बाह्य लक्षण क्या है ?
जवाब- 111 10 प्रकारके द्रव्य प्राण जीव के बाह्य लक्षण हैं ।
प्रश्न- 112 जीव के आंतरीक लक्षण क्या हैं ?
जवाब- 112 जीव के आंतरीक लक्षण अनंतज्ञान-दर्शन-चारित्र-तप तथा वीर्य है । इन्हें भावप्राण भी कहते है ।
प्रश्न- 113 द्रव्यप्राण किसे कहते है ?
जवाब- 113 जिसके द्वारा जीव जीवित रहता हैं, उसे द्रव्य प्राण कहते हैं ।
प्रश्न- 114 द्रव्य प्राण कितने व कौन-कौन से है ?
जवाब- 114 द्रव्य प्राण 10 हैं- पांच इन्द्रिय प्राण- 1.स्पर्श 2.रस 3.घ्राण 4.चक्षु 5.श्रोत तीन बल प्राण – 6.मनोबल प्राण 7.वचनबल प्राण 8.कायबल प्राण 9.श्वासोच्छवास प्राण 10.आयुष्य प्राण ।
प्रश्न- 115 प्राण तथा पर्याप्ति में क्या अंतर है ?
जवाब- 115 पर्याप्ति प्राणों का कारण है तथा प्राण उसका कार्य हैं ।
प्रश्न- 116 पर्याप्ति तथा प्राण का काल कितना होता है ?
जवाब- 116 पर्याप्ति का काल अन्तर्मुहूर्त का है, जबकि प्राण जीवन पर्यंत रहते है ।
प्रश्न- 117 कौन सा प्राण किस पर्याप्ति द्वारा उत्पन्न होता है ?
जवाब- 117 5 इन्द्रिय प्राण - मुख्य रुप से इन्द्रिय पर्याप्ति द्वारा ।
कायबल प्राण - मुख्य रुप से शरीर पर्याप्ति द्वारा ।
वचनबल प्राण - मुख्य रुप से भाषा पर्याप्ति द्वारा ।
मनोबल प्राण - मुख्य रुप से मनः पर्याप्ति द्वारा ।
श्वासोच्छवास प्राण - मुख्य रुप से श्वासोच्छवास पर्याप्ति द्वारा ।
आयुष्य प्राण - इस में आहारादि पर्याप्ति सहचारी-उपकारी कारण रुप है ।
प्रश्न- 118 इन्द्रिय प्राण किसे कहते है ?
जवाब- 118 इन्द्रियों के द्वारा मिलने वाली शक्ति को इन्द्रिय प्राण कहते है ।
प्रश्न- 119 योग किसे कहते है ?
जवाब- 119 मन, वचन तथा काया के व्यापार को योग कहते हैं ।
प्रश्न- 120 बल प्राण किसे कहते है ?
जवाब- 120 तीन योग से मिलने वाली शक्ति-बल को बलप्राण कहते है ।
प्रश्न- 121 बल प्राण से क्या अभिप्राय हैं ?
जवाब- 121 मनोबल प्राण – विचार करने की शक्ति ।
वचनबल प्राण – बोलने की शक्ति ।
कायबल प्राण – शरीर की शक्ति ।
प्रश्न- 122 श्वासोच्छवास प्राण किसे कहते है ?
जवाब- 122 श्वासोच्छवास वर्गणा के पुद्गलों को शरीर में ग्रहण करने और बाहर निकालने की शक्ति को श्वासोच्छवास प्राण कहते है ।
प्रश्न- 123 आयुष्य प्राण किसे कहते है ?
जवाब- 123 जिसके संयोग से एक शरीर में अमुक समय तक जीव रहता है तथा जिसके वियोग से जीव (आत्मा) उस शरीर में से निकल जाय, उसे आयुष्य प्राण कहते है ।
प्रश्न- 124 आयुष्य प्राण के कितने भेद है ?
जवाब- 124 आयुष्य प्राण के दो भेद है- 1.द्रव्य आयुष्य 2.काल आयुष्य ।
अन्य अपेक्षा से – 1.अपवर्तनीय 2.अनपवर्तनीय ।
प्रश्न- 125 द्रव्य आयुष्य किसे कहते है ?
जवाब- 125 आयुष्य कर्म के पुद्गल द्रव्य आयुष्य है ।
प्रश्न- 126 काल आयुष्य किसे कहते है ?
जवाब- 126 उन पुद्गलों द्वारा जीव जितने समय तक अमुक एक भव में स्थित रहता है, उसका नाम काल आयुष्य है ।
प्रश्न- 127 अपवर्तनीय आयुष्य किसे कहते है ?
जवाब- 127 आयुष्य कर्म के बंधे हुए पुद्गल किसी निमित्त अथवा शस्त्रादि के आघात आदि को प्राप्त कर शीघ्र क्षीण हो जाय अर्थात् अकाल मृत्यु की प्राप्ति होना, अपवर्तनीय आयुष्य है ।
प्रश्न- 128 अनपवर्तनीय आयुष्य किसे कहते है ?
जवाब- 128 बंधे हुए आयुष्य में किसी प्रकार का परिवर्तन संभव न हो, जितना बांधा हो, उतना अवश्यमेव भोगना पडे, उसे अनपवर्तनीय आयुष्य कहते है ।
प्रश्न- 129 द्रव्य तथा काल आयुष्य को भोगे बिना क्या जीव की मृत्यु संभव है ?
जवाब- 129 इन दोनो में से जीव ने द्रव्य आयुष्य यदि अपवर्तनीय बांधा है तो द्रव्य आयुष्य अवश्य भोगता है परंतु काल आयुष्य पूर्ण करता है अथवा नहीं भी करता है । अपूर्ण काल में मृत्यु संभव है, पर द्रव्य आयुष्य तो पूर्ण भोगना ही पडता है । और यदि द्रव्य आयुष्य अनपवर्तनीय बांधा है तो द्रव्य और काल, दोनों आयुष्य अवश्य भोगता है ।
प्रश्न- 130 अकाल मृत्यु होने पर द्रव्य आयुष्य को पूर्ण भोगना कैसे संभव है ?
जवाब- 130 द्रव्य आयुष्य के पुद्गल चूंकि अपवर्तनीय अर्थात् अकस्मात् किसी आघात से शीघ्र क्षय के स्वभाव वाले होने से अंतिम समय में एक ही साथ भोग लिये जाते है ।
प्रश्न- 131 अनपवर्तनीय आयुष्य किन-किन जीवों को प्राप्त होता है ?
जवाब- 131 4 प्रकार के जीवों को अनपवर्तनीय आयुष्य की प्राप्ति होती है –
1. उपपात जन्म वाले – समस्त देव तथा नारकी जीव ।
2. चरम शरीरी – अंतिम शरीरी अर्थात् उसी भव में मोक्ष जाने वाले, आगे संसार में जन्म नहीं लेने वाले ।
3. उत्तम पुरुष – अर्थात् त्रेषठशलाका पुरुष (24 तीर्थंकर, 12 चक्रवर्ती, 9 वासुदेव, 9 बलदेव तथा 9 प्रतिवासुदेव)
4. असंख्येयवर्षायुषी – असंख्यात वर्ष की आयुष्य वाले युगलिक तिर्यंच तथा युगलिक मनुष्य । शेष जीवों के अपवर्तनीय और अनपवर्तनीय , दोनों प्रकार के आयुष्य होते है ।
प्रश्न- 132 एकेन्द्रिय तथी द्वीन्द्रिय जीवों के क्रमशः एक तथा दो ही इन्द्रियाँ (स्पर्श, रस) होने से श्वासोच्छवास लेना कैसे संभव है ?
