Friday, 15 July 2011

आत्मा के स्वरूप का शास्त्रीय विवेचन

आत्मा के स्वरूप का शास्त्रीय विवेचन
जीव का लक्षण चेतना है। चेतना अर्थात् ज्ञानशक्ति। ऐसी शक्ति जीव के अतिरिक्त अन्य किसी रूपी अथवा अरूपी द्रव्य में नहीं है। चेतनस्वरूप-ज्ञानस्वरूप जीव अपनी चेतनाशक्ति द्वारा जानता है, वस्तु का ज्ञान करता है अथवा कर सकता है। जीव इतर पदार्थों का ज्ञान कर सकता है, इतना ही नहीं, वह अपने आप भी ज्ञान कर सकता है, इतना ही नहीं, वह अपने आप भी ज्ञान कर सकता है। इसीलिये वह स्वपरप्रकाशक कहलाता है। सब प्रकार का (यथार्थ अथवा अयथार्थ) ज्ञान स्वयंप्रकाशक (स्वसंवेदनरूप अथवा स्वसंविदित) है अर्थात् वह स्वयं अपने आप को प्रकाशित करता है। परन्तु यथार्थज्ञान स्वप्रकाशक और अर्थप्रकाशक इस प्रकार दोनों स्वरूपवाला होने से स्वपरप्रकाशक (स्वपरव्यवसायी) समझा जाता है। प्रदीप की भाँति ज्ञान भी स्वयं प्रकाशरूप हो कर ही अर्थ को प्रकाशित करता है। जो ज्ञान अयथार्थ (सन्दिग्ध अथवा भ्रान्त) है वह परप्रकाशक नहीं हो सकता यह तो स्पष्ट ही है।
विश्व में जितने पदार्थ हैं वे सब सामान्य तथा विशेष स्वभाववाले हैं। जब चेतना पदार्थ के विशेष स्वभाव की ओर लक्ष न करके मुख्यतः पदार्थ के सामान्य स्वभाव को लक्ष्य बनाती है तब चेतना के उस समय के परिणमन को ‘दर्शन’ कहते हैं। और जब चेतना पदार्थ के सामान्य स्वभाव की ओर लक्ष न कर के मुख्यरूप से पदार्थ के विशेष स्वभाव को लक्ष्य बनाती है तब चेतना के उस समय के परिणमन को ‘ज्ञान’ कहते हैं। चेतना का, योग्य निमित्त के योग से जानने की क्रिया में परिणमन होने का नाम ‘उपयोग’ है। इस पर से ज्ञात होगा कि उपयोग दो विभागों में विभक्त है : सामान्य उपयोग और विशेष उपयोग। जो बोध ग्राह्य वस्तु को सामान्यरूप से जाने वह सामान्य-उपयोग और जो बोध ग्राह्य वस्तु को विशेषरूप से जाने वह विशेष उपयोग है। विशेष उपयोग को साकार उपयोग और सामान्य उपयोग को निराकार उपयोग कहते हैं। साकार और निराकार शब्दों में आए हुए ‘आकार’ शब्द का अर्थ ‘विशेष’ समझने का है। ‘निराकार’ उपयोग का अर्थ है आकार अर्थात् विशेष का ग्रहण जिसमें नहीं है ऐसा उपयोग अर्थात् सामान्यग्रहणात्मक उपयोग निराकार उपयोग है। सामान्य उपयोग को ‘दर्शन’ और विशेष उपयोग को ‘ज्ञान’ कहते हैं।
दर्शन का लक्ष सामान्य की ओर होने से उससे एकता अथवा समानता का मान उत्पन्न होता है जबकि ज्ञान का लक्ष विशेषता की ओर होने के कारण उससे विशेषरूपता का-भिन्नता का भान होता है। प्रथम दर्शन और बाद में ज्ञान ऐसा क्रम लगभग सर्वसाधारण मझा जाता है। प्रथम यदि दर्शन न हो तो ज्ञान हो ही कैसे? दर्शन और ज्ञान का भेद समझने के लिये यहाँ पर एक स्थूल दृष्टान्त देना उपयोगी होगा। गायों के समूह को दूर से देखने पर हमें प्रारम्भ में ‘ये सब गायें हैं’ ऐसा सामान्यतः भान होता है। ऐसे समय हम मुख्यतः गायों में रहे हुए सामान्य तत्त्व की ओर ध्यान देते हैं। गायों का समूह समीप आने पर उनके रंग, सींग, कद आदि में रही हुई विशेषताओं की ओर यदि हम लक्ष दें तो एक गाय से दूसरी गाय में रही हुई भिन्नता हमारी समझ में आती है। ऐसे समय हम मुख्यतः गायों में रही हुई विशेषताओं की ओर ध्यान देते हैं।
दर्शन एवं ज्ञान में तात्त्विक भेद नहीं है। दोनों बोधरूप ही हैं। भेद केवल विषय की सीमा को लेकर ही है। अतःज्ञान को विशाल अर्थ में यदि हम लें तो उसमें दर्शन का समावेश हो जाता है।
