प्रश्न- 401 अनित्य भावना किसे कहते है ?
जवाब- 401 तन, धन, योवन, कुटुंब आदि सांसारिक पदार्थ अनित्य व अशाश्वत है । केवळ एक आत्मा ही नित्य है, इस प्रकार का विचार करना, अनित्य भावना है ।
प्रश्न- 402 अशरण भावना किसे कहते है ?
जवाब- 402 बलिष्ठ के पंजे में फंस जाने पर निर्बल का कोई रक्षक नहीं होता, उसी प्रकार आधि- व्याधि, जरा-मरण के घिर आने पर माता-पिता-धन-परिवार कोई रक्षक नहीं होता । केवळ जिनधर्म ही रक्षक होता है, ऐसा चिन्तन करना अशरण भावना है ।
प्रश्न- 403 संसार भावना से क्या अभिप्राय है ?
जवाब- 403 चतुर्गति रुप इस संसार में जन्म-जरा-मृत्यु के भीषण दुःख जीव भोगता है । स्व कर्मानुसार नरक, तिर्यंच, देव, मनुष्यादि गतियों में अपार दुःख झेलता है । जो जीव यहाँ माता के रुप में सम्बन्ध रखता है, वही किसी अन्य जन्म में पत्नी, पुत्री, बहिन आदि के रुप में परिवर्तित हो जाता है । निश्चय ही यह संसार विलक्षण, नश्वर तथा परिवर्तनशील है, इस प्रकारकी अनुप्रेक्षा करना, संसार भवना है ।
प्रश्न- 404 एकत्व भवना से क्या आशय है ?
जवाब- 404 जीव अकेला ही आया है और अकेला ही जायेगा । शुभाशुभ कर्मों का फल भी अकेला ही भोगेगा । दुःख के काल में उसका कोई मित्र-बंधु-बांधव सहयोग नहीं देगा, इसप्रकार अकेलेपन का अनुभव करना एकत्व भवना है ।
प्रश्न- 405 अन्यत्व भावना किसे कहते है ?
जवाब- 405 मैं चैतन्यमय आत्मा हूँ । माता-पिता आदि परिवार मुझसे भिन्न है । यह शरीर भी मुझसे अन्य है । इस प्रकार की विचारणा करना, अन्यत्व भावना है ।
प्रश्न- 406 अशुचित्व भावना किसे कहते है ?
जवाब- 406 यह शरीर औदारिक शरीर है, जिसका निर्माण रज और वीर्य के संयोग से हुआ है । इसमें से सदा अशुचि बहती रहती है । सुगंधित व स्वादिष्ट पदार्थ भी इसके संग से दुर्गंधित मलरुप हो जाता है । उपर से सुन्दर दिखाइ देने वाला यह शरीर केवल मांस पिंड है । किन्तु हे जीव । तु शुद्ध एवं पवित्र है । इस प्रकार की अनुप्रेक्षा अशुचि भावना है ।
प्रश्न- 407 आश्रव भावना किसे कहते है ?
जवाब- 407 आत्मा में मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय तथा अशुभ योग रुप आश्रव द्वारों से निरन्तर नूतन कर्मो का आगमन होता रहता है । इसी कर्मबंध के कारण आत्मा के जन्म-मरण का चक्र चलता रहता है । इस प्रकार का चिंतन करना, आश्रव भावना है ।
प्रश्न- 408 संवर भावना किसे कहते है ?
जवाब- 408 आश्रव मार्ग को रोकना ही संवर है अर्थात् संवृत आत्मा अशुभ कर्मों से संतप्त नहीं होता । संवर क्रियाओं का आचरण करता हुआ जीव सिद्ध पद का अधिकारी होता है, इस प्रकार का चिंतन करना संवर भावना है ।
प्रश्न- 409 निर्जरा भावना किसे कहते है ?
जवाब- 409 आत्मप्रदेशों से कर्माणुओं के एक-एक भाग का पृथक् होना, कर्मो का जीर्ण होकर निर्जरण हो जाना, निर्जरा है । बिना निर्जरा के जीव कर्म सम्बन्ध से मुक्त नहीं होता । निर्जरा ही विशिष्ट ज्ञान एवं आत्मशुद्धि का मुख्य साधन है, ऐसा चिन्तन करना निर्जरा भावना है ।
प्रश्न- 410 लोक स्वभाव भावना किसे कहते है ?