जवाब- 132 तीन तथा उससे अधिक इन्द्रिय वाले जीवों को जो श्वासोच्छवास नासिका (घ्राणेन्द्रिय) द्वारा ग्रहण होता है, वह दिखाई देने वाला बाह्य श्वासोच्छवास है परंतु इसका ग्रहण, प्रयत्न तथा परिणमन तो सर्व आत्मप्रदेशों से होता है । इसे आभ्यंतर श्वासोच्छवास भी कहते है । जिन एकेन्द्रिय तथा द्वीन्द्रिय जीवों के नासिका नहीं है, वे सर्व शरीर प्रदेशों से श्वासोच्छवास के योग्य पुद्गल ग्रहण कर परिणमन कर विसर्जित करते हैं । इन जीवों का श्वासोच्छवास अव्यक्त है, जबकी नासिकावाले जीवों का श्वासोच्छवास व्यक्त-अव्यक्त दोनों प्रकार का होता है ।
प्रश्न- 133 अपर्याप्त जीवों के कितने प्राण होते है ?
जवाब- 133 अपर्याप्त को उत्कृष्ट से 7 तथा जघन्य से तीन प्राण होते हैं ।
प्रश्न- 134 जीव तत्व को जानने का उदेश्य क्या है ?
जवाब- 134 जीव तत्व ज्ञेय है अर्थात् जानने योग्य है क्योंकि जीवतत्व को जाने बिना नव तत्वो में हेय, ज्ञेय व उपादेय कौन हैं, उसकी प्रतीति नहीं हो सकती ।
प्रश्न- 135 अजीव किसे कहते है ?
जवाब- 135 जो चैतन्य रहित हो, जो सुख-दुःख के अनुभव से रहित हो, जड हो, उसे अजीव कहते है ।
प्रश्न- 136 अजीव के भेद तथा उपभेद कितने है ?
जवाब- 136 अजीव के मुख्य भेद 5 तथा कुल भेद 14 है ।
प्रश्न- 137 अजीव के 5 भेद कौन कौन से है ?
जवाब- 137 1.धर्मास्तिकाय 2.अधर्मास्तिकाय 3.आकाशास्तिकाय 4.पुद्गलास्तिकाय 5.काल ।
प्रश्न- 138 अजीव के 14 उपभेद कौन कौन से है ?
जवाब- 138 अजीव के 14 उपभेद निम्नप्रकार है –
धर्मास्तिकाय के तीन भेद - स्कंध, देश, प्रदेश ।
अधर्मास्तिकाय के तीन भेद - स्कंध, देश, प्रदेश ।
आकाशास्तिकाय के तीन भेद - स्कंध, देश, प्रदेश ।
पुद्गलास्तिकाय के चार भेद - स्कंध, देश, प्रदेश, परमाणु ।
काल का एक भेद, इस प्रकार अजीव के कुल 14 भेद होते है ।
प्रश्न- 139 धर्मास्तिकाय किसे कहते है ?
जवाब- 139 जीव एवं पुद्गलों की गति में सहायक बनने वाले द्रव्य को धर्मास्तिकाय कहते है ।
प्रश्न- 140 अधर्मास्तिकाय किसे कहते है ?
जवाब- 140 जीव तथा पुद्गल को स्थिर करने में सहयोग करने वाला द्रव्य अधर्मास्तिकाय कहलाता है ।
प्रश्न- 141 आकाशास्तिकाय किसे कहते है ?
जवाब- 141 जीव तथा पुद्गलों को अवकाश (स्थान) देने वाला द्रव्य आकाशास्तिकाय कहलाता है ।
प्रश्न- 142 पुद्गलास्तिकाय किसे कहते है ?
जवाब- 142 जो प्रतिसमय पूरण एवं गलन स्वभाव वाला है, उसे पुद्गलास्तिकाय कहते है ।
प्रश्न- 143 काल किसे कहते है ?
जवाब- 143 वस्तुओं के परिणमन अर्थात् परिवर्तन में सहकारी रुप शक्ति को काल कहते है । अथवा जो नवीन वस्तु को पुरानी तथा पुरानी को नष्ट करे, वह काल ।
प्रश्न- 144 अस्तिकाय किसे कहते है ?
जवाब- 144 अस्ति – छोटे से छोटा अविभाज्य अंश, जिसके दो टुकडे न हो सके ऐसा अविभागी प्रदेश । काय अर्थात् समूह । अस्तिकाय – प्रदेशों के समूह को अस्तिकाय कहते है ।
प्रश्न- 145 षट्द्रव्य में कितने द्रव्य अस्तिकाय कहलाता है ?
जवाब- 145 1.धर्मास्तिकाय 2.अधर्मास्तिकाय 3.आकाशास्तिकाय 4.जीवास्तिकाय 5.पुद्गलास्तिकाय ये पांचो द्रव्य प्रदेशों के समूह होने से अस्तिकाय कहलाते है ।
प्रश्न- 146 काल को अस्तिकाय क्यों नहीं कहा गया है ?
जवाब- 146 काल केवल वर्तमान में एक समय रुप ही होता है । उसके स्कंध, देश, प्रदेश नहीं होते हैं, क्योंकी वह अखण्ड द्रव्य रुप है । इसलिये उसके साथ अस्तिकाय शब्द नहीं जोडा जाता ।
प्रश्न- 147 स्कंध किसे कहते है ?
जवाब- 147 परमाणुओं के समुह को स्कंध कहते है अथवा अनेक प्रदेश वाले एक पूरे द्रव्य को स्कंध कहते है । जैसे – अनेक दानों से बना हुआ मोतीचुर का अखण्ड लड्डू ।
प्रश्न- 148 देश किसे कहते है ?
जवाब- 148 अनेक प्रदेशों वाले एक द्रव्य के स्कंध में रहे हुए एक भाग को देश कहते है । जैसे अनेक कणों वाले मोतीचूर के लड्डू का एक भाग ।
प्रश्न- 149 प्रदेश किसे कहते है ?
जवाब- 149 स्कंध या देश से मिले हुए अविभाज्य अंश को अथवा अनेक प्रदेशों वाले द्रव्य के स्कंध में रहे हुए अविभाज्य भाग को प्रदेश कहते है । जैसे अनेक कणों वाले मोतीचूर के लड्डू को एक अविभाज्य कण ।
प्रश्न- 150 परमाणु किसे कहते है ?
जवाब- 150 स्कंध या देश से पृथक हुए निर्विभाज्य सूक्ष्मतम अंश को, जिसके दो टुकडे नहीं हो शके, उसे परमाणु कहते है । जैसे – लड्डू से पृथक हुआ निर्विभाज्य कण परमाणु है ।
प्रश्न- 151 प्रदेश तथा परमाणु में क्या अंतर है ?
जवाब- 151 अणु जब स्कंध से जुडा रहे तो प्रदेश कहलाता है और पृथक हो जाय तब परमाणु कहलाता है ।
प्रश्न- 152 प्रदेश बडा होता है या परमाणु ?
जवाब- 152 दोनों ही समान क्षेत्र को घेरने वाले होने से एक समान है ।
प्रश्न- 153 धर्मास्तिकाय – अधर्मास्तिकाय – आकाशास्तिकाय इन तीनों के परमाणु रुप भेद क्यों नहीं होता ?