लगभग सभी दर्शन ऐसा मानते हैं कि ज्ञानव्यापार के उत्पत्तिक्रम में सर्वप्रथम ऐसे बोध का स्थान अनिवार्य रूप से आता है जो ग्राह्य विषय के सत्तामात्र स्वरूप का ग्राहक हो और जिसमें कोई भी अंश विशेषण-विशेष्यरूप से भासित न हो।
लोक-व्यवहार का सम्पूर्ण आधार ‘ज्ञान’ पर है। यही कारण है कि ज्ञान का आवारक ‘ज्ञानावरणीय’ कर्म पूर्वोक्त आठ कर्मों में प्रथम रखा है। ज्ञान के सम्बन्ध में पहले थोड़ा निरूपण किया गया है। उसमें ज्ञान के ‘मति’ आदि पाँच भेद बतलाए हैं। यहां पर हम इनके बारे में तनिक ब्योरे से देखें।
मति और श्रुत ज्ञान मन तथा इन्द्रियों द्वारा होते हैं। मन से युक्त चक्षु आदि इन्द्रियों से रूप आदि विषयों का जो प्रत्यक्ष ज्ञान होता है वह (सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष) मतिज्ञान है और मन से सुखादि का जो संवेदन होता है वह मानस (सांव्यवहारिक) प्रत्यक्ष मतिज्ञान है। इस प्रकार मतिज्ञान का एक विभाग प्रत्यक्ष (सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष) रूप है और मन से तर्क-वितर्क-विचार, स्मरण, प्रत्यभिज्ञान, अनुमानादि जो होता है वह परोक्ष मतिज्ञान है। प्रत्यक्षरूप मतिज्ञान के अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणा ऐसे चार भेद हैं। प्रथम निर्विकल्परूप अव्यक्त ‘दर्शन’ के बाद अवग्रह होता है। सामान्यतः रूप, स्पर्श आदि का प्रतिभास अवग्रह है। अवग्रह के पश्चात् वस्तु की विशेषता के बारे में सन्देह उत्पन्न होने पर उसके बारे में निर्णयोन्मुखी जो विशेष आलोचना होती है वह ‘ईहा’ है। किसी दृश्य आकृति का चक्षु द्वारा, किसी शब्द का श्रवणेन्द्रिय द्वारा, किसी स्पर्श का स्पर्शनेन्द्रिय द्वारा प्रतिभास (अवग्रहरूप प्रतिभास) होने के पश्चात् विशेष चिह्न ज्ञात होने पर ‘यह वृक्ष ही होना चाहिए, मनुष्य नहीं’ अथवा ‘यह मनुष्य बंगाली होना चाहिए, पंजाबी नहीं’ अथवा ‘यह शंख का शब्द होना चाहिए, शृंग का नहीं’ अथवा ‘वह रस्सी का स्पर्श होना चाहिए, सर्प का नहीं’ इस प्रकार की निर्णयाभिमुखी जो विचारणा-सम्भावना होती है वह ईहा’ है।
ईहा के बाद ‘यह वृक्ष ही है,’ ‘यह बंगाली ही है,’ ‘यह शंख का ही शब्द है,’ ‘यह रस्सी का ही स्पर्श है’-इस प्रकार का निर्णय होना ‘अवाय’ है। और अवाय से निर्णीत पदार्थ का कालान्तर में स्मरण हो सके ऐसा संस्कारवाला ज्ञान ‘धारणा’ है। इसे ‘संस्कार’ भी कहते हैं। अर्थात् ‘अवाय’ रूप निश्चय कुछ समय के बाद लुप्त हो जाने पर भी ऐसा ‘संस्कार’ रखता जाता है जिससे आगे जा कर उस निश्चित विषय का स्मरण हो आता है। इस अवायरूप निश्चय की सतत धारा, तज्जन्य संस्कार तथा संस्कारजन्य स्मरण-यह सब मतिव्यापार ‘धारणा’ है। परन्तु इस समग्र मतिव्यापार में ‘संस्कार’ प्रत्यक्ष मतिज्ञान है, जबकि ‘स्मरण’ परोक्ष मतिज्ञान है।
इस प्रकार ‘अवग्रह’ आदि चार ज्ञानों का उत्पत्ति क्रम है।
शास्त्र में औत्पत्तिकी, वैनयिकी, कर्मजा और पारिणामिकी इस प्रकार चार तरहकी बुद्धि का वर्णन आता है और उनका मतिज्ञानरूप से उल्लेख किया है। किसी विकट उलझन को सुलझाने के समय उसे सुलझा सके ऐसी सहज बुद्धि यदि तुरन्त उत्पन्न हो तो वह औत्पत्तिकी बुद्धि है। इसे प्रत्युत्पन्नमति भी कह सकते है। विनय अर्थात् शिक्षण द्वारा विकसित बुद्धि वैनयिकी बुद्धि है, शिल्प एवं कर्म द्वारा संस्कृत बुद्धि कर्मजा बुद्धि है और लम्बे अनुभव से परिपक्व हुई बुद्धि पारिणामिकी बुद्धि है।
