Tuesday, 18 November 2014

मोक्ष कल्याणक सभी भाई,बहिनों,पुत्रों,पुत्रियों,पौत्रो,पौत्रियोएवं पिताजी और पत्नी मम्मीजी को सस्नेह जैजिनेंद्र देव,शुभ प्रभात। मोक्ष कल्याणक केवली भगवान् का समुघात् -- समुघात्- मूल शरीर को बिना छोड़े,आत्मप्रदेशों का शरीर से बहार निकलना समुद्घात है!जब केवली भगवान् की आयु अंतर्मूर्हत काल प्रमाण रह जाती है तब उनके अन्य तीन अघातिया नाम, वेदनीय,और गोत्र कर्मों की अधिक स्थिति को,आयुकर्म कीअंतर्मूर्हत प्रमाण स्थिती के बराबर करने के लिए केवली समुद्घात् होता है! इसमे केवली भगवान् के आत्मप्रदेश,शरीर को छोड़े बिना उससे बहार निकलते है! कुछ आचार्यो के मतानुसार,जिन मुनिमाहराजो की आयु केवलज्ञान होने के समय ,६ माह से अधिक शेष रहती है,उनके समुद्घात हो भी सकता है और नही भी हो सकता है,किंतु जिनकी आयु ६ माह से कम शेष रहने पर केवलज्ञान होता है उनके नियम से समुदघात् होता है। आचार्य वीर सैन स्वामी ,धवलाकार के मतानुसार सभी केवली भगवान् अन्त मे समुद्घात करते ही है क्योकि चारो अघातिया कर्मो की स्थिति समान नही रहती है। केवली समुदघात् की विधि- इसमे कुछ करना नहीं पड़ता,बल्कि स्वयं अंतर्मूर्हत आयु शेष रहने पर,केवली के आत्मप्रदेश शरीर से बहार निकलते है! केवली समुदघात मे चार क्रियाये होती है। सर्वप्रथम प्रथम समय मे आत्मा के प्रदेश,१ समय मे, डंडे की तरह सीधे निकलते हैं,यह दंड समुदघात् कहलाता है। दूसरे समय मे,उनके आत्म प्रदेश,किवाड़ के समान १ समय मे चौड़े फैलकर निकलते है,यह कपाट समुद्घात् कहलाता है। तीसरे समय मे,उनके आत्मप्रदेश १ समय मे वातवलय को छोड़कर, पूरे लोक मे फैल जाते है,यह प्रकर समुद्घात् कहलाता है। चौथे समय मे,उनके आत्म प्रदेश १ समय मे ही वातवलय सहित संपूर्ण लोक मे फैल जाते है,यह लोकपूर्ण समुद्घात् कहलाता है। लोकाकाश प्रदेश प्रमाण ही आत्मा के प्रदेश है!एक-एक लोक के प्रदेश पर आत्मा का एक एक प्रदेश स्थित हो जाता है! पांचवे समय में,आत्मप्रदेश लोक्पूर्ण से प्रकर मे आते है, छटे समय मे प्रकर से कपाट में , सातवे समय में कपट से दंड में, और आठवे समय मे दंड से शरीर में प्रवेश करते है! इस प्रकार समुद्घात की क्रिया ८ समय में पूर्ण होती है! केवली समुद्घात् के द्वारा केवली तीनों अघतिया कर्मों की स्थिति अंतर्मूर्हत प्रमाण करते है केवली समुद्घात के बाद केवली भगवान् कुछ समय विश्राम करते है,बादर काययोग के द्वारा,बादर मनोयोग फिर बादर वचनयोग,फिर बादर श्वसोच्छावास ,फिर बादर कायायोग भी समाप्त हो गया! जब सूक्षम काययोग रह जाता है,तब तीसरा शुक्ल ध्यान,सूक्षमक्रियाप्रतिपाती १३वे गुणस्थान के अंतिम अंतर्मूर्हत में ध्याते है! उस सूक्ष्म काययोग के