जवाब- 410 लोक क्या है ? उस की आकृति कैसी है ? आदि विचार करना लोकस्वभाव भावना है । दोनों हाथ कमर पर रखकर तथा दोनों पाँव फैलाकर खडे खडे हुए पुरुष की आकृति जैसा लोक है । इसमें जीव, धर्म, अधर्म, आकाश, पुद्गल तथा काल द्रव्य अवस्थित है । यह लोक द्रव्य से शाश्वत तथा पर्याय से अशाश्वत है । इस प्रकार षड्द्रव्यात्मक लोक की विचारणा लोकस्वभाव भावना है ।
प्रश्न- 411 बोधि दुर्लभ भावना किसे कहते है ?
जवाब- 411 अनादिकाल से जीव इस संसारचक्र में परिभ्रमण कर रहा है । इसने आर्य देश, मनुष्यभव, उत्तमकुल, दीर्घायु, स्वस्थ इन्द्रियाँ एवं ऐश्वर्य आदि वस्तुएँ प्राप्त की परंतु बोधि (सम्यक्त्व) को प्राप्त नहीं किया । ऋद्धिसंपन्न पदवियाँ भी प्राप्त हुई पर सम्यग्दर्शन प्राप्त न हुआ । इस प्रकार इस संसार में सबकुछ प्राप्त करना सरल है पर सम्यक्त्व बोधि को प्राप्त करना महादुर्लभ है, ऐसी विचारणा बोधिदुर्लभ भावना है ।
प्रश्न- 412 धर्मसाधक अरिहंत दुर्लभ (धर्म स्वाख्यात) भावना किसे कहते है ?
जवाब- 412 इस संसार में प्रत्येक वस्तु की प्राप्ति सुलभ है परंतु धर्म के साधक-स्थापक-उपदेशक अरिहंत प्रभु की प्राप्ति महादुर्लभ है । ऋद्धि-समृद्धि भवांतर में भी प्राप्त हो सकती है परंतु मोक्ष के साधनभूत श्रुत-चारित्ररुप धर्म के संस्थापक अरिहंत की प्राप्ति अत्यंत दुष्कर है । ऐसा चिन्तन करना धर्मसाधक अरिहंत दुर्लभ भावना है ।
प्रश्न- 413 किसे कौन सी भवना भाते हुए केवलज्ञान हुआ ?
जवाब- 413 1.अनित्य भावना भाते हुए – भरत चक्रवर्ती को ।
2.अशरण भावना भाते हुए – अनाथी मुनिको को ।
3.संसार भावना भाते हुए – जाली कुमार को ।
4.एकत्व भावना भाते हुए – नमि राजर्षि को ।
5.अन्यत्व भावना भाते हुए – मृगापुत्र को ।
6.अशुचि भावना भाते हुए – सनत्कुमार चक्रवर्ती को ।
7.आश्रव भावना भाते हुए – समुद्रपान मुनि को ।
8.संवर भावना भाते हुए – हरिकेशी मुनि को ।
9.निर्जरा भावना भाते हुए – अर्जुनमाली को ।
10.लोकस्वभाव भावना भाते हुए – शिव राजर्षि को ।
11.बोधि दुर्लभ भावना भाते हुए – ऋषभदेव के 98 पुत्रों को ।
12.अनित्य भावना भाते हुए – भरत चक्रवर्ती को ।
प्रश्न- 414 चारित्र किसे कहते है ?
जवाब- 414 चय यानि आठ कर्म का संचय-संग्रह, उसे रित्त अर्थात् रिक्त करे, उसे चारित्र कहते हैं । आत्मिक शुद्ध दशा में स्थिर रहने का प्रयत्न करना ही चारित्र है ।
प्रश्न- 415 चारित्र के कितने भेद है ?
जवाब- 415 पांचः- 1.सामायिक चारित्र 2.छेदोपस्थापनीय चारित्र 3.परिहार विशुद्धि चारित्र 4.सूक्ष्म संपराय चारित्र 5.यथाख्यात चारित्र ।
प्रश्न- 416 सामायिक चारित्र किसे कहते है ?
जवाब- 416 सम् – समता भावों का, आय – लाभ हो जिस में, वह सामायिक है । समभाव में स्थित रहने के लिये संपूर्ण अशुद्ध या सावद्य प्रवृत्तियों का त्याग करना सामीयिक चारित्र है ।
प्रश्न- 417 छोदोपस्थापनिय छारित्र किसे कहते है ?