जवाब- 153 धर्मास्तिकायादि के समस्त प्रदेश स्कंध के साथ जुडे हुए ही रहते हैं क्योंकी ये तीनों अखण्ड द्रव्य है । इनका प्रदेश कभी भी द्रव्य से अलग नहीं होता । जो स्कंध से अलग पडता है, वही प्रदेश परमाणु कहा जाता हैं ।
प्रश्न- 154 गुण किसे कहते है ?
जवाब- 154 अविच्छिन्न रुप से द्रव्य में रहने वाला गुण है । द्रव्य का जो सहभावी धर्म अर्थात् द्रव्य के आश्रित रहने वाले पदार्थ को गुण कहते है । जैसे आत्मा का गुण चेतना, ज्ञान । सोने का गुण पीतत्व आदि ।
प्रश्न- 155 पर्याय किसे कहते है ?
जवाब- 155 द्रव्य की जो भिन्न-भिन्न अवस्थाएँ होती है, उसे पर्याय कहते है । जैसे आत्मा की मनुष्यत्व, देवत्व तथा सोने की हार, कंगन आदि विभिन्न दशाएँ पर्याय हैं ।
प्रश्न- 156 उत्पाद किसे कहते है ?
जवाब- 156 उत्पन्न होना उत्पाद है ।
प्रश्न- 157 व्यय किसे कहते है ?
जवाब- 157 नष्ट होना व्यय है ।
प्रश्न- 158 ध्रौव्य किसे कहते है ?
जवाब- 158 स्थिर रहना अथवा अपने स्वरुप को सुरक्षित रखना ध्रौव्य है ।
प्रश्न- 159 आकाशास्तिकाय के कितने भेद है ?
जवाब- 159 आकाशास्तिकाय के दो भेद हैं – 1.लोकाकाश 2.अलोकाकाश ।
प्रश्न- 160 लोकाकाश किसे कहते है ?
जवाब- 160 जिस में धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, जीवादि द्रव्य रहते हैं, उसे लोकाकाश कहते है ।
प्रश्न- 161 अलोकाकाश किसे कहते है ?
जवाब- 161 जिस में आकाश के अतिरिक्त किसी भी द्रव्य का अस्तित्व न हो, उसे अलोकाकाश कहते है ।
प्रश्न- 162 लोकाकाश तथा अलोकाकाश का परिमाण क्या है ?
जवाब- 162 लोकाकाश का परिमाण चौदह राजलोक है । इसके अतिरिक्त अनन्त अलोकाकाश है ।
प्रश्न- 163 धर्मास्तिकाय की हमारे जीवन में क्या उपयोगिता है ?
जवाब- 163 अगर धर्मास्तिकाय का अभाव हो जाय तो जीव और पुद्गल की गति ही अव्यवस्थित हो जाये । धर्मास्तिकाय के द्वारा ही जीवों के आगमन, गमन, उन्मेष, मनोयोग, वचनयोग तथा काययोग में प्रवृत्ति होती है ।
प्रश्न- 164 अधर्मास्तिकाय की हमारे जीवन में क्या उपयोगिता है ?
जवाब- 164 अगर अधर्मास्तिकाय नही होता तो जीव का खडे रहना, बैठना, मन को एकाग्र करना, मौन करना, निस्पंद होना, करवट बदलना आदि जितने भी स्थिर भाव है, वे संभव नहीं हो पाते । आदमी सदैव चलता ही रहता । गति ही करता रहता । अधर्मास्तिकाय के कारण ही स्थिति संभव है ।
प्रश्न- 165 आकाशास्तिकाय की क्या उपयोगिता है ?
जवाब- 165 आकाश द्रव्य समस्त द्रव्यों का आधार है, बाकी सब द्रव्य आधेय है । आधार रुप आकाश का यदि अभाव हो जाय तो कोइ पदार्थ टिक नहीं सकता । घडे में पानी इसलिये ठहरता है कि उसमें आश्रय देने का गुण विद्यमान है । इसी प्रकार समस्त पदार्थों को आश्रय देने वाला आकाश ही है ।
प्रश्न- 166 काल की हमारे जीवन में क्या उपयोगिता है ?
जवाब- 166 काल की उपयोगिता स्वयं सिद्ध है, क्योंकि उसके बिना कोई भी कार्यक्रम निर्धारित नहीं हो सकता । छोटे से लेकर बडे कार्य में काल की सहायता अपेक्षित है । प्रत्येक पदार्थ काल के आश्रित है । उसके कारण सृष्टि का सौंदर्य तथा संतुलन है । पदार्थो में, चाहे वे सजीव हो या निर्जीव, जो भी परिवर्तन होता है, वह काल के कारण ही संभव है ।
प्रश्न- 167 पुद्गलास्तिकाय की हमारे जीवन में क्या उपयोगिता है ?
जवाब- 167 पुद्गल हमारे अत्यंत निकट के उपकारी है । संसारी जीव पुद्गल के अभाव में रह ही नहीं सकता । उसकी आवश्यकता पुद्गल के द्वारा ही सम्पन्न होती है । हमारा शरीर पुद्गल की देन है । भाषा, मन, प्राण, अपान आदि सब पुद्गल के ही उपकार हैं ।
प्रश्न- 168 पुद्गल द्रव्य के लक्षण कौन-कौन से है ?
जवाब- 168 शब्द, अन्धकार, उद्योत, प्रभा, छाया, आतप, वर्ण, गंध, रस, स्पर्श ये पुद्गल के लक्षण हैं ।
प्रश्न- 169 उद्योत किसे कहते है ?
जवाब- 169 शीतल वस्तु का शीतल प्रकाश उद्योत कहलाता है । चन्द्र, ग्रह, नक्षत्र, तारा आदि ज्योतिष विमानों का, चन्द्रकान्त आदि रत्नों का तथा जुगनु आदि जीवों का प्रकाश उद्योत है ।
प्रश्न- 170 प्रभा किसे कहते है ?
जवाब- 170 चन्द्रादि के प्रकाश में से तथा सूर्य के प्रकाश में से जो दूसरा किरण रहित उपप्रकाश पडता है, वह प्रभा है ।
प्रश्न- 171 छाया किसे कहते है ?
जवाब- 171 दर्पण अथवा प्रकाश में पडने वाला प्रतिबिंब छाया कहलाती है ।
प्रश्न- 172 आतप किसे कहते है ?
जवाब- 172 शीत वस्तु का उष्ण प्रकाश आतप कहलाता है ।
प्रश्न- 173 एक मुहूर्त में कितनी आवलिकाएँ होती हैं ?
जवाब- 173 एक मुहूर्त में एक करोड, सडसठ लाख, सत्तहत्तर हजार, दो सौ सोलह से (कुछ) अधिक आवलिकाएँ होती है ।
प्रश्न- 174 समय किसे कहते है ?
जवाब- 174 काल का अत्यंत सूक्ष्म अंश, जिसका केवली के ज्ञान में भी विभाग न हो सके, उसे समय कहते है ।
प्रश्न- 175 समय की सूक्ष्मता को समझाने के लिये उदाहरण दीजिये ?