द्वारा,सूक्ष्ममनोयोग, सूक्ष्मवचनयोग, सूक्ष्म श्वसोच्छावास, सूक्ष्म कायोयोग समाप्त कर तीन कर्मों की स्थिति आयुकर्म के बराबर हो जाती है! सब योग समाप्त हो गए! अब वे १४ वे अयोगकेवली गुणस्थान में आ जाते है। अब व्युपरतक्रियानिवृत्ति,चौथा शुक्ल ध्यान ध्याते है,जिसके द्वारा शेष ८५ कर्म प्रकृतियों में से ७२ का आयु के एक समय रहने पर तथा १३ का अंतिम समय में क्षय होता है!इस प्रकार १४वे गुणस्थान के अंतिम दो समय मे ८५ प्रकृतियों का सर्वथा क्षय हो जाने से केवली मोक्ष प्राप्त कर लेते है! अब वह आत्मा सिद्धावस्था को प्राप्त कर,सीधे उर्ध्व गमन कर 1 समय मे सिद्धशिला के ऊपर लोक के अंत में तनुवातवलय मे विराजमान हो जाते है! सिद्ध भगवान् के आठ गुण - १-मोहनीय कर्म के क्षय से क्षायिक सम्यक्त्व, २-ज्ञानावरण के क्षय से अनंत ज्ञान, ३-दर्शनावरण के क्षय से अनंतदर्शन, ४-अन्तराय कर्म के क्षय से अनंतवीर्य, ५-वेदनीय कर्म के क्षय से अव्यवबाधत्व, ६-आयुकर्म के क्षय से अव्गाहनात्व, ७-नामकर्म के क्षय से सूक्षम्त्व, ८-गॊत्रकर्म के क्षय से अगुरुलघुत्व गुण प्राप्त होते है ! आत्मा के शरीर से निकलने के बाद पुद्गल शरीर शेष रह जाता है,जिसके विषय में शास्त्रों में दो प्रमाण मिलते है !कुछ आचार्य के मतानुसार शरीर कपूर के सामान उड़ जाता है!अन्य आचार्य के मतानुसार, आत्मा के निकल जाने के बाद देवतागण वहां कर,उनमे से अग्नि कुमार देव अपने मुकुट मे से अग्नि प्रकट करते है,जिससे शरीर ज्वलित कर अंतिम शरीर का संस्कार किया जाता है! सिद्धात्माओ का निवास- कुछ लोग अपनी पूजन की थाली में अर्द्ध चंद्राकार चिन्ह बनाकर उसके मध्य,एक बिंदु लगाकर, सिद्ध भगवान की कल्पना कर लेते है किंतु वास्तव मे ऐसा नही है।ऊर्ध्व लोक मे ऊपर ५ अनुत्तर विमान है जिसके बीचोबीच सर्वार्थसिद्धि का विमान है,इसके ऊपर १२योजन तक खाली स्थान है।इस खाली स्थान के ऊपर ८ योजन मोटी,४५ लाख योजन वृताकार सिद्धशिला है।यह सिद्ध शिला अष्टम, ईष्टप्रभागार पृथ्वी के, जो कि एक राजू चौडी और ७राजू चौड़ी के बीचोबीच स्वर्णप्रभा वाली कांतियुक्त है।इस पर भगवान् विराजमान नही होते।सिद्धशिला के ऊपर दो कोस मोटा घनोदधिवातवलय है,उसके ऊपर एक कोस मोटा घनवातवलय है,उसके ऊपर लोक के अन्त तक १५७५ धनुष मोटा तनुवातवलय है।इस तनुवातवलय के अन्त को सिद्ध भगवान के सिर छूते हुए होते है। सिद्ध आत्माए,अनंत शक्ति,होते हुए भी तनुवातवलय से ऊपर,अनंत अलोकाकाश में धर्म और अधर्म द्रव्य के अभाव के कारण नहीं जा पाती है! सिद्धालय का आकार सिद्धालय,५२५ धनुष मोटे ४५लाख योजन वृताकार मे अनंतानंत सिद्ध आत्माए विराजमान है! आचार्यों ने लिखा है की,रंच मात्र स्थान भी इस सिद्धालय मे खाली नहीं है!