इन चार प्रकारों की बुद्धि का जिक्र ‘नन्दिसूत्र’ में उदाहरणों के संक्षिप्त नामों के साथ आता है और वे उदाहरण उस सूत्र की टीका में श्री मलयगिरिने संक्षेप में दिए हैं। इनमें से कुछ बहुत मनोरंजक हैं। यहाँ पर तो विषय का तनिक ख्याल आ सके इस दृष्टि से दो-एक उदाहरण उस टीका में से देते हैं।
औत्पत्तिकी बुद्धि पर टीकाकार ने आज भी सामान्य जनता में अतिप्रसिद्ध ऐसा एक उदाहरण दिया है।
जैसे कि -
एक परुष की दो विधवा स्त्रियों के बीच पुत्र के लिये झगड़ा हुआ। दोनों कहने लगीं, यह मेरा पुत्र है। न्यायाधीश ने आज्ञा दी, पुत्र को दो टुकड़े कर के एक एक टुकड़ा दोनों स्त्रियों को बाँट दो। जो नकली माता थी वह तो फैसले पर कुछ भी न बोली, परन्तु जो असली माता थी उसका हृदय कांप उठा और प्रेम के आवेश में उसने कहा : यह मेरा पुत्र नहीं है। यह समूचा पुत्र उसे दे दो। इस पर से वास्तविक माता का पता चल गया। यह न्यायाधीश की औत्पत्तिकी बुद्धि का उदाहरण है।
वैनयिकी बुद्धि का उदाहरण-एक वृद्धा ने दो ज्योतिषियों से पूछा कि देशान्तर से मेरा पुत्र कब आयगा? ऐसा पूछते समय वृद्धा के सिर पर रखा हुआ घड़ा नीचे गिर कर टुकड़े टुकड़े हो गया। इस पर से उन दो ज्योतिषियों में से एक ने कहा : माँजी, तुम्हारा लड़का, जैसे वह घट नष्ट हुआ वैसे मर गया है। तब दूसरे ने उसे रोक कर कहा : माँजी, तुम्हारा पुत्र घर पर आ गया है। तुम घर पर जाओ। वृद्धा गर गई और पुत्र को देख कर आनन्दित हुई। यह ज्योतिषी की वैनयिकी बुद्धि का उदाहरण है। उसने ऐसे विचार से-ऐसी तर्कशक्ति से इस प्रकार का भविष्य कथन किया कि जैसे वृद्धा का घड़ा, प्रश्न पूछते समय ही, अपनी जननी मिट्टी में मिल गया वैसे वृद्धा का पुत्र भी अभी ही उसे मिलना चाहिए।
कर्मजा बुद्धि के उदाहरणों में शिल्प एवं कर्म (कला) में प्रवीणतासूचक उदाहरण दिए हैं।
पारिणामिकी बुद्धि के उदाहरणों में से एक उदाहरण इस प्रकार है -
परस्त्री का त्यागी एक श्रावक एक बार अपना पत्नी की सखी को देख कर उस पर मोहित हो गया। मोह से पीड़ित अपने पति को देख कर पत्नी ने कहा : ‘तुम दुःखी न हो। तुम्हारी इच्छा मैं पूर्ण कर दूँगी।’ इसके बाद रात पड़ने पर अपनी सखी के वस्त्राभरण धारण कर के सखीरूप से अपने पति से वह एकान्त में मिली। उसके साथ संग करने के बाद उस पुरुष को अपने व्रतभंग के लिये दुःख हुआ। पत्नी ने जब सच्ची बात कही तब उसका दुःख कुछ हलका हुआ और गुरु के पास जा कर मन में दुष्ट संकल्प करने से जो व्रतभंग हुआ था उसके लिये प्रायश्चित्त किया। यह श्राविका की पारिणामिकी बुद्धि का उदाहरण है।
इस प्रकार हमने मतिज्ञान देखा। अब श्रुतज्ञान को देखें। श्रुतज्ञान अर्थात् श्रुत यानी सुने हुए का ज्ञान। इसका एक अर्थ होता है शास्त्र-आगम का ज्ञान। सामान्यतः किसी भी विषय के शास्त्र अथवा ग्रन्थ से उत्पन्न होनेवाला ज्ञान श्रुतज्ञान है। सदुपयोग अथवा दुरुपयोग किसी भी शास्त्र अथवा ज्ञान का हो सकता है। मोक्ष में उपयोगी होना किसी शास्त्र का नियत स्वभाव नहीं है। अधिकारी यदि योग्य और मुमुक्षु हो तो लौकिक समझे जानेवाले शास्त्र को भी वह मोक्ष के लिये उपयोगी बना सकता है और अधिकारी योग्य न हो तो आध्यात्मिक श्रेणि के शास्त्र भी उसके पतन में निमित्त हो सकते हैं। फिर भी विषय और प्रणेता की योग्यता की दृष्टि से शास्त्र अवश्य अपना विशिष्ट महत्त्व रखते हैं।