जवाब- 417 पूर्व चारित्र पर्याय का छेद करके पुनः महाव्रतों का आरोपण जिसमें किया जाता है, उसे छेदोपस्थापनिय चारित्र कहते है ।
प्रश्न- 418 परिहार विशुद्धि चारित्र किसे कहते है ?
जवाब- 418 परिहार – त्याग या तपश्चर्या विशेष । जिस चारित्र में तप विशेष से कर्म निर्जरा रुप शुद्धि होती है, उसे परिहार विशुद्धि चारित्र कहते है ।
प्रश्न- 419 सूक्ष्म संपराय चारित्र किसे कहते है ?
जवाब- 419 सूक्ष्म अर्थात् किट्टि रुप (चूर्ण रुप) अति जघन्य संपराय – बादर लोभ कषाय के क्षयवाला जो चारित्र है, वह सूक्ष्म संपराय चारित्र कहलाता है ।
प्रश्न- 420 यथाख्यात चारित्र किसे कहते है ?
जवाब- 420 कषाय उदय का सर्वथा अभाव होने से अतिचार रहित एवं पारमार्थिक रुप से विशुद्ध एवं प्रसिद्ध चारित्र यथाख्यात चारित्र है ।
प्रश्न- 421 यथाख्यात चारित्र के कितने भेद है ?
जवाब- 421 दो – 1.छद्मस्थ यथाख्यात 2.केवली यथाख्यात ।
प्रश्न- 422 छद्मस्थ यथाख्यात चारित्र के कितने भेद हैं ?
जवाब- 422 दो – 1.उपशांत मोह यथाख्यात 2.क्षीण मोह यथाख्यात ।
प्रश्न- 423 उपशांत मोह यथाख्यात चारित्र किसे कहते है ?
जवाब- 423 ग्यारहवे गुणस्थानक में मोहनीय कर्म के उदय का सर्वथा अभाव हो जाता है और यह कर्म सत्ता में होता है, उस समय का चारित्र उपशांत मोह यथाख्यात चारित्र कहलाता है ।
प्रश्न- 424 क्षीण मोह यथाख्यात चारित्र किसे कहते है ?
जवाब- 424 12वें, 13वें, 14वें गुणस्थानक में मोहनीय कर्म का सर्वथा क्षय हो जाने के कारण उनका चारित्र क्षीण मोह यथाख्यात चारित्र कहलाता है ।
प्रश्न- 425 छद्मस्थ यथाख्यात चारित्र किसे कहते है ?
जवाब- 425 11वें, 12वें गुणस्थानक में उपरोक्त दोनों प्रकार का चारित्र छद्मस्थ यथाख्यात चारित्र कहलाता है ।
प्रश्न- 426 केवली यथाख्यात चारित्र किसे कहते है ?
जवाब- 426 केवलज्ञानी के चारित्र को केवली यथाख्यात चारित्र कहते है ।
प्रश्न- 427 निर्जरा किसे कहते है ?
जवाब- 427 आत्मा पर लगे हुए कर्मरुपी मल का देशतः दूर होना निर्जरा है । अथवा जीव रुपी कपडे पर लगे हुए कर्मरुपी मेल को ज्ञान रुपी पानी, तप संयम रुपी साबुन से धोकर दूर करना भी निर्जरा कहलाता है ।
प्रश्न- 428 निर्जरा के दो भेद कौन से है ?
जवाब- 428 1. सकाम निर्जरा 2. अकाम निर्जरा ।
प्रश्न- 429 अकाम निर्जरा किसे कहते है ?
जवाब- 429 सर्वज्ञ कथित तत्त्वज्ञान के प्रति अल्पांश रुप से भी अप्रतीति वाले जीव-अज्ञानी तपस्वियों की अज्ञानभरी कष्टदायी क्रियाएँ तथा पृथ्वी, वनस्पति पंच स्थावर काय जो सर्दी-गर्मी को सहन करते हैं, उन सबसे जो निर्जरा होती है, वह अकाम निर्जरा कहलाती है ।
प्रश्न- 430 सकाम निर्जरा किसे कहते है ?