४५ लाख योजन मनुष्यलोक से ही सिद्ध होकर आत्माए ४५ लाख योजन के सिद्ध क्षेत्र मे आत्माए विराजमान होती है जो की मनुष्य लोक से सीधे मुक्त होकर ऊपर सीधी जाती है! अब प्रश्न ऊठता है की लवण समुद्र ,कालोदधि समुद्र ,समेऱू पर्वत, भोग भूमियो के ऊपर तो सिद्ध क्षेत्र मे स्थान खाली होगा क्योकि वहां से तो आत्माए सिद्ध नहीं होती, किंतु ऐसा नहीं है! क्योकि पूर्व भव के कुछ बैरी देव होते है वे कर्म भूमि से ध्यानस्थ मुनि को बैरवश ऊठाकरसमूद्र मे फेंक देते है,ऐसे मुनिराज को समुद्र मे गिरते गिरते ही केवल ज्ञान औौर मोक्ष हो जाता है।ऐसे मुनिराज की आत्माये सिद्धलोक मे समुदर् के ऊपर विराजमान होती है।समेरू पर्वत की गुफाओ मे मुनिराज ध्यानस्थ है,कर्मो को नष्टकर ,शुक्लध्यानलगाकर सीधे ऊपर सिद्धालय मे मुक्त होकर विराजमानहो गये। जैन दर्शन के अनुसार,सिद्ध आत्माओं ने अष्ट कर्मों का क्षय कर लिया है इसलिए उन्हें संसार मे कोई पर्याय नहीं मिलेगी अत: वे सिद्धत्व को प्राप्त करने के बाद संसार मे दुबारा नहीं आती है!सिद्धालय मे ही बिना हिले डुले अनंत सुख का अननन्त काल तक रसस्वादन करती रहेंगी! अन्य कुछ धर्मों के अनुसार, बैकुंठ मे जी आत्माए चली गयी है, वे एक निश्चित समय के बाद पुन:संसार में आती है! सिद्ध आत्माओं का आकार- पद्मासनं अथवा खडगासन से मुक्त होने वाले सभी केवली की आत्मा ,उनके शरीर के अंतिम आसन के आकर, पद्मासनं अथवा खडगासन से, कुछ कम प्रमाण,(उसी पद्मासन/खडगासन के आकर )में आत्मा के प्रदेश ऊपर सिद्धालय में विराजमान रहते है!भगवान् ऋषभ देव की आत्मा के प्रदेशों की लम्बाई ५०० धनुष ,भगवान् महावीर की ७. ५ हाथ है! अनंतानंत आत्माओं के मोक्ष जाने के बाद भी संसार आत्माओं से रिक्त नहीं होता क्योकि संसार मे अनंतानंत जीव है,आलू के एक सुई के बराबर तिनके में ,अनंतानंत जीव अनंतकाल से भरे हुए है!आचार्यों ने लिखा है की अननन्त काल में जितनी आत्माए अभी तक सिद्ध हुई है,वे आलू की नोंक मे जितने जीव है उसके अनंतवे भाग है!जब अनंतानंत काल में संसार जीवों से रिक्त नहीं हुआ तो अब क्या होगा!अनंतानंत संख्याये कभी समाप्त नहीं होती! सिद्ध आत्माओं के सिद्धालाय में सुख- संसारी जीवों को खाने,पीने,मौज मस्ती मे सुख की अनुभूति होती है किन्तु वास्तव में वह सुख नहीं है! जीव में कर्मों के बंध के कारण ही आकुलता होती है जो की दुःख है और उसका समाप्त हो जाना अर्थात निराकुलता,जो की सिद्धावस्था में कर्मों के क्षय के कारण होती है,वास्तविक सुख है! हमें यह मोक्ष कल्याण सुनने से मोक्ष की प्राप्ति के लिए भावना भानी चाहिए और उसके लिए उस दिशा में पुरुषार्थ करने का प्रयास करना चाहिए !

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