व्यापक रूप से विचार करने पर श्रुतज्ञान का अर्थ शब्दजन्य ज्ञान अथवा संकेतजन्य ज्ञान होता है। शब्द सुन कर के अथवा लिखा हुआ पढ़कर के जो ज्ञान होता है वह श्रुतज्ञान है ही, परन्तु संकेत द्वारा होनेवाला ज्ञान भी श्रुतज्ञान कहलाता है। जैसे कि, किसी के साथ के इशारे से अथवा किसी के खाँसने से जो समझ में आता है वह श्रुतज्ञान है। यदि कोई अपने मुँह के आगे हाथ रखे तो उस संकेत से जो खाने का अर्थ समझा जाता है वह श्रुतज्ञान है। ऊपर उठे हुए अक्षरों पर हाथ फिराने से एक अन्धा जो पढ़ता है-समझता है वह श्रुतज्ञान है। तार के ‘कट् कट्’ शब्दों पर से जो समझा जाता है वह श्रुतज्ञान है। आमने सामने दो मनुष्य एक-दूसरे की संज्ञाओं से जो कुछ समझते हैं वह श्रुतज्ञान है। खाँसी आदि से, अन्धेरे में कोई मनुष्य है ऐसा जो ज्ञान होता है वह श्रुतज्ञान है। एक गूंगा आदमी दूसरों के हाथ की चेष्टाओं अथवा संकेत से अथवा गूंगे के संकेत आदि से दूसरा जो समझता है वह श्रुतज्ञान है। इसी प्रकार एक बहरे को दूसरे के हाथ की संज्ञाओं से जो ज्ञान होता है वह श्रुतज्ञान है। पाँचों इन्द्रियों में स्वस्थ पुरुषों में भी बहुत बार वाणीप्रयोग न कर के मुँह, हाथ, मस्तक आदि की संज्ञाओं से-चेष्टाओं से एक-दूसरे को समझा देने का अथवा उत्तर दे देने का प्रचार है। इस से जो बोध होता है वह श्रुतज्ञान है।
शब्द सुन कर जिस प्रकार अर्थ की उपस्थति होती है उसी प्रकार संकेत से भी अर्थ की उपस्थिति होती है। जिस तरीके से शब्द द्वारा ज्ञान उत्पन्न होता है उसी तरीके से संकेत द्वारा भी ज्ञान पैदा होता है। अतः संकेतजन्य ज्ञान शाब्दबोध जैसा है और इसीलिये वह श्रुतज्ञान है।
शब्द का सुनना तो श्रोत्रेन्द्रिय का अवग्रहादिरूप मतिज्ञान है, परन्तु उससे बोध (शाब्दबोध) होना श्रुतज्ञान है। चेष्टा, संकेत अथवा संज्ञा का देखना चाक्षुष अवग्रहादि मतिज्ञान है, परन्तु उससे अर्थ की उपस्थिति होना-अर्थ का बोध होना श्रुतज्ञान है। इसी प्रकार संकेत का श्रवण श्रोत्रेन्द्रिय का अवग्रहादि मतिज्ञान है, परन्तु उससे शाब्दबोध जैसा अर्थबोध होना श्रुतज्ञान है।
मति और श्रुत में भेद क्या है?-इसके बारे में विशेषावश्यकभाष्य के टीकाकार कहते हैं कि ‘इन्द्रिय और मन द्वारा उत्पन्न होनेवाला सब प्रकार का ज्ञान ‘मतिज्ञान’ ही है। सिर्फ परोपदेश और आगम-वचन से पैदा होने पर वह ‘श्रुत’ कहलाता है, जो (इस प्रकार की विशेषतावाला) मतिज्ञान का एक विशिष्ट भेद ही है।’
सामान्यतः ऐसा कहा जा सकता है कि मति और श्रुत में क्रमशः बुद्धि और विद्वत्ता जैसा भेद है। मतिज्ञानी को बुद्धिमान् और श्रुतज्ञानी को विद्वान् कह सकते हैं। विद्वान् की मति श्रुत से रँगी हुई होती है। इस प्रकार ये दोनों एकरस बन जाते हैं।
मतिज्ञान निमित्त के योगसे स्वयं उत्पन्न होनेवाला ज्ञान है, अर्थात् उसमें परोपदेश की अपेक्षा नहीं होती, जबकि श्रुतज्ञान परोपदेश से (आगम अथवा शास्त्रवचन भी परोपदेश ही है) पैदा होता है और उसमें, पहले कहा उस तरह, शब्द एवं अर्थ के संकेत की आवश्यकता है। मतिज्ञान द्वारा ज्ञात वस्तु को दूसरे से कहने के लिये जब हम मन ही मन उस ज्ञान को भाषा के रूप में परिणत करते हैं तब भाषा के रूप में परिणत होने के कारण वह ‘श्रुतज्ञान’ नहीं हो जाता। उस समय भी वह तो ‘मतिज्ञान’ ही कहलाता है। ‘श्रुतज्ञान’ तो भाषा द्वारा पैदा होने से ही होता है। मतिज्ञान से जाना हुआ भी भाषा में रखा जा सकता है और श्रुतज्ञान से जाना हुआ भी भाषा में रखा जा सकता है। श्रुतज्ञान से ज्ञात पदार्थ पर विशेष विचार-विशेष चिन्तन-विशेष ऊहापोह बुद्धिरूप है और बुद्धि ‘मतिज्ञान’ है। वैनयिकी बुद्धि, जिसका पहले उल्लेख हो चुका है, विशेष विचाररूप है और मतिज्ञान है।