जवाब- 430 आत्मिक गुणों को पैदा करने के लक्ष्य से जिस धर्मानुष्ठान का आचरण-सेवन किया जाय अर्थात् अविरत सम्यग्द्रष्टि जीव, देशविरत श्रावक तथा सर्वविरत मुनि महात्मा, जिन्होंने सर्वज्ञोक्त तत्त्व को जाना है और उसके परिणाम स्वरुप जो धर्माचरण किया है, उनके द्वारा होने वाली निर्जरा सकाम निर्जरा है ।
प्रश्न- 431 निर्जरा के सामान्यतः कितने भेद है ?
जवाब- 431 बारह भेद है – 1.छह बाह्य तप तथा 2.छह अभ्यंतर तप ।
प्रश्न- 432 बाह्यतप किसे कहते है ?
जवाब- 432 जिस तप को मिथ्याद्रष्टि भी करते है, जिस तपश्चर्या को करते देख लोग उन्हें तपस्वी कहते हैं, जो दिखने में आता है, शरीर को तपाता है, उसे बाह्य तप कहते है ।
प्रश्न- 433 छह बाह्य तप कौन कौन से है ?
जवाब- 433 1,अनशन 2.ऊनोदरी 3.वृत्तिसंक्षेप 4.रसपरित्याग 5.कायक्लेश 6.प्रतिसंलिनता ।
प्रश्न- 434 अनशन किसे कहते है ?
जवाब- 434 अशन (अन्न), पान (पानी), खादिम (फल,मेवा आदि), स्वादिम (मुखवास), इन चारों प्रकार के आहार का त्याग करना अथवा पानी के सिवाय तीन आहार का त्याग करना अनशन कहलाता है ।
प्रश्न- 435 ऊणोदरी किसे कहते है ?
जवाब- 435 भोजन आदि के परिमाण को थोडा कम करना अर्थात् जितनी इच्छा हो, उससे कुछ कम खाना ऊणोदरी है । ऊन – कम (न्यून), उदरी उदरपूर्ति करना, उणोदरी कहलाता है ।
प्रश्न- 436 वृत्तिसंक्षेप किसे कहते है ?
जवाब- 436 द्रव्यादि चार भेदों से मनोवृत्ति का संक्षेप अर्थात् द्रव्य-क्षेत्र-काल तथा भाव से भिक्षा का अभिग्रह करना वृत्ति संक्षेप है । अभिग्रहपूर्वक भिक्षा लेने से वृत्ति का संकोच होता है । इसका अपर नाम भिक्षाचरी भी है ।
प्रश्न- 437 रस त्याग किसे कहते है ?
जवाब- 437 विकार वर्धक दूध, दहीं, घी आदि विगई तथा प्रणीत रस, गरिष्ठ आहार का त्याग करना, रस परित्याग है ।
प्रश्न- 438 रसत्याग के कितने भेद है ?
जवाब- 438 नौ भेद हैं – 1.विगई त्याग – घृत, तेल, दूध-दही आदि विकार वर्धक वस्तुओं का त्याग करना ।
2. प्रणीत रस त्याग – जिसमें घी, दूध आदि की बूंदे टपक रही हो एसे आहार का त्याग करना ।
3. आयंबिल – लूखी रोटी, उबला धान्य तथा भूने चने आदि का आहार करना ।
4. आयाम सिक्थभोजी – चावल आदि के पानी में पडे हुए धान्य आदि का आहार करना ।
5. अरसाहार – नमक, मिर्च आदि मसालों के बिना रस रहित आहार करना ।
6. विरसाहार – जिनका रस चला गया हो, ऐसे पुराने धान्य या भात आदि का आहार करना ।
7. अन्ताहार – जघन्य अर्थात् हलका, जिसे गरिब लोग खाते है, ऐसा आहार लेना ।
8. प्रान्ताहार – बचा हुआ आहार लेना ।
9. रुक्षाहार – रुखा-सुखा, जीभ को अप्रिय लगनेवाला आहार करना ।
प्रश्न- 439 विगई किसे कहते है ?
जवाब- 439 विगई अर्थात् विकृति । जिससे मन में विकार बढे, उस आहार को विगई कहते हैं ।
प्रश्न- 440 विगई के कितने भेद है ?
जवाब- 440 दो – 1.लघु विगई 2.महा विगई ।
प्रश्न- 441 लघु विगई से क्या तात्पर्य है ?
