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Sunday, 1 March 2015
बारह देवलोको में कितने जिनमंदिर एवं जिनप्रतिमाएँ हैं
देवलोक जिनमंदिर जिन प्रतिमा
पहला देवलोक बत्तीस लाख सत्तावन करोड सात लाख
दूसरा देवलोक अट्ठावीस लाख पचास करोड चालीस लाख
तीसरा देवलोक बारह लाख इक्किस करोड साठ लाख
चौथा देवलोक आठ लाख चौदह करोड चालीस लाख
पांचवां देवलोक चार लाख सात करोड बीस लाख
छट्ठा देवलोक पचास हजार निब्बे लाख
सातवां देवलोक चालीस हजार बहत्तर लाख
आठवां देवलोक छह हजार एक लाख साठ हजार
नौवां-दसवां देवलोक चार सौ बहत्तर हजार
ग्यारहवां-बारहवां देवलोक तीन सौ चौपन हजार
देवताओं का किस प्रकार का कामसुख होता है ?
1. भवनपति, व्यंतर, ज्योतिष्क, वाणव्यंतर, तिर्यग्जृंभक देव तथा प्रथम सौधर्म तथा द्वितीय ईशान देवलोक तक के देव मनुष्य की भाँति कामसुख का सेवन करते हैं ।
2. तीसरे सनत्कुमार एवं चौथे माहेन्द्र देवलोक के देव, देवियों के स्पर्श से ही तृप्त हो जाते हैं ।
3. पांचवें ब्रह्मलोक एवं छट्ठे लांतक कल्प के देव, देवीयों के शृंगार-रुप को देखकर ही संतुष्टि प्राप्त कर लेते हैं ।
4. सातवें महाशुक्र एवं आठवें सहस्रार स्वर्ग के देव, देवियों के शब्द सुनकर ही कामसुख का अनुभव कर लेते हैं ।
5. नौंवे से बारहवें देवलोक के देवों की कामेच्छा देवियों के चिन्तन से ही पूर्ण हो जाती है ।
6. बारहवें देवलोक से उपर नवग्रैवेयक और पांच अनुत्तर वैमानिक देव कामवासना से मुक्त होते हैं । इस प्रकार कामवासना क्रमशः कम होती जाती है ।
1. समय किसे कहते है ?
काल का अत्यंत सूक्ष्म अंश, जिसका केवली के ज्ञान में भी विभाग न हो सके, उसे समय कहते है ।
2. समय की सूक्ष्मता को समझाने के लिये उदाहरण दीजिये ?
आंख मींच कर खोलने में असंख्यात समय व्यतीत हो जाते है । उन असंख्यात समयों की एक आवलिका होती है । समय की सूक्ष्मता को इस उदाहरण द्वारा भी समझ सकते है, जैसे – अति जीर्ण वस्त्र को त्वरा से फाडने पर एक तंतु से दूसरे तंतु को फटने में जो समय लगता है, वह भी असंख्य समय प्रमाण है ।
3. पक्ष किसे कहते है ?
पन्द्रह दिनों का एक पक्ष होता है ।
4. पक्ष कितने प्रकार के होते है ?
पक्ष दो प्रकार के होते है – 1.कृष्ण पक्ष 2.शुक्ल पक्ष ।
5. मास किसे कहते है ?
2 पक्ष का अथवा 30 अहोरात्र का एक मास होता है ।
6. अहोरात्र किसे कहते है ?
दिन और रात को अहोरात्र कहते है ।
7. एक अहोरात्र में कितनी घडी होती है ?
एक अहोरात्र में साठ घडी (24 घंटे या 30 मुहूर्त) होती है ।
8. एक घडी का परिमाण कितना होता है ?
एक घडी का परिमाण 24 मिनिट होता है ।
9. एक मुहूर्त में कितनी घडी होती है ?
एक मुहूर्त में दो घडी होती है ।
10. एक वर्ष में कितने मास होते है ?
एक वर्ष में 12 मास होते है ।
11. एक वर्ष में कितनी ऋतुएँ होती हैं ?
एक वर्ष में छह ऋतुएँ होती हैं – 1.हेमंत 2.शिशिर 3.वसंत 4.ग्रीष्म 5.वर्षा 6.शरद ।
12. एक ऋतु में कितने मास होते है ?
एक ऋतु में दो मास होते है ।
13. एक अयन कितनी ऋतु का होता है ?