इस प्रकार मतिज्ञान की व्यापकता होने पर भी उसकी संस्कारिता, पुष्टिमत्ता और बलवत्ता का आधार श्रुतज्ञान है। प्रगति और उन्नति के मार्ग पर वह हमें आरूढ़ करता है। पूर्वजों एवं साथियों के अनुभव का लाभ यदि हमें न मिले तो हमारी अवस्था पशुओं की अपेक्षा भी अधम हो जाय। इसलिये श्रुतज्ञान का क्षेत्र भी अत्यन्त विशाल है। यद्यपि मतिज्ञान के बिना श्रुतज्ञान खड़ा नहीं हो सकता किन्तु श्रुतज्ञान के बिना मतिज्ञान पशु से अधिक उन्नत श्रेणि पर नहीं ले जा सकता। इस प्रकार मति और श्रुत दोनों एक-दूसरे में ओतप्रोत होने पर भी दोनों के बीच का भेद समझा जा सकता है।
मति और श्रुत संसार के समग्र प्राणियों में-सूक्ष्म जीव से लेकर पंचेन्द्रिय तक के सब जीवों में है। शास्त्र के आधार पर मति और श्रुत का विषय सब द्रव्य हैं, अर्थात् रूपी एवं अरूपी सब द्रव्यों का मति और श्रुत द्वारा विचार किया जा सकता है और वे जाने जा सकते हैं। परन्तु ये दोनों ज्ञान किसी भी द्रव्य के परिमित ही पर्याय जानते हैं। इतना अवश्य है कि मतिज्ञान की अपेक्षा श्रुत का पर्यायग्राहित्व अधिक है।
मतिज्ञान इन्द्रियजन्य है और साथ ही मनोजन्य भी है। मन स्वानुभूत अथवा शास्त्रश्रुत सब मूर्त-अमूर्त द्रव्यों का चिन्तन करता है। अतः मनोजन्य मतिज्ञान की अपेक्षा से समग्र द्रव्य मतिज्ञान के विषय कहे जा सकते हैं। मानसिक चिन्तन जब शब्दोल्लेखसहित होता है तब श्रुतज्ञान है और जब शब्दोल्लेखरहित होता है तब मतिज्ञान है ।
शास्त्रदृष्टि से मति और श्रुत ये दोनों ज्ञान इन्द्रियमनोजनित होने के कारण-साक्षात् आत्मा द्वारा न होकर अन्य निमित्तों के बल पर उत्पन्न होने से परोक्ष कहलाए हैं। इनमें नेत्र आदि इन्द्रियों से होनेवाले रूप आदि विषयों के ज्ञान भी आ जाते हैं। फिर भी नेत्रादिइन्द्रियजन्य रूपादिविषयक ज्ञान लोकव्यवहार में प्रत्यक्ष गिने जाते है, अतः शास्त्र को भी उन्हें प्रत्यक्ष मानना पड़ा है। पारमार्थिक दृष्टि से ये ज्ञान परोक्ष होने पर भी व्यावहारिक दृष्टि से प्रत्यक्ष माने जाने के कारण उन्हें सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष कहा है।
शास्त्रानुसार पारमार्थिक (वास्तविक) प्रत्यक्ष तीन प्रकार का है : अवधि, मनःपर्याय और केवल। ये तीनों इन्द्रिय एवं मन किसी की भी अपेक्षा रखे बिना केवल आत्मशक्ति से प्रकट होते हैं। अतः ये अतीन्द्रिय ज्ञान हैं।
अवधि का विषय रूपी (मूर्त) द्रव्य हैं अर्थात् अवधिज्ञान रूपी द्रव्यों को प्रत्यक्ष करता है।
अवधिज्ञान के असंख्य भेद हैं। ऐसा उच्च कोटि का भी अवधिज्ञान होता है जो मनोद्रव्य को ग्रहण कर सकता है और कार्मिक द्रव्यों को भी जान सकता है।
मनःपर्यायज्ञान भी रूपी द्रव्यों को ही ग्रहण करनेवाला ज्ञान है। परन्तु रूपी द्रव्य दूसरा कोई नहीं, केवल मनोद्रव्य (मनरूप से परिणत पुद्गल) ही। कहने का अभिप्राय यह है कि मनःपर्यायज्ञान मनुष्यलोक में रहनेवाले संज्ञी पंचेन्द्रिय जीवों के मनोद्रव्य को ग्रहण करता है। इस कारण मनःपर्यायज्ञान का विषय अवधिज्ञान के विषय का अनन्तवाँ भाग कहा है।
