Thursday, 20 March 2014

अहिंसा : धर्म की आत्मा

अहिंसा : धर्म की आत्मा :- सदा दूसरे की ओर दौड़ने वाले चित्र का नाम कामना एवं वासना है। क्योंकि कामना दुःख है, वासना दुःख है। महावीर ने उसे वासना, तो बुद्ध ने उसे तृष्णा कहा है। नाम चाहे जो भी दें- वह दूसरे को चाहने की ही दौड़ है। वही दुःख है। मंगल क्या है? सुख क्या है? आनंद क्या है? निश्चित ही वह उस समय मिलेगा, जब हमारी वासना कहीं दौड़ नहीं रही होगी। वासना का दौड़ना आत्मा का खो जाना है। भगवान महावीर कहते हैं, 'अहिंसा संजमो तवो'। इतना छोटा सूत्र शायद ही जगत में किसी ने कहा हो जिसमें सारा धर्म समा जाए। अहिंसा धर्म की आत्मा है। धर्म का सेंटर है। तप धर्म की परिधि है और संयम केंद्र एवं परिधि को जोड़ने वाला बीच का सेतु है। ऐसा समझ ले अहिंसा आत्मा, तप शरीर और संयम प्राण है। वह जो दोनों को जोड़ती है- श्वास है। श्वास टूट जाए तो शरीर भी होगा, आत्मा भी होगी, लेकिन आप न होंगे। संयम टूट जाए तो तप भी हो सकता है, अहिंसा भी हो सकती है, लेकिन धर्म नहीं हो सकता। भगवान महावीर की दृष्टि में अहिंसा आत्मा है। अहिंसा पर क्यों महावीर इतना जोर देते हैं। महावीर कहते हैं अहिंसा, कोई कहता है परमात्मा, कोई कहेगा सेवा, कोई ध्यान, कोई योग, कोई प्रार्थना, कोई कहेगा पूजा। महावीर कहते हैं यह अहिंसा एवं तप दौड़ती हुई ऊर्जा को ठहराने की विधियों के नाम हैं। जब वह रुक जाएगी तो स्वयं में रमेगी, स्वयं में ठहरेगी, स्थिर होगी। जैसे कोई ज्योति वायु के वेग से कंपे नहीं वैसी। कामना व वासना अंदर की महत्वपूर्ण ऊर्जा को बहा ले जाने के कारण हैं व हिंसा के द्वार। जब तक ये द्वार बंद नहीं होंगे, तब तक हमारी ऊर्जा अहिंसा का सार्थक पुरुषार्थ नहीं कर पाती है। इसीलिए महावीर स्वामी कहते हैं, जहां कामना है, वासना (तृष्णा) है, वहां अहिंसा नहीं है और जहां अहिंसा नहीं, वहां धर्म भी नहीं हैं।

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