तीन ऋतु अर्थात् छह माह का एक अयन (दक्षिणायन या उत्तरायण) होता है ।
14. एक युग कितने वर्ष का होता है ?
एक युग पांच वर्ष का होता है ।
15. एक वर्ष कितने अयन का होता है ?
एक वर्ष दो अयन का होता है ।
16. कितने वर्ष का एक पूर्वांग होता है ?
84 लाख वर्ष का एक पूर्वांग होता है ।
17. एक पूर्व में कितने पूर्वांग अथवा कितने वर्ष होते हैं ?
एक पूर्व 84 लाख पूर्वांग अथवा सत्तर लाख छप्पन्न हजार करोड वर्ष होते हैं ।
18. पल्योपम कितने वर्षो का होता है ?
असंख्यात वर्षो का एक पल्योपम होता है ।
19. पल्योपम की व्याख्या किजिए ?
उत्सेधांगुल के माप से एक योजन (चार कोष) लंबा, चौडा, गहरा, एक कुआं, जिसको सात दिन की उम्र वाले युगलिक बालक के एक एक केश के असंख्य असंख्य टुकडों से इस तरह ठसा-ठस भर दिया जाय कि उसके उपर से चक्रवर्ती की विशाल सेना पसार हो जाय तब भी उसके ठसपण में किंचित् मात्र भी फर्क न आये । उस कूप में से प्रति समय में एक-एक केश का टुकडा निकाले । इस प्रकार करते हुए जब केश राशि से पूरा कुआं खाली हो जाय, उतने समय की अवधि अथवा परिमाण को बादर उद्धार पल्योपम कहते है ।
20. कितने पल्योपम का एक सागरोपम होता है ?
10 कोडाकोडी पल्योपम का एक सागरोपम होता है ।
21. कोडाकोडी किसे कहते है ?
करोड को करोड से गुणा करने पर जो संख्या आती है, उसे कोडाकोडी कहते है ।
22. कितने सागरोपम की एक उत्सर्पिणी अथवा अवसर्पिणी होती है ?
दस कोडाकोडी सागरोपम की एक उत्सर्पिणी अथवा अवसर्पिणी होती है ।
23. कालचक्र किसे कहते है ?
एक उत्सर्पिणी तथा एक अवसर्पिणी काल का एक कालचक्र होता है ।
24. एक कालचक्र कितने सागरोपम का होता है ?
एक कालचक्र 20 कोडाकोडी सागरोपम का होता है ।
माप विवेचन
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1. सुई की नोंक जितने स्थान को घेरती है, उस भाग का असंख्यातवां भाग अंगुल का असंख्यातवां भाग कहलाता है
2. छह अंगुल की एक मुट्ठी होती है
3. दो मुट्ठी की एक बेंत होती है
4. एक हाथ दो बेंत का होता है
5. एक दण्ड दो हाथ का होता है
6. एक धनुष्य दो दण्ड का होता है
7. 2 हजार धनुष्य का एक कोस होता है
8. कोस का अपर नाम गाऊ । है
9. चार कोस का एक योजन होता है
देवलोक की विशिष्टता
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1. वैमानिक देवताओं के पहले स्वर्ग में 32 लाख, दूसरे स्वर्ग में 28 लाख, तीसरे स्वर्ग में 12 लाख, चौथे स्वर्ग में 8 लाख, पांचवें स्वर्ग में 4 लाख, छट्ठे स्वर्ग में 50 हजार, सातवें स्वर्ग में 40 हजार, आठवें स्वर्ग में 6 हजार, नवमें से बारहवें स्वर्ग में 700, प्रथम तीन ग्रैवेयकों में 111, अगले तीन ग्रैवेयकों में 107, अंतिम तीन ग्रैवेयकों में 100 और पांच अनुत्तरों में पांच विमान हैं । इस प्रकार देवों का परिग्रह उत्तरोत्तर कम होता जाता है ।