मनःपर्याय ज्ञान से दूसरे के मन में जिस वस्तु का चिन्तन हो रहा हो उस वस्तु का ज्ञान नहीं होता, परन्तु विचार करते समय मन की (मनोद्रव्य की) जो आकृतियाँ बनती हैं उन आकृतियों का ही साक्षात्कार होता है। चिन्त्यमान वस्तु का ज्ञान तो पीछे से अनुमान द्वारा होता है। जिस प्रकार हम पुस्तक आदि में छपी हुई लिपि को प्रत्यक्ष देखते हैं उसी प्रकार मनःपर्यायज्ञान मनोद्रव्य की विशिष्ट आकृतियों को प्रत्यक्ष देखता है। इन आकृतियों का साक्षात्कार ही मनःपर्याय की साक्षात्क्रिया है। परन्तु लिपिदर्शन पर से (लिपि पढ़कर) हमें जो ज्ञान होता है वह प्रत्यक्ष नहीं किन्तु शाब्दबोध (श्रुतज्ञान) है उसी प्रकार मनोद्रव्य की विशिष्ट आकृतियों के दर्शन (साक्षात्कार) से जो चिन्त्यमान वस्तुओं का ज्ञान होता है वह प्रत्यक्ष नहीं किन्तु अनुमानज्ञान है और वह मनःपर्याय की सीमा की बाहर का है।
अवधि और मनःपर्याय के बीच विशुद्धि, क्षेत्र, स्वामी और विषय द्वारा भेद बतलाया जाता है।
अवधिज्ञान की अपेक्षा मनःपर्यायज्ञान अपने विषय को अधिक स्पष्टरूप से जानता है। यह हुआ विशुद्धिकृत भेद। कोई अवधिज्ञान अत्यन्त अल्प सीमा का स्पर्श करता है तो कोई उससे कुछ अधिक सीमा का। यह तारतम्य असंख्य प्रकार का है। इससे अवधिज्ञान के असंख्य भेद होते हैं। उच्चतम अवधिज्ञान सम्पूर्ण लोक का (समग्र लोक के सम्पूर्ण रूपी द्रव्यों का) स्पर्श करता है-उसे जानता है, जबकि मनःपर्यायज्ञान का विषयक्षेत्र मनुष्यक्षेत्र ही है। यह हुआ क्षेत्रकृत भेद। अवधिज्ञान का स्वामी मनुष्य, तिर्यंच, देव और नारक चारों गति के जीव हो सकते हैं, जबकि मनःपर्यायज्ञान का स्वामी केवल सर्वविरत मनुष्य ही हो सकता है। यह हुआ स्वामिकृत भेद। अवधइ का विषय उत्कृष्टरूप से सम्पूर्ण रूपी द्रव्य हैं, जबकि मनःपर्याय ज्ञान का विषय उसका अनन्तवाँ भाग है, अर्थात् केवल मनोद्रव्य है। यह हुआ विषयकृत भेद।
मनःपर्यायज्ञान का विषय अल्प होने पर भी अवधिज्ञान की अपेक्षा वह विशुद्धतर माना गया है। इसका कारण स्पष्ट है। विशुद्धि का आधार विषय की न्यूनाधिकता पर नहीं, किन्तु विषय में रही हुई न्यूनाधिक सूक्ष्मताओं के जानने में है। जैसे कि, दो मनुष्यों में एक ऐसा है जो अनेक शास्त्रों को जानता है और दूसरा एक ही शास्त्र को जानता है। अब, यदि एक ही शास्त्र को जाननेवाला अपने शास्त्र-विषय को उस अनेकशास्त्रज्ञ मनुष्य की अपेक्षा अधिक गहराई से, अधिक सूक्ष्मता से जानता हो तो उसका उस विषय का ज्ञान उस अनेक शास्त्रज्ञ मनुष्य के ज्ञान की अपेक्षा विशुद्ध कहलायगा, उच्चतर समझा जायगा। इसी प्रकार विषय अल्प होने पर भी उसकी सूक्ष्मताओं को अवधिज्ञान की अपेक्षा विशेष रूप से जाननेवाला मनःपर्याय ज्ञान अवधिज्ञान की अपेक्षा विशुद्धतर समझा जाता है।
अवधिज्ञान, मनःपर्याय ज्ञान और केवलज्ञान ये तीनों ज्ञान पारमार्थिक प्रत्यक्ष की श्रेणी के हैं। इनमें अन्तिम ज्ञान सर्ववित् (रूपी, अरूपी सर्वविषयग्राही) है, अतः वह सकल-प्रत्यक्ष कहलाता है, जबकि पहले के दो (अवधि और मनःपर्याय) अपूर्ण प्रत्यक्ष होने के कारण विकलप्रत्यक्ष कहे गए हैं।
अब ‘ज्ञान’ से पूर्व अल्प समय के लिये चमकनेवाले ‘दर्शन’ को देखें। इसके चक्षुर्दर्शन, अचक्षुर्दर्शन, अवधिदर्शन और केवलदर्शन इस प्रकार चार भेद किए गए हैं। चक्षु द्वारा होनेवाले प्रत्यक्ष ज्ञान से पूर्व जो दर्शन होता है वह चक्षुर्दर्शन और चक्षु के अतिरिक्त दूसरी इन्द्रियों तथा मन द्वारा होनेवाले प्रत्यक्ष से पूर्व जो दर्शन होता है वह अचक्षुर्दर्शन है। अवधिज्ञान से पहले होनेवाला अवधिदर्शन और केवलज्ञान का पूर्ववर्ती केवलदर्शन है। मनःपर्याय ज्ञान के पहले ‘दर्शन’ नहीं माना गया। इस बारे में ऐसी कल्पना होती है कि अवधिज्ञान का जो प्रकार मनोद्रव्य का स्पर्श करता है वही विशेष सूक्ष्म होने पर ‘मनःपर्यायज्ञान’ होता है। अतः इसके पूर्वगामी दर्शन के रूप में अवधिदर्शन के अतिरिक्त अन्य किसी दर्शन की खोज करने की आवश्यकता नहीं है। महान् आचार्य सिद्धसेन दिवाकर अपनी ‘निश्चयद्वात्रिंशिका’ में अवधिज्ञान असंख्य भेदवाला होने से मनःपर्याय ज्ञान को उसका एक भेदरूप मान कर उसी में (अवधिज्ञान में) उसे अन्तर्गत करते हैं।