जवाब- 441 दूध-दही, घी-तेल, गुड-कडाई (तली हुई वस्तु) इन छह को लघु विगई कहते हैं । इनका यथा योग्य त्याग करना चाहिए ।
प्रश्न- 442 महा विगई किसे कहते है ?
जवाब- 442 जो सर्वथा त्याज्य हो, उसे महाविगई कहते है । मदिरा, माँस, शहद, मक्खन ये चार महाविगई हैं ।
प्रश्न- 443 कायक्लेश किसे कहते है ?
जवाब- 443 काया को क्लेश-कष्ट पहुँचाना कायक्लेश है । शरीर से कठोर साधना करना, वीरासन, पद्मासन आदि में बैठना, लोच करना, कायक्लेश तप कहलाता है ।
प्रश्न- 444 प्रतिसंलीनता तप किसे कहते है ?
जवाब- 444 प्रतिसंलीनता – संकोचन या गोपन करना । अशुभ मार्ग में प्रवर्तन करती हुई इन्द्रियों का योग आदि के द्वारा संवरण करना प्रतिसंलीनता तप कहलाता है ।
प्रश्न- 445 अभ्यंतर तप किसे कहते है ?
जवाब- 445 जिस तप का सम्बन्ध आत्मभाव से हो, जिससे बाह्य शरीर नहीं तपता परंतु आत्मा तथा मन तपते हैं, जो अंतरंग प्रवृत्तिवाला है, उसे आभ्यंतर तप कहते है ।
प्रश्न- 446 आभ्यंतर तप के कितने भेद है ?
जवाब- 446 छह –1.प्रायश्चित 2.विनय 3.वैयावृत्य 4.स्वाध्याय 5.ध्यान 6.कायोत्सर्ग ।
प्रश्न- 447 प्रायश्चित तप किसे कहते है ?
जवाब- 447 किये हुए अपराध की शुद्धि करना प्रायश्चित तप कहलाता है ।
प्रश्न- 448 विनय तप किसे कहते है ?
जवाब- 448 जिसके द्वारा आत्मा से हुए कर्म रुपी मल को हटाया जा सके, अथवा गुणवान की भक्ति-बहुमान करना, अशातना न करना विनय तप कहलाता है ।
प्रश्न- 449 वैयावृत्य तप किसे कहते है ?
जवाब- 449 गुरुजनों की सेवा-शुश्रूषा करना वैयावृत्य तप है ।
प्रश्न- 450 स्वाध्याय तप किसे कहते है ?
जवाब- 450 अस्वाध्याय काल टालकर मर्यादापूर्वक शास्त्रों का अध्ययन- अध्यापन आदि करना स्वाध्याय तप है ।
प्रश्न- 451 स्वाध्याय तप के कितने भेद हैं ?
जवाब- 451 पांच – 1.वांचना 2.पृछना 3.परावर्तना 4.अनुप्रेक्षा 5.धर्मकथा ।
प्रश्न- 452 वांचना किसे कहते है ?
जवाब- 452 सूत्र-अर्थ पढना तथा शिष्यको पढाना वांचना है ।
प्रश्न- 453 पृछना किसे कहते है ?
जवाब- 453 वांचना ग्रहण करके उसमे शंका होने पर पुनः प्रश्न पूछकर शंका का समाधन करना पृछना है ।
प्रश्न- 454 परावर्तना किसे कहते है ?
जवाब- 454 पढे हुए की पुनरावृत्ति करना, परावर्तना है ।
प्रश्न- 455 अनुप्रेक्षा किसे कहते है ?
जवाब- 455 धारण किये हुए अर्थ पर बार बार मनन करना,विचार करना अनुप्रेक्षा है ।
प्रश्न- 456 धर्मकथा किसे कहते है ?
जवाब- 456 उपरोक्त चारों प्रकार से शास्त्र का अभ्यास करने पर श्रोताओं को धर्मोपदेश देना धर्मकथा है ।
प्रश्न- 457 ध्यान किसे कहते है ?
जवाब- 457 एक लक्ष्य पर चित्त को एकाग्र करना ध्यान है ।
प्रश्न- 458 ध्यान के कितने भेद हैं ?
जवाब- 458 दो – 1.शुभ ध्यान 2.अशुभ ध्यान ।
प्रश्न- 459 शुभ ध्यान किसे कहते है ?