2. बारह देवलोक :- ज्योतिष्चक्र से असंख्यात योजन उपर सौधर्म और ईशान कल्प है, उनके बहुत उपर समश्रेणी में सनत्कुमार और माहेन्द्र कल्प है । उनके उपर किन्तु मध्य में ब्रह्मलोक है । उसके उपर समश्रेणी में लान्तक, महाशुक्र, सहस्रार ये तीनों कल्प एक दूसरे के उपर क्रमशः स्थित है । इनके उपर सौधर्म-ईशान की भाँति आनत और प्राणत कल्प स्थित है । उनके उपर समश्रेणी में आनत के उपर आरण और प्राणत के उपर अच्युत कल्प स्थित हैं ।
3. बारह वैमानिक देवलोकों के उपर स्थित नौ देव विमानों को ग्रैवेयक कहा जाता है
4. यह संपूर्ण चोदह राजलोक पुरूषाकृति में है और वे नौ देव विमान पुरुषाकृति में ग्रीवा स्थली में स्थित होने के कारण नवग्रैवेयक कहलाते हैं ।
5. पांच अनुत्तर विमान के देवों की विशिष्टता
पांच अनुत्तर विमानों में सर्वार्थसिद्ध विमानवासी देवों का च्यवन (मृत्यु) होने के बाद केवल एक बार मनुष्य जन्म धारण करते हैं और उसी भव में मोक्ष जाते हैं । शेष चार अनुत्तर वैमानिक देव द्विचरमावर्ती होते हैं । अधिक से अधिक दो मनुष्य भव धारण करके मोक्ष में जाते हैं । इन चारों का क्रम इस प्रकार हैं, देवलोक से च्युत होकर मनुष्य जन्म, फिर अनुत्तर विमान में जन्म और मनुष्य जन्म धारण करके मोक्ष जाते हैं ।
उपाध्याय विनयविजयजी ने अपने गेय काव्य 'शांत सुधारस भावना" में संसार के स्वरूप का चित्रांकन करते हुए लिखा है-
रंगस्थानं पुद्गलानां नटानां, नानारूपैर्नृत्यतामात्मनां च.
कालोद्योगस्वस्वभावादिभावै: कर्मातोद्यैर्नर्तितानां नियत्या.
यह लोक एक रंगमंच है. इसमें जीव और पुद्गल रूपी नट अनेक रूपों में नृत्य कर रहे हैं. काल, पुरुषार्थ, स्वभाव आदि भाव, कर्म रूप वाद्य तथा नियति ये सब नाचने में उनको सहयोग कर रहे हैं. इस वास्तविक रंगमंच को छोड़कर मनुष्य कृत्रिम नाटक देखने की व्यवस्था जुटाता है. सम्भवत: वह इस बात को भूल जाता है कि इस संसार में जन्म लेना, हंसना, रोना, सम्बंध बनाना, मरना आदि जितनी विचित्र क्रियाएं हैं, वे सब एक नाटक के छोटे-छोटे हिस्से हैं. इस स्वाभाविक नाटक से आंखमिचौनी कर टेलीविजन और वी.सी.आर. से मन बहलाना कहां की समझदारी है?
पुद्गल और जीव का संयोग संसार है. जैनदर्शन में पुद्गल शब्द बहुचर्चित है. पर व्यवहार जगत में या वैज्ञानिक क्षेत्र में इसको समझने वाले अधिक व्यक्ति नहीं हैं. वहां पुद्गल शब्द के लिए मैटर शब्द का प्रयोग होता है. मैटर क्या है? यह पूरा दृश्य जगत मैटर है. यह जगत स्कंध के रूप में हो, परमाणु के रूप में हो, या अन्य किसी रूप में. केवल दृश्य ही नहीं, श्रव्य, गेय, आस्वाद्य और सूंघने योग्य पदार्थ भी मैटर की सीमा से बाहर नहीं रह सकते.
