Sunday, 1 March 2015

मेरु पर्वत :- जिनेन्द्र मूर्तियों की प्रतिष्ठा के समय उनका पंच-कल्याण महोत्सव मनाया जाता है, जिनका संबन्ध तीर्थंकर के गर्भ, जन्म, तप, ज्ञान और निर्वाण, इन पांच महत्वपूर्ण घटनाओं से है। जन्म महोत्सव के लिये मन्दर मेरु की रचना की जाती है, क्योंकि तीर्थंकर का जन्म होने पर उसी महान् पर्वत पर स्थित पांडुक शिलापर इन्द्र उनका अभिषेक करते हैं। मन्दर मेरु का वर्णन त्रिलोक-प्रज्ञप्ति (४, १७८०) आदि में पाया जाता है। मन्दर मेरु जंबूद्वीप के व महाविदेह क्षेत्र के मध्य में स्थित है। यह महापर्वत गोलाकार है उसकी कुल ऊंचाई एक लाख योजन, व मूल आयाम १००९० योजन से कुछ अधिक है। इसका १००० योजन निचला भाग नींव के रूप में पृथ्वीतल के भीतर व शेष पृथ्वीतल से ऊपर आकाशतल की ओर है। उसका विस्तार ऊपर की ओर उत्तरोत्तर कम होता गया है, जिससे वह पृथ्वीतल पर १०००० योजन तथा शिखरभूमि पर १००० योजन मात्र विस्तार युक्त है। पृथ्वी से ५०० योजन ऊपर ५०० योजन का संकोच हो गया है, तत्पश्चात् वह ११००० योजन तक समान विस्तार से ऊपर उठकर व वहां से क्रमशः सिकुड़ता हुआ ५१५०० योजन पर सब ओर से पुनः ५०० योजन संकीर्ण हो गया है। तत्पश्चात् ११००० योजन तक समान विस्तार रखकर पुनः क्रम-हानि से २५००० योजन ऊपर जाकर वह ४९४ योजन प्रमाण सिकुड़ गया है। (१०००+५००+११०००+५१५००+११०००+२५०००=१००००० योजन। १०० योजन विस्तार वाले शिखर के मध्य भाग में बारह योजन विस्तार वाली चालीस योजन ऊंची चूलिका है, जो क्रमशः सिकुड़ती हुई ऊपर चार योजन प्रमाण रह गई है। मेरु के शिखर पर व चूलिका के तलभाग में उसे चारों ओर से घेरने वाला पांडु नामक वन है, जिसके भीतर चारों ओर मार्गों, अट्टालिकाओं, गोपुरों व ध्वजापताकाओं से रमणीक तटवेदी है। उस वेदी के मध्यभाग में पर्वत की चूलिका को चारों ओर से घेरे हुए पांडु वनखंड की उत्तरदिशा में अर्द्धचन्द्रमा के आकार की पांडुक शिला है, जो पूर्व-पश्चिम १०० योजन लम्बी व उत्तर-दक्षिण ५० योजन चौड़ी एवं ८ योजन ऊंची है। इस पांडुशिला के मध्य में एक सिंहासन है, जिसके दोनों ओर दो भद्रासन विद्यमान हैं। अभिषेक के समय जिनेन्द्र भगवान् को मध्य सिंहासन पर विराजमान कर सौधर्मेन्द्र दक्षिण पीठपर तथा ईशानेन्द्र उत्तर पीठ पर स्थित हो अभिषेक करते हैं।

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