जवाब- 175 आंख मींच कर खोलने में असंख्यात समय व्यतीत हो जाते है । उन असंख्यात समयों की एक आवलिका होती है । समय की सूक्ष्मता को इस उदाहरण द्वारा भी समझ सकते है, जैसे – अति जीर्ण वस्त्र को त्वरा से फाडने पर एक तंतु से दूसरे तंतु को फटने में जो समय लगता है, वह भी असंख्य समय प्रमाण है ।
प्रश्न- 176 पक्ष किसे कहते है ?
जवाब- 176 पन्द्रह दिनों का एक पक्ष होता है ।
प्रश्न- 177 पक्ष कितने प्रकार के होते है ?
जवाब- 177 पक्ष दो प्रकार के होते है – 1.कृष्ण पक्ष 2.शुक्ल पक्ष ।
प्रश्न- 178 मास किसे कहते है ?
जवाब- 178 2 पक्ष का अथवा 30 अहोरात्र का एक मास होता है ।
प्रश्न- 179 अहोरात्र किसे कहते है ?
जवाब- 179 दिन और रात को अहोरात्र कहते है ।
प्रश्न- 180 एक अहोरात्र में कितनी घडी होती है ?
जवाब- 180 एक अहोरात्र में साठ घडी (24 घंटे या 30 मुहूर्त) होती है ।
प्रश्न- 181 एक घडी का परिमाण कितना होता है ?
जवाब- 181 एक घडी का परिमाण 24 मिनिट होता है ।
प्रश्न- 182 एक मुहूर्त में कितनी घडी होती है ?
जवाब- 182 एक मुहूर्त में दो घडी होती है ।
प्रश्न- 183 एक वर्ष में कितने मास होते है ?
जवाब- 183 एक वर्ष में 12 मास होते है ।
प्रश्न- 184 एक वर्ष में कितनी ऋतुएँ होती हैं ?
जवाब- 184 एक वर्ष में छह ऋतुएँ होती हैं – 1.हेमंत 2.शिशिर 3.वसंत 4.ग्रीष्म 5.वर्षा 6.शरद ।
प्रश्न- 185 एक ऋतु में कितने मास होते है ?
जवाब- 185 एक ऋतु में दो मास होते है ।
प्रश्न- 186 एक अयन कितनी ऋतु का होता है ?
जवाब- 186 तीन ऋतु अर्थात् छह माह का एक अयन (दक्षिणायन या उत्तरायण) होता है ।
प्रश्न- 187 एक युग कितने वर्ष का होता है ?
जवाब- 187 एक युग पांच वर्ष का होता है ।
प्रश्न- 188 एक वर्ष कितने अयन का होता है ?
जवाब- 188 एक वर्ष दो अयन का होता है ।
प्रश्न- 189 कितने वर्ष का एक पूर्वांग होता है ?
जवाब- 189 84 लाख वर्ष का एक पूर्वांग होता है ।
प्रश्न- 190 एक पूर्व में कितने पूर्वांग अथवा कितने वर्ष होते हैं ?
जवाब- 190 एक पूर्व 84 लाख पूर्वांग अथवा सत्तर लाख छप्पन्न हजार करोड वर्ष होते हैं ।
प्रश्न- 191 पल्योपम कितने वर्षो का होता है ?
जवाब- 191 असंख्यात वर्षो का एक पल्योपम होता है ।
प्रश्न- 192 पल्योपम की व्याख्या किजिए ?
जवाब- 192 उत्सेधांगुल के माप से एक योजन (चार कोष) लंबा, चौडा, गहरा, एक कुआं, जिसको सात दिन की उम्र वाले युगलिक बालक के एक एक केश के असंख्य असंख्य टुकडों से इस तरह ठसा-ठस भर दिया जाय कि उसके उपर से चक्रवर्ती की विशाल सेना पसार हो जाय तब भी उसके ठसपण में किंचित् मात्र भी फर्क न आये । उस कूप में से प्रति समय में एक-एक केश का टुकडा निकाले । इस प्रकार करते हुए जब केश राशि से पूरा कुआं खाली हो जाय, उतने समय की अवधि अथवा परिमाण को बादर उद्धार पल्योपम कहते है ।
प्रश्न- 193 कितने पल्योपम का एक सागरोपम होता है ?
जवाब- 193 10 कोडाकोडी पल्योपम का एक सागरोपम होता है ।
प्रश्न- 194 कोडाकोडी किसे कहते है ?
जवाब- 194 करोड को करोड से गुणा करने पर जो संख्या आती है, उसे कोडाकोडी कहते है ।
प्रश्न- 195 कितने सागरोपम की एक उत्सर्पिणी अथवा अवसर्पिणी होती है ?
जवाब- 195 दस कोडाकोडी सागरोपम की एक उत्सर्पिणी अथवा अवसर्पिणी होती है ।
प्रश्न- 196 कालचक्र किसे कहते है ?
जवाब- 196 एक उत्सर्पिणी तथा एक अवसर्पिणी काल का एक कालचक्र होता है ।
प्रश्न- 197 एक कालचक्र कितने सागरोपम का होता है ?
जवाब- 197 एक कालचक्र 20 कोडाकोडी सागरोपम का होता है ।
प्रश्न- 198 एक पुद्गल परावर्तन काल किसे कहते है ?
जवाब- 198 अनंत कालचक्र का एक पुद्गल परावर्तन काल होता है ।
प्रश्न- 199 पुद्गल परावर्तन काल के कितने भेद है ?
जवाब- 199 पुद्गल परावर्तन काल के 8 भेद हैं – 1.द्रव्य पुद्गल परावर्त 2.क्षेत्र पुद्गल परावर्त 3.काल पुद्गल परावर्त 4.भाव पुद्गल परावर्त 5.इन चारों के सूक्ष्म तथा बादर ये दो-दो भेद होने से कुल 8 भेद होते है ।
प्रश्न- 200 बादर द्रव्य पुद्गल परावर्त काल किसे कहते है ?
जवाब- 200 औदारिक-वैक्रिय-तैजस-भाषा-श्वासोच्छवास-मन तथा कार्मण, इन सात पुद्गल वर्गणाओं के माध्यम से जीव को जगत के सभी पुद्गलों का उपभोग कर छोडने में जितना समय व्यतित होता है,उसे बादर द्रव्य पुद्गल परावर्तकाल कहते है ।
जवाब- 101 साकारोपयोग के निम्न आठ भेद है- 1.मतिज्ञान 2.श्रुतज्ञान 3.अवधिज्ञान 4.मनःपर्यवज्ञान 5.केवलज्ञान 6.मतिअज्ञान 7.श्रुतअज्ञान 8.विभंगज्ञान ।
प्रश्न- 102 निराकारोपयोग किसे कहते है ?
जवाब- 102 जिसके द्वारा वस्तु के सामान्य धर्म को जाना जाय, वह निराकारोपयोग हैं ।
प्रश्न- 103 निराकारोपयोग के कितने भेद होते है ? नाम लीखो ।
जवाब- 103 निराकारोपयोग के 4 भेद निम्नोक्त हैं – 1.चक्षुदर्शन 2.अचक्षुदर्शन 3.अवधिदर्शन 4.केवलदर्शन ।
प्रश्न- 104 चारित्र किसे कहते है ?
जवाब- 104 ज्ञानादि गुणो में रमणता प्राप्त करना अथवा आठ कर्मो को नष्ट करने के लिये यम-नियमादि शुभ आचरण का पालन करना चारित्र है ।
प्रश्न- 105 चारित्र के कितने भेद है ?