'जब जागे तभी सबेरा से"
ब्रम्ह्चर्य
पर के पास जितना जाओगे, आत्मा से उतने ही दूर हो जाओगे ।
शुक देव को 20 साल की अवस्था में वैराग्य हो गया ओर उन्होंने घर छोड़ दिया । उनके पीछे-पीछे उनके पिता उन्हें वापस लाने के लिये जा रहे थे। जब वे एक सरोवर के पास से निकले, उसमें नहाती हुयीं स्त्रीयों ने शुक देव के निकलने पर अपने वस्त्र ठीक नहीं किये, पर जब 80 वर्षीय पिता पास से निकले तब उन्होंने अपने शरीरों को ढ़कना शुरु कर दिया ।
पिता के पूछ्ने पर स्त्रीयों ने कहा- बात उम्र की नहीं है । यदि द्रष्टि सही हो तो कपड़े संभालने की जरुरत नहीं है ।
ब्रम्ह्चर्य, सिर्फ शरीरिक पवित्रता ही नहीं बल्कि द्रष्टि की निर्मलता का नाम है।
मुनि श्री क्षमासागर जी
निर्वाण के पश्चात् तीर्थंकर के शरीर-संस्कार :-
"तीर्थंकर का निर्वाण होने पर देवेन्द्र ने आज्ञा दी कि गोशीर्ष व चंदन काष्ठ एकत्र कर चितिका बनाओ, क्षीरोदधि से क्षीरोदक लाओ, तीर्थंकर के शरीर को स्नान कराओ, और उसका गोशीर्षचंदन से लेप करो। तत्पश्चात् शक्र ने हंसचिन्ह-युक्त वस्त्रशाटिका तथा सर्व अलंकारों से शरीर को भूषित किया, व शिविका द्वारा लाकर चिता पर स्थापित किया। अग्निकुमार देव ने चिता को प्रज्वलित किया, और पश्चात् मेघ कुमार देव ने क्षीरोदक से अग्नि को उपशांत किया। शक्र देवेन्द्र ने भगवान् की ऊपर की दाहिनी व ईशान देव ने बांयी सक्थि (अस्थि) ग्रहण की, तथा नीचे की दाहिनी चमर असुरेन्द्र ने, व बांयी बलि ने ग्रहण की। शेष देवों ने यथायोग्य अवशिष्ट अंग-प्रत्यंगों को ग्रहण किया। फिर शक्र देवेन्द्र ने आज्ञा दी कि एक अतिमहान् चैत्य स्तूप भगवान् तीर्थंकर की चिता पर निर्माण किया जाय; एक गणधर की चिता पर और एक शेष अनगारों की चिता पर। देवों ने तदनुसार ही परिनिर्वाण महिमा की। फिर वे सब अपने-अपने विमानों व भवनों को लौट आये, और अपने-अपने चैत्य-स्तंभों के समीप आकर उन जिन-अस्थियों को वज्रमय, गोल वृत्ताकार समुद्गकों (पेटिकाओं) में स्थापित कर उत्तम मालाओं व गंधों से उनकी पूजा-अर्चा की।"
चतुर्विध संघ की संस्थापना :-
भगवान ऋषभदेव इस अवसर्पिणी कालचक्र के प्रथम तीर्थंकर थे । उनके जन्म से पूर्व भारत भूमि अकर्म भूमि थी । यहॉं के निवासियों के जीवन में अकर्मण्यता थी । कल्पवृक्षों से मनुष्यों की जीवन यापन सम्बन्धी आवश्कताएँ पूर्ण हो जाती थीं, इसलिए मनुष्यों की कर्म में न रूचि थी, और न हीं उन्हें कर्म का महत्व ज्ञात था ।
ऋषभदेव के जन्म के पश्चात् स्तिथियाँ बदल गई । कल्पवृक्षों की शक्ति क्षीण होने लगी थीं । जनसंख्या में वृद्धि हो रही थी । मनुष्यों की आवश्कताएँ कल्पवृक्षों से पूर्ण नहीं हो पा रही थीं । मॉंग की तुलना में वस्तुएँ कम थीं । ऐसे में मनुष्यों में पारस्परिक विग्रह और असंतोष उभरने लगा ।
उस समय ऋषभदेव ने कर्मयुग की संस्थापना की । उन्होंने मनुष्य को कर्म की विधि और उसके महत्व से परिचित कराया । फलतः कृषि विज्ञान का सूत्रपात हुआ । कर्म में निष्ठाशील बनने पर तत्युगीन मानव की आवश्कताएँ सहज ही पूर्ण होने लगी ।