दर्शन से होनेवाला सामान्य बोध इतना अधिक सामान्य स्थिति का है कि मिथ्यादृष्टि और सम्यग्दृष्टि के दर्शन में कुछ फर्क नहीं पड़ता।
सम्यग्दृष्टि के मति, श्रुत एवं अवधि सम्यग्ज्ञानरूप और मिथ्यादृष्टि के वे मिथ्याज्ञान अथवा अज्ञानरूप माने गए है।
इस बात पर थोड़ा दृष्टिपात करें।
न्यायशास्त्र में विषय के यथार्थ ज्ञान को प्रमाण और अयथार्त ज्ञान को अप्रमाण कहा गया है। इस प्रकार का सम्यग्-असम्यग्ज्ञान का विभाग जैन अध्यात्मशास्त्र को मान्य है ही; परन्तु सम्यग्दृष्टि का ज्ञान सम्यग्ज्ञान और मिथ्यादृष्टि का ज्ञान मिथ्याज्ञान अथवा अज्ञान-इस प्रकार के निरूपण के पीछे जैनदर्शन की एक खास दृष्टि है। और वह यह कि जिस ज्ञान से आध्यात्मिक उत्कर्ष हो वह सम्यग्ज्ञान और जिस ज्ञान से आध्यात्मिक पतन हो वह मिथ्याज्ञान। सम्यग्दृष्टि जीव को भी संशय हो सकता है, भ्रम हो सकता है, अधूरी समझ हो सकती है, फिर भी वह कदाग्रहरहित और सत्यगवेषक होने से विशेषदर्शी सुज्ञ के अवलम्बन से अपनी भूल सुधारने के लिये तत्पर रहता है और सुधार भी लेता है। वह अपने ज्ञान का उपयोग मुख्यतः विषयवासना के पोषण में न करके आध्यात्मिक विकास के साधन में ही करता है। सम्यग्दृष्टिरहित जीव की स्थिति इससे विपरीत होती है। उसे सामग्री की बहुलता के कारण निश्चयात्मक और स्पष्ट ज्ञान हो सकता है, परन्तु कदाग्रह एवं अहंकारवश, अपनी भूल मालूम होने पर भी उसे सुधारने के लिये वह तैयार नहीं होता। झूठ को भी सच मानने-मनवाने का वह प्रयत्न करता है, सच्ची बात जानने पर भी कदाग्रहादि दोष के कारण, उसे स्वीकाने में हिचकता है। अभिमान के कारण, जो पका हो वह चाहे मिथ्या हो, चाहे वह गलत तरीके का हो परन्तु उसे वह छोड़ता नहीं है। अहंकार के आवेश में विशेषदर्शी विज्ञ के विचारों को भी वह तुच्छ मानने लगता है। वह आत्मदृष्टि अथवा आत्मभावना से शून्य होता है। अतः अपने ज्ञान का उपयोग वह आध्यात्मिक हितसाधन में न कर के सांसारिक भोगवासना के पोषण में-उसे सन्तुष्ट करने में ही करता है। भौतिक उन्नति प्राप्त करने में ही उसके ज्ञान की इतिश्री होती है।
कहने का अभिप्राय यह है कि जो मुमुक्षु आत्मा होते हैं वे समभाव के अभ्यासी और आत्मविवेकसम्पन्न होते हैं। इससे वे अपने ज्ञान का उपयोग समभाव की पुष्टि में करते हैं, न कि सांसारिक वासना की पुष्टि में। इस कारण लौकिक दृष्टि से उनका ज्ञान चाहे-जितना अल्प क्यों न हो, फिर भी वह सम्यग्ज्ञान कहलाता है; क्योंकि वह उन्हें सन्मार्ग पर ले जाता है। इसके विपरीत संसारभावना के रस में लोलुप आत्माओं का ज्ञान चाहे-जितना विशाल और स्पष्ट क्यों न हो, वह समभाव का उद्भावक न होने से और संसारभावना का पोषक होने के कारण ज्ञान न कहा जा कर अज्ञान कहलाता है। क्योंकि उनका वह ज्ञान उन्हें वास्तविक कुशलमार्ग पर ले जाने के बदले दुर्गति के मार्ग पर ले जाता है। संसारवासना के पोषण में उपयुक्त ज्ञान कुशलमार्गी कैसे कहा जा सकता है? वह तो उन्मार्गी ही कहलायगा। इससे ऐसा ज्ञान मिथ्याज्ञान-अज्ञान कहलाए यह स्पष्ट है।