जवाब- 105 चारित्र के दो भेद है- 1.द्रव्य चारित्र 2.भाव चारित्र ।
प्रश्न- 106 द्रव्य चारित्र किसे कहते है ?
जवाब- 106 व्यवहार में समस्त अशुभ तथा हिंसाजनक क्रियाओं का त्याग द्रव्य चारित्र है ।
प्रश्न- 107 भाव चारित्र किसे कहते है ?
जवाब- 107 हिंसादिक अशुभ तथा रौद्र परिणामो से अपने मन को पीछे हटाना या संयत करना भाव चारित्र है ।
प्रश्न- 108 तप किसे कहते है ?
जवाब- 108 इच्छाओं का अभाव होना अथवा अनशनादि शुभाशुभ क्रियाओं के द्वारा आठ कर्मो का क्षय करना तप है ।
प्रश्न- 109 वीर्य किसे कहते है ?
जवाब- 109 आत्मा की शक्ति या पराक्रम को वीर्य कहते है ।
प्रश्न- 110 उपयोग किसे कहते है ?
जवाब- 110 जिसके द्वारा ज्ञान तथा दर्शन गुण की प्रवृत्ति होती है, उसे उपयोग कहते हैं ।
प्रश्न- 111 जीव के बाह्य लक्षण क्या है ?
जवाब- 111 10 प्रकारके द्रव्य प्राण जीव के बाह्य लक्षण हैं ।
प्रश्न- 112 जीव के आंतरीक लक्षण क्या हैं ?
जवाब- 112 जीव के आंतरीक लक्षण अनंतज्ञान-दर्शन-चारित्र-तप तथा वीर्य है । इन्हें भावप्राण भी कहते है ।
प्रश्न- 113 द्रव्यप्राण किसे कहते है ?
जवाब- 113 जिसके द्वारा जीव जीवित रहता हैं, उसे द्रव्य प्राण कहते हैं ।
प्रश्न- 114 द्रव्य प्राण कितने व कौन-कौन से है ?
जवाब- 114 द्रव्य प्राण 10 हैं- पांच इन्द्रिय प्राण- 1.स्पर्श 2.रस 3.घ्राण 4.चक्षु 5.श्रोत तीन बल प्राण – 6.मनोबल प्राण 7.वचनबल प्राण 8.कायबल प्राण 9.श्वासोच्छवास प्राण 10.आयुष्य प्राण ।
प्रश्न- 115 प्राण तथा पर्याप्ति में क्या अंतर है ?
जवाब- 115 पर्याप्ति प्राणों का कारण है तथा प्राण उसका कार्य हैं ।
प्रश्न- 116 पर्याप्ति तथा प्राण का काल कितना होता है ?
जवाब- 116 पर्याप्ति का काल अन्तर्मुहूर्त का है, जबकि प्राण जीवन पर्यंत रहते है ।
प्रश्न- 117 कौन सा प्राण किस पर्याप्ति द्वारा उत्पन्न होता है ?
जवाब- 117 5 इन्द्रिय प्राण - मुख्य रुप से इन्द्रिय पर्याप्ति द्वारा ।
कायबल प्राण - मुख्य रुप से शरीर पर्याप्ति द्वारा ।
वचनबल प्राण - मुख्य रुप से भाषा पर्याप्ति द्वारा ।
मनोबल प्राण - मुख्य रुप से मनः पर्याप्ति द्वारा ।
श्वासोच्छवास प्राण - मुख्य रुप से श्वासोच्छवास पर्याप्ति द्वारा ।
आयुष्य प्राण - इस में आहारादि पर्याप्ति सहचारी-उपकारी कारण रुप है ।
प्रश्न- 118 इन्द्रिय प्राण किसे कहते है ?
जवाब- 118 इन्द्रियों के द्वारा मिलने वाली शक्ति को इन्द्रिय प्राण कहते है ।
प्रश्न- 119 योग किसे कहते है ?
जवाब- 119 मन, वचन तथा काया के व्यापार को योग कहते हैं ।
प्रश्न- 120 बल प्राण किसे कहते है ?
जवाब- 120 तीन योग से मिलने वाली शक्ति-बल को बलप्राण कहते है ।
प्रश्न- 121 बल प्राण से क्या अभिप्राय हैं ?
जवाब- 121 मनोबल प्राण – विचार करने की शक्ति ।
वचनबल प्राण – बोलने की शक्ति ।
कायबल प्राण – शरीर की शक्ति ।
प्रश्न- 122 श्वासोच्छवास प्राण किसे कहते है ?
जवाब- 122 श्वासोच्छवास वर्गणा के पुद्गलों को शरीर में ग्रहण करने और बाहर निकालने की शक्ति को श्वासोच्छवास प्राण कहते है ।
प्रश्न- 123 आयुष्य प्राण किसे कहते है ?
जवाब- 123 जिसके संयोग से एक शरीर में अमुक समय तक जीव रहता है तथा जिसके वियोग से जीव (आत्मा) उस शरीर में से निकल जाय, उसे आयुष्य प्राण कहते है ।
प्रश्न- 124 आयुष्य प्राण के कितने भेद है ?
जवाब- 124 आयुष्य प्राण के दो भेद है- 1.द्रव्य आयुष्य 2.काल आयुष्य ।
अन्य अपेक्षा से – 1.अपवर्तनीय 2.अनपवर्तनीय ।
प्रश्न- 125 द्रव्य आयुष्य किसे कहते है ?
जवाब- 125 आयुष्य कर्म के पुद्गल द्रव्य आयुष्य है ।
प्रश्न- 126 काल आयुष्य किसे कहते है ?
जवाब- 126 उन पुद्गलों द्वारा जीव जितने समय तक अमुक एक भव में स्थित रहता है, उसका नाम काल आयुष्य है ।
प्रश्न- 127 अपवर्तनीय आयुष्य किसे कहते है ?
जवाब- 127 आयुष्य कर्म के बंधे हुए पुद्गल किसी निमित्त अथवा शस्त्रादि के आघात आदि को प्राप्त कर शीघ्र क्षीण हो जाय अर्थात् अकाल मृत्यु की प्राप्ति होना, अपवर्तनीय आयुष्य है ।
प्रश्न- 128 अनपवर्तनीय आयुष्य किसे कहते है ?
जवाब- 128 बंधे हुए आयुष्य में किसी प्रकार का परिवर्तन संभव न हो, जितना बांधा हो, उतना अवश्यमेव भोगना पडे, उसे अनपवर्तनीय आयुष्य कहते है ।
प्रश्न- 129 द्रव्य तथा काल आयुष्य को भोगे बिना क्या जीव की मृत्यु संभव है ?
जवाब- 129 इन दोनो में से जीव ने द्रव्य आयुष्य यदि अपवर्तनीय बांधा है तो द्रव्य आयुष्य अवश्य भोगता है परंतु काल आयुष्य पूर्ण करता है अथवा नहीं भी करता है । अपूर्ण काल में मृत्यु संभव है, पर द्रव्य आयुष्य तो पूर्ण भोगना ही पडता है । और यदि द्रव्य आयुष्य अनपवर्तनीय बांधा है तो द्रव्य और काल, दोनों आयुष्य अवश्य भोगता है ।
प्रश्न- 130 अकाल मृत्यु होने पर द्रव्य आयुष्य को पूर्ण भोगना कैसे संभव है ?