कर्म विज्ञान से तत्युगीन मानव को परिचित कराने के पश्चात् ऋषभदेव ने उसे धर्म विज्ञान से परिचित कराने के लिए महाभिनिष्क्रमण किया । कैवल्य पद प्राप्त कर उन्होंने धर्मतीर्थ की संस्थाना की । उन्होंने मानव को संदेश दिया धर्म ही वह अमृत-तत्व है जो आत्मा को उसके परम स्वरूप परमात्मा में प्रतिष्ठित करता है । धर्मामृत का पान करके आत्मा सदा-सदा के लिए जन्म और मृत्यु के विष से मुक्त बन जाता है ।
इस तरह विश्व में प्रथम बार धर्म चक्र का परावर्तन हुआ । भगवान ऋषभदेव ने धर्म तीर्थ के रूप में चतुर्विध संघ की संस्थापना की । उनके चतुर्विध संघ का स्वरूप था श्रमण, श्रमणी, श्रावक और श्राविका ।
उपरोक्त विवरण से सहज ही यह निष्कर्ष निकलता है कि धर्म और कर्म के संदर्भ में विश्व मानव के आदीम संस्कर्ता भगवान ऋषभदेव थे । वर्तमान श्रमण संघ के जिस स्वरूप की मैं चर्चा करूँगा उसका उद्भव भी भगवान ऋषभदेव से ही हुआ है ।
भगवान महावीर भगवान ऋषभदेव की परम्परा के अन्तिम स्वयं-बुद्ध {तीर्थंकर} महापुरूष थे । वे जैन धर्म अथवा श्रमण संघ के संस्थापक नहीं थे, बल्कि वे उसके पुनर्संस्कर्ता थे । धर्मतत्व की ज्योति मंद पड़ने लगी थी । महावीर ने उस ज्योति को पुनः अमन्द बना दिया ।
अनन्त ज्ञान और अनन्त दर्शन से महावीर ने साक्षात्कार साधकर परम पद प्राप्त कर लिया था । परम पद पर प्रतिष्ठित महावीर की आत्मा से करूणा का महान प्रस्फुटित हुआ । उन्होंने जन्म-मरण, आधि, व्याधि और उपाधि के दावानल में सुलगते जीव जगत को देखा । महावीर की करूणा अनन्त-अनन्त धाराओं में बह चली । उन्होंने जगत को धर्मोंपदेश रूपी अमृत जल से सिंचित किया । उनके उपदेश से असंख्य मनुष्यों में सद्धर्म से जीने की प्यास जाग्रत हुई । हजारों मनुष्यों ने महावीर के महापथ पर बढ़ने का सत्संकल्प किया ।
जगत् कल्याण के लिए महावीर ने धर्म तीर्थ की पुनर्स्थापना की । उनके धर्मतीर्थ के चार अंग थे -
1- श्रमण तीर्थ, 2- श्रमणी तीर्थ, 3- श्रावक तीर्थ और 4- श्राविका तीर्थ ।
अल्प कालावधि में ही हजारों पुरूष और स्त्रियॉं श्रमण, श्रमणी, श्रावक और श्राविका के रूप में महावीर-प्ररूपित धर्म के अनुगामी बन गए । यही चतुर्विध-तीर्थ चतुर्विध-संघ के रूप में साकार हुआ ।
जैन धर्म की मुख्य बातें :-
तीर्थंकर :-
जब मनुष्य ही उन्नति करके परमात्मा बन जाए तो वह तीर्थंकर कहलाता है।दूसरे पक्ष से देखें तो 'तीर्थ' कहते हैं घाट को, किनारे को, तो धर्म-तीर्थ का प्रवर्तन करने वाले 'तीर्थंकर' कहे जाते हैं। जबकि अवतार तो परमात्मा के, ईश्वर के प्रतिरूप माने जाते हैं, जो समय-समय पर अनेक रूपों में जन्म लेते हैं।
जैन धर्म के अनुसार 24 तीर्थंकर हो गए हैं। पहले तीर्थंकर ऋषभनाथजी हैं तो चौबीसवें महावीर स्वामी। ऋषभनाथ को 'आदिनाथ', पुष्पदन्त को 'सुविधिनाथ' और महावीर को 'वर्द्धमान, 'वीर', 'अतिवीर' और 'सन्मति' भी कहा जाता है।
सम्प्रदाय :-
जैन धर्म मानने वालों के मुख्य रूप से दो आम्नाय (सम्प्रदाय) हैं- दिगम्बर और श्वेताम्बर।