जवाब- 459 जो ध्यान आत्मशुद्धि करने में सहायक बने, वह शुभ ध्यान है । इसके 2 भेद हैं – 1.धर्मध्यान 2.शुक्लध्यान । ये दोनो आभ्यंतर तप होने से इनका समावेश निर्जरा तत्व में किया गया है ।
प्रश्न- 460 अशुभ ध्यान किसे कहते है ?
जवाब- 460 जो रौद्र परिणाम वाला हो, संसार वृद्धिकारक हो, वह अशुभ ध्यान है । इसके भी 2 भेद हैं – 1.आर्तध्यान 2.रौद्रध्यान । ये दोनों निर्जरा तत्व में सम्मिलित नहीं है ।
प्रश्न- 461 आर्तध्यान किसे कहते है ?
जवाब- 461 आर्त-दुःख के निमित्त से या भावी दुःख की आशंका से होने वाला ध्यान आर्तध्यान है ।
प्रश्न- 462 आर्तध्यान के कितने लिंग (चिह्न) हैं ?
जवाब- 462 चार – 1.आक्रन्दन – उंचे स्वर से रोना, चिल्लाना, 2.शोचन – शोकग्रस्त होना, 3.परिवेदन – रोने के साथ मस्तक, छाती, सिर आदि पीटना तथा अनर्थकारी शब्दों का उच्चारण करना, 4.तेपन – टप टप आंसु गिराना ।
प्रश्न- 463 आर्तध्यान में कोनसे आयुष्य का बंध होता है ?
जवाब- 463 तिर्यंचायपष्य ।
प्रश्न- 464 रौद्र ध्यान किसे कहते है ?
जवाब- 464 क्रोध की परिणति या क्रूरता के भाव जिसमें रहे हो, दूसरों को मारने, पीटने, ठगने एवं दुःखी करने की भावना जिसमें हो, वह रौद्र ध्यान है ।
प्रश्न- 465 रौद्र ध्यान के कितने भेद है ?
जवाब- 465 चार – 1.हिंसानुबन्धी- प्राणियों की हिंसा का विचार करना, 2.मृषानुबंधी-झूठ बोलने का चिन्तन करना, 3.स्तेयानुबंधी- चोरी करने का चिन्तन करना, 4.संरक्षणानुबंधी – धनादि परिग्रह के रक्षण के लिये चिंता करना ।
प्रश्न- 466 रौद्र ध्यान के कितने लक्षण है ?
जवाब- 466 चार- 1.ओसन्न दोष- हिंसा आदि दोषों में से किसी एक दोष में अधिक प्रवृत्ति करना, 2.बाहुल्य दोष- हिंसा आदि अनेक दोषों में प्रवृत्ति करना, 3.अज्ञान दोष- अज्ञान से अधर्म स्वरुप हिंसा में धर्म बुद्धि से प्रवृत्ति करना, 4.अमरणान्त दोष- मरणपर्यंत हिंसादि क्रूर कार्यो में प्रवृत्ति करना ।
प्रश्न- 467 रौद्र ध्यान में यदि आयुष्य बंध हो तो कौन सा आयुष्य बंध होता है ?
जवाब- 467 रौद्र परिणाम होने से नरकायुष्य का बंध होता है ।
प्रश्न- 468 धर्मध्यान किसे कहते है ?
जवाब- 468 धर्म-जिनेश्वर परमात्मा की आज्ञा तथा पदार्थ के स्वरुप के पर्यालोचन में मन को एकाग्र करना धर्मध्यान है ।
प्रश्न- 469 धर्मध्यान के कितने भेद है ?
जवाब- 469 चार- 1.आज्ञाविचय- वीतराग की आज्ञा कों सत्य मनाकर उस पर पूर्ण श्रद्धा रखना, 2.अपायविजय- राग-द्वेष संसार में अपाय कष्टभूत है, ऐसा विचार करना, 3.विपाक विचय- सुख दुःख पूर्व कर्म का विपाक है, इस पर कर्म विषयक चिंतन करना, 4.संस्थान विचय- षड् द्रव्यात्मक लोक के स्वरुप का चिंतन करना ।
प्रश्न- 470 धर्मध्यान में किस आयुष्य का बंध होता है ?
जवाब- 470 धर्मध्यान में यदि जीव आयुष्य बांधे तो देवायुष्य का बंध होता है ।
प्रश्न- 471 शुक्ल ध्यान किसे कहते है ?
