जीवननिर्वाह के लिये हिंसा की तरतमता का विचार
हिंसा के बिना जीवन अशक्य है इस बात का स्वीकार किए बिना कोई चारा नहीं है, परन्तु इसके साथ ही कम से कम हिंसा से अच्छे से अच्छा-श्रेष्ठ जीवन जीने का नियम मनुष्य को पालना चाहिए। परन्तु कम से कम हिंसा किसे कहना?-यह प्रश्न बहुतों को होता है। किसी सम्प्रदाय के अनुयायी ऐसा मानते हैं कि ‘बड़े और स्थूलकाय प्राणी का वध करने से बहुत से मनुष्यों का बहुत दिनों तक निर्वाह हो सकता है, जबकि वनस्पति में रहे हुए असंख्य जीवों को मारने पर भी एक मनुष्य का एक दिन का भी निर्वाह नहीं होता। इसलिये बहुत से जीवों की हिंसा की अपेक्षा एक बड़े प्राणी को मारने में कम हिंसा है।’ ऐसे मन्तव्यवाले मनुष्य जीवों की संख्या के नाश पर से हिंसा की तरतमता का अंदाज लगाते हैं। परन्तु यह बात ठीक नहीं। जैनदृष्टि जीवों की संख्या पर से नहीं किन्तु हिंस्य जीव के चैतन्यविकास पर से हिंसा की तरतमता का प्रतिपादन करती है। अल्प विकासवाले अनेक जीवों की हिंसा की अपेक्षा अधिक विकासवाले एक जीव की हिंसा में अधिक दोष रहा हुआ है ऐसा जैनधर्म का मन्तव्य है। इसीलिये वह वनस्पतिकाय को आहार के लिये योग्य मानता है, क्योंकि वनस्पति के जीव कम से कम इन्द्रियवाले अर्थात् एक ही इन्द्रियवाले माने जाते हैं और इनसे आगे के उत्तरोत्तर अधिक इन्द्रियवाले जीवों को आहार के लिये वह निषिद्ध बतलाता है। यही कारण है कि पानी में जलकाय के संख्यातीत जीव होने पर भी उनकी-इतने अधिक जीवों की विराधना [हिंसा] कर के भी-हिंसा होने पर भी एक प्यासे मनुष्य अथवा पशु को पानी पिलाने में अनुकम्पा है, दया है, पुण्य है, धर्म है-ऐसा सब कोई मानते हैं। इसका कारण यही है कि जलकाय के जीवों का समूह एक मनुष्य अथवा पशु की अपेक्षा बहुत अल्प चैतन्यविकासवाला होता है। इस पर से ज्ञात होगा कि मनुष्यसृष्टि के बलिदान पर तिर्यंचसृष्टि के जीवों को बचाना जैन धर्म को मान्य नहीं है। परन्तु कोई व्यक्ति, जहाँ तक उसका अपना सम्बन्ध है वहाँ तक, स्वयं अपना बलिदान देने जैसी अपनी अहिंसावृत्ति को यदि जागरित कर तो उस पर किसी प्रकार का प्रतिबन्ध नहीं है, जैसे कि भगवान् श्री शान्तिनाथ ने अपने पूर्वभव में शरणागत कबूतर को तथा राजा दिलीप ने गाय को बचाने के लिये अपने शरीर का बलिदान देने की तत्परता दिखलाई थी। परन्तु निरर्थक हिंसा के समय फूल की एक पत्ती को भी दुःखित करने जितनी भी हिंसा की जैन धर्म में मनाही है।
वनस्पति जीवों के दो भेद हैं-प्रत्येक और साधारण। एक शरीर में एक जीव हो वह ‘प्रत्येक’ और एक शरीर में अनन्त जीव हों वह ‘साधारण’ वनस्पति है। कन्दमूल आदि ‘साधारण’ [स्थूल साधारण ] हैं। इन्हें अनन्तकाय भी कहते हैं। ‘साधारण’ की अपेक्षा ‘प्रत्येक’ की चैतन्यमात्रा अत्यधिक विकसित है।
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