दिगम्बर सम्प्रदाय के मुनि वस्त्र नहीं पहनते। 'दिग्' माने दिशा। दिशा ही अम्बर है, जिसका वह 'दिगम्बर'। वेदों में भी इन्हें 'वातरशना' कहा है। जबकि श्वेताम्बर सम्प्रदाय के मुनि सफेद वस्त्र धारण करते हैं। कोई 300 साल पहले श्वेताम्बरों में ही एक शाखा और निकली 'स्थानकवासी'। ये लोग मूर्तियों को नहीं पूजते। जैनियों की तेरहपंथी, बीसपंथी, तारणपंथी, यापनीय आदि कुछ और भी उपशाखाएँ हैं। जैन धर्म की सभी शाखाओं में थोड़ा-बहुत मतभेद होने के बावजूद भगवान महावीर तथा अहिंसा, संयम और अनेकांतवाद में सबका समान विश्वास है।
आगम ग्रंथ :-
भगवान महावीर ने सिर्फ उपदेश ही दिए। उन्होंने कोई ग्रंथ नहीं रचा। बाद में उनके गणधरों ने, प्रमुख शिष्यों ने उनके उपदेशों और वचनों का संग्रह कर लिया। इनका मूल साहित्य प्राकृत में है, विशेष रूप से मागधी में।
जैन शासन के सबसे पुराने आगम ग्रंथ 46 माने जाते हैं। इनका वर्गीकरण इस प्रकार किया गया है।
अंगग्रंथ (12)- 1. आचार, 2. सूत्रकृत, 3. स्थान, 4. समवाय 5. भगवती, 6. ज्ञाता धर्मकथा, 7. उपासकदशा, 8. अन्तकृतदशा, 9. अनुत्तर उपपातिकदशा, 10. प्रश्न-व्याकरण, 11. विपाक और 12. दृष्टिवाद। इनमें 11 अंग तो मिलते हैं, बारहवाँ दृष्टिवाद अंग नहीं मिलता।
उपांगग्रंथ (12)- 1. औपपातिक, 2. राजप्रश्नीय, 3. जीवाभिगम, 4. प्रज्ञापना, 5. जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति 6. चंद्र प्रज्ञप्ति, 7. सूर्य प्रज्ञप्ति, 8. निरयावली या कल्पिक, 9. कल्पावतसिका, 10. पुष्पिका, 11. पुष्पचूड़ा और 12. वृष्णिदशा।
प्रकीर्णग्रंथ (10)- 1. चतुःशरण, 2. संस्तार, 3. आतुर प्रत्याख्यान, 4. भक्तपरिज्ञा, 5. तण्डुल वैतालिक, 6. चंदाविथ्यय, 7. देवेन्द्रस्तव, 8. गणितविद्या, 9. महाप्रत्याख्यान और 10. वीरस्तव।
छेदग्रंथ (6)- 1. निशीथ, 2. महानिशीथ, 3. व्यवहार, 4. दशशतस्कंध, 5. बृहत्कल्प और 6. पञ्चकल्प।
मूलसूत्र (4)- 1. उत्तराध्ययन, 2. आवश्यक, 3. दशवैकालिक और 4. पिण्डनिर्य्युक्ति।
स्वतंत्र ग्रंथ (2)- 1. अनुयोग द्वार और 2. नन्दी द्वार।
पुराण :-
जैन परम्परा में 63 शलाका-महापुरुष माने गए हैं। पुराणों में इनकी कथाएँ तथा धर्म का वर्णन आदि है। प्राकृत, संस्कृत, अपभ्रंश तथा अन्य देशी भाषाओं में अनेक पुराणों की रचना हुई है। दोनों सम्प्रदायों का पुराण-साहित्य विपुल परिमाण में उपलब्ध है। इनमें भारतीय इतिहास की महत्वपूर्ण सामग्री मिलती है।
मुख्य पुराण हैं- जिनसेन का 'आदिपुराण' और जिनसेन (द्वि.) का 'अरिष्टनेमि' (हरिवंश) पुराण, रविषेण का 'पद्मपुराण' और गुणभद्र का 'उत्तरपुराण'। प्राकृत और अपभ्रंश भाषाओं में भी ये पुराण उपलब्ध हैं। भारत की संस्कृति, परम्परा, दार्शनिक विचार, भाषा, शैली आदि की दृष्टि से ये पुराण बहुत महत्वपूर्ण हैं।
मेरु पर्वत :-