जवाब- 471 पूर्व विषयक श्रुत के आधार पर घाती कर्मों को नष्ट कर आत्मा को विशेष रुप से शुक्ल-स्वच्छ-धवल-निर्मल करने वाला ध्यान अथवा मनकी अत्यंत स्थिरता और योग का निरोध करने वाला परम ध्यान शुक्लध्यान कहलाता है ।
प्रश्न- 472 शुक्लध्यान के लक्षण कौन कौन से हैं ?
जवाब- 472 शुक्लध्यान के 4 लक्षण निम्न हैं-
1. अव्यथ- देवादि के उपसर्ग से चलित नहीं होना ।
2. असंमोह- देवादि कृत छलना या गहन विषयों में सम्मोह नहीं होना ।
3. विवेक- आत्मा को देह तथा समस्त सांसारिक संयोगो से भिन्न मानना ।
4. व्युत्सर्ग- निःसंगता से देह और उपधि का त्याग करना ।
प्रश्न- 473 शुक्लध्यान से कौन सी गति प्राप्त होती है ?
जवाब- 473 शुक्लध्यान से पंचम सिद्धगति अर्थात् मोक्ष प्राप्त होता है ।
प्रश्न- 474 कायोत्सर्ग तप किसे कहते है ?
जवाब- 474 काया के व्यापार का त्याग करना कायोत्सर्ग तप है । इसका अपर नाम व्युत्सर्ग भी है ।
प्रश्न- 475 बंध किसे कहते है ?
जवाब- 475 कर्म पुद्गलो तथा आत्माका परस्पर नीर-क्षीरवत् सम्बन्ध बन्ध कहलाता है अथवा शुभाशुभ योगों तथा कषाय आदि परिणामों द्वारा कर्मवर्गणाओं का आत्मप्रदेशों से दूध-शक्कर के समान एकमेक हो जाना, बन्ध है ।
प्रश्न- 476 बंध के कितने भेद है ?
जवाब- 476 चार 1.प्रकृति बंध 2.स्थितिबंध 3.रसबंध(अनुभाग बंध) 4.प्रदेशबंध ।
प्रश्न- 477 प्रकृतिबंध किसे कहते है ?
जवाब- 477 प्रकृति अर्थात् स्वभाव । जीव द्वारा ग्रहण किये गए कर्मपुद्गलों में अच्छे-बुरे विभिन्न स्वभावों का उत्पन्न होना, प्रकृतिबंध है ।
प्रश्न- 478 स्थितिबंध किसे कहते है ?
जवाब- 478 स्थिति-कलावधि । आत्मप्रदेशों पर आये हुए कर्मों की वहाँ रहने की कलावधि स्थितिबंध है अथवा जीव द्वारा ग्रहण किये हुए कर्म पुद्गलों का अपने स्वभाव को न छोडते हुए अमुक काल तक जीव के साथ लगे रहने की कालमर्यादा स्थिति बंध है ।
प्रश्न- 479 अनुभाग (रस) बंध किसे कहते है ?
जवाब- 479 जीव के द्वारा ग्रहण किये हुए कर्मपुद्गलों में फल देने की न्यूनाधिक शक्ति को अनुभाग बन्ध कहते है ।
प्रश्न- 480 प्रदेश बंध किसे कहते है ?
जवाब- 480 जीव के साथ न्यूनाधिक परमाणुवाले कर्म-स्कंधों का सम्बन्ध होना प्रदेश बंध है ।
प्रश्न- 481 आठ कर्मों का बन्ध कितने प्रकार के होता है ?
जवाब- 481 चारों प्रकार से ।
प्रश्न- 482 इस लोक में जीव के ग्रहण योग्य कितनी वर्गणाएँ है ?
जवाब- 482 आठ- 1.औदारिक 2.वैक्रिय 3.आहारक 4.तैजस 5.श्वासोच्छवास 6.भाषा 7.मन 8.कार्मण ।
प्रश्न- 483 वर्गणा किसे कहते है ?
जवाब- 483 एक समान संख्यावाले परमाणुओं के बने हुए अनेक स्कंध वर्गणा कहलाते है ।
प्रश्न- 484 जीव एक समय में कितनी वर्गणा ग्रहण करता है ?