जवाब- 130 द्रव्य आयुष्य के पुद्गल चूंकि अपवर्तनीय अर्थात् अकस्मात् किसी आघात से शीघ्र क्षय के स्वभाव वाले होने से अंतिम समय में एक ही साथ भोग लिये जाते है ।
प्रश्न- 131 अनपवर्तनीय आयुष्य किन-किन जीवों को प्राप्त होता है ?
जवाब- 131 4 प्रकार के जीवों को अनपवर्तनीय आयुष्य की प्राप्ति होती है –
1. उपपात जन्म वाले – समस्त देव तथा नारकी जीव ।
2. चरम शरीरी – अंतिम शरीरी अर्थात् उसी भव में मोक्ष जाने वाले, आगे संसार में जन्म नहीं लेने वाले ।
3. उत्तम पुरुष – अर्थात् त्रेषठशलाका पुरुष (24 तीर्थंकर, 12 चक्रवर्ती, 9 वासुदेव, 9 बलदेव तथा 9 प्रतिवासुदेव)
4. असंख्येयवर्षायुषी – असंख्यात वर्ष की आयुष्य वाले युगलिक तिर्यंच तथा युगलिक मनुष्य । शेष जीवों के अपवर्तनीय और अनपवर्तनीय , दोनों प्रकार के आयुष्य होते है ।
प्रश्न- 132 एकेन्द्रिय तथी द्वीन्द्रिय जीवों के क्रमशः एक तथा दो ही इन्द्रियाँ (स्पर्श, रस) होने से श्वासोच्छवास लेना कैसे संभव है ?
जवाब- 132 तीन तथा उससे अधिक इन्द्रिय वाले जीवों को जो श्वासोच्छवास नासिका (घ्राणेन्द्रिय) द्वारा ग्रहण होता है, वह दिखाई देने वाला बाह्य श्वासोच्छवास है परंतु इसका ग्रहण, प्रयत्न तथा परिणमन तो सर्व आत्मप्रदेशों से होता है । इसे आभ्यंतर श्वासोच्छवास भी कहते है । जिन एकेन्द्रिय तथा द्वीन्द्रिय जीवों के नासिका नहीं है, वे सर्व शरीर प्रदेशों से श्वासोच्छवास के योग्य पुद्गल ग्रहण कर परिणमन कर विसर्जित करते हैं । इन जीवों का श्वासोच्छवास अव्यक्त है, जबकी नासिकावाले जीवों का श्वासोच्छवास व्यक्त-अव्यक्त दोनों प्रकार का होता है ।
प्रश्न- 133 अपर्याप्त जीवों के कितने प्राण होते है ?
जवाब- 133 अपर्याप्त को उत्कृष्ट से 7 तथा जघन्य से तीन प्राण होते हैं ।
प्रश्न- 134 जीव तत्व को जानने का उदेश्य क्या है ?
जवाब- 134 जीव तत्व ज्ञेय है अर्थात् जानने योग्य है क्योंकि जीवतत्व को जाने बिना नव तत्वो में हेय, ज्ञेय व उपादेय कौन हैं, उसकी प्रतीति नहीं हो सकती ।
प्रश्न- 135 अजीव किसे कहते है ?
जवाब- 135 जो चैतन्य रहित हो, जो सुख-दुःख के अनुभव से रहित हो, जड हो, उसे अजीव कहते है ।
प्रश्न- 136 अजीव के भेद तथा उपभेद कितने है ?
जवाब- 136 अजीव के मुख्य भेद 5 तथा कुल भेद 14 है ।
प्रश्न- 137 अजीव के 5 भेद कौन कौन से है ?
जवाब- 137 1.धर्मास्तिकाय 2.अधर्मास्तिकाय 3.आकाशास्तिकाय 4.पुद्गलास्तिकाय 5.काल ।
प्रश्न- 138 अजीव के 14 उपभेद कौन कौन से है ?
जवाब- 138 अजीव के 14 उपभेद निम्नप्रकार है –
धर्मास्तिकाय के तीन भेद - स्कंध, देश, प्रदेश ।
अधर्मास्तिकाय के तीन भेद - स्कंध, देश, प्रदेश ।
आकाशास्तिकाय के तीन भेद - स्कंध, देश, प्रदेश ।
पुद्गलास्तिकाय के चार भेद - स्कंध, देश, प्रदेश, परमाणु ।
काल का एक भेद, इस प्रकार अजीव के कुल 14 भेद होते है ।
प्रश्न- 139 धर्मास्तिकाय किसे कहते है ?
जवाब- 139 जीव एवं पुद्गलों की गति में सहायक बनने वाले द्रव्य को धर्मास्तिकाय कहते है ।
प्रश्न- 140 अधर्मास्तिकाय किसे कहते है ?
जवाब- 140 जीव तथा पुद्गल को स्थिर करने में सहयोग करने वाला द्रव्य अधर्मास्तिकाय कहलाता है ।
प्रश्न- 141 आकाशास्तिकाय किसे कहते है ?
जवाब- 141 जीव तथा पुद्गलों को अवकाश (स्थान) देने वाला द्रव्य आकाशास्तिकाय कहलाता है ।
प्रश्न- 142 पुद्गलास्तिकाय किसे कहते है ?
जवाब- 142 जो प्रतिसमय पूरण एवं गलन स्वभाव वाला है, उसे पुद्गलास्तिकाय कहते है ।
प्रश्न- 143 काल किसे कहते है ?
जवाब- 143 वस्तुओं के परिणमन अर्थात् परिवर्तन में सहकारी रुप शक्ति को काल कहते है । अथवा जो नवीन वस्तु को पुरानी तथा पुरानी को नष्ट करे, वह काल ।
प्रश्न- 144 अस्तिकाय किसे कहते है ?
जवाब- 144 अस्ति – छोटे से छोटा अविभाज्य अंश, जिसके दो टुकडे न हो सके ऐसा अविभागी प्रदेश । काय अर्थात् समूह । अस्तिकाय – प्रदेशों के समूह को अस्तिकाय कहते है ।
प्रश्न- 145 षट्द्रव्य में कितने द्रव्य अस्तिकाय कहलाता है ?
जवाब- 145 1.धर्मास्तिकाय 2.अधर्मास्तिकाय 3.आकाशास्तिकाय 4.जीवास्तिकाय 5.पुद्गलास्तिकाय ये पांचो द्रव्य प्रदेशों के समूह होने से अस्तिकाय कहलाते है ।
प्रश्न- 146 काल को अस्तिकाय क्यों नहीं कहा गया है ?
जवाब- 146 काल केवल वर्तमान में एक समय रुप ही होता है । उसके स्कंध, देश, प्रदेश नहीं होते हैं, क्योंकी वह अखण्ड द्रव्य रुप है । इसलिये उसके साथ अस्तिकाय शब्द नहीं जोडा जाता ।
प्रश्न- 147 स्कंध किसे कहते है ?
जवाब- 147 परमाणुओं के समुह को स्कंध कहते है अथवा अनेक प्रदेश वाले एक पूरे द्रव्य को स्कंध कहते है । जैसे – अनेक दानों से बना हुआ मोतीचुर का अखण्ड लड्डू ।
प्रश्न- 148 देश किसे कहते है ?
जवाब- 148 अनेक प्रदेशों वाले एक द्रव्य के स्कंध में रहे हुए एक भाग को देश कहते है । जैसे अनेक कणों वाले मोतीचूर के लड्डू का एक भाग ।
प्रश्न- 149 प्रदेश किसे कहते है ?