जिनेन्द्र मूर्तियों की प्रतिष्ठा के समय उनका पंच-कल्याण महोत्सव मनाया जाता है, जिनका संबन्ध तीर्थंकर के गर्भ, जन्म, तप, ज्ञान और निर्वाण, इन पांच महत्वपूर्ण घटनाओं से है। जन्म महोत्सव के लिये मन्दर मेरु की रचना की जाती है, क्योंकि तीर्थंकर का जन्म होने पर उसी महान् पर्वत पर स्थित पांडुक शिलापर इन्द्र उनका अभिषेक करते हैं। मन्दर मेरु का वर्णन त्रिलोक-प्रज्ञप्ति (४, १७८०) आदि में पाया जाता है। मन्दर मेरु जंबूद्वीप के व महाविदेह क्षेत्र के मध्य में स्थित है। यह महापर्वत गोलाकार है उसकी कुल ऊंचाई एक लाख योजन, व मूल आयाम १००९० योजन से कुछ अधिक है। इसका १००० योजन निचला भाग नींव के रूप में पृथ्वीतल के भीतर व शेष पृथ्वीतल से ऊपर आकाशतल की ओर है। उसका विस्तार ऊपर की ओर उत्तरोत्तर कम होता गया है, जिससे वह पृथ्वीतल पर १०००० योजन तथा शिखरभूमि पर १००० योजन मात्र विस्तार युक्त है। पृथ्वी से ५०० योजन ऊपर ५०० योजन का संकोच हो गया है, तत्पश्चात् वह ११००० योजन तक समान विस्तार से ऊपर उठकर व वहां से क्रमशः सिकुड़ता हुआ ५१५०० योजन पर सब ओर से पुनः ५०० योजन संकीर्ण हो गया है। तत्पश्चात् ११००० योजन तक समान विस्तार रखकर पुनः क्रम-हानि से २५००० योजन ऊपर जाकर वह ४९४ योजन प्रमाण सिकुड़ गया है। (१०००+५००+११०००+५१५००+११०००+२५०००=१००००० योजन। १०० योजन विस्तार वाले शिखर के मध्य भाग में बारह योजन विस्तार वाली चालीस योजन ऊंची चूलिका है, जो क्रमशः सिकुड़ती हुई ऊपर चार योजन प्रमाण रह गई है। मेरु के शिखर पर व चूलिका के तलभाग में उसे चारों ओर से घेरने वाला पांडु नामक वन है, जिसके भीतर चारों ओर मार्गों, अट्टालिकाओं, गोपुरों व ध्वजापताकाओं से रमणीक तटवेदी है। उस वेदी के मध्यभाग में पर्वत की चूलिका को चारों ओर से घेरे हुए पांडु वनखंड की उत्तरदिशा में अर्द्धचन्द्रमा के आकार की पांडुक शिला है, जो पूर्व-पश्चिम १०० योजन लम्बी व उत्तर-दक्षिण ५० योजन चौड़ी एवं ८ योजन ऊंची है। इस पांडुशिला के मध्य में एक सिंहासन है, जिसके दोनों ओर दो भद्रासन विद्यमान हैं। अभिषेक के समय जिनेन्द्र भगवान् को मध्य सिंहासन पर विराजमान कर सौधर्मेन्द्र दक्षिण पीठपर तथा ईशानेन्द्र उत्तर पीठ पर स्थित हो अभिषेक करते हैं।
अतीत तीर्थंकर वर्तमान तीर्थंकर अनागत तीर्थंकर
श्री केवलज्ञानी जी श्री ऋषभदेव जी श्री पदम्नाभस्वामीजी
श्री निर्वाणीनाथ जी श्री अजितनाथ जी श्री सुरदेवस्वामीजी
श्री सागरनाथ जी श्री संभवनाथ जी श्री सुपाष्र्वनाथ जी
श्री महायष जी श्री अभिनंदनस्वामी जी श्री स्वयंप्रभस्वामी जी
श्री विमलप्रभु जी श्री सुमतिनाथ जी श्री सर्वानुभूतिस्वामी जी
श्री सर्वानुभतिस्वामी जी श्री पद्रमप्रभुस्वामी जी श्री देवश्रुतस्वामी जी
श्री श्रीधरस्वामी जी श्री सुपा्र्श्वनाथ जी श्री उदयस्वामी जी
श्री दत्तस्वामी जी श्री चंद्रप्रभुस्वामी जी श्री पेठालस्वामी जी
श्री दामोदरस्वामी जी श्री सुविधिनाथत जी श्री पोहिलस्वामी जी
श्री सुतेजाप्रभु जी श्री शीतलनाथ जी श्री शतकीर्तिस्वामी जी
श्री स्वामिनाथ जी श्री श्रेयांसनाथ जी श्री सुव्रतनाथ जी
श्री मुनिसुव्रतस्वामी जी श्री वासुपुज्यस्वामी जी श्री अममनाथ जी
श्री सुमतिनाथ जी श्री विमलनाथ जी श्री निश्कशायस्वामी