जवाब- 484 अनन्त वर्गणाओं के बने हुए अनन्त स्कंधो को जीव एक समय में ग्रहण करता है ।
प्रश्न- 485 औदारिक वर्गणा किसे कहते है ?
जवाब- 485 औदारिक शरीर रुप में परिणमित होनेवाले पुद्गल समूह को औदरिक वर्गणा कहते है ।
प्रश्न- 486 वैक्रिय वर्गणा किसे कहते है ?
जवाब- 486 वैक्रेय शरीर रुप बननेवाला पुद्गल समूह वैक्रिय वर्गणा है ।
प्रश्न- 487 आहारक वर्गणा किसे कहते है ?
जवाब- 487 जो पुद्गल आहारक शरीर रुप में परिणमे, उसे आहारक वर्गणा कहते है ।
प्रश्न- 488 तैजस वर्गणा किसे कहते है ?
जवाब- 488 औदारिक तथा वैक्रिय शरीर को क्रांति देनेवाला और आहार पचानेवाला पुद्गल समूह तैजस वर्गणा कहलाती है ।
प्रश्न- 489 भाषा वर्गणा किसे कहते है ?
जवाब- 489 जो वर्गणा शब्द रुप में परिणमित हो, उसे भाषा वर्गणा कहते है ।
प्रश्न- 490 श्वासोच्छवास, मन तथा कार्मणवर्गणा किसे कहते है ?
जवाब- 490 जो पुद्गल समूह श्वासोच्छवास, मन तथा कर्मरुप में परिणमित होते हैं, उन्हें शवासोच्छवास, मन तथा कार्मण वर्गणा कहते है ।
प्रश्न- 491 रसबन्ध के कितने भेद है ?
जवाब- 491 चार- 1.एक स्थानिक 2.द्विस्थानिक 3.त्रिस्थानिक 4.चतुःस्थानिक ।
प्रश्न- 492 एकस्थानिक रसबन्ध किसे कहते है ?
जवाब- 492 गन्ने या नीम के स्वाभाविक रस के समान कर्म का एकस्थानिक रसबन्ध होता है । उस में फल देने की शक्ति कम होती है ।
प्रश्न- 493 द्विस्थानिक रसबन्ध किसे कहते है ?
जवाब- 493 गन्ने या नीम के रस को उबालकर आधा जलाने पर आधा शेष रहता है, उसके समान द्विस्थानिक रसबन्ध होता है । पहले से इसमें ज्यादा फल देने की शक्ति होती है ।
प्रश्न- 494 त्रिस्थानिक रसबन्ध किसे कहते है ?
जवाब- 494 गन्ने या नीम के रस को उबालकर 2-3 भाग जालाने पर 1-3 भाग शेष रहता है । उसके समान त्रिस्थानिक रसबन्ध होता है । इसमें फल देने की शक्ति दूसरे से ज्यादा होती है ।
प्रश्न- 495 चतुःस्थानिक रसबन्ध किसे कहते है ?
जवाब- 495 गन्ने या नीम के रस को 3-4 जलाने पर 1-4 भाग शेष रहता है । उसेके समान चतुःस्थानिक रसबन्ध होता है । उस में सबसे ज्यादा फल देने की शक्ति होती है ।
प्रश्न- 496 शुभ प्रकृतिओं का रस किसके समान होता है ?
जवाब- 496 शुभ प्रकृतिओं का रस गन्ने के समान मधुर होने से जीव को आह्लादकारी होता है ।
प्रश्न- 497 अशुभ प्रकृतिओं का रस किसके समान होता है ?
जवाब- 497 अशुभ प्रकृतिओं का रस नीम के समान कडवा होता है, जो जीव को पीडाकारी होता है ।
प्रश्न- 498 शुभ (पुण्य) प्रकृति का मंद रस कैसे बंधता है ?
जवाब- 498 संक्लेश के द्वारा ।
प्रश्न- 499 संक्लेश किसे कहते है ?
जवाब- 499 अनुकूल पदार्थो में राग तथा प्रतिकूल पदार्थों में द्वेष के परिणाम स्वरुप जिस तीव्र कषाय का उदय होता है, उसे संक्लेश कहते है ।
प्रश्न- 500 शुभ (पुण्य) प्रकृति में तीव्र रस कैसे बंधता है ?
जवाब- 500 परिणाम की विशुद्धि के द्वारा ।
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