जवाब- 149 स्कंध या देश से मिले हुए अविभाज्य अंश को अथवा अनेक प्रदेशों वाले द्रव्य के स्कंध में रहे हुए अविभाज्य भाग को प्रदेश कहते है । जैसे अनेक कणों वाले मोतीचूर के लड्डू को एक अविभाज्य कण ।
प्रश्न- 150 परमाणु किसे कहते है ?
जवाब- 150 स्कंध या देश से पृथक हुए निर्विभाज्य सूक्ष्मतम अंश को, जिसके दो टुकडे नहीं हो शके, उसे परमाणु कहते है । जैसे – लड्डू से पृथक हुआ निर्विभाज्य कण परमाणु है ।
प्रश्न- 151 प्रदेश तथा परमाणु में क्या अंतर है ?
जवाब- 151 अणु जब स्कंध से जुडा रहे तो प्रदेश कहलाता है और पृथक हो जाय तब परमाणु कहलाता है ।
प्रश्न- 152 प्रदेश बडा होता है या परमाणु ?
जवाब- 152 दोनों ही समान क्षेत्र को घेरने वाले होने से एक समान है ।
प्रश्न- 153 धर्मास्तिकाय – अधर्मास्तिकाय – आकाशास्तिकाय इन तीनों के परमाणु रुप भेद क्यों नहीं होता ?
जवाब- 153 धर्मास्तिकायादि के समस्त प्रदेश स्कंध के साथ जुडे हुए ही रहते हैं क्योंकी ये तीनों अखण्ड द्रव्य है । इनका प्रदेश कभी भी द्रव्य से अलग नहीं होता । जो स्कंध से अलग पडता है, वही प्रदेश परमाणु कहा जाता हैं ।
प्रश्न- 154 गुण किसे कहते है ?
जवाब- 154 अविच्छिन्न रुप से द्रव्य में रहने वाला गुण है । द्रव्य का जो सहभावी धर्म अर्थात् द्रव्य के आश्रित रहने वाले पदार्थ को गुण कहते है । जैसे आत्मा का गुण चेतना, ज्ञान । सोने का गुण पीतत्व आदि ।
प्रश्न- 155 पर्याय किसे कहते है ?
जवाब- 155 द्रव्य की जो भिन्न-भिन्न अवस्थाएँ होती है, उसे पर्याय कहते है । जैसे आत्मा की मनुष्यत्व, देवत्व तथा सोने की हार, कंगन आदि विभिन्न दशाएँ पर्याय हैं ।
प्रश्न- 156 उत्पाद किसे कहते है ?
जवाब- 156 उत्पन्न होना उत्पाद है ।
प्रश्न- 157 व्यय किसे कहते है ?
जवाब- 157 नष्ट होना व्यय है ।
प्रश्न- 158 ध्रौव्य किसे कहते है ?
जवाब- 158 स्थिर रहना अथवा अपने स्वरुप को सुरक्षित रखना ध्रौव्य है ।
प्रश्न- 159 आकाशास्तिकाय के कितने भेद है ?
जवाब- 159 आकाशास्तिकाय के दो भेद हैं – 1.लोकाकाश 2.अलोकाकाश ।
प्रश्न- 160 लोकाकाश किसे कहते है ?
जवाब- 160 जिस में धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, जीवादि द्रव्य रहते हैं, उसे लोकाकाश कहते है ।
प्रश्न- 161 अलोकाकाश किसे कहते है ?
जवाब- 161 जिस में आकाश के अतिरिक्त किसी भी द्रव्य का अस्तित्व न हो, उसे अलोकाकाश कहते है ।
प्रश्न- 162 लोकाकाश तथा अलोकाकाश का परिमाण क्या है ?
जवाब- 162 लोकाकाश का परिमाण चौदह राजलोक है । इसके अतिरिक्त अनन्त अलोकाकाश है ।
प्रश्न- 163 धर्मास्तिकाय की हमारे जीवन में क्या उपयोगिता है ?
जवाब- 163 अगर धर्मास्तिकाय का अभाव हो जाय तो जीव और पुद्गल की गति ही अव्यवस्थित हो जाये । धर्मास्तिकाय के द्वारा ही जीवों के आगमन, गमन, उन्मेष, मनोयोग, वचनयोग तथा काययोग में प्रवृत्ति होती है ।
प्रश्न- 164 अधर्मास्तिकाय की हमारे जीवन में क्या उपयोगिता है ?
जवाब- 164 अगर अधर्मास्तिकाय नही होता तो जीव का खडे रहना, बैठना, मन को एकाग्र करना, मौन करना, निस्पंद होना, करवट बदलना आदि जितने भी स्थिर भाव है, वे संभव नहीं हो पाते । आदमी सदैव चलता ही रहता । गति ही करता रहता । अधर्मास्तिकाय के कारण ही स्थिति संभव है ।
प्रश्न- 165 आकाशास्तिकाय की क्या उपयोगिता है ?
जवाब- 165 आकाश द्रव्य समस्त द्रव्यों का आधार है, बाकी सब द्रव्य आधेय है । आधार रुप आकाश का यदि अभाव हो जाय तो कोइ पदार्थ टिक नहीं सकता । घडे में पानी इसलिये ठहरता है कि उसमें आश्रय देने का गुण विद्यमान है । इसी प्रकार समस्त पदार्थों को आश्रय देने वाला आकाश ही है ।
प्रश्न- 166 काल की हमारे जीवन में क्या उपयोगिता है ?
जवाब- 166 काल की उपयोगिता स्वयं सिद्ध है, क्योंकि उसके बिना कोई भी कार्यक्रम निर्धारित नहीं हो सकता । छोटे से लेकर बडे कार्य में काल की सहायता अपेक्षित है । प्रत्येक पदार्थ काल के आश्रित है । उसके कारण सृष्टि का सौंदर्य तथा संतुलन है । पदार्थो में, चाहे वे सजीव हो या निर्जीव, जो भी परिवर्तन होता है, वह काल के कारण ही संभव है ।
प्रश्न- 167 पुद्गलास्तिकाय की हमारे जीवन में क्या उपयोगिता है ?
जवाब- 167 पुद्गल हमारे अत्यंत निकट के उपकारी है । संसारी जीव पुद्गल के अभाव में रह ही नहीं सकता । उसकी आवश्यकता पुद्गल के द्वारा ही सम्पन्न होती है । हमारा शरीर पुद्गल की देन है । भाषा, मन, प्राण, अपान आदि सब पुद्गल के ही उपकार हैं ।
प्रश्न- 168 पुद्गल द्रव्य के लक्षण कौन-कौन से है ?
जवाब- 168 शब्द, अन्धकार, उद्योत, प्रभा, छाया, आतप, वर्ण, गंध, रस, स्पर्श ये पुद्गल के लक्षण हैं ।
प्रश्न- 169 उद्योत किसे कहते है ?
जवाब- 169 शीतल वस्तु का शीतल प्रकाश उद्योत कहलाता है । चन्द्र, ग्रह, नक्षत्र, तारा आदि ज्योतिष विमानों का, चन्द्रकान्त आदि रत्नों का तथा जुगनु आदि जीवों का प्रकाश उद्योत है ।
प्रश्न- 170 प्रभा किसे कहते है ?