श्री षिवगतिनाथ जी श्री अनंतनाथ जी श्री निश्पुलाकस्वामी जी
श्री अस्त्यागस्वामी जी श्री धर्मनाथ जी श्री निर्ममस्वामी जी
श्री नमीश्वरस्वामी जी श्री शांतिनाथ जी श्री चित्रगुप्तस्वामी जी
श्री अनीलनाथ जी श्री कुंथुनाथ जी श्री समाधिनाथस्वामी जी
श्री यशोधरस्वामी जी श्री अरनाथ जी श्री संवतस्वामी जी
श्री कृतार्थनाथ जी श्री मल्लीनाथ जी श्री यशोधरस्वामी जी
श्री जिनेश्वरस्वामी जी श्री मुनिसुव्रतस्वामी जी श्री विजयस्वामी जी
श्री षुध्दमतिस्वामी जी श्री नमिनाथ जी श्री मल्लीस्वामी जी
श्री शिवंकरस्वामी जी श्री नेमिनाथ जी श्री देवजिनस्वामी जी
श्री स्यन्दनस्वामी जी श्री पार्श्वनाथ जी श्री अनन्तवीर्यस्वामी जी
श्री संप्रतिस्वामी जी श्री महावीर स्वामी श्री भद्रंकरस्वामी जी
मोहनीय कर्म :-
8 प्रकार के कर्मों में मोहनीय कर्म सभी कर्मों का राजा है व राजा होने के कारण इसने अपने साम्राज्य को पूरी दुनिया में फैला रखा है। इस राजा पर विजय पाना अत्यंत दुर्लभ व कठिन कार्य है। बड़े-बड़े सन्यासी भी मोह के प्रभाव में पथ भ्रमित हो लक्ष्य से भटके हैं। अन्नत जन्मों के संस्कार हमारे भीतर में जमे हुए हैं। इन संस्कारों की विद्यमानता से व्यक्ति मोह के जाल में फंसा हुआ है। अनेक लोग दुनिया में अकाल मृत्यु का ग्रास बनते हैं, परंतु जब कोई सगा-संबंधी मरता है तो परिजनों को दु:ख होता है। यह सब मोह के कारण ही होता है। व्यक्ति जब धर्म-ध्यान के द्वारा इन कर्मों को हलका करने का प्रयास करता है तभी प्रमाद, निंद्रा, तंद्रा, व आलस्य के माध्यम से मोहनीय कर्म उसके उदय में आते हैं व मन चंचल बनने लगता है। निरंतर जप, तप ध्यान, स्वास्थ्य व प्रभु सिमरण के द्वारा मानव अपने मन की एकाग्रता को स्थापित कर इस चक्रव्यूह में फंसने से बच कर मोक्षगामी बन बार-बार जन्म-मरण से मुक्ति प्राप्त कर सकता है।
जैन धर्म की उदारता :-
1. किसी भी आत्मा में मोक्ष की तीव्र अभिलाषा उत्पन्न होने पर वह एक दिन अवश्यमेव मोक्ष में पहुँचेगी।
2. इस प्रकार की भावना पैदा होने के लिए वह जैन ही हो ऐसी कोई बात नहीं।
जैन धर्म का दुश्मन होने पर भी अगर उसमें मोक्षेच्छा तीव्रता से उत्पन्न हो गई तो अंत में वह मोक्ष में जायेगा।
3. जिस भव में (जिस शरीर में) वह मोक्ष में जानेवाला हो उस भव में उसको जैन कुल में ही जन्म लेना चाहिए यह आग्रह भी नहीं है।
4. जिस शरीर से निकलकर वह मोक्ष में जानेवाला है उस शरीर में उन्होने जैनधर्म का कोई बड़ा गुनाह किया हो उसका विरोधी बना हो ऐसा भी संभवित है।
5. जैनधर्म को माननेवाला ही स्वर्ग में जायेगा और अन्य सब नरक में जायेंगे ऐसी जैनधर्म की मान्यता नहीं है।
6. जैन माता-पिता का पुत्र हो फिर भी उसका अयोग्य आचरण हो तो वह नरक में जायेगा और जैनकुल में नहीं जन्मा हुआ कोई जैन धर्म का पालन तो क्या पर जैन धर्म के नाम से परिचित न होने पर भी स्वर्ग में जा सकता है।
7. पर इतना तो सुनिश्चित है कि रागद्वेष से मुक्त बना हुआ कोई भी ‘जिन’ कहलाता है और उनका बतलाया हुआ धर्म ही ‘जैनधर्म’ है।