Monday, 11 July 2011

देव-गुरु-धर्म

देव-गुरु-धर्म
शरीर में रहा हुआ आत्मा तात्त्विक दृष्टि से उसके मूल स्वरूप में सत्तारूप से परमात्मा है-देव है, परन्तु कर्मावरणों से आवृत होने से अशुद्धभाव में विद्यमान है जिससे भवचक्र में परिभ्रमण करता है। वह अपनी अशुद्धता को हटा कर अपने स्वाभाविक स्वरूप में प्रकाशित हो सकता है अर्थात् वीतरागता को सिद्ध कर के देवत्व को प्राप्त कर सकता है। इस प्रकार जो कोई मनुष्य देवत्व प्राप्त करता है वह देव है। जो वीतराग है वह देव है।
हमारा आदर्श इस देवत्व को प्रकट करने का है। इस देवत्व के प्रकट करने की साधना में जो सुयोग्यरूप से प्रयत्नशील है वह त्यागी, संयमी, अपरिग्रही सन्त गुरु है। वह हमें अपने आदर्श की पहचान कराता है, वीतरागता क्या है यह समझता है और इस स्थिति पर पहुँचने के लिये संसारी जीवन में कौनसा मार्ग विधेय है, आचरणीय है यह योग्य रूप से बतलाता है। अशुद्ध दशा दूर कर के शुद्ध दशा (वीतरागता) जिस मार्ग से उपलब्ध होती हो उस मार्ग का नाम है धर्म। धर्म अर्थात् कर्तव्य मार्ग पर चलना अर्थात् विकासगामिनी कर्तव्य-साधना। इस देव-गुरु-धर्म को (इन तीन तत्त्वों को) सच्चे अर्थ में पहचानना, उन पर सच्ची श्रद्धा रखना इसे ‘समकित’ (सम्यक्त्व) कहते हैं। ‘परन्तु यह ‘व्यवहार-सम्यक्त्व’ है, जबकि ‘आत्मा ही उसके मूल स्वरूप में सत्तारूप से देव हैं और कर्मावरणों को विध्वस्त करके अपने मूल स्वरूप में पूर्ण प्रकट हो सकता है’ ऐसी विमल श्रद्धा से समुज्ज्वल आत्मपरिणाम ‘निश्चय-सम्यक्त्व’ है।
विविधता में एकता अथवा समानता देखना अर्थात् सब प्राणियों को अपने आत्मरूप देखना-यह वस्तु सम्यग्दृष्टि के मूल में रही हुई है। यह सिद्ध होने पर आगे का मार्ग सुगम बन जाता है। मैत्री आदि चार भावनाएँ इस प्रकार की आत्मदृष्टि में से उत्पन्न होती हैं। ऐसी दृष्टि प्रकट हुए बिना मनुष्य तत्त्वतः ‘सम्यक्त्वी’ नहीं बन सकता। जहाँ ऐसी दृष्टि होती है वहाँ झगड़े-बखेड़े, वैर-विरोध, छीना-झपटी, उच्च-नीच भाव, अहंकारवृत्ति आदि कालुष्य नहीं होता और जहाँ होता है वहाँ वह झगड़े-टण्टे आदि से कलुषित स्वार्थमय अन्धकार के मार्ग को भेद कर स्वार्थत्याग, परोपकार और सेवा का मार्ग प्रकाशित करती है। ऐसी दृष्टि सदसद्विवेक के विकास के बिना प्राप्त नहीं होती।
व्यवहार-सम्यक्त्व में से प्रगति करता हुआ जीव निश्चय-सम्यक्त्व प्राप्त करता है। यह प्राप्त होते ही आत्मा की दृष्टि शुद्ध बनती है। उस समय आध्यात्मिक दृष्टि से उसने सविशेष प्रगति की होती है। अब तो उसके लिये धर्म की उत्तम भूमिका पर अर्थात् कल्याणसाधन के उच्च विकासगामी मार्ग पर प्रयाण करना ही अवशिष्ट रहता है जिससे वह भविष्य में वीतरागता प्राप्त कर सके अर्थात् स्वयं ही देव बन सके।
‘सम्यक्त्व’ का विरोधी ‘मिथ्यात्व’ है। अतः यह स्पष्ट है कि मिथ्यात्व के हटने से ही सम्यक्त्व प्राप्त हो सकता है। इसलिए मिथ्यात्व किस किस प्रकार का होता है यह भी तनिक देख लें।
१. वस्तुगत मिथ्यात्व -
शरीर को ही आत्मा मानना और इन दोनों के बीच की भिन्नता को स्वीकार न करना।
२. ध्येयगत मिथ्यात्व -
मोक्ष के स्वरूप के सम्बन्ध में विपरीत बुद्धि; मोक्ष या वीतारागतारूप पूर्ण पावित्र्य को ध्येयरूप न मानकर शारीरिक अथवा भौतिक सुख को अन्तिम साध्य या जीवन का सर्वस्व मानना।
३. धर्मगत मिथ्यात्व -
ध्येय तक पहुँचने के मार्ग के बारे में उलटी समझ। देहसुख या भौतिक वैभव के लिये अन्य प्राणियों के सुख-दुःख की ओर सर्वथा असावधान रहकर अपनी भौतिक लालसा की पूर्त्ति के लिये हिंसा, अनीति, अन्याय के दारुण पाप करना; उन पापाचरणों को मिथ्या-मार्ग (अधर्म) न समझना; दया-अनुकम्पा, नीति-न्याय, संयम-सदाचाररूप सद्गुणों को धर्म न मानना अथवा उनके विरोधी दुर्गुणों को-दोषों को धर्म समझना धर्मगत मिथ्यात्व है।
४. गुरुगत मिथ्यात्व -
ध्येय की प्राप्ति के लिये अयोग्य उपदेशक को अर्थात् आसक्तिपूर्ण, दम्भी, अज्ञानी और विवेकहीन उपदेशक को गुरु मान लेना गुरुगत मिथ्यात्व है।
५. देवगत मिथ्यात्व -
परम आदर्शरूप अनुकरणीय व्यक्ति के सम्बन्ध में उलटी समझ अर्थात् वीतराग परमात्मा को देवरूप न मानकर सराग व्यक्ति को देव मानना देवगत मिथ्यात्व है।
इस प्रकार का मिथ्यात्वभाव जीवनविकास का अवरोधक है।

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