जवाब- 170 चन्द्रादि के प्रकाश में से तथा सूर्य के प्रकाश में से जो दूसरा किरण रहित उपप्रकाश पडता है, वह प्रभा है ।
प्रश्न- 171 छाया किसे कहते है ?
जवाब- 171 दर्पण अथवा प्रकाश में पडने वाला प्रतिबिंब छाया कहलाती है ।
प्रश्न- 172 आतप किसे कहते है ?
जवाब- 172 शीत वस्तु का उष्ण प्रकाश आतप कहलाता है ।
प्रश्न- 173 एक मुहूर्त में कितनी आवलिकाएँ होती हैं ?
जवाब- 173 एक मुहूर्त में एक करोड, सडसठ लाख, सत्तहत्तर हजार, दो सौ सोलह से (कुछ) अधिक आवलिकाएँ होती है ।
प्रश्न- 174 समय किसे कहते है ?
जवाब- 174 काल का अत्यंत सूक्ष्म अंश, जिसका केवली के ज्ञान में भी विभाग न हो सके, उसे समय कहते है ।
प्रश्न- 175 समय की सूक्ष्मता को समझाने के लिये उदाहरण दीजिये ?
जवाब- 175 आंख मींच कर खोलने में असंख्यात समय व्यतीत हो जाते है । उन असंख्यात समयों की एक आवलिका होती है । समय की सूक्ष्मता को इस उदाहरण द्वारा भी समझ सकते है, जैसे – अति जीर्ण वस्त्र को त्वरा से फाडने पर एक तंतु से दूसरे तंतु को फटने में जो समय लगता है, वह भी असंख्य समय प्रमाण है ।
प्रश्न- 176 पक्ष किसे कहते है ?
जवाब- 176 पन्द्रह दिनों का एक पक्ष होता है ।
प्रश्न- 177 पक्ष कितने प्रकार के होते है ?
जवाब- 177 पक्ष दो प्रकार के होते है – 1.कृष्ण पक्ष 2.शुक्ल पक्ष ।
प्रश्न- 178 मास किसे कहते है ?
जवाब- 178 2 पक्ष का अथवा 30 अहोरात्र का एक मास होता है ।
प्रश्न- 179 अहोरात्र किसे कहते है ?
जवाब- 179 दिन और रात को अहोरात्र कहते है ।
प्रश्न- 180 एक अहोरात्र में कितनी घडी होती है ?
जवाब- 180 एक अहोरात्र में साठ घडी (24 घंटे या 30 मुहूर्त) होती है ।
प्रश्न- 181 एक घडी का परिमाण कितना होता है ?
जवाब- 181 एक घडी का परिमाण 24 मिनिट होता है ।
प्रश्न- 182 एक मुहूर्त में कितनी घडी होती है ?
जवाब- 182 एक मुहूर्त में दो घडी होती है ।
प्रश्न- 183 एक वर्ष में कितने मास होते है ?
जवाब- 183 एक वर्ष में 12 मास होते है ।
प्रश्न- 184 एक वर्ष में कितनी ऋतुएँ होती हैं ?
जवाब- 184 एक वर्ष में छह ऋतुएँ होती हैं – 1.हेमंत 2.शिशिर 3.वसंत 4.ग्रीष्म 5.वर्षा 6.शरद ।
प्रश्न- 185 एक ऋतु में कितने मास होते है ?
जवाब- 185 एक ऋतु में दो मास होते है ।
प्रश्न- 186 एक अयन कितनी ऋतु का होता है ?
जवाब- 186 तीन ऋतु अर्थात् छह माह का एक अयन (दक्षिणायन या उत्तरायण) होता है ।
प्रश्न- 187 एक युग कितने वर्ष का होता है ?
जवाब- 187 एक युग पांच वर्ष का होता है ।
प्रश्न- 188 एक वर्ष कितने अयन का होता है ?
जवाब- 188 एक वर्ष दो अयन का होता है ।
प्रश्न- 189 कितने वर्ष का एक पूर्वांग होता है ?
जवाब- 189 84 लाख वर्ष का एक पूर्वांग होता है ।
प्रश्न- 190 एक पूर्व में कितने पूर्वांग अथवा कितने वर्ष होते हैं ?
जवाब- 190 एक पूर्व 84 लाख पूर्वांग अथवा सत्तर लाख छप्पन्न हजार करोड वर्ष होते हैं ।
प्रश्न- 191 पल्योपम कितने वर्षो का होता है ?
जवाब- 191 असंख्यात वर्षो का एक पल्योपम होता है ।
प्रश्न- 192 पल्योपम की व्याख्या किजिए ?
जवाब- 192 उत्सेधांगुल के माप से एक योजन (चार कोष) लंबा, चौडा, गहरा, एक कुआं, जिसको सात दिन की उम्र वाले युगलिक बालक के एक एक केश के असंख्य असंख्य टुकडों से इस तरह ठसा-ठस भर दिया जाय कि उसके उपर से चक्रवर्ती की विशाल सेना पसार हो जाय तब भी उसके ठसपण में किंचित् मात्र भी फर्क न आये । उस कूप में से प्रति समय में एक-एक केश का टुकडा निकाले । इस प्रकार करते हुए जब केश राशि से पूरा कुआं खाली हो जाय, उतने समय की अवधि अथवा परिमाण को बादर उद्धार पल्योपम कहते है ।
प्रश्न- 193 कितने पल्योपम का एक सागरोपम होता है ?
जवाब- 193 10 कोडाकोडी पल्योपम का एक सागरोपम होता है ।
प्रश्न- 194 कोडाकोडी किसे कहते है ?
जवाब- 194 करोड को करोड से गुणा करने पर जो संख्या आती है, उसे कोडाकोडी कहते है ।
प्रश्न- 195 कितने सागरोपम की एक उत्सर्पिणी अथवा अवसर्पिणी होती है ?
जवाब- 195 दस कोडाकोडी सागरोपम की एक उत्सर्पिणी अथवा अवसर्पिणी होती है ।
प्रश्न- 196 कालचक्र किसे कहते है ?
जवाब- 196 एक उत्सर्पिणी तथा एक अवसर्पिणी काल का एक कालचक्र होता है ।
प्रश्न- 197 एक कालचक्र कितने सागरोपम का होता है ?
जवाब- 197 एक कालचक्र 20 कोडाकोडी सागरोपम का होता है ।
प्रश्न- 198 एक पुद्गल परावर्तन काल किसे कहते है ?
जवाब- 198 अनंत कालचक्र का एक पुद्गल परावर्तन काल होता है ।
प्रश्न- 199 पुद्गल परावर्तन काल के कितने भेद है ?
जवाब- 199 पुद्गल परावर्तन काल के 8 भेद हैं – 1.द्रव्य पुद्गल परावर्त 2.क्षेत्र पुद्गल परावर्त 3.काल पुद्गल परावर्त 4.भाव पुद्गल परावर्त 5.इन चारों के सूक्ष्म तथा बादर ये दो-दो भेद होने से कुल 8 भेद होते है ।
प्रश्न- 200 बादर द्रव्य पुद्गल परावर्त काल किसे कहते है ?
जवाब- 200 औदारिक-वैक्रिय-तैजस-भाषा-श्वासोच्छवास-मन तथा कार्मण, इन सात पुद्गल वर्गणाओं के माध्यम से जीव को जगत के सभी पुद्गलों का उपभोग कर छोडने में जितना समय व्यतित होता है,उसे बादर द्रव्य पुद्गल परावर्तकाल कहते है ।