वस्तुस्थिति ऐसी है कि प्राप्त किए हुए ज्ञान का सदुपयोग भी हो सकता है और दुरुपयोग भी। प्राप्त किए हुए ज्ञान के बारे में सम्यक्त्वी और मिथ्यात्वी की दृष्टि भिन्न-भिन्न होती है। सम्यक्त्वी अपने ज्ञान का सदुपयोग करने की ओर वृत्ति रखेगा। और यदि आवेश अथवा स्वार्थवश उसका दुरुपयोग हो जाय तो उससे उसका अन्तःकरण खटकेगा, खिन्न होगा; जबकि मिथ्यात्वी भौतिक विषयानन्द का उपासक होने के कारण अपने ज्ञान का वह अपने संकुचित स्वार्थ के लिये चाहे किसी प्रकार से उपयोग करेगा। उससे यदि कोई दुष्कृत्य अथवा पापाचरण हो जाय तो उसे उसके लिये कुछ दुःख नहीं होगा, उलटा उसमें वह आनन्द मानेगा। सम्यक्त्वी मनुष्य सत् को सत् और असत् को असत् समझता है, अतः उससे यदि कोई पापाचरण हो जाय तो उसके लिये उसे दुःख होता है। वह कल्याणबुद्धि और श्रेयार्थी आत्मा होने से कल्याण के, आत्मोद्धार के मार्ग पर चलता है, जबकि मिथ्यात्वी को पुण्य-पापका भेद मान्य न होनेसे ऊपर उपरसे ‘साहुकार’ जैसा क्यों न बरतता हो, प्रामाणिक क्यों न दीखता हो, फिर भी उसकी मनोदशा मिथ्यादृष्टि से दूषित होती है। और उसकी ऐसी स्थिति जबतक चालू रहे तबतक उसके निस्तार का कोई मार्ग नहीं है।
इस प्रकार जैन-दर्शन ने अध्यात्मदृष्टि को सन्मुख रखकर ही ज्ञान का सम्यग्-असम्यग् रूपसे विभाजन किया है।
जीव की स्वाभाविक और वैभाविक अवस्थाएँ बतलाने के लिये ‘भाव’ का निरूपण किया गया है। ‘भाव’ अर्थात् अवस्था। भाव पाँच प्रकार के हैं : औपशमिक भाव, क्षायिक भाव, क्षायोपशमिक भाव, औदयिक भाव और पारिणामिक भाव। अब इन्हें देखना शरू करें।
आठ प्रकार के कर्मों का उल्लेख पहले हो चुका है : ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, वेदनीय, मोहनीय, आयुष्य, नाम, गोत्र और अन्तराय। इन कर्मों का स्वरूप पुनः यहाँ पर याद कर के आगे चलें।
ज्ञान के बारे में आगे किए गए विवेचन पर से देखा जा सकता है कि मति, श्रुत, अवधि, मनःपर्याय और केवल इस प्रकार ज्ञान के पाँच भेद होने से उनके आवारक कर्म भी पाँच प्रकार के होंगे। अर्थात् मतिज्ञानावरण, श्रुतज्ञानावरण, अवधिज्ञानावरण, मनःपर्यायज्ञानावरण और केवलज्ञानावरण-इस प्रकार ज्ञानावरण कर्म के पाँच भेद होते हैं। मनुष्यों (प्राणियों) में बुद्धि का जो कमोवेश विकास देखा जाता है वह इस ज्ञानावरण कर्म के कमोवेश क्षयोपशम (शिथिलीभाव) के कारण है। दर्शन के चक्षुर्दर्शन, अचक्षुर्दर्शन, अवधिदर्शन और केवलदर्शन ऐसे चार भेद होने से उनके आवारक कर्म भी चक्षुर्दर्शनावरण, अचक्षुर्दर्शनावरण, अवधिदर्शनावरण और केवलदर्शनावरण रूपसे चार प्रकार के हैं। निद्रा-पंचक का भी दर्शनावरणीय में समावेश किया गया है। वेदनीय कर्म के सातवेदनीय और असातवेदनीय ऐसे दो भेद बतलाए हैं। मोहनीय कर्म के दो भेद बताए हैं - दर्शनमोहनीय और चारित्रमोहनीय। आयुष्य कर्म, नाम कर्म, गोत्र कर्म और अन्तराय कर्म के स्वरूप का उल्लेख पहले किया जा चुका है। दान, लाभ, भोग, उपभोग और वीर्यशक्ति में विघ्न उपस्थित करनेवाले अन्तराय कर्म के दानान्तराय, लाभान्तराय, भोगान्तराय, उपभोगान्तराय और वीर्यान्तराय ऐसे पाँच भेद किए गए हैं। मनुष्यों में (प्राणियों में) जो कमोबेश कार्यशक्ति देखी जाती है उसका कारण अन्तराय कर्म का न्यूनाधिक क्षयोपशम (शिथिलीभाव) है। दानान्तराय आदि का प्रभाव संसार में देखा जाता है और उनके क्षयोपशम से उपलब्ध दानादि सिद्धियाँ भी देखी